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Madhay Pradesh ka itihas

महाजनपद की सामाजिक स्थिति (Social status of Mahajanapadas)

वर्ण – व्यवस्था – ‘वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति ‘वृण’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘चुनाव करना’ है। वर्ण शब्द का प्रयोग संभवत: व्यवसाय के चुनाव में किया जाता रहा। इसलिए वर्ण लोगों का वह समूह हैं, जो किसी विशिष्ट व्यवसाय को चुन लेता है। प्राचीन कालीन समाज का वर्ण विभाजन व्यावसायिक विभाजन हो सकता है। जिन लोगों ने अपने गुणों एवं कर्मों के आधार पर किसी निश्चित व्यवसाय को चुन लिया है, वह वर्ण कहलाने लगे। 

वर्ण शब्द का दूसरा अर्थ ‘रंग’ से माना जाता है। इस संबन्ध में सुप्रसिद्ध विद्वान पाण्डुरंग वामन काणे ने लिखा है कि “प्राचीन काल में वर्ण शब्द का प्रयोग गोरे रंग के आर्यों तथा काले रंग के यहाँ के मूल निवासियों के रंग भेद को स्पष्ट करने के लिए किया जाता था।” 

इसके बावजूद समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्षों में विभक्त हो गया। पूर्व वैदिक काल में वर्ण का आधार कर्म था, न कि जन्म और ये गुणों से निश्चित होते थे न कि रंग से। इसलिए कहा जा सकता है कि वर्ण-व्यवस्था, श्रम-विभाजन की व्यवस्था का ही दूसरा नाम था। परन्तु कालान्तर में जातिभेद – सम्बन्धी मनुष्य की धारणाएँ रूढ़ होती गयीं और पेशे वंशानुगत हो गये। ब्राह्मण-युग आते-आते मनुष्य के सामाजिक जीवन में जातिभेद-सम्बन्धी धारणाओं की जड़ें इतनी गहराई तक प्रविष्ट हो गयीं कि देवगण भी चतुवर्ण में विभाजित माने जाने लगे। 

छठी शताब्दी ई.पूर्व में जो सामाजिक व्यवस्था का स्परूप उत्तर भारत में दिखाई देता है, वही मध्यप्रदेश में भी। इस युग में अवन्ति में भी सभी वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के लोग रहते थे। देश के अन्य भागों से भी लोग आकर बस गये थे। जाति भेद जहाँ अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था और जाति के अनुसार ऊँच-नीच की भावना अति प्रबल हो गयी थी। 

वहीं प्रद्योतकाल में गौतम बुद्ध और महावीर के उपदेशों के फलस्वरूप यहाँ जाति भेद और वर्ग भेद कम हो रहा था, फिर भी स्पृश्यापृश्य की भावना का समूल नाश नहीं हुआ था। 

समाज में भिक्षु और ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। उनका कर्म मांगलिक पूजा पाठ करना होता था। आचार्य की अनुपस्थिति में आदेशानुसार उनके शिष्य ब्रह्मचारी पूजा करवाते थे जैसा कि उज्जयिनी के चित्त और सम्भूत ने तक्षक्षिला में शिक्षा प्राप्त करते समय पूजा पाठ किया था। 

पालि-पिटक के अनुसार इस युग के ब्राह्मणों की दो प्रकार की श्रेणियाँ थी। प्रथम श्रेणी उन ब्राह्मणों की थी जो शास्त्रसम्मत ब्राह्मण-कर्म एवं वेदों का अध्यनाध्यापन करने वाले, पुरोहित एवं तपस्वी थे। दूसरी श्रेणी उन ब्राह्मणों की थी जो शास्त्रानुमोदित ब्राह्मणोचित कर्मों से विमुख हो गये थे और यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि समाज की परिवर्तनशील परिस्थितियों तथा आर्थिक आवश्यकताओं ने अनेक ब्राह्मणों को इसके लिए बाध्य किया होगा, कि वे अपने पैतृक कर्मों अध्यापन एवं पौरोहित्य का त्यागकर अन्य पेशे स्वीकार करें। 

