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Madhya Pradesh ka itihas

मौर्य साम्राज्य की धार्मिक स्थिति (Religious Status of Mauryan Empire)

मौर्ययुग धार्मिक सहिष्णुता का युग था। यद्यपि इस समय के शासक स्वयं भिन्न-भिन्न धर्मों को मानते थे, किसी भी शासक ने बलपूर्वक अपने धार्मिक विश्वास को प्रजा पर थोपने का प्रयास नहीं किया। सभी धर्मावलम्बी स्वतन्त्र रूप से अपना-अपना धर्म मानते थे। तत्कालीन स्रोतों से इस समय तीन धर्मों के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं – ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म इसके अतिरिक्त अन्य छोटे-छोटे धार्मिक सम्प्रदाय भी थे।

ब्राह्मण धर्म

मध्यप्रदेश के मौर्यकालीन समाज में ब्राह्मण धर्म का अपना एक महत्व था जिसमें अन्य युगों की भांति, वैदिक तथा गृह्य अनुष्ठानों का प्राधान्य था। ब्राह्मण वर्ग यज्ञ कर्मकाण्डादि में लगे रहते थे। समकालीन ग्रन्थों में वैदिक सिद्धान्तों और अनुष्ठानों का जो उल्लेख हुआ है, उससे नन्द-मौर्य काल में उनकी प्राधान्यता सूचित होती है। अंगिरस, भारद्वाज, वाससेठ्ठ, कश्यप, भृगु आदि वैदिक ऋषगण ब्राह्मणों के पूर्वज और वैदिक मंत्रों के दृष्टा के नाम से प्रसिद्ध थे। अशोक ने अपने अभिलेख में जिन देव पूजकों का उल्लेख किया है, उनसे अभिप्राय उन्हीं ब्राह्मणों पुरोहितों से है जो यज्ञ किया करते थे लेकिन ये लोकधर्म से पृथक थे। बौद्ध ग्रन्थों में एक विशेष वर्ग के ब्राह्मणों का उल्लेख मिलता है जिन्हें ब्राह्मण-महाशाल कहा जाता था है। उनको राजदत्त भूमि की लगान मिला करती थी। ऐसे ब्राह्मण धनी थे और व्ययशील यज्ञों का अनुष्ठान करते थे। इन्हें ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मज्योति एवं प्रियभाषी और प्रियवाक् भी कहा गया है। अध्ययन-अध्यापन इनका प्रमुख कार्य था। सामाजिक दृष्टि से भी इनका स्थान उच्च था। अनेक ब्राह्मण बौद्ध धर्म से प्रभावित हो बौद्ध हो गये थे। अर्थशास्त्र में ‘देवताध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख मिलता है, जो मंदिरों और देवताओं की देखभाल करता था। देवताओं में अपराजित, अप्रतिहत, जयन्त, वैजयन्त, शिव, अश्विन, श्रीमदिरा (दुर्गा), अदिति, सरस्वती, सविता, अग्नि, सोम, कृष्ण, आदि देव-देवियों की पूजा प्रचलित थी। 

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म की मौर्यकाल में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। अशोक मूलतः पूर्व में सनातन धर्म का अनुयायी था लेकिन कलिंग युद्ध की विभीषिका ने अशोक का हृदय परिवर्तन कर दिया। बौद्ध धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित होकर उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया। भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा संरक्षक अशोक ही था। अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म के उत्थान और प्रसार में रूचि ली। बौद्ध संघ में व्याप्त मतभेदों को दूर करने के लिए उसने बौद्धों की तीसरी संगीति पाटलिपुत्र में बुलायी। फूट डालने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था की। अवन्ति प्रदेश से भी इस संगीति में अनेक बौद्धाचार्य सम्मिलित हुए। साँची स्तम्भ लेख जो भिक्षु भिक्षुणियाँ संघ में भेद डाल रहे थे उनके विरूद्ध चेतावनी देता है और एक जुट होने का संकेत देता है। गुर्जरा, रूपनाथ व पानगुड़ारिया के अभिलेख से अशोक की धर्मयात्राओं के बारे जानकारी प्राप्त होती है, कि अशोक ने मध्यप्रदेश की धार्मिक यात्रा की थी। निश्चय ही ये स्थल बौद्ध धर्म के बड़े केन्द्र रहें होंगें।

अशोक ने उज्जयिनी में ग्यारह वर्ष तक प्रान्तीय शासक के रूप में कार्य किया था। यही कारण है कि अशोक का मध्यप्रदेश से विशेष लगाव था। अशोक ने तथागत बौद्ध की अस्थियों पर बनाये गये आठ प्रारम्भिक स्तूपों में से सात को खुलवाया और उनमें रखे हुए धातुओं को निकाल कर चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण किया। देउरकुठार, उज्जयिनी, विदिशा के समीप साँची व सतधारा में विशाल स्तूपों व विहारों का निर्माण किया। साँची (जिला रायसेन), रूपनाथ (जिला जबलपुर), गुर्जरा (जिला दतिया) एवं पानगुड़ारिया (जिला सीहोर), कसरावद, माहिष्मती आदि स्थानों से भी मौर्यकालीन पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जो मध्यप्रदेश में बौद्ध धर्म के प्रसार में अशोक के व्यक्तिगत रुचि को प्रदर्शित करते हैं।

जैन धर्म

प्राचीन काल से ही मध्यप्रदेश में जैन धर्म का प्रभाव रहा है। उल्लेख मिलता है कि अवन्ति महावीर वर्द्धमान की उपसर्ग-जयी तपोभूमि होने से तीर्थस्थली बन गई थी। मौर्यकाल में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय जैन धर्म एक प्रभावी धर्म था और उन्होंने भद्रबाहु से प्रभावित होकर जैन धर्म ग्रहण कर लिया था। एक समय राज्य काल में बारह वर्ष का अकाल (दुर्भिक्ष) पड़ गया जिससे दुखी होकर चन्द्रगुप्त अवन्ति होते हुए श्रवणबेलगोला चले गये। चन्द्रगुप्त के समय सबसे महत्वपूर्ण घटना घटित हुई कि जैन धर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। तत्पश्चात् अशोक के प्रपौत्र सम्प्रति ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में बहुत योगदान दिया। जैन धर्म का विकास यहीं से दक्षिण-पश्चिम में हुआ। सम्प्रति सच्चे अर्थों में जैन धर्म का उपासक था। उसने जैनाचार्य सुहस्ति से धर्म दीक्षा ली। आचार्य की आज्ञानुसार उज्जयिनी के समीप प्रान्तीय प्रदेशों में भी साधुओं के लिए विहार बनवाये। साढ़े पच्चीस देशों में उसने जैन धर्म के प्रचार तथा प्रसार के लिए श्रमणकों और सैनिकों को साधुवेश में भेजा ऐसा उल्लेख मिलता है। इसमें चेष्टि और बेसनगर भी आता है। श्रमणों को सामग्री बिना कष्ट के प्राप्त हो इसलिए सम्प्रति ने वस्तु – विक्रेताओं को आदेश दिया कि श्रमणों को इच्छित वस्तु प्रदान की जाए, तथा उस वस्तु का मूल्य राजकोष से दिया जाय। इसके पूर्व जैन साधु तथा श्रमण भिक्षावृत्ति द्वारा  दैनन्दिन की अवश्यकताएँ पूर्ण करते थे। इस प्रकार साधु और श्रमणों की सांसारिक सुविधा के लिए अनेक सराहनीय कार्य किए। सम्प्रति के इस कार्य से प्रभावित होकर सभी वर्गों के अधिकांश लोगों ने इस धर्म को अंगीकार किया। जैनधर्म ग्रन्थों में उल्लिखित तीर्थंकरों तथा प्रसिद्ध धार्मिक श्रमणों की पूजा तथा श्रद्धा का समन्वित रूप इस समय यहाँ उज्जयिनी प्रवर्तित उत्सवों में दृष्टिगोचर होता है। उज्जयिनी में चैत्ययात्रोत्सव चैत्रमास में मनाया जाता था। उत्सव को देखने दूरस्थ प्रदेशों के लोग यहाँ आते थे। सम्प्रति के समय में इस उत्सव में भाग लेने पाटलिपुत्र से जैनाचार्य सुहस्ति तथा महागिरि उज्जैन आये थे। इसी अवसर पर सम्प्रति ने सुहस्ति से दीक्षा ली थी। उत्सव में जीवन्तस्वामी की प्रतिमा पर विशाल उत्सव का आयोजन किया जाता था। 

