Medieval History Notes in hindi - Page 2

वुड घोषणा पत्र (1854)

वुड घोषणा पत्र (1854)
Wood’s despatch (1854)

सन् 1853 में जब पुन: कंपनी के आज्ञा पत्र के नवीनीकरण का अवसर आया तो इंग्लैण्ड के राजनीतिक क्षेत्रों में यह विवाद का विषय था कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा नीति में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक है। इसके लिए एक संसदीय समिति भारतीय शिक्षा पद्धति के लिए नियुक्त की गई। इस समिति के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सन् 1854 में शिक्षा संबंधी एक अन्य घोषणा पत्र प्रकाशित किया गया। 

यह घोषणा पत्र 100 अनुच्छेदों का एक लम्बा अभिलेख था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सभापति सर चार्ल्स वुड ने भारतीय शिक्षा के संबंध में विस्तृत रूप से अपने सुझाव भेजे। इतिहास में इस घोषणा पत्र को “वुड का घोषणा पत्र” के नाम से जाना जाता है। इस घोषणा पत्र को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना-कार्टा (युग- प्रवर्तक) पुकारा गया है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके द्वारा ही आधुनिक शिक्षा निश्चित हुई। 

उसके सुझावों की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं – 

  1. अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति पूर्ववत रही। परन्तु भारतीय भाषाओं के ज्ञान को भी अंग्रेजी भाषा के माध्यम से विकसित करने पर बल दिया गया।
  2. गाँवों में प्राइमरी वर्नाक्यूलर स्कूल स्थापित किये जाये और जिले में ऐग्लों वर्नाक्यूलर माध्यमिक विद्यालय तथा कॉलेज स्थापित किये जायें।
  3. व्यक्तिगत प्रयत्नों से स्कूल और कॉलेज स्थापित किये जाने को प्रोत्साहन दिया जाये और सरकार उनको आर्थिक-अनुदान प्रदान करे। 
  4. प्रत्येक प्रांत में एक डायरेक्टर के अधीक्षण में एक शिक्षा-विभाग खोला जाये जो प्रांत की शिक्षा-व्यवस्था की देखभाल करे और उस सम्बन्ध मे सरकार को प्रतिवर्ष अपनी रिपोर्ट दे। 
  5. लंदन विश्वविद्यालय के समकक्ष कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में विश्वविद्यालय खोले जायें। 
  6. व्यावसायिक शिक्षा की वृद्धि के लिए पृथक स्कूल और कॉलेज खोले जायें। 
  7. इंग्लैण्ड की भांति अध्यापकों की शिक्षा के लिए पृथक ट्रेनिंग-स्कूल खोले जायें
  8. स्त्री-शिक्षा का विस्तार किया जाये ।

चार्ल्स वुड की ये सिफारिशें प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का अनुकरण थी, जिन्हें ज्यों का त्यों लागू किया गया। भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणापत्र का एक विशेष स्थान है। घोषणा-पत्र के निर्माताओं ने भारतीय शिक्षा के इतिहास में प्रथम बार क्रांतिकारी सुझाव प्रस्तुत किये। इस घोषणा पत्र में भारतीय शिक्षा के समस्त अंगों पर प्रकाश डाला गया। इसीलिए ए.एन.वसु ने कहा “यह घोषणा पत्र भारतीय शिक्षा का आधार कहा जाता है। इसी ने भारत में आधुनिक शिक्षा-प्रणाली का शिलान्यास किया ।”

सन् 1854 से 1882 तक की अवधि में तेरह महाविद्यालयों की स्थापना की गयी। सन् 1872 में विलियम म्योर ने “म्योर सेन्ट्रल कॉलेज” तथा 1875 में सैयद अहमद खां ने “मुस्लिम एंग्लो ओरियन्टल कॉलेज” की स्थापना अलीगढ़ में की जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया। 

 

Read More :

मैकाले शिक्षा पद्धति (1835)

मैकॉले का विवरण पत्र (1835)

शिक्षा की ओर सर्वप्रथम एक महत्वपूर्ण प्रयास गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक के समय में उठाया गया। बेंटिंक स्वयं पाश्चात्य-शिक्षा को आरंभ किये जाने के पक्ष में था। परन्तु उसने अपने विचार को लादने का प्रयत्न नहीं किया। बेंटिंक ने अपने कानूनी सदस्य मैकॉले को शिक्षा समिति का सभापति नियुक्त किया और उससे निर्णय लेने को कहा। 

2 फरवरी 1835 को मैकॉले ने अपने विचारों को एक विशेष ऐतिहासिक विवरण पत्र में प्रस्तुत किया। उसने भारतीय शिक्षा और शान को बहुत हीन बताया और अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया। भारतीय भाषाओं के विषय मे उसने लिखा है – “भारतीयों में प्रचलित भाषाओं में साहित्यिक तथा वैज्ञानिक शब्दकोष का अभाव है तथा वे इतनी अल्प विकसित और गँवारू है कि जब तक उसको बाह्य भंडार से सम्पन्न नहीं किया जायेगा तब तक उसमें सरलता से महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद नहीं किया जा सकता ।” इस प्रकार मैकॉले के अनुसार भारतीय भाषाएँ अविकसित और अवैज्ञानिक थीं ।

मैकॉले ने घोषणा की, कि कानूनों के ज्ञान के लिये संस्कृत, अरबी, फारसी के शिक्षालयों पर धन व्यय करना मूर्खता है। उनको बंद करके सरकार को हिन्दू और मुस्लिम कानूनों को अंग्रेजी में संहिताबद्ध कर देना चाहिए। 