बौद्ध एवं जैन साहित्य में क्षत्रियों का स्थान सर्वोपरि था। पालिपिटक से ज्ञात होता है कि राजमंत्री, सेनानायक, प्रशासकीय उच्च पदाधिकारी तथा सामन्त प्रायः क्षत्रिय ही हुआ करते थे, केवल मंत्रिपद में अधिकतर ब्राह्मणों को नियुक्त किया जाता था। क्षत्रिय जाति प्रमुखतः युद्धजीवी थी, परन्तु आर्थिक परिस्थितिवश ब्राह्मणों के समान क्षत्रियों को भी अनेक प्रकार के कर्मक्षेत्रों में प्रवेश करने के लिए बाध्य होना पड़ा और उन्होंने वणिक, हस्तशिल्प, कुम्भकार, गायक-वादक आदि का कर्म भी किया। पालिपिटक में वैश्य वर्ण के लिए वेस्स, गहपति, सेट्टि, कुटुम्बिक इत्यादि संज्ञाएँ प्रयुक्त की गई हैं। वस्तुतः सेट्टि बड़े व्यापारी थे जिनका राज्य एवं समाज में बड़ा सम्मान था। 

 

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महाजनपद की शिक्षा व्यवस्था (Education System of Mahajanapad)

अवन्ति जनपद प्राचीन काल से ही शिक्षा का केन्द्र रहा है। यहाँ के सान्दीपनि आश्रम में भगवान श्रीकृष्ण और बलराम शिक्षा ग्रहण करने आये थे। उल्लेखनीय है कि गुरू सान्दीपनि ने चौसठ दिन में चौसठ कलाओं की शिक्षा दी थी। इसकी विस्तृत जानकारी महाभारत, पुराण तथा अन्य काव्य ग्रन्थों से स्पष्ट होती है। अतएवं उन्होंने अल्प समय में ही सम्पूर्ण शिक्षा ग्रहण कर ली थी। यह युग एक धार्मिक क्रांति का युग था। धर्म और शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है। इसलिए धार्मिक उपदेशों की व्याख्या से सम्बन्धित शिक्षा ही आचार्य अपने शिष्यों को देते थे।

शिक्षा व्यवस्था गुरूकुलों या ऋषियों के आश्रम में थी। चारों वेद, वेदांग, धर्मशास्त्र, न्याय, नीति, अर्थशास्त्र, ज्योतिष-नक्षत्र, कला आदि शिक्षा की विशेष व्यवस्था थी। उपयुक्त समस्त विषयों में निष्णात् व्यक्ति न्यायाधीश आदि उच्चकोटि के पदों पर प्रतिष्ठित किया जाता था। लेकिन यह शिक्षा व्यवस्था उच्चवर्गों के छात्रों के लिए ही सुलभ थी। महाकात्यायन सम्पूर्ण वेद-वेदांगों एवं शास्त्रों में निष्णात थे। ब्राह्मण महागोविन्द भी समस्त शास्त्रों में प्रवीण था। इसी कारण उसने मंत्रिपद प्राप्त किया था। प्रद्योत द्वारा यन्त्रमय गज का निर्माण तत्कालीन तकनीकी शिक्षा की ओर संकेत करता है। बौद्ध धर्म प्रसार के कारण अवन्ति में बौद्ध धर्म की शिक्षा के केन्द्र बौद्ध-विहार एवं मठ हो गये थे। उनमें धर्म के विशिष्ट अंगों का पृथक-पृथक अध्ययन-अध्यापन किया जाता था। पृथक अध्ययन करने वालों की श्रेणियाँ भी थी। शिक्षा मठों में दी जाती थी। शिष्यों को ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करवाया जाता था। बौद्ध विहारों में प्रवेश के नियम कठोर थे। 

आचार्य और उपाध्याय ये दो श्रेणियाँ अध्यापक की होती थी। इनकी अनुमति के बिना भिक्षु, विहार, गाँव, देशाटन भ्रमण आदि के लिए नहीं जा सकता था। मौखिक शिक्षा दी जाती थी। भिक्षुओं की शिक्षा पूरी हो जाने पर परीक्षा होती थी। भिक्षु उदरपोषण के लिए भिक्षा मांगने गाँव जाते थे। शिक्षा शुल्क नहीं लिया जाता था। 