 

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मौर्य साम्राज्य की शिक्षा व्यवस्था (Education System of Mauryan Empire)

शिक्षा व्यवस्था (Education System)

प्राचीन काल से उज्जयिनी शिक्षा का केन्द्र रही है। मौर्य काल मे बौद्धों एवं जैनों के विशिष्ट प्रभाव से शिक्षा व्यवस्था विहारों और मठों में थीं। ब्राह्मण धर्म के लोग अपने पुत्रों को शिक्षा हेतु ऋषि-महर्षियों के आश्रमों में भेजते थे। राज्य शासन की ओर से शिक्षा के केन्द्र बने हुए थे जिनके आचार्यों को राजकोष से वेतन मिलता था। राजा की ओर से वानप्रस्थ आचार्यों को भी आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता था।

उज्जयिनी में सांदीपनि आश्रम शिक्षा का केन्द्र रहा है। यहाँ धर्मशास्त्रों से संबन्धित शिक्षा दी जाती रही। लेकिन इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम बौधायन धर्मसूत्र में उल्लेख मिलता है कि अवन्ति प्रदेश में ब्राह्मण आचार्यों को यात्रा नहीं करना चाहिए। इससे ज्ञात होता है कि जैन और बौद्ध धर्म की शिक्षा के प्रति लोगों का झुकाव अधिक हो गया था। साथ ही अनेक ब्राह्मण परिवारों ने जैनधर्म और बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था।

राजा प्रद्योत के पुरोहित महाकात्यायन ने स्वयं तथागत से प्रभावित हो कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और इसके प्रचार-प्रसार हेतु अनेक बौद्ध शिक्षा के केन्द्र खुलवाये थे। इसी परम्परा में मौर्य युग ने इसे और प्रोत्साहन दिया। राज्य द्वारा स्थापित बौद्ध मठों में शिक्षा का प्रमुख विषय गौतम बुद्ध के उपदेश तथा व्याख्यान थे। विद्यार्थियों की रूचि के अनुसार शिक्षा दी जाती थी। 

राजकुमार अशोक, महेन्द्र, संघमित्रा, कुणाल और सम्प्रति ने अपनी शिक्षा उज्जयिनी में प्राप्त की थी जिसकी पुष्टि कालान्तर में ई. सन् सातवीं में ह्वेनसाँग के यात्रा विवरण से होती है। उसने लिखा है कि उज्जयिनी में 300 से अधिक विद्यार्थी हीनयान एवं महायान का अध्ययन करते थे। 

सम्राट् अशोक ने उज्जयिनी में एक महाविद्यालय की स्थापना की थी, जिसमें बौद्ध धर्म, ज्योतिष तथा नक्षत्र विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। दिव्यावदान में उल्लेख है कि उज्जयिनी में प्रभाव डालने वाले उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में नगर समृद्धशाली हो जायेगा। अशोक के काल में भारत के ज्योतिषि केन्द्र के रूप में उज्जयिनी प्रसिद्ध हो गई थी। भूमध्य रेखा से याम्योत्तर वृत्त-रेखांशों का परिगणन प्रायः इसी समय से प्रारम्भ हुआ। 

उज्जयिनी प्रमुख रूप से बौद्ध धर्म के थेरवाद शाखा का केन्द्र था। यहाँ भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ बौद्ध धर्म का अध्ययन करते थे और बौद्ध धर्म में निष्णात भिक्षुओं को धर्म प्रचार हेतु विदेशों में भेजा जाता था। अशोक ने बौद्ध धर्म और मानव धर्म की शिक्षा को बिहारों तक ही सीमित नहीं रखा अपितु शिलालेखों तथा अभिलेखों द्वारा बिना गुरु के माध्यम से जन-सामान्य तक पहुँचाने का प्रयास किया। जन-सामान्य की भाषा ही शिक्षा का माध्यम रही है। इस काल में शिक्षा का सम्भवतः उचित प्रबन्ध था और इस समय के बहुत से लोग शिक्षित थे। अशोक ने अपने शिलालेखों में और स्तम्भ लेखों पर जो सिद्धान्त लिखवाए थे वे जन साधारण के लिए ही थे ताकि लोग उन्हें पढ़कर जीवन में उन पर अमल करें।

 

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मौर्य साम्राज्य की सामाजिक व आर्थिक स्थिति (Social and Economic Status of Mauryan Empire)

मौर्य साम्राज्य की सामाजिक स्थिति (Social Status of Mauryan Empire)

भारत के अन्य क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की भांति ही मध्य प्रदेश की परम्परागत सामाजिक व्यवस्था थी। मौर्यकालीन समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था और जाति व्यवस्था पूर्णतया विकसित हो गई थी। चारों वर्ण अनेक जातियों में विभक्त थे। जिनके कार्य एवं व्यवसाय परम्परागत ही थे। शिलालेखों से विदित होता है कि समाज में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय वर्ग का सम्मान अधिक था। जाति प्रथा का स्वरूप भी बड़ा जटिल था। जातियों में आपसी लेन-देन और खान-पान लगभग समाप्त हो गया था। 

मेगस्थनीज ने उस युग के समाज को सात जातियों में विभाजित बताया है, जिसमे दार्शनिक, कृषक, पशुपालक, कारीगर, योद्धा, निरीक्षक और मंत्री थे। वस्तुतः यह विभाजन कार्यों और विभिन्न व्यवसायों के आधार पर सोचा गया था। उस समय मुख्यतया चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र थे। इसके अतिरिक्त वर्णसंकर जातियों में अम्बष्ठ, पारसव, सूत, वैदेहक, रथकार, चाण्डाल आदि जातियाँ थी। चाण्डाल नगर के बाहर रहते थे। उज्जयिनी का समीपस्थ चाण्डाल नगर प्रसिद्ध था। अशोक के अभिलेख और बौद्ध साहित्य से प्रकट होता है कि जाति प्रथा और सामाजिक व्यवहार में अभी काफी लचक थी। लोग अपना व्यवसाय बदल सकते थे। 

मौर्य साम्राज्य की आर्थिक स्थिति (Economic condition of Mauryan Empire)

