चंद राजाओं के समय में पुलिस प्रबन्ध थोकदारों व प्रधानों के हाथों में होता था। तराई क्षेत्र में मेवाती व हेड़ी मुस्लमान पुलिस का कार्य सम्पन्न करते थे। गोरखों का शासन फौजी था। अतः सैन्य अधिकारी ही यह कार्य भी देखता था। अंग्रेजी शासन काल की स्थापना के साथ ही इस क्षेत्र में पुलिस व्यवस्था का एक सुदृढ़ ढाँचा तैयार हुआ। यद्यपि तराई क्षेत्र में अंग्रेजो ने हेड़ी व मेवातियों को प्रारम्भ में इस कार्य को ठेके पर दिया। इन लोगों को ठेका था कि वे इस इलाके में चोरी डकैती न होने देगें और यदि हुई तो माल पूरा करेंगे। किन्तु डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट शेक्सपियर की रिपोर्ट के बाद सन् 1813 ई0 में यह व्यवस्था बंद कर दी गई और प्रत्येक घाटों पर कुमाऊँनी बटालियन के लोग रखे गए। भाबर–तराई में जंगलो के मध्य लीकें काट दी गई जिनमें सवार पहरा दिया करते थे।
सामान्यतः पहाड़ी जिले अपराधिक नहीं समझे जाते थे। इसलिए साधारण पुलिस (Regular Police) यहाँ पर पहले से भी नहीं थी। ट्रेल ने स्वयं स्वीकार किया है कि – ‘इस प्रांत में अपराधों की संख्या कम होने से फौजदारी पुलिस की कोई आवश्यकता नहीं है। कत्ल को यहाँ कोई जानता नहीं।’ चोरी व डकैती बहुत कम होती है। अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से लेकर अब तक जेल में 12 से ज्यादा कैदी कभी नहीं हुए और उनमें भी अधिकत्तर मेदानी क्षेत्रों से है। यहाँ पर मौतों का कारण सर्पदंश, जानवर से अथवा आत्महत्या से होती थी। स्त्री सम्बन्धी मुकदमें ज्यादा होते थे। 1824 ई0 में दास प्रथा के अंत और 1829 में सती प्रथा के अंत के साथ इनमें भी कमी आई।
पहाड़ों में अल्मोड़ा का थाना सबसे प्राचीन है जो 1837 ई0 स्थापित हुआ। इसके पश्चात क्रमशः 1843, 1869 ई0 ने नैनीताल और रानीखेत में थाना स्थापित हुए। अंग्रेजों ने यात्रा मार्ग पर पुलिस व्यवस्था की। मोटरमार्ग के निर्माण के बाद इन पर भी ट्रेफिक पुलिस चौकियाँ स्थापित की गई।
पहाड़ों में कम खर्च पर पुलिस व्यवस्था का सर्वोत्तम तरीका ट्रेल ने निकाला। उन्होंने पटवारी के रूप में राजस्व पुलिस की स्थापना कर ग्रामीण क्षेत्र में पुलिस के सामान्य कार्यों को इस पद में निहित कर दिया। इस संदर्भ में रामजे की राय विशेष है। कि- “मै समझता हूँ कि हमारा गाँव सम्बन्धी पुलिस का तरीका भारत में सबसे अच्छा है। यह ग्राम पुलिस सस्ती है। इसमें सरकार का कुछ भी खर्च नहीं होता।” यद्यपि इस व्यवस्था में पटवारी, पेशकार, पंच, पतरौल इत्यादि सीधे-साधे व अशिक्षित जनता का अधिकाधिक शोषण करते थे। 1920-22 के असहयोग आन्दोलन के बाद पटवारी की स्थिति में परिवर्तन आया। साक्षरता बढ़ने से कुमाऊँ के लोग अब पहले जैसे सीधे न रहे। स्थानीय जनता में आई जागरूकता के कारण अब पटवारी को वसूली में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उसकी शक्तियाँ कम पड़ने लगी और पट्टी से उसका दबदबा न्यून होने लगा। 1925 ई0 के गजेत्यिर में इसलिए परिशिष्ट लिखा गया कि अब रामजे साहब की राय में संशोधन होना जरूरी है।
सामान्यतः ब्रिटिश राजकाल में सारे प्रान्त की पुलिस व्यवस्था इन्सपैक्टर-जनरल के हाथों में होती थी जिसके अधीन सुपरिटेन्डेन्ट, डिप्टी सुपरिटेडेन्ट, इन्सपैक्टर सब-इन्सपैक्टर होते थे। कमोबेश पुलिस का यही ढाँचा बिना परिवर्तन के अब भी जारी है। न्याय व्यवस्था के तहत वर्ष 1838 ई0 के नियम-10 के तहत जिले के पश्चिमकोत्तर भाग में सदर दीवानी अदालत, सदर निजामत अदालत और सदर बोर्ड माल के अधीन हुए। बोर्ड ऑफ रेवेन्यू इस क्षेत्र में मालगुजारी के विषय का अधिष्ठाता था। इस सम्बन्धी मामलों की सुनवाई केवल माल की कचहरियों में ही होती थी। सन् 1894 ई0 तक कुमाऊँ कमिश्नर ही न्याय का सर्वेसर्वा था। उसे फांसी देने तक का अधिकार था जिसकी अपील हाईकोर्ट में नहीं हो सकती थी। 1894 ई0 से 1914 ई0 तक सेशन जज के कोर्ट खुले। वर्ष 1914 ई0 में न्याय विभाग पृथक हो गया और इनका सीधा सम्बन्ध उच्च न्यायालय से हो गया।
पहला मुंसिफ वर्ष 1929 ई0 में नियुक्त हुआ। कमिश्नर के रिश्तेदार को सदर अमीन बनाया गया। 1838 ई0 में ये पद समाप्त कर दिए गए। अधिनियम 10, 1838 के अनुसार कुमाऊँ को गढ़वाल एवं कुमाऊँ दो प्रान्तों में विभक्त किया गया। एक-एक सिनियर असिटेण्ट कमिश्नर और सदर अमीन नियुक्त हुए। मुसिंफ के अधिकार तहसीलदार पद में निहित कर दिए गए।
ब्रिटिश कालीन उत्तराखंड
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