बौद्ध मठों एवं विहारों में सभी वर्गों के छात्रों को प्रवेश मिल जाता था। उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। इस कारण अवन्ति जनपद मौर्यकाल में बौद्ध शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था।

जैनधर्म भी इस समय प्रभावशाली था। इससे सम्बन्धित शिक्षा जैन मुनि समय-समय पर आकर देते थे। जैनमुनि अकम्पन ने यहाँ के लोगों को जैन धर्म की शिक्षा दी थी। बौद्ध धर्म और जैन धर्म के सिद्धान्त प्रायः मिलते हैं। जैनों की शिक्षा-स्थली उनके आराधना स्थल या प्रवचन स्थल थे। जैनसूत्रों में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है – कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य ।

अवन्ति भाषा यहाँ की बोलचाल की भाषा थी। उज्जयिनी के वीरक और चन्दनक अवन्ति भाषा में ही बात करते थे। चित्त-सम्भूत चाण्डाल भाषा में बात करते हुए पकड़े गये थे। अत: स्पष्ट है कि छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में उज्जयिनी एक प्रसिद्ध शिक्षा का केन्द्र थी।

 

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महाजनपद की धार्मिक स्थिति (Religious Status of Mahajanapad)

महाजनपदीय समाज एक धर्म प्रधान समाज था जिसे भारतीय जीवन का सर्वोच्च आदर्श माना गया है। विश्वास था कि सभी क्रियाकलापों का अंतिम लक्ष्य धर्म संचय करना है। इस दृष्टि से समाज में भिक्षु, ऋषि और ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। भिक्षु भ्रमणकर धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे। ऋषि वनों में रहकर आश्रम व्यवस्था का पालन करते थे। ब्राह्मण पुरोहितों का कर्म पूजा-पूजा पाठ था। 

उज्जयिनी के चित्त-सम्भूत जातक में भिक्षु, ऋषि मण्डली, योग-विधि, धर्मदेशना, धर्म सभा, धर्म-शिष्य, ध्यान सुख, धर्मोपदेश, दक्षिणोदक-दक्षिणा, वरदान देना, दुष्कर्म और शुभ कर्मों का फल, दान, पापकर्म, मैला-चित्त, स्वर्ग-लोक, प्रसन्नतापूर्व श्रम से स्वर्ग की प्राप्ति, इत्यादि ऐसे शब्दों का उल्लेख हुआ है, इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में धर्म का महत्व था। 

धार्मिक कर्मकाण्डी, अंधविश्वासी समाज के समय में दो ऐसे महान् धर्माचार्यों का उदय हुआ, जिन्होंने पीड़ित मानवता को सुख और शांति के सन्देश दिए। ये धर्माचार्य थे गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी। गौतम बुद्ध ने बौद्धधर्म का प्रवर्तन किया और महावीर स्वामी ने जैनधर्म का विकास। इनका जन्म भले ही मगध साम्राज्य में हुआ हो लेकिन इनका प्रभाव मध्यप्रदेश में भी स्पष्टत: रहा है। इस समय धर्म के नाम पर जो अंध-विश्वास कार्य हो रहे थे, उन पर कुछ हद तक विराम लगा। समाज का मन और आत्मा धर्मों की पवित्र शिक्षाओं ओर योग्यतम विचारों से सम्बंधित हुए। ज्ञान और प्रबोधन के इस युग में अवन्ति जनपद प्रमुख स्थान रखता है।  

जब गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी धर्मोपदेश दे रहे थे, उस समय अवन्ति में चण्डप्रद्योत शासन करता था। प्रद्योत का काल तो वैसे सर्वधर्म समन्वय का काल दिखाई पड़ता है लेकिन अपने पुरोहित कात्यायन के प्रभाव से वह बौद्ध धर्मी बन गया था। 

 

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महाजनपद का प्रशासन (Administration of Mahajanapad)