मौर्ययुग सम्पन्नता का युग था। राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और वाणिज्य-व्यापार पर आधारित थी। इनको सम्मलित रूप में ‘वार्ता’ कहा गया है। इनमें कृषि का महत्व सबसे अधिक रहा है क्योंकि देश की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी। इसलिए प्राचीन भारतीय शिक्षणालयों में यह विषय शिक्षा का अनिवार्य अंग था। कृषि व्यवस्था लोक जीवन का आधार ही नहीं, बल्कि सभ्यता और संस्कृति के विकास का सर्वप्रथम सोपान माना गया है। उसने मानवीय जीवन में स्थायित्वता प्रदान की। मध्य प्रदेश के वर्तमान समय में भी मानव के आर्थिक विकास का मुख्य आधार कृषि ही है।

 

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मौर्य साम्राज्य की शासन व न्याय व्यवस्था (Governance and Justice System of Mauryan Empire)

मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था (Administrative System of Mauryan Empire)

चन्द्रगुप्त मौर्य एक वीर, योग्य, प्रतिभाशाली और सफल शासक था। उसने अपने विस्तृत साम्राज्य को संगठित शासन-व्यवस्था से सुदृढ़ किया। विशाल साम्राज्य को स्थायी बनाने के लिए शासन-व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया। जो शासन व्यवस्था उसने निर्मित की वह इतनी श्रेष्ठ और लाभप्रद हुई कि चन्द्रगुप्त के बाद के राजाओं ने उसका अनुकरण किया और शासन प्रबन्ध की आदर्श बन गई। इस शासन व्यवस्था में कौटिल्य (चाणक्य) का बड़ा ही सहयोग रहा। चन्द्रगुप्त के प्रशासन के प्रमुख तीन भाग थे-
1. केन्द्रीय शासन
2. प्रान्तीय शासन और
3. स्थानीय शासन 

केन्द्रीय शासन (Central Government)

राजा केन्द्रीय शासन का सर्वोच्च अधिकारी सम्राट् होता था। इसके परामर्श एवं सहयोग हेतु मंत्रिपरिषद् होती थी। यह व्यवस्था केन्द्रीय राजधानी मगध से संचालित थी। चन्द्रगुप्त मौर्य वहीं पर वैठकर शासन संचालित करता था। शासन व्यवस्था अनेक उपविभागों में विभक्त थी। मौर्यकाल में शासन के विविध विभागों को तीर्थ कहा जाता था। इनकी संख्या अठारह थी। इन तीर्थों के अधीन विभिन्न विभागों के विभागाध्यक्ष कार्य करते थे। ये सभी मंत्रिपरिषद के सदस्य होते थे ।

प्रान्तीय शासक (Provincial Ruler)

मध्यप्रदेश में अवन्तिराष्ट्र प्रमुख प्रान्त था जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी। यहाँ का शासन राजकुमारों के अधीन था। प्रान्तीय शासक राजवंश से सम्बिन्धित ही होते थे। प्रान्तीय शासक प्रमुख रूप से सम्राट् के आधिपत्य में थे। वे सम्राट् की आज्ञा का उलंघन नहीं कर सकते थे। प्रान्तीय शासक सम्राट् को अवश्यकता के समय सैनिक सहायता देते थे। यदा-कदा प्रान्तों में विद्रोह हो जाते थे तब केन्द्रीय सेना वहाँ का विद्रोह शान्त करती थी। प्रान्तीय शासन की कार्य प्रणाली पर सम्राट् के प्रमुख कर्मचारी और गुप्तचर तीक्ष्ण दृष्टि रखते थे। वे गुप्त रूप से प्रान्तों की सूचना सम्राट् को भेजते रहते थे। 

स्थानीय शासन (Local Government)

प्रत्येक प्रान्त में कई जनपद अथवा नगर हुआ करते थे। नगर के मुखिया को नगर अध्यक्ष या प्रादेशिक कहा जाता था। इससे नगर में शान्ति स्थापित करना, भूमिकर तथा अन्य कर एकत्रित करना, शिक्षा का प्रबन्ध करना, कृषि एवं सिंचाई के प्रबन्ध की देखभाल करना, जंगलों तथा खानों का प्रबन्ध करना आदि कार्य होते थे। उसकी सहायता के लिए कई अधिकारी हुआ करते थे। यह समाहर्ता के प्रति उत्तरदायी होता था। जनपद के निम्नांकित विभाग थे। एक स्थानीय के अन्तर्गत 800 ग्राम हुआ करते थे। स्थानीय के अन्तर्गत दो द्रोणमुख 400-400 ग्राम के होते थे। द्रोणमुख के अन्तर्गत दो खार्वटिक 200 – 200 ग्राम तथा खार्वटिक के अन्तर्गत 20 संग्रहण होते थे। प्रत्येक संग्रहण में 10 ग्राम होते थे। संग्रहण का अधिकारी गोप हुआ करता था। इस प्रकार ग्राम ही साम्राज्य की सबसे छोटी ईकाई थी। इसके संचालन हेतु अनेक अधिकारी, कर्मचारी हुआ करते थे। 

मौर्य साम्राज्य की न्याय व्यवस्था (Judicial System of Maurya Empire)

मौर्य शासन में सम्राट् ही सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। लेकिन सम्पूर्ण साम्राज्य में अनेक न्यायालय होते थे। प्रमुख न्यायालय पाटलिपुत्र में था लेकिन अन्य छोटे न्यायालय स्थानीय शासन पर भी थे। ये न्यायालय दो प्रकार के थे।
1. धर्मस्थीय तथा
2. कण्टकशोधन
इनमें तीन – तीन न्यायाधीश बैठकर न्याय करते थे। चन्द्रगुप्त के शासनकाल में उज्जयिनी अत्यन्त समृद्धशाली नगरी माने जानी लगी थी। अशोक ने अपराधियों के दण्ड के लिए उज्जैन में एक नरक-घर बनवाया था जो आज भी विद्यमान है, जिसमें भेरूगढ़ जेल संचालित है। साम्राज्य के प्रमुख नगर तुमैन, बेसनगर, दशपुर और उज्जयिनी, त्रिपुरी थे। ये न्यायालय प्रान्तीय, स्थानीय, द्रोणमुख, खार्वटिक स्तर तक की पृथक-पृथक होती थी। 

 

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अशोक “प्रियदर्शी” (273 – 236 ईसा पूर्व)

बिन्दुसार की मृत्यु पश्चात् सुयोग्य पुत्र अशोक (Ashoka) विशाल मौर्य साम्राज्य के राजसिंहासन पर बैठा। वह केवल मौर्य वंश का ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास का सबसे महान् सम्राट् माना जाता है।

