उत्तराखण्ड में ब्रिटिश शासन का इतिहास (British rule in Uttarakhand) | TheExamPillar
History of British rule in Uttarakhand

उत्तराखण्ड में ब्रिटिश शासन का इतिहास (History of British rule in Uttarakhand)

उत्तराखण्ड में पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में छोटी-छोटी सामंतशाहियों का एकीकरण कर चंद, परमार शक्तियों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया और कुमाऊँ तथा गढ़वाल के दो पृथक राज्यों की स्थापना की। राज्यों के बीच निरन्तर होने वाले युद्धों, बाह्य आक्रमणों आदि के कारण कला और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई किन्तु अन्य कई क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन हुए। इस काल में स्थायी शान्ति व्यवस्था न होने के बावजूद भी गोरखा युगीन अराजकता के दर्शन नहीं होते। 1815 के उपरान्त उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक शासन के प्रवेश के साथ ही इस अंचल के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्वरूप में बदलाव आया।

उत्तराखण्ड में ब्रिटिश आगमन के उद्देश्य एवं पृष्ठभूमि

उत्तराखण्ड में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आगमन को उसके औपनिवेशिक और अन्वेषी नजरिये के आधार पर व्यापक परिदृश्य में देखने के प्रयास किए गए हैं। विभिन्न यूरोपीय यात्रियों जैसे देसीदेरी, मूरक्राफ्ट, कैप्टन हियरसे, फेजर आदि के विवरणों तथा अन्य उपलब्ध साक्ष्यों के आधार शेखर पाठक ने 18वीं – 19वीं शताब्दी को हिमालय के संदर्भ में युगान्तरकारी बताते हुए कम्पनी के हिमालय आकर्षण तथा उत्तराखण्ड में घुसपैठ के प्रमुख उद्देश्यों को इस प्रकार चिह्नित किया है –
1. ईसाई धर्म का प्रसार
2. कम्पनी तथा इंग्लैंड की औद्योगिक जरूरतों हेतु कच्ची सामग्री तथा बाजार ढूढना
3. नेपाल युद्ध के बाद सैन्य जातियों की खोज
4. हिमालय में छोटा इंग्लैंड बनाने का स्वप्न
5. नेपोलियन के कारण संभावित खतरे का क्षेत्र पश्चिमी हिमालय और काराकोरम होना
6. गोरखों के प्रति कुमाऊँ गढ़वाल तथा हिमाचल में मौजूद असन्तोष और गोरखों द्वारा बार बार कम्पनी क्षेत्र में घुसपैठ
7. उत्तराखण्ड की वन संपदा जिसमें कम्पनी को पर्याप्त लाभ प्राप्त होने की संभावना थी।

उत्तराखंड का प्रशासनिक पुनर्गठन – (ब्रिटिश कुमाऊँ, गढ़वाल)

1815 में गोरखों को पराजित करने के उपरान्त कम्पनी ने सिगौली की संधि से कुमाऊँ तथा गढ़वाल को ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित क्षेत्र के अन्तर्गत ले लिया गया ओर एक पृथक प्रशासनिक इकाई के रूप में कुमाऊँ कमिश्नरी का गठन हुआ। वर्तमान देहरादून जिले का भू-भाग मेरठ कमिश्नरी के अन्तर्गत सहारनपुर जिले से संयुक्त किया गया। मन्दाकिनी और अलकनन्दा का पश्चिमी भाग (वर्तमान उत्तरकाशी और टिहरी जिले) राजा सुदर्शनशाह को दिया गया। राजा ने भागीरथी और भिलंगना नदियों के बायें तट पर स्थित टिहरी नामक एक छोटे से गाँव को अपनी राजधानी बनाया। 1824 में रवाई परगने का कुछ भाग भी टिहरी में शामिल किया गया। 1825 में देहरादून तथा जौनसार को सहारनपुर से लेकर कुमाऊँ कमिश्नरी में सम्मिलित कर लिया गया, पर 1829 में पुनः कुमाऊँ से पृथक कर दिया गया। इस प्रकार 1815 में देहरादून के मेरठ कमिश्नरी से संयुक्त किए जाने के उपरान्त उत्तराखण्ड दो भिन्न सामाजिक-राजनीतिक इकाइयों में विभक्त दिखाई देता है- ब्रिटिश कुमाऊँ और टिहरी रियासत । इनमें से ब्रिटिश कुमाऊँ के अन्तर्गत कुमाऊँ तथा गढ़वाल दोनों सम्मिलित थे। काफी समय तक कुमाऊँ गैर आइनी प्रदेश (Non Regulation Province) रहा।