महाजनपद-कालीन प्रशासन में राजतन्त्रात्मक (नृपतंत्र) और गणतन्त्रात्मक दोनों शासन व्यवस्था का प्रचलन था। मध्यप्रदेश में अवन्ति और चेदि दोनों महाजनपद राजतन्त्रात्मक ही थे। राजतंत्र राज्य में मंत्रिपरिषद् (परिषा) का विवरण मिलता हैं। राजतंत्र राज्य में केवल आमात्य ही परिषद् में कार्य करते थे अर्थात परिषद् का गठन अमात्यों के द्वारा होता था। जिसका आकार छोटा होता था। राजा की सहायतार्थ मंत्रिमंडल होता था। छठी शताब्दी ई. पूर्व में मंत्री की भूमिका में लगभग पाँच – छः विभागाध्यक्षों का कार्य महत्वपूर्ण था। विभागों एवं मंत्रियों की संख्या राज्य के क्षेत्रफल एवं उसकी आवश्यकता के अनुरूप राजा द्वारा निर्धारित की जाती थी। चूँकि प्रारम्भिक काल में राज्यों को भौगोलिक आकार छोटा होता था, अतः विभागों की संख्या भी बहुत अधिक नहीं थी। 

  • विभागीय मंत्रियों को महामत्त (महामात्र) कहा जाता था।
  • पुरोहित, सर्वार्थक महामत्त (प्रशासन मंत्री), सेनापति महामत्त (सेनाप्रमुख), भाण्डागारिक महामत्त (कोषाध्यक्ष), विनश्यामात्य (न्यायाधीश) और रज्जुगाहक महामत्त या रज्जुक (राजस्व प्रमुख) प्रमुख थे।
  • अनेक जातक कथाओं में अमात्यों और पुरोहितों का उल्लेख मिलता है। वस्तुत: सबसे महत्वपूर्ण महामत्त पुरोहित होता था।
  • पुरोहित राजा के धर्म और अर्थ दोनों का अनुशासक होता था।
  • पुरोहित पद प्रायः वंशानुगत था। ग्राम शासन में ग्राम भोजक का महत्वपूर्ण स्थान था। 

महाजनपद की न्याय व्यवस्था

न्याय व्यवस्था कठोर थी। न्याय के मामलों में राजा ही सर्वोच्च होता था। न्यायशाला का न्यायाधीश सर्वगुणसम्पन्न, धर्मशास्त्रज्ञ, नीतिशास्त्रज्ञ, कपटव्यवहारक, सुस्पष्ट वक्ता तथा क्रोध रहित रहता था। न्यायाधीश शासन के नियमानुसार न्याय करता था फिर भी राजाज्ञा सर्वोपरि थी। उसकी सहायता के लिए वैश्य, कायस्थ, दूत, गुप्तचर, आदि अन्य कार्य करते थे। कायस्थ वादी और प्रतिवादी के अभियोग लिखता था। दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क से न्यायालय में अपनी बात रखते थे। न्याय के पूर्ण सूक्ष्मता से प्रमाणों की जाँच की जाती थी। परिस्थितिनुसार हत्या, चोरी पर घटित स्थल का निरीक्षण भी किया जाता था। अपराध सिद्ध हो जाने पर उसे अपराध के नियमों से दण्ड दिया जाता था। अभियोगियों का स्थान न्याय मण्डप बाहर होता था। क्रम के अनुसार कार्यवाही होती थी। सभी को अपनी बात रखने का अधिकार था। बड़े अपराधों पर मृत्युदण्ड दिये जाते थे। इस प्रकार न्याय व्यवस्था कठोर थी। 

महाजनपद की मुद्रा  

महाजनपद युगीन मुद्राओं से भी प्रशासन की जानकारी प्राप्त होती है। इस काल की प्राप्त मुद्राएँ आकार में बड़ी और मोटाई में बहुत पतली हैं जिन पर वृषभ, हस्ति, मत्स्य, कूर्म तथा चक्र आदि विभिन्न प्रकार के चिन्ह अंकित हैं। क्षेत्र की प्राचीन मुद्राओं की विशेषता “उज्जयिनी” चिन्ह है। यह संभव है कि किसी भी चिन्ह के प्रकार जिस स्थल पर सर्वाधिक संख्या में उपलब्ध है वह स्थान उस चिन्ह का उद्गम या मूल स्थान होता है। उज्जयिनी के अतिरिक्त “उज्जयिनी चिन्ह” विदिशा, त्रिपुरी, एरण से प्राप्त मुद्राओं पर भी अंकित है। 