प्रारम्भिक जीवन – बिन्दुसार की अनेक रानियाँ और पुत्र-पुत्रियाँ थीं। उनके ज्येष्ठपुत्र का नाम सुमन या सुसीम था। बिन्दुसार की सुभद्रांगी नामक एक और रानी थी। इस रानी से बिन्दुसार के दो पुत्र हुए, अशोक (Ashoka) और विगताशोक। अशोक सुसीम से छोटा और शेष भाइयों में सबसे बड़ा था। अशोक का जन्म 294 ई. पूर्व में हुआ था। अशोक बचपन से ही अधिक बुद्धिमान, तेजस्वी, योग्य और प्रतिभावान था। अशोक के स्वभाव के विषय में अनेक उल्लेख मिलते हैं, उसे बौद्ध साहित्य में चण्ड, और क्रोधी राजा के रूप में चित्रित किया गया है। उन बौद्ध ग्रन्थों ने बाद में उसे धम्मराजा, देवानांप्रिय, चण्डाशोक, कालाशोक नाम भी दिए हैं। अशोक द्वारा अपने भाईयों का वध, अशोक नरकागार में अपराधियों का वध आदि के कारण ही संभवतः उसे चण्ड अभिहित किया गया है। पुराणों में ‘अशोकवर्द्धन’, अभिलेखों में ‘देवानामप्रिय’, प्रियदर्शी, दीपवंश में प्रियदर्शी एवं प्रियदर्शन कहा गया है लेकिन मास्की, मध्यप्रदेश के गुजरी अभिलेख एवं कर्नाटक के कनगनहल्ली से प्राप्त अशोक नामांकित उत्कीर्ण प्रतिमा में ‘अशोक’ नाम का उल्लेख मिलता है। ऐसा जान पड़ता है कि उसका प्राथमिक नाम अशोक था, ‘प्रियदर्शी’ व ‘प्रियदर्शन’ उसकी उपाधियाँ थीं। कलिंग युद्ध के पश्चात् जब उसने बौद्ध धर्म अपना लिया तब उसे देवानांप्रिय तथा धम्मराजा सम्बोधन प्राप्त हुए। अशोक ने अपने शिलालेखों में भी स्वतः के लिए धम्मराजा और प्रिय उल्लिखित करवाया है।

साम्राज्य विस्तार – सम्राट् बनने के पश्चात् अशोक ने साम्राज्यवादी नीति को अपनाया। दिग्विजय द्वारा भारत में साम्राज्य का विस्तार करना चाहा। इस हेतु उसने अनेक प्रदेशों पर आक्रमण कर मौर्य साम्राज्य में मिला लिया जिसमें विशेषकर कश्मीर और कलिंग वो राज्य थे जो मौर्य साम्राज्य के बाहर थे। इन विजयों के परिणाम स्वरूप मौर्य साम्राज्य की सीमाएँ उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश और कश्मीर से लेकर दक्षिण-पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैल गई थीं। समस्त उत्तरी भारत और मध्य प्रदेश अशोक के साम्राज्य के अन्तर्गत था। उसने भारत के ही नहीं बल्कि विदेशी राज्यों के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए। 

कलिंगयुद्ध और मध्यप्रदेश (Kalinga war and Madhya Pradesh)

सम्राट अशोक ने अपनी राज्य सीमाओं के विस्तार हेतु 262 – 261 ईसा पूर्व में कलिंग राज्य पर आक्रमण किया। यह मगध राज्य की सीमाओं के पार बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित था। कलिंग की सेना ने वीरता पूर्वक अशोक का सामना किया। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। कलिंग देश के निवासी अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक लड़े अन्त में विजयश्री अशोक के हाथ लगी। उसने कलिंग को अपने साम्राज्य में मिला लिया। 

इस युद्ध के परिणाम से मध्यप्रदेश भी प्रभावित हुए नहीं रह सका। कारण कि युद्ध में हुए लाखों लोगों के नरसंहार के कारण अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ और उसने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अब अशोक ने संघर्ष और साम्राज्य विस्तार की नीति त्याग दी। उसने निश्चय किया कि वह भविष्य में राज्य विस्तार के लिए युद्ध न करेगा। भेरिघोष (युद्ध के नगाड़े का शब्द) के स्थान पर अब वह धर्मघोष (धर्म प्रचार की घोषणा) करेगा। सबसे मैत्री और सद्भावना पूर्वक व्यवहार करेगा। अशोक ने केवल स्वयं युद्ध न करने का दृढ़ संकल्प किया, अपितु उसने अपने मित्रों, पुत्रों और पोत्रों को भी युद्ध न करने के आदेश दिए। अब उसकी नीति में युद्ध नीति के स्थान पर धर्म की नीति की विजय हुई। यही कारण है कि मध्यप्रदेश में अशोक कालीन बौद्धधर्म के पुरावशेष बहुसंख्यक रूप में पाये गये। 

बौद्ध धर्म के प्रभाव से ही अशोक ने अपनी प्रजा को पुत्रवत् समझा, लोक कल्याण के अनेकानेक कार्य किए और अपनी प्रजा को धार्मिक तथा आध्यात्मिक उन्नति करने में तथा उसका नैतिक स्तर अत्याधिक ऊँचा उठाने में उसने राज्य की सारी शक्ति और समस्त साधन लगा दिए। बौद्ध स्तूप, चैत्य, विहार आदि बनवाये जिससे कला को बहुत प्रोत्साहन मिला। इस युग में शांति, अहिंसा, नैतिकता, पवित्रता, सहिष्णुता, उदारता और धर्म प्रचार की प्रधानता रही। देश की अर्थिक समृद्धि, सामाजिक प्रगति और सूत्रधार में वृद्धि हुई।

अशोक की मृत्यु 236 ईसा पूर्व के लगभग हुई। उसके पश्चात् लगभग पचास वर्षों तक उसके कई उत्तराधिकारियों ने शासन किया। पुराणों, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में अशोक के उत्तराधिकारियों की विभिन्न सूचियाँ दी गई हैं लेकिन इन सूचियों के आधार पर मध्यप्रदेश के क्रमिक इतिहास का अध्ययन करना कठिन है।

अशोक के चार पुत्र थे – महेन्द्र, तीवर, कुणाल तथा जालौक। अशोक की मृत्यु पश्चात् मौर्य साम्राज्य का विभाजन हो गया था। महेन्द्र बौद्ध भिक्षु हो गया था। तीवर की मृत्यु हो गई थी। अशोक के राज्यकाल में कुणाल उज्जयिनी का प्रान्तीय शासक था। अशोक ने अपने पुत्र कुणाल की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध उज्जयिनी में ही किया था। वह अत्यन्त योग्य शासक था। उसने यहाँ का शासन सुचारु रूप से किया। उसके विद्याध्ययन से सम्बन्धित निर्देश अशोक भेजा करता था। वह अत्यन्त सुन्दर और गन्धर्व विद्या में प्रवीण था। बौद्ध और जैन ग्रन्थों में उसे अन्धा चित्रित किया है। उसके अन्धत्व से सम्बन्धित कथाएँ मिलती हैं। एक कथा के अनुसार अशोक की एक अन्य रानी ने द्वेषपूर्व कुणाल की आँखों की ज्योति नष्ट करवा दी थी। इसे जानकर अशोक बहुत दुखित हुआ। उसने अवन्ति प्रदेश के कुछ ग्राम और उनसे प्राप्त कर आदि सभी कुणाल को देने की आज्ञा प्रदान की।

वायुपुराण के अनुसार उज्जैन में अशोक के पुत्र कुणाल ने आठ वर्ष तक राज्य किया। अशोक की मृत्यु पश्चात् वह यहाँ पर प्रान्तीय शासक के रूप में शासन करता रहा। इसके पश्चात् उसका पुत्र सम्प्रति उज्जयिनी का प्रान्तीय शासक हुआ। 