ब्रिटिश कुमाऊँ (गढ़वाल)

उत्तर में तिब्बत से लेकर दक्षिण में रुहेलखण्ड तक तथा पश्चिम में टिहरी राज्य से पूर्व में नेपाल तक विस्तृत लगभग 9600 वर्ग किमी. का भू-भाग इसके अन्तर्गत था। इस क्षेत्र पर औपनिवेशिक शासन के तेरह दशकों (1815-1947) में से जॉर्ज विलियम ट्रेल (1815-35), जे.एच. बैटन (1848-1856), तथा हेनरी रैमजे (1856-1884) का युग व्यापक निर्माण एवं परिवर्तनों का युग रहा। इस अवधि में विभिन्न बन्दोबस्तों के माध्यम से कुमाऊँ की प्रशासनिक इकाइयों और उनकी सीमाओं के पुनर्गठन के साथ-साथ भू-व्यवस्था को भी एक नया स्वरूप प्रदान किया गया। अगले छः दशकों में 17 कमिश्नर और हुए।

1815 में एडवर्ड गार्डनर को कुमाऊँ का प्रथम कमिश्नर नियुक्त किया गया, किन्तु छः माह बाद ही ट्रेल को कमिश्नर बनाया गया। ब्रिटिश कुमाऊँ के प्रशासनिक पदानुक्रम में कमिश्नर सर्वोच्च पदाधिकारी था।

1839 में कुमाऊँ कमिश्नरी को दो जिलों- कुमाऊँ तथा गढ़वाल में विभाजित किया गया। 1858 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन का नियंत्रण ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश क्राउन को सौंपे जाने के बाद प्रशासनिक दृष्टि से पहला परिवर्तन 1862 में तराई जिले के गठन के रूप में हुआ 1871 में देहरादून को सहारनपुर जिले से अलग करके एक स्वतंत्र जिला घोषित किया गया। 1891 में कुमाऊँ के छः तथा तराई के सात परगनों को मिलाकर नैनीताल जिले का और कुमाऊँ जिले के शेष भाग से अल्मोड़ा जिले का गठन किया गया।

1815 में प्रथम कमिश्नर एडवर्ड गार्डनर के समय यहाँ नौ तहसीलें – अल्मोड़ा, काली कुमाऊँ, पाली पछाऊँ, कोटा, सोर, फलदाकोट, रामगढ़, श्रीनगर और चाँदपुर थीं 1816 में द्वितीय कमिश्नर ट्रेल ने इन तहसीलों को अल्मोड़ा में मिलाकर इस नयी तहसील को हजूर तहसील नाम दिया। 1821 में सोर तहसील को समाप्त करके गंगोली को हजूर तहसील (अल्मोड़ा) में तथा सोर-सीरा और अस्कोट परगनों को काली कुमाऊँ से संयुक्त किया गया। 1823 ई. में साल अस्सी (संवत 1880) के बन्दोबस्त के माध्यम से ट्रेल ने प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन किए। इस समय तक तहसीलों की संख्या घटकर चार (हजूर, काली कुमाऊँ, श्रीनगर और चाँदपुर) रह गई। 1834 में ट्रेल ने श्रीनगर और चाँदपुर को एक तहसील में संयुक्त करके कैन्यूर को नई तहसील का मुख्यालय बनाया। 1839 में पृथक जिला बनने के बाद गढ़वाल में एक ही तहसील थी, जिसका मुख्यालय पौड़ी में था। 1840 के बाद कुमाऊँ जिले में एक तीसरी तहसील भाबर का गठन हुआ, जो संभवतः 19वीं शताब्दी के पाँचवें दशक तक बनी रही। कुछ समय के लिए इस तहसील को विघटित कर दिया गया और 1860 के बाद किसी वर्ष में पुनः भाबर तहसील का गठन करके हल्द्वानी में इसका मुख्यालय बनाया गया। 1891 में नैनीताल तहसील बनी। 1891 में तराई क्षेत्र में भी तीन तहसीलें – काशीपुर, रुद्रपुर तथा किलपुरी थीं।