 

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महाजनपद का विस्तार (Expansion of Mahajanapad)

अवन्ति जनपद

बुद्धकाल में अवन्ति जनपद शक्ति और विस्तार की दृष्टि से भारत का प्रबलतम् और विशालतम् जनपद था। सर्वप्रथम ऋग्वेद की एक ऋचा में अवन्ति शब्द का उल्लेख मिलता है जिसके आधार पर विद्वान इस नगर के नामकरण की संयोजना करते हैं। ब्राह्मण और आरण्यकों में भी यह नाम आता है। किन्तु राज्य अथवा स्थान के नाम की दृष्टि से अवन्ति का प्रथम उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी के सूत्र ‘स्त्रियामवन्ति-कुरूभ्यश्च’ में हुआ है। इसके पश्चात् अवन्ति और अवन्ती (हस्व और दीर्घ ईकारान्त) नामों का प्रचलन हो गया। 

भौगोलिक दृष्टि से अवन्ति राज्य का विस्तार नर्मदा नदी की घाटी में मान्धाता नगर से लेकर महेश्वर (इंदौर) तक फैला हुआ था। 

हरिहरनिवास द्विवेदी और विजय गोविन्द द्विवेदी ने मध्यभारत के अवन्ति जनपद की सीमाओं का उल्लेख किया है कि उत्तर मध्यभारत में उस समय वन्य प्रदेश था और ग्वालियर, नरवर तथा भेलसा के मध्य चम्बल, सिन्ध और बेतवा के बीच जो विन्ध्य श्रृंखलाएँ हैं वे विन्ध्याटवी कही जाती थीं। आगे दशार्ण प्रदेश आता था, जो दशार्ण नदी (वर्तमान धसान) से सिंचित था। 

दीपवंश के अनुसार राजा अच्चुतगामी ने उज्जयिनी नगरी की स्थापना की थी। चीनी यात्री हेनसांग सातवीं शताब्दी में अपनी यात्रा विवरण में उज्जयिनी (उ-शे-ये-ना) के नगर विस्तार का उल्लेख किया है। उसने इस नगर का विस्तार तीस ली (करीब 5 मील) बताया है और कहा है कि उस समय यह एक घनी बस्ती वाली नगरी थी। सम्पूर्ण उज्जयिनी प्रदेश का विस्तार चीनी युआन ने 6000 ली या करीब एक हजार मील बताया है। 

चेदि जनपद (चेति, चैद्य) 

भगवान बुद्ध के समय (ई.पूर्व छठी शताब्दी) में उत्तरी भारत का अधिकांश भाग जिन सोलह महाजनपदों में विभक्त था, चेदि उनमें से एक था। इसकी राजधानी सोत्थिवती (शुक्तिमती) थी, जो शुक्तिमती (केन) नदी के तट पर थी। यह महाभारत की शुक्तिमती से निश्चय ही अभिन्न है। इस शुक्तिमती को मध्यप्रदेश में स्थित माना जाता है। सुत्तनिपात की अट्ठकथा (परमत्थजोतिका) में कहा गया है कि चेति जनपद में ‘चेति’ या ‘चेतिय’ नाम धारण करने वाले राजाओं ने शासन किया था, इसलिये उसका नाम चेति पड़ा। कालान्तर में यह चेदि जनपद, चैद्य, डाहल ( डभाला, डाहाल, डाहल, डहाला, डहला) और त्रिपुरी आदि पर्यावाची नामों से विख्यात हुआ।