मौर्ययुगीन अन्य शासक

सम्प्रति के पश्चात् पारस्परिक गृहकलह से मौर्य साम्राज्य शिथिल हो गया। उसके उत्तराधिकारी राजकार्य ठीक ढंग से नहीं चला पा रहे थे। सम्प्रति के पश्चात् मौर्य वंश का इतिहास साहित्यिक ग्रन्थों में बहुत ही कम मिलता है। पुराणों और बौद्ध ग्रन्थों में दशरथ (बंधुपालित), शालिशुक, देवशर्मन्, शतधन्वन् तथा बृहद्रथ का नामोल्लेख मिलता है। दशरथ ने नौ वर्षों तक राज्य किया। दशरथ का उत्तराधिकारी शालिशुक था। गार्गी संहिता के युगपुराण में उसके विषय में उल्लेख मिलता है कि उसने धर्म विजय की नीति अपनायी थी। शालिशुक स्वयं भी अच्छा योद्धा था। वह सब धर्मों को आदर देता था। लेकिन उसके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। शालिशुक के उत्तराधिकारी देववर्मन् के साथ तदन्तर शतधन्वन् ने आठ वर्ष राज्य किया। 

मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक बृहद्रथ था। बृहद्रथ भी एक बौद्ध शासक था। उसका सेनापति पुष्यमित्र शुंग अत्यन्त चालाक एवं कुशल प्रशासक था। सम्पूर्ण सेना पुष्यमित्र के हाथों में थी। शासक से रुष्ट होकर सेनापति ने षडयन्त्र पूर्वक सेना के निरीक्षण करते समय राजा बृहद्रथ की 187 ईसा पूर्व में हत्या कर दी। राजा की हत्या के कारण राज्य में विद्रोह नहीं हो सका और इस तरह मौर्य वंश का शासन हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

 

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बिन्दुसार (Bindusara) (298-273 ईसा पूर्व)

चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। बिन्दुसार (Bindusara) के अनेक नाम मिलते हैं- जैसे भद्रसार, वारिसार, अमित्रघात, एमित्रोचेटस। बिन्दुसार (Bindusara) के जीवन और उपलब्धियों के विषय में अधिक साक्ष्य प्राप्त नहीं होते लेकिन यह स्पष्ट है कि वह एक महान योद्धा था। उसने अपने पिता से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त विशाल साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा। परिस्थितिनुसार उसने शक्तिशाली शत्रुओं को भी पराजित कर दिया था। बिन्दुसार (Bindusara) का प्रमुख सलाहकार आचार्य कौटिल्य ही था, जिसकी सहायता से सोलह राज्यों पर विजय प्राप्त की थी।

प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता की राज्य-व्यवस्था का ही अनुगमन किया और अपने साम्राज्य को अनेक प्रान्तों में विभाजित किया तथा प्रत्येक प्रान्त में ‘कुमार’ नियुक्त किए। बिन्दुसार के शासनकाल में प्रान्तीय राजधानियों तक्षशिला और अवन्ति पर समीपस्थ प्रान्त के लोगों ने विद्रोह कर दिया था। तक्षशिला में प्रान्तीय शासक सुसीम था। वह विद्रोह न दबा सका तब बिन्दुसार ने अशोक को भेजा अशोक ने वहाँ पहुँचकर विद्रोह को सफलता पूर्वक शान्त किया। इसी से प्रभावित होकर बिन्दुसार ने अशोक को अवन्ति भेजा। बिन्दुसार की मृत्यु लगभग 269 ईसा पूर्व में हो गई। तत्पश्चात् राजसिंहासन प्राप्त करने के लिए राजकुमारों में संघर्ष छिड़ गया। अशोक ने अपने भाई सुसीम और उसके साथियों का वध कर इस उत्तराधिकार के युद्ध में विजयश्री प्राप्त की। उत्तराधिकार के युद्ध में विजयश्री प्राप्त कर अशोक का राज्याभिषेक 269 ईस्वी पूर्व हुआ। उसके अन्य भाइयों के विरोध के चलते शासन प्रारम्भ करने में चार वर्ष का बिलम्ब हुआ । 

बौद्ध ग्रन्थों का कथन है कि अशोक ने अपने 99 भाईयों का वध कर मगध का सिंहासन प्राप्त किया। पुराणों के अनुसार बिन्दुसार ने 25 वर्ष राज्य किया जबकि सिंहली परम्परा में उसका राज्य 28 वर्ष का उल्लिखित है। 

 

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मध्य प्रदेश में मौर्य साम्राज्य

मौर्य साम्राज्य (324-187 ईसा पूर्व) [Maurya Empire (324–187 BC)]

प्राचीन भारतीय इतिहास में मौर्यकाल का विशिष्ट महत्व हैं। यह वह काल है जिससे इतिहास का एक नया युग प्रारम्भ हुआ है। इस युग में पहली बार एक राजनीतिक सत्ता के अन्तर्गत सम्पूर्ण भारत का राजनीतिक एकीकरण हुआ था जिसने अपनी भौगोलिक सीमा के बाहर स्थित भूमि पर भी अपने प्रभुत्व का दावा किया। मौर्य शासकों ने एक ऐसी प्रशासन प्रणाली विकसित की थी जिसकी व्यवहारिकता आज भी प्रासंगिक है।

मौर्यकाल के प्रमुख शासक इस प्रकार रहे –  

मौर्यकाल का शासन व्यवस्था इस प्रकार रही थी –  

 

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मध्य प्रदेश में नन्द मौर्य युग

नन्द वंश (364 – 324 ईसा पूर्व) (Nanda Dynasty)

  • संस्थापक – नरेश महापद्मनन्द
  • अन्तिम शासक – धनानन्द

नन्द वंश (Nanda Dynasty) का संस्थापक नरेश महापद्मनन्द था। पुराणों में उसे ‘उग्रसेन’ कहा गया है। वह बड़ा योग्य, साहसी और महत्वाकांक्षी सम्राट् था। मगध के पूर्व नरेशों ने मगध साम्राज्य के विस्तार का जो कार्य प्रारम्भ किया था उसे महापद्मनन्द ने पूर्ण किया। जैन ग्रन्थ उसे एक नाई और वेश का पुत्र बताते हैं। यूनानी लेखकों के अनुसार वह एक नाई और शिशुनाग वंश (Shishunaga Dynasty) के अंतिम राजा की एक रानी का पुत्र था। पुराण उसे नाग वंश (Naag Dynasty) के अंतिम राजा महानन्दी और उसकी एक शूद्र पत्नी का पुत्र बताते हैं। अतः इतना तो स्पष्ट है कि वह शूद्र वर्ण का था।

पुराणों के अनुसार महापद्मनन्द ने सभी क्षत्री कुलों के राज्यों को नष्ट कर दिया। इक्ष्वाकु, पांचाल, हैहय, कलिंग, अस्सक, कुरू, मैथिल, शूरसेन आदि सभी राजवंशों के राज्य मगध राज्य में सम्मिलित कर लिए गये। इस प्रकार पंजाब से पूर्व का सम्पूर्ण भारत, मालवा, मध्यप्रदेश, कलिंग तथा दक्षिण में गोदावरी नदी तक का क्षेत्र नन्द राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। इस कार्य का श्रेय महापद्मनन्द को जाता है। महापद्मनन्द ने बिम्बिसार द्वारा प्रारम्भ किए गये कार्य की पूर्ति की। मगध को भारत का सर्व-शक्तिशाली एवं विस्तृत राज्य बना दिया और भारतीय इतिहास में साम्राज्यों के युग का सूत्रपात किया।

