छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में भारत में कोई एक सार्वभौम सत्ता नहीं थी, जो सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रख सके। सम्पूर्ण राष्ट्र अनेक जनपदों में विभक्त था। किसी एक पुरुष से उत्पन्न विभिन्न कुटुम्ब के समुदाय को ‘जन (Jan)’ कहते थे और इस प्रकार सभी आर्य अनेक जनों में विभक्त थे। प्रारम्भ में इन जनों का अपना निश्चित स्थायी निवास नहीं था। पर कालान्तर में अनेक स्थायी राज्य स्थापित हुए। ये स्थायी राज्य ही ‘जनपद (Janpad)’ कहलाये।
वैदिक संहिताओ में ‘जन (Jan)’ शब्द का उल्लेख तो आया है, लेकिन जनपद का नहीं। अतः विद्वानों का मानना है कि प्रारम्भ में ये ‘जन’ खानाबदोश थे और एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमा करते थे। किन्तु ब्राह्मण ग्रंथों में ‘जनपद (Janpad)’ शब्द का उल्लेख मिलता है, इससे प्रतीत होता है कि ब्राह्यण काल तक आते-आते जनों ने अपने अपने स्थायी राज्य स्थापित कर लिये थे और जो ‘जन’ जिस प्रदेश में स्थायी रूप से रहने लगे थे, वही उनका जनपद कहलाने लगा था। प्रत्येक जनपद में बहुत से ग्राम और नगर होते थे। धीरे-धीरे ये सभी राज्य (जनपद) आपस में मिलने लगे और इस प्रकार अनेक जनपदों के मिलने से देश में महाजनपदों का उदय हुआ।
छ: सौ ईस्वी पूर्व के युग को भारतीय इतिहास में जनपद या महाजनपद युग कहा गया है। ये सभी महाजनपद एक राजनीतिक इकाई के रूप में विकसित हुए, जिनकी अपनी अलग राजनीतिक व्यवस्था थी, अलग शासन था। महात्मा बुद्ध के समय तक ये जनपद पूर्ण विकसित हो गये थे और इस युग तक उत्तर भारत में 16 मुख्य जनपद या महाजनपद (षोडश जनपद) थे। इनका उल्लेख मुख्यतया अंगुत्तरनिकाय, महावस्तु, तथा जैन ग्रंथ भगवती श्रौतसूत्र से मिलता है।
अंगुत्तरनिकाय में वर्णित सोलह महाजनपदों के नाम इस प्रकार हैं –
अंग, मगध, काशी (कासी), कोशल (कोसल), वज्जि (वृजि), मल्ल, चेदि (चेतिया या चेतिय), वत्स (वंश), कुरू, पांचाल, मत्स्य (मच्छ), सूरसेन (शूरसेन), अश्मक (अस्सक), अवन्ति, गंधार तथा कंबोज (काम्बोज)।
इन महाजनपदों में कोसल, वत्स, अवन्ति और मगध बुद्ध काल के चार सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन चुके थे और उनमें सार्वभौम सत्ता के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो चुका था। इसके परिणाम स्वरूप जनपदों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही थी और इन चार राज्यों का विस्तार बढ़ता जा रहा था। इन सोलह महाजनपदों में दो महाजनपद अवन्ति और चेदी प्राचीन मध्यप्रदेश के महाजनपद थे।
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