महाजनपदीय समाज एक धर्म प्रधान समाज था जिसे भारतीय जीवन का सर्वोच्च आदर्श माना गया है। विश्वास था कि सभी क्रियाकलापों का अंतिम लक्ष्य धर्म संचय करना है। इस दृष्टि से समाज में भिक्षु, ऋषि और ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। भिक्षु भ्रमणकर धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे। ऋषि वनों में रहकर आश्रम व्यवस्था का पालन करते थे। ब्राह्मण पुरोहितों का कर्म पूजा-पूजा पाठ था।
उज्जयिनी के चित्त-सम्भूत जातक में भिक्षु, ऋषि मण्डली, योग-विधि, धर्मदेशना, धर्म सभा, धर्म-शिष्य, ध्यान सुख, धर्मोपदेश, दक्षिणोदक-दक्षिणा, वरदान देना, दुष्कर्म और शुभ कर्मों का फल, दान, पापकर्म, मैला-चित्त, स्वर्ग-लोक, प्रसन्नतापूर्व श्रम से स्वर्ग की प्राप्ति, इत्यादि ऐसे शब्दों का उल्लेख हुआ है, इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में धर्म का महत्व था।
धार्मिक कर्मकाण्डी, अंधविश्वासी समाज के समय में दो ऐसे महान् धर्माचार्यों का उदय हुआ, जिन्होंने पीड़ित मानवता को सुख और शांति के सन्देश दिए। ये धर्माचार्य थे गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी। गौतम बुद्ध ने बौद्धधर्म का प्रवर्तन किया और महावीर स्वामी ने जैनधर्म का विकास। इनका जन्म भले ही मगध साम्राज्य में हुआ हो लेकिन इनका प्रभाव मध्यप्रदेश में भी स्पष्टत: रहा है। इस समय धर्म के नाम पर जो अंध-विश्वास कार्य हो रहे थे, उन पर कुछ हद तक विराम लगा। समाज का मन और आत्मा धर्मों की पवित्र शिक्षाओं ओर योग्यतम विचारों से सम्बंधित हुए। ज्ञान और प्रबोधन के इस युग में अवन्ति जनपद प्रमुख स्थान रखता है।
जब गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी धर्मोपदेश दे रहे थे, उस समय अवन्ति में चण्डप्रद्योत शासन करता था। प्रद्योत का काल तो वैसे सर्वधर्म समन्वय का काल दिखाई पड़ता है लेकिन अपने पुरोहित कात्यायन के प्रभाव से वह बौद्ध धर्मी बन गया था।
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