नन्दवंश के नौ राजाओं ने मगध पर राज्य किया। लेकिन इस सन्दर्भ में ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त नहीं होते कि मध्य प्रदेश से इनका क्या सम्बन्ध रहा। केवल अन्तिम शासक धनानन्द का उल्लेख मिलता है कि वह सिकन्दर का समकालीन था जिसके साम्राज्य की सीमाएँ दूर-दूर तक थी जिसमें अवन्तिराष्ट्र सम्मिलित था। वह एक शक्तिशाली सम्राट् था। इसी धनानन्द को सिंहासन से हटाकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध का राज्य प्राप्त किया।

 

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मध्य प्रदेश के प्राचीन अभिलेख (Ancient Records of Madhya Pradesh)

पत्थरों (Stones) और ताम्रपत्रों (Copperplates) पर उत्कीर्ण शिलालेख (Inscription) मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के पुनर्निर्माण का एक प्रमुख पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources) है। अब तक प्राप्त अभिलेखों की कालक्रमानुसार रूपरेखा निम्नाकिंत है : –

मध्य प्रदेश में मौर्य कालीन अभिलेख (Maurya Period Records in Madhya Pradesh)

अशोक के समय के तीन राजाज्ञा पाषाण लेख जो रूपनाथ, गुजर्रा और पानगुड़ारिया से मिले हैं, और एक धमदिश साँची में है, मध्य प्रदेश में उपलब्ध सबसे प्रारम्भिक पुरालेखीय अभिलेख हैं। 

  • इसके साथ मौर्य ब्राह्मी लिपि के मिले-जुले शिलालेख जो कारीतलाई, खरबई, तालपुरा, भीयांपुर, सांची, नलपुरा और पानगुड़ारिया से मिले हैं, इस ओर संकेत करते हैं कि मध्यप्रदेश मौर्य साम्राज्य का अभिन्न भाग था।

मध्य प्रदेश में सातवाहन कालीन अभिलेख (Satavahana Period Records in Madhya Pradesh)

दक्षिण के सातवाहनों ने अपने राज्य को दूर-दूर तक फैलाया था उसमें मध्य प्रदेश का कुछ भाग भी सम्मिलित था। इस काल से संबन्धित एक अभिलेख साँची में उत्कीर्ण पाया गया है। 

मध्य प्रदेश में इन्डो-ग्रीक कालीन अभिलेख (Indo-Greek Period Records in Madhya Pradesh) 

बेसनगर (विदिशा) स्थित गरुड़-स्तम्भ लेख में भागभद्र को शासनकाल में यवनशासक अन्तिलिकित के राजदूत हेलियोदोर द्वारा गरुड़-ध्वज स्थापना का उल्लेख मिला है।

मध्य प्रदेश में शक कालीन अभिलेख (Shak Period Records in Madhya Pradesh)

शकक्षत्रपों का मध्य प्रदेश में प्रवेश उज्जैन और मालवा के कई स्थानों से मिले बहुत से सिक्कों से पुष्ट हुआ है।  क्षत्रपों से सम्बंधित एक छोटा सा अभिलेख उज्जैन से मिला है। एरण और कानाखेड़ा में शक श्रीधरवर्मन के दो अभिलेख मिले हैं।

मध्य प्रदेश में कुषाण कालीन अभिलेख (Kushan Period Records in Madhya Pradesh)

मध्य प्रदेश में दो कुषाण अभिलेख अलग से मिले हैं। इनमें से एक वासिष्क का साँची से और दूसरा जबलपुर में भेड़ाघाट से मिला है। इन दो अभिलेखों और कुछ सिक्कों के आधार पर, मध्यप्रदेश में कुषाण राज्य का कितना विस्तार हुआ, यह बता पाना कठिन है।

मध्य प्रदेश में गुप्त कालीन अभिलेख (Gupta Period Records in Madhya Pradesh)

समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख से ज्ञात होता है कि अपने विजय अभियान के अन्तर्गत उसने मध्यप्रदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया था। एरण से मिले एक अभिलेख के अनुसार शहर के आस-पास का क्षेत्र ‘स्वभोग-नगर’ कहलाता था जहां समुद्रगुप्त विश्राम करने के लिये आता था।

  • उदयगिरी की पहाड़ियों में प्राप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय के सांधिविग्रहिक, वीरसेन का अभिलेख भी एक महत्वपूर्ण लिखित साक्ष्य है। 
  • इसी क्षेत्र में चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामंत सनकानिक महाराज का भी एक अभिलेख मिला है। इसे गुप्त संवत् 82 (401-2 ई.) का माना गया है। 
  • गुप्त संवत् 93 का एक अभिलेख साँची से भी प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में चन्द्रगुप्त के एक कर्मचारी, आम्रकार्दव का उल्लेख है, जिसने काकनादबोट (साँची) में स्थित महाविहार को कुछ दान दिया था।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारी, कुमारगुप्त प्रथम के गुप्त संवत् 116 का एक शिलालेख तुमैन में मिला है जिसमें तुम्बवन के शासक घटोत्कचगुप्त का उल्लेख है। 
  • कुमारगुप्त प्रथम के शासन की जानकारी मंदसौर में मिले मालव संवत् 493 के एक शिलालेख में भी है। 
  • गुप्त संवत् 106 का उदयगिरी शिलालेख भी कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल का है।
  • शंकरपुर (सीधी जिले) से मिले एक ताम्रपत्र, जिसे गुप्त संवत् 166 का माना गया है, से संकेत मिलता है कि गुप्त साम्राज्य तब तक अखंड था। 

मध्य प्रदेश में वाकाटक कालीन अभिलेख (Wakatak Period Records in Madhya Pradesh)

सिवनी, दुडिया, तिरोडी, इन्दौर, पट्टण, पाण्ढुर्ना और बालाघाट से मिले वाकाटक प्रवरसेन के 7 ताम्रपत्र संकेत देते हैं कि उसके राज्य का विस्तार मध्य प्रदेश के कई भागों पर था।  नरेन्द्रसेन का एक ताम्रपत्र जो दुर्ग (छत्तीसगढ़) में मिला है पद्मपुर से प्रचलित किया गया था। 

मध्य प्रदेश में संभवत कालीन अभिलेख (Sambhavat Period Records in Madhya Pradesh)

नलों के आक्रमण के कारण नरेन्द्रसेन ने अपनी राजधानी कुछ दिनों के लिये स्थानांतरित कर ली थी। उसके उत्तराधिकारी पृथ्वीषेण और सामंत व्याघ्रसेन के दो अभिलेख नचना और गंज से प्राप्त हुये हैं। बालाघाट से मिले अभिलेख से पता चलता है कि वह फिर से शक्तिशाली हो गया था।

मध्य प्रदेश में हूण कालीन अभिलेख (Huna Period Records in Madhya Pradesh)

एरण से मिले तोरमाण के शासन के प्रथम वर्ष के वराह प्रतिमा अभिलेख से यह पता चलता है कि हूण, मध्य भारत में बहुत अन्दर तक प्रवेश कर गये थे और सागर तक पहुँच गये थे। मिहिरकुल के शासनकाल के 15वें वर्ष का ग्वालियर अभिलेख, मध्य प्रदेश में हूणों की उपस्थिति का एक अन्य प्रमाण है।

मध्य प्रदेश में औलिकर कालीन अभिलेख (Aulicar Period Records in Madhya Pradesh)

