वर्ण – व्यवस्था – ‘वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति ‘वृण’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘चुनाव करना’ है। वर्ण शब्द का प्रयोग संभवत: व्यवसाय के चुनाव में किया जाता रहा। इसलिए वर्ण लोगों का वह समूह हैं, जो किसी विशिष्ट व्यवसाय को चुन लेता है। प्राचीन कालीन समाज का वर्ण विभाजन व्यावसायिक विभाजन हो सकता है। जिन लोगों ने अपने गुणों एवं कर्मों के आधार पर किसी निश्चित व्यवसाय को चुन लिया है, वह वर्ण कहलाने लगे।
वर्ण शब्द का दूसरा अर्थ ‘रंग’ से माना जाता है। इस संबन्ध में सुप्रसिद्ध विद्वान पाण्डुरंग वामन काणे ने लिखा है कि “प्राचीन काल में वर्ण शब्द का प्रयोग गोरे रंग के आर्यों तथा काले रंग के यहाँ के मूल निवासियों के रंग भेद को स्पष्ट करने के लिए किया जाता था।”
इसके बावजूद समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्षों में विभक्त हो गया। पूर्व वैदिक काल में वर्ण का आधार कर्म था, न कि जन्म और ये गुणों से निश्चित होते थे न कि रंग से। इसलिए कहा जा सकता है कि वर्ण-व्यवस्था, श्रम-विभाजन की व्यवस्था का ही दूसरा नाम था। परन्तु कालान्तर में जातिभेद – सम्बन्धी मनुष्य की धारणाएँ रूढ़ होती गयीं और पेशे वंशानुगत हो गये। ब्राह्मण-युग आते-आते मनुष्य के सामाजिक जीवन में जातिभेद-सम्बन्धी धारणाओं की जड़ें इतनी गहराई तक प्रविष्ट हो गयीं कि देवगण भी चतुवर्ण में विभाजित माने जाने लगे।
छठी शताब्दी ई.पूर्व में जो सामाजिक व्यवस्था का स्परूप उत्तर भारत में दिखाई देता है, वही मध्यप्रदेश में भी। इस युग में अवन्ति में भी सभी वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के लोग रहते थे। देश के अन्य भागों से भी लोग आकर बस गये थे। जाति भेद जहाँ अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था और जाति के अनुसार ऊँच-नीच की भावना अति प्रबल हो गयी थी।
वहीं प्रद्योतकाल में गौतम बुद्ध और महावीर के उपदेशों के फलस्वरूप यहाँ जाति भेद और वर्ग भेद कम हो रहा था, फिर भी स्पृश्यापृश्य की भावना का समूल नाश नहीं हुआ था।
समाज में भिक्षु और ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। उनका कर्म मांगलिक पूजा पाठ करना होता था। आचार्य की अनुपस्थिति में आदेशानुसार उनके शिष्य ब्रह्मचारी पूजा करवाते थे जैसा कि उज्जयिनी के चित्त और सम्भूत ने तक्षक्षिला में शिक्षा प्राप्त करते समय पूजा पाठ किया था।
पालि-पिटक के अनुसार इस युग के ब्राह्मणों की दो प्रकार की श्रेणियाँ थी। प्रथम श्रेणी उन ब्राह्मणों की थी जो शास्त्रसम्मत ब्राह्मण-कर्म एवं वेदों का अध्यनाध्यापन करने वाले, पुरोहित एवं तपस्वी थे। दूसरी श्रेणी उन ब्राह्मणों की थी जो शास्त्रानुमोदित ब्राह्मणोचित कर्मों से विमुख हो गये थे और यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि समाज की परिवर्तनशील परिस्थितियों तथा आर्थिक आवश्यकताओं ने अनेक ब्राह्मणों को इसके लिए बाध्य किया होगा, कि वे अपने पैतृक कर्मों अध्यापन एवं पौरोहित्य का त्यागकर अन्य पेशे स्वीकार करें।
बौद्ध एवं जैन साहित्य में क्षत्रियों का स्थान सर्वोपरि था। पालिपिटक से ज्ञात होता है कि राजमंत्री, सेनानायक, प्रशासकीय उच्च पदाधिकारी तथा सामन्त प्रायः क्षत्रिय ही हुआ करते थे, केवल मंत्रिपद में अधिकतर ब्राह्मणों को नियुक्त किया जाता था। क्षत्रिय जाति प्रमुखतः युद्धजीवी थी, परन्तु आर्थिक परिस्थितिवश ब्राह्मणों के समान क्षत्रियों को भी अनेक प्रकार के कर्मक्षेत्रों में प्रवेश करने के लिए बाध्य होना पड़ा और उन्होंने वणिक, हस्तशिल्प, कुम्भकार, गायक-वादक आदि का कर्म भी किया। पालिपिटक में वैश्य वर्ण के लिए वेस्स, गहपति, सेट्टि, कुटुम्बिक इत्यादि संज्ञाएँ प्रयुक्त की गई हैं। वस्तुतः सेट्टि बड़े व्यापारी थे जिनका राज्य एवं समाज में बड़ा सम्मान था।
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