साहित्यिक साक्ष्य में चेदि देश का प्रारम्भिक इतिहास ऋग्वैदिक काल से प्राप्त होता है जिसके एक दानस्तुति सूत्त में चैद्य (चेदि का राजा) कशु द्वारा ब्रह्मातिथि नामक ऋषि को सौ ऊँट और एक हजार गायें दान देने का उल्लेख मिलता हैं। वाल्मीकि रामायण में चेदि देश का उल्लेख नहीं मिलता। महाभारत में चेदि की गणना भारत के प्रमुख जनपदों में की गई है। उपरिचर वसु ने चेदि पर विजय प्राप्त की और पृथ्वी पर इन्द्रमह का प्रवर्तन किया। शिशुपाल चेदि का राजा था जिसका वध श्रीकृष्ण द्वारा किया गया। तत्पश्चात् उसका पुत्र धृष्टकेतु चेदि देश का राजा बना। इस देश का राजा सुबाहु, राजा नल का समसामयिक था और दमयन्ती ने यहाँ सुखपूर्वक निवास किया था। पाण्डव नकुल की पत्नी करेणुमती चेदि देश की राजकुमारी थी। महाभारत युद्ध में चेदि नरेश धृष्टकेतु ने पाण्डवों का साथ दिया था। धृष्टकेतु की मृत्यु पश्चात् उसका अनुज शरभ राजा हुआ। शरभ के पश्चात् चेदि देश के राजाओं की वंशावली ज्ञात नहीं है। पुराणों से भी स्पष्ट होता है कि विदर्भ के पौत्र और केशिक के पुत्र चिदि ने यमुना के दक्षिण में चैद्य वंश की स्थापना की। 

भौगोलिक दृष्टि से चेदि जनपद की सीमाएँ कालानुसर बदलती रही हैं। फिर भी ज्ञात साक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट होता है कि चेदि जनपद वत्स जनपद के दक्षिण में, यमुना नदी के पास, उसकी दक्षिण दिशा में स्थित प्रदेश था । इसके पूर्व में काशी जनपद, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पश्चिम में अवन्ति और उत्तर-पश्चिम में मच्छ (मत्स्य) और सूरसेन जनपद थे। चेदि जनपद का सबसे समीपी पड़ोसी वंस (वत्स) जनपद ही था। इसीलिए दीघनिकाय के जमवसभसुत्त में चेदि और वंस जनपद का साथ-साथ वर्णन किया गया है “चेतिवंसेसु”। 

चेदि जनपद का विस्तार साधारणतः आधुनिक बुन्देलखण्ड और उसके आस-पास के प्रदेश के बराबर माना जा सकता है। चेतिय जातक में चेदि देश के राजाओं की वंशावली दी गई है, जिसमें महासम्मत और मन्धाता (मान्धाता) राजाओं को उनके आदिपूर्वज बताया गया है। इसी जातक में अन्तिम चेदि-नरेश उपचर (अपचर) के पाँच पुत्रों ने हत्थिपुर (हस्तिनापुर), अस्सपुर (अंग), सीहपुर (उत्तरी पँजाब), उत्तरपाँचाल (अहिच्छत्र- उत्तरपांचाल की राजधानी) और दद्दरपुर (हिमवन्त प्रदेश में संभवतः दर्दिस्तान) नगरों के बसाए जाने का उल्लेख है। 

प्राचीन चेदि देश की दक्षिणी सीमा के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। पार्जिटर के मतानुसार चेदि देश उत्तर में यमुना के दक्षिणी तट से दक्षिण में मालवा के पठार और बुन्देलखण्ड की पहाड़ियों तक तथा दक्षिण-पूर्व में चित्रकूट के उत्तर-पूर्व में बहने वाली कार्वी नदी से उत्तर-पश्चिम में चम्बल नदी तक फैले हुए विस्तृत प्रदेश का नाम था। 

चेदि जनपद के अन्तर्गत अनेक प्रसिद्ध नगरों का उल्लेख हुआ है, जहाँ भगवान बुद्ध स्वयं विहार करते हुए गये थे। इतना ही नहीं, कुछ प्रसिद्ध नगरों में वर्षावास भी किया था। इसकी सीमाएँ नेपाल के समीपवर्ती क्षेत्र तक थी। चेदि जनपद के अन्तर्गत ऐसे अनेक नगर थे जिनका सम्बन्ध बुद्ध या उनके शिष्यों से रहा है।
जैसे – सहजाति (सहजातिय), सहचनिका (सहंचनिका), बालकलोणकार, पाचीन वंस (मिग), पारिलेय्यक, भद्दवती (भद्दवतिका), चालिका, जन्तुगाम इत्यादि महत्वपूर्ण व्यापारिक नगर थे। 