मन्दसौर, राजगढ़, मोरेना जिलों एवं सीतामऊ से प्राप्त इस वंश के बारह अभिलेखों से यह संकेत मिलता है कि प्रारंभिक औलिकर शासन गुप्तों के सामंत थे।

मालव संवत् 589 के मंदसौर शिलालेख से और बिल्कुल ऐसे ही एक अन्य अभिलेख से, जिसे मंदसौर से ही पाया गया है, और जो दो स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं, से पता चलता है कि यशोधर्मन् के शासन के दौरान ये स्वतंत्र हुये। ये अभिलेख यशोधर्मन् द्वारा हूण शासक मिहिरकुल की पराजय का विवरण देते हैं।

मध्य प्रदेश में वल्ख महाराज के अभिलेख (Archives of Valkh Mahar in Madhya Pradesh)

वल्ख के महाराजाओं के परिवार के बारे में उनके सिरपुर (पूर्वी खानदेश), इन्दौर और वाघ ताम्रपत्रों से पता चलता है। हाल ही में तीन और अभिलेख इन्दौर से प्रकाश में आए हैं। 

  • धार जिले के बाघ क्षेत्र से हाल ही (1982) में मिले इस वंश के 27 अभिलेखों का भंडार, एक महत्वपूर्ण खोज साबित हुआ है। 
  • ये अभिलेख, भुलुण्ड (13), स्वामीदास (5), रूद्रदास (5), भट्टारक (3) और नागभट्ट(1) नामक पाँच अलग-अलग शासकों के शासनकाल के हैं। 

मध्य प्रदेश में परिव्राजक महाराज के अभिलेख (Archives of Parivrajak Maharaj in Madhya Pradesh)

 बुंदेलखण्ड पर शासन कर रहे परिव्राजक गुप्तों के सामंत थे। इस वंश का पहला अभिलेख खोह से पाया गया था। इसे गुप्त संवत् 156 का माना गया है और यह महाराज हस्तिन के शासनकाल का है। 

  • इन राजाओं के तीन और अभिलेखों को गुप्त संवत् 163, 170 और 191 का माना गया है और ये क्रमश: खोह, जबलपुर ओर मझगंवा से प्राप्त हुये हैं। 
  • हस्तिन् का एक अन्य स्तंभ अभिलेख भूमरा से मिला है। 

मध्य प्रदेश में उच्चकल्प महाराज के अभिलेख (Archives of Uchchakalp Maharaj in Madhya Pradesh) 

उच्चकल्प महाराज, परिव्राजक के समकालीन तथा पड़ोसी थे और उन्हीं की तरह गुप्तों के सामंत भी थे। 

  • इस वंश का पहला अभिलेख महाराज जयनाथ का है जिसे गुप्त संवत् 174 का माना गया है।
  • इस शासक का दूसरा अभिलेख खोह से प्राप्त हुआ है और इसे गुप्त संवत् 177 का माना गया है। 
  • गुप्त संवत् 182 का, उसका तीसरा अभिलेख उचहरा से मिला है। उसका उत्तराधिकारी सर्वनाथ था, जिसका गुप्त संवत् 193 का ताम्र लेख खोह से पाया गया है। 

मध्य प्रदेश में मेकल के पांडुवंशी अभिलेख (Record of Mekal Panduvanshi in Madhya Pradesh)

शहडोल जिले में वर्तमान अमरकंटक के आस-पास के क्षेत्र को पुराने समय में मेकल के नाम से जाना जाता था। पाँचवी शताब्दी ई. में मेकल पर शासन कर रहे पांडुवंशियों की वंशावली और कालैकॅम का विवरण हमें बम्हनी से प्राप्त भरतबल के राज्यकाल के दूसरे वर्ष के ताम्रपत्र से मिलता है। इस वंश का एक अन्य अभिलेख बूढीखार से प्राप्त हुआ है। 

मध्य प्रदेश में वर्धन कालीन अभिलेख (Record of Verdhan Period in Madhya Pradesh)

यद्यपि हर्ष सहित इस वंश का कोई भी अभिलेख मध्य प्रदेश से नहीं मिला है, तथापि खजुराहो की  एक प्रतिमा पर हर्ष संवत् 218 का अभिलेख इस बात की पुष्टि करता है कि यह क्षेत्र हर्ष साम्राज्य के क्षेत्राधिकार में था।

मध्य प्रदेश में शैलवंश के अभिलेख (Record of Shail Dynasty in Madhya Pradesh)

आठवीं शताब्दी के दौरान शैल वंश आधुनिक महाकोसल के पश्चिमी भाग पर शासन कर रहा था। इसकी पुष्टि बालाघाट जिले में राघोली से मिले ताम्र लेख में वर्णित वंशावली और काल-क्रम से होती है।

मध्य प्रदेश में राष्ट्रकूट के अभिलेख (Record of Rashtrkut in Madhya Pradesh)

7वीं-8वीं शताब्दी के दौरान राष्ट्रकूटों की प्रांरभिक शाखाओं में से एक बैतूल-अमरावती क्षेत्र में शासन कर रही थी। इस वंश के नन्नराज युद्धासुर के शक काल 553 और 631 के दो ताम्रपत्र क्रमश: तिवखेड़ और मुलताई (दोनों ही बैतूल जिले में स्थित) से प्राप्त हुए हैं। 

  • इन्द्रगढ़ (मन्दसौर) के शिलालेख में उसका और इन्द्र तृतीय का उल्लेख है। 

उज्जैन और कन्नौज के गुर्जर – प्रतिहार (Gurjars of Ujjain and Kannauj – Pratahara)

ग्वालियर से मिले एक अभिलेख से पता चलता है कि नागभट्ट द्वितीय के उत्तराधिकारी रामभद्र के शासन के दौरान यह क्षेत्र गुर्जर-प्रतिहारों के साम्राज्य में सम्मिलित था। 

मध्य प्रदेश में चंदेल अभिलेख (Chandel Record in Madhya Pradesh)

बुन्देलखण्ड क्षेत्र में चंदेल, गुर्जर-प्रतिहारों के उत्तराधिकारी बने। उनके राज्य में केवल बुंदेलखंड बल्कि उत्तरप्रदेश के भाग भी सम्मिलित थे, जहां उनके बहुत से अभिलेख पाए गए हैं। 

  • इस वंश का सबसे प्रांरभिक अभिलेख (916-925ई.) का है। जिसमें उसके द्वारा शत्रुओं को परजित करने का उल्लेख है।
  • इसके बाद के तीन अभिलेख धंग (950-1002ई.) के हैं जो खजुराहो से मिले हैं।
  • विक्रम संवत् 1011 और 1059 के अभिलेखों के साथ ये दर्शाते हैं कि धंग इसे वंश का पहला शासक था जिसने प्रतिहारों की अधीनता को अस्वीकार कर खुद को स्वंतत्र घोषित कर दिया था।
  • अगला अभिलेख कुंडेश्वर से प्राप्त विद्याधर का ताम्रपत्र है जिसे विक्रम संवत् 1060 (1004 ई.) का माना गया है। 

मध्य प्रदेश में परमार अभिलेख (Parmar Record in Madhya Pradesh)

मालवा के परमार चंदेलों से समकालीन थे। इस वंश का प्रांरभ उपेन्द्र ने किया था और उसके उत्तराधिकारी बने वैरीसिंह प्रथम, सियक प्रथम, वाक्पति प्रथम, वैरीसिंह द्वितीय, सियक द्वितीय और मुंज। 