प्रारंभ में ब्रिटिश कुमाऊँ के पूर्वी क्षेत्र (कुमाऊँ) में कुल चौदह तथा पश्चिमी क्षेत्र (गढ़वाल) में कुल सत्रह परगने थे। 1821 में इनकी संख्या बढ़ाकर उन्नीस कर दी गई। गढ़वाल में कुछ परगनों को विघटित करके अन्य परगनों में सम्मिलित किया गया और सत्रह के स्थान पर कुल ग्यारह परगनों का सृजन हुआ। 1838-46 में बैटन के बन्दोबस्त में भी इनकी संख्या और स्थिति यथावत रही।

ट्रेल के समय में कुमाऊँ के परगनों में कुल अस्सी (80) तथा गढ़वाल में कुल अड़तालीस (48) पट्टियाँ थीं। परंतु पट्टियों का निर्धारण भौगोलिक सीमाओं को ध्यान में रखकर नहीं किया गया था। हेनरी रैमजे के काल में बैकेट ने 1861-64 (गढ़वाल) तथा 1863, 73 (कुमाऊँ) में अपने तीस वर्षीय बन्दोबस्त (दसवें) के द्वारा इस क्षेत्र के परगनों में स्थित पट्टियों तथा उनके गाँवों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण और विभाजन इनकी भौगोलिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए किया। 1892-93 में पुनः पट्टियों की सीमाओं में कुछ परिवर्तन किए गए। इस परिवर्तन के बाद अल्मोड़ा जिले में 101, नैनीताल में 25 तथा गढ़वाल जिले में 77 पट्टियाँ विद्यमान थीं। बैकेट के बन्दोबस्त की अवधि 1902 ई. तक ही होने के कारण 1899 में गूज ने पुनरीक्षण कार्य किया परन्तु कुछ परगनों में कृषि भूमि की माप और कर संबंधी सुधारों को छोड़कर बेकेट द्वारा किए गए कार्यों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का प्रयास नहीं किया।

1857 और उत्तराखण्ड

1857 की घटनाओं ने उत्तराखण्ड को भी प्रभावित किया, पर यह प्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित नहीं हुआ। यहाँ विरोधियों में कालू महरा, आनंदसिंह फत्र्याल, बिशन सिंह करायत के नाम उल्लेखनीय हैं। कमिश्नर रैमजे ने पर्वतीय भागों को इसके प्रभाव से रोकने के लिए पर्याप्त उपाय किए। ब्रिटिश गढ़वाल में पुराने वन ठेकेदार पदमसिंह नेगी तथा कमाऊँ के प्रवेश मार्गों पर धर्मानन्द जोशी को प्रभार सौंपा गया। प्रशासनिक सक्रियता से यहाँ स्थिति नियंत्रण में रही। तराई-भाबर का इलाका इससे पूरी तरह प्रभावित हुआ।

कुमाऊँ परिषद

1916 में गोविन्दबल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत, चंद्रलाल शाह, बदरीदत्त पांडे आदि के प्रयासों से कुमाऊँ परिषद की स्थापना हुई, जिसका प्रथम अधिवेशन नैनीताल के मझेड़ा ग्राम में रायबहादुर नारायणदत्त छिपाल की अध्यक्षता में हुआ। 1916 से 1926 तक इसके सात अधिवेशन हुए। 1923 से परिषद ने कांग्रेस के कार्यक्रमों को अपना लिया।

Source – 

  • रिपोर्ट ऑन द सैटिलमेंट ऑफ कुमाऊँ डिस्ट्रिक्ट, हेनरी रैमजे (इलाहाबाद 1874)
  • बदरीदत्त पाण्डे, कुमाऊँ का इतिहास, अल्मोड़ा, (1937)
  • शेखर पाठक, सरफरोशी की तमन्ना, नैनीताल (2000)
  • धर्मपाल सिंह मनराल, स्वतंत्रता संग्राम में कुमाऊँ, गढ़वाल का योगदान, बरेली (1978)

ब्रिटिश कालीन उत्तराखंड

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