  • इसमें से सहजातिया व सहजाति नगर (इलाहाबाद के पास भीटा) में भगवान बुद्ध ने चेतिय लोगों को उपदेश दिया था। 
  • बालकलोणकर ग्राम में बुद्ध के रूकने का उल्लेख मिलता है। 
  • पारिलेय्यक नगर (कौशाम्बी के पास) के रक्षित वनखण्ड में बुद्ध ने दसवाँ वर्षावास किया था। 
  • चालिका ग्राम के समीप चालिक या चालिय पर्वत पर बुद्ध ने तेरहवाँ, आठरहवाँ, और उन्नीसवाँ वर्षावास किया था। 

अतः चेदि जनपद बौद्ध धर्म का एक बड़ा केन्द्र था जहाँ भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए। 

 

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महाजनपद (The Mahajanpad)

छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में भारत में कोई एक सार्वभौम सत्ता नहीं थी, जो सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रख सके। सम्पूर्ण राष्ट्र अनेक जनपदों में विभक्त था। किसी एक पुरुष से उत्पन्न विभिन्न कुटुम्ब के समुदाय को ‘जन (Jan)’ कहते थे और इस प्रकार सभी आर्य अनेक जनों में विभक्त थे। प्रारम्भ में इन जनों का अपना निश्चित स्थायी निवास नहीं था। पर कालान्तर में अनेक स्थायी राज्य स्थापित हुए। ये स्थायी राज्य ही ‘जनपद (Janpad)’ कहलाये। 

वैदिक संहिताओ में ‘जन (Jan)’ शब्द का उल्लेख तो आया है, लेकिन जनपद का नहीं। अतः विद्वानों का मानना है कि प्रारम्भ में ये ‘जन’ खानाबदोश थे और एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमा करते थे। किन्तु ब्राह्मण ग्रंथों में ‘जनपद (Janpad)’ शब्द का उल्लेख मिलता है, इससे प्रतीत होता है कि ब्राह्यण काल तक आते-आते जनों ने अपने अपने स्थायी राज्य स्थापित कर लिये थे और जो ‘जन’ जिस प्रदेश में स्थायी रूप से रहने लगे थे, वही उनका जनपद कहलाने लगा था। प्रत्येक जनपद में बहुत से ग्राम और नगर होते थे। धीरे-धीरे ये सभी राज्य (जनपद) आपस में मिलने लगे और इस प्रकार अनेक जनपदों के मिलने से देश में महाजनपदों का उदय हुआ। 

छ: सौ ईस्वी पूर्व के युग को भारतीय इतिहास में जनपद या महाजनपद युग कहा गया है। ये सभी महाजनपद एक राजनीतिक इकाई के रूप में विकसित हुए, जिनकी अपनी अलग राजनीतिक व्यवस्था थी, अलग शासन था। महात्मा बुद्ध के समय तक ये जनपद पूर्ण विकसित हो गये थे और इस युग तक उत्तर भारत में 16 मुख्य जनपद या महाजनपद (षोडश जनपद) थे। इनका उल्लेख मुख्यतया अंगुत्तरनिकाय, महावस्तु, तथा जैन ग्रंथ भगवती श्रौतसूत्र से मिलता है। 

अंगुत्तरनिकाय में वर्णित सोलह महाजनपदों के नाम इस प्रकार हैं – 

अंग, मगध, काशी (कासी), कोशल (कोसल), वज्जि (वृजि), मल्ल, चेदि (चेतिया या चेतिय), वत्स (वंश), कुरू, पांचाल, मत्स्य (मच्छ), सूरसेन (शूरसेन), अश्मक (अस्सक), अवन्ति, गंधार तथा कंबोज (काम्बोज)। 

इन महाजनपदों में कोसल, वत्स, अवन्ति और मगध बुद्ध काल के चार सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन चुके थे और उनमें सार्वभौम सत्ता के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो चुका था। इसके परिणाम स्वरूप जनपदों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही थी और इन चार राज्यों का विस्तार बढ़ता जा रहा था। इन सोलह महाजनपदों में दो महाजनपद अवन्ति और चेदी प्राचीन मध्यप्रदेश के महाजनपद थे। 

 

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