  • मुंज के शासनकाल में 6 अभिलेख उज्जैन, गाँवरी और धरमपुर से प्राप्त हुए हैं। 
  • मालवा पर विक्रम संवत् 1195 तक चालुक्यों का अधिकार उज्जैन में पाए गए सिद्धराज के एक अभिलेख से प्रमाणित होता है।

मध्य प्रदेश में मंदसौर के गुहिल अभिलेख (Records of Guhila Dynasty of Mandsaur in Madhya Pradesh)

मंदसौर जिले में जीरण में मिले 6 अभिलेखों से 10वीं शताब्दी में मंदसौर में शासन कर रहे गुहिल वंश की उपस्थिति का पता चलता है। इन अभिलेखों से इस वंश के शासकों की उपलब्धियों का विवरण मिलता है।

विविध अभिलेख (Miscellaneous Records)

इन सबके अतिरिक्त पूरे मध्य प्रदेश से 450 से भी अधिक विविध प्रकार के अंभिलेख मिले हैं। मध्य प्रदेश के प्राचीन काल के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास के छोटे से छोटे विवरण के लिये इन सबसे महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है। पहली-दूसरी शताब्दी ई.पू. से 10वीं शताब्दी के मध्य शंख लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख भी मध्य प्रदेश में प्रचुर मात्रा में पाए गये हैं। हाल ही में हुई खोज से मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में ऐसे 303 अभिलेख प्रकाश में आए हैं। इन अभिलेखों का अध्ययन जारी हैं। 

 

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मध्यप्रदेश की मध्य पुरापाषाण कालीन संस्कृति (Central Paleolithic Culture of Madhya Pradesh)

मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के बहुत से स्थानों से मध्य पुरापाषाण कालीन (Central Paleolithic Age) उपकरण मिले हैं। इस काल के उपकरण नर्मदा घाटी में नरसिंहपुर, होशंगाबाद और महेश्वर से मिले हैं। नर्मदा के दोनों ओर डोंगरगाँव और चोली पर कई कार्य-स्थल पाये गये हैं। 

  • पिपरिया में A. P. खत्री ने इस युग के बहुत से उपकरण अशूलियन उपकरणों के साथ मिले हुये पाये हैं। 
  • सगुनघाट के चबूतरे से भी बहुत से मध्य पुरापाषाण कालीन उपकरण खोजे गये हैं। 
  • सूपेकर ने अमरकंटक और मंडला के बीच इस काल के बारह कार्य-क्षेत्र ढूंढे।
  • चम्बल घाटी में मध्य पुरापाषाण कालीन उपकरण मंदसौर और नाहरगढ़ से पाए गए हैं।
  • बेतवा के गोंची नामक स्थान पर, रामेश्वर सिंह द्वारा 230 उपकरण एकत्रित किये गये हैं। इस काल के उपकरण भीमबेटका की खुदाई में भी मिले हैं। 
  • दमोह में सोनार और ब्यारमा घाटी में R. V. जोशी ने इस काल के उपकरणों को 12 स्थालों से खोजा है। 
  • उच्च सोन घाटी के उत्खनन से निसार अहमद ने 45 स्थलों से 485 उपकरण एकत्रित किए। 

उच्च पुरापाषाण कालीन संस्कृति (High Paleolithic Culture)

उच्च सोन घाटी के उत्खनन के दौरान, निसार अहमद सीधी और शहडोल जिले के कई ऐसे कई स्थलों पर गए जहाँ उच्च पुरापाषाण कालीन संस्कृति के उपकरण पाए गए। मंडला के निकट नर्मदा की एक सहायक नंदी बंजर के तट पर स्थित बमनी में छुरी और छैनी भी मिले हैं। ये उपकरण भीमबेटका के स्तर-वैन्यासिक उत्खनन स्तर और ग्वालियर तथा रीवा जिले के उत्खननों में भी मिले हैं। 

मध्य पाषाण कालीन संस्कृति (Middle Stone Age Culture)

मंदसौर, रतलाम, उज्जैन, इंदौर, खंडवा और निमाड़ जिले में चम्बल घाटी में किए गए उत्खनन के दौरान बहुत से लघु-पाषाणीय स्थल निकले हैं। 

  • शहडोल, रीवा, मंदसौर, सिहोर, भोपाल, होशंगाबाद, उज्जैन, जबलपुर, मंडला, छतरपुर, विदिशा, सागर, गुना, पन्ना, छिंदवाड़ा, और धार की खुदाई में भी बहुत से लधु-पाषाणीय स्थल निकले हैं। 
  • आदमगढ़ के उत्खनन से निकले लुघ-पाषाणीय उद्योग-स्थल को 5500 ई. पू. का माना गया है। 

ताम्र-पाषाण कालीन संस्कृति (Copper-stone Culture)

पूर्व हड़प्पा अथवा हड़प्पा संस्कृति के कोई भी चिन्ह मध्य प्रदेश में नहीं पाए गए हैं। लेकिन हड़प्पा के पश्चात् ताम्र-पाषाण संस्कृति के अवशेष भारी मात्रा में मिले हैं, विशेषत: मालवा में महेश्वर नावदाटोली में किए गए पुरातात्विक उत्खननों में 1160-1440 ई. पू. की तिथियाँ मिली हैं। 

एरण के उत्खनन के अनुसार यह संस्कृति 2000 – 700 ई. पू. की है और बेसनगर के अनुसार इस संस्कृति की मध्यभारत में अस्तित्व 1100 – 900 ई. पू. की है। 

ताम्र-निधि संस्कृति (Copper-Fund Culture)

गंगा-यमुना दोआब में पूर्व लौह युग के कांस्य उपकरणों के भंडार मिले हैं। मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) में गुंगेरिया, जबलपुर, दबकिया और रामजीपुरा के कुछ एकाकी क्षेत्रों से भी कांस्य उपकरणों के इसी तरह के भंडार मिले हैं। 

लौह-युग संस्कृति (Iron Age Culture)

यद्यपि भारत में लोहा बहुत पहले से आ गया था, तथापि मध्य प्रदेश में यह 1000 ई. पू. के लगभग आया। 

  • मध्य प्रदेश में ऐसे स्थल, जहाँ से धूसर रंग के बर्तन जो लोहे के प्रारंभ से संबन्धित हैं, कम हैं और जो हैं वह राजस्थान और उत्तर प्रदेश को स्पर्श करते मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग में सीमित हैं। इनमें भिंड, मुरैना और ग्वालियर जिले सम्मिलित हैं। 
  • गिलौलीखेड़ा (मुरैना जिला) में इस लेखक द्वारा 1982 में किये गये उत्खनन से 1.2 मी. गहरा पीजीडब्ल्यू जमाव मिला है। 

महापाषाण संस्कृति (Megalithic Culture)

दक्षिण भारत में लौह युग से सम्बद्ध कुछ समाधियाँ प्राप्त होती हैं, जिन्हें महापाषाणीय स्मारक (मेगालिथ) के नाम से सम्बोधित किया गया है। 

  • इनका काल 1500 – 1000 ई. पू. माना जाता है। यद्यपि महापाषाण स्मारकों को दक्षिण भारत से सम्बद्ध किया जाता है, तथापि इनमें से कुछ मध्य प्रदेश, असम, उड़ीसा, बिहार, राजस्थान, गुजरात और कश्मीर में भी मिले हैं। 

 

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