1835 के शिक्षा-प्रस्ताव की धाराएँ इस प्रकार थी – 

  1. प्राच्य शिक्षा प्रसार के लिए अब तक जो कुछ भी किया गया है, उसको समाप्त न करके, उसको वैसा ही बना रहने दिया जाये । उसके अध्यापकों तथा छात्रों को पूर्व के समान अनुदान मिलता रहेगा
  2. आंग्ल सरकार का प्रमुख उद्देश्य भारतीयों में यूरोपियन साहित्य और विज्ञान का प्रचार करना है । अत: भविष्य में शिक्षा संबंधी धन राशि, अंग्रेजी माध्यम द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा पर ही व्यय की जायेगी । 
  3. प्राच्य विद्या सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन भविष्य में नहीं किया जायेगा 
  4. प्राच्य साहित्य के स्थान पर, अंग्रेजी साहित्य तथा विज्ञान से संबंधित ग्रंथों के प्रकाशन में धन व्यय किया जायेगा 

उपरोक्त विवरण पत्र पर पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने 7 मार्च, 1835 के आज्ञापत्र में मैकॉले की सभी बातें स्वीकार कर ली । इस आज्ञापत्र के बाद से लॉर्ड मैकॉले को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का जन्मदाता कहा जाता है।

1835 ई. में बेंटिंक ने कलकत्ता में एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की, रूड़की में थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज खोला गया और मद्रास में 1852 ई. में मद्रास यूनिवर्सिटी हाई स्कूल की स्थापना की गयी । 

सरकारी स्कूलों में कतिपय छात्रवृत्तियाँ देने की व्यवस्था की गयी और देशी भाषाओं की प्रगति में भी कुछ धन व्यय किया गया । 

लार्ड हार्डिंज की 1844 की इस घोषणा में अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों को सरकारी नौकरी प्रदान करने मैं प्राथमिकता दी जावेगी ने उन शिक्षा की गीत को और भी तीव्र कर दिया । 

 

Read More :

भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति

भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति
(British Education Policy in India) 

1772 ई. में बंगाल से भारत में प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन का आरंभ हुआ। परन्तु एक लम्बे समय तक कम्पनी के डायरेक्टरों ने भारतीयों की शिक्षा के लिए कोई भी कदम उठाना अपना उत्तरदायित्व नहीं समझा। जो कुछ भी प्रयत्न हुआ, वह भारत में निवास करने वाले अंग्रेज अधिकारियों के प्रयत्नों से हुआ। 

  • वारेन हेस्टिंग्स ने 1781 ई. में कलकत्ता-मदरसा की स्थापना की, जहाँ फारसी और अरबी भाषा की शिक्षा का प्रबंध किया गया। 
  • 1791 ई. में अंग्रेज रेजीडेण्ट जोनाथन डनकन के प्रयत्नों से बनारस में संस्कृत कॉलेज की स्थापना हुई। 
  • लॉर्ड वेलेजली ने अंग्रेज कर्मचारियों को भारतीय भाषाओं तथा रीति-रिवाजों की शिक्षा प्रदान करने के लिए 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की, स्थापना की परन्तु 1802 में डायरेक्टरों के आदेश के कारण उसे बन्द कर दिया गया ।
  • 1813 ई. के आदेश-पत्र में यह निश्चित किया गया, कि भारतीयों की शिक्षा के लिए कम्पनी की सरकार प्रतिवर्ष एक लाख रुपया व्यय करेगी। 
  • विभिन्न ईसाई पादरी और उदार भारतीय तथा राजा राम मोहन राय अंग्रेजी शिक्षा को आरंभ किये जाने के पक्ष में थे। परन्तु अनेक भारतीय तथा अंग्रेज ऐसे भी थे जो ऐसा नहीं चाहते थे । 

बाद में अंग्रेजों व भारतीयों के सहयोग से कई आयोगों के गठन किये गए जो इस प्रकार हैं  –  

  • मैकॉले का विवरण पत्र (1835)
  • वुड घोषणा पत्र (1854)
  • हंटर कमीशन (1882-83)
  • कर्जन की शिक्षा नीति (1901)
  • 1913 का शिक्षा-नीति संबंधी सरकारी प्रस्ताव
  • सैडलर विश्वविद्यालय कमीशन (1917-19)
  • हर्टाग (HARTOG) समिति (1929)
  • वुड-एबट रिपोर्ट (1936)
  • बेसिक शिक्षा की वर्धा योजना (1937)
  • सार्जेण्ट शिक्षा योजना (1944)
  • स्वाधीनता के पश्चात शिक्षा का विकास (1947-1950 ई.)

 

Read More :

बंगाल विभाजन (1905 – 1911)

बंगाल विभाजन 1905
(Bengal Partition 1905)
Bengal Partition 1905

  • वायसराय – लॉर्ड कर्जन 
  • 20 जुलाई, 1905 को बंगाल विभाजन की घोषणा हुई। 
  • 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में कलकत्ता के टाउन हाल में एक विशाल प्रदर्शन आयोजित किया गया। बंगाल विभाजन के विरोध में ‘स्वदेशी आंदोलन’ की घोषणा हुई तथा बहिष्कार प्रस्ताव पारित हुआ। 
  • 16 अक्तूबर, 1905 से बंगात विभाजन की घोषणा प्रभावी हो गई।
  • पूरा बंगाल पूर्वी तथा पश्चिमी बंगाल में बँट गया। 
  • 16 अक्तूबर, 1905 का दिन समूचे, बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। 
  • रवीन्द्रनाथ टैगोर के कहने पर इस दिवस को राखी दिवस के रूप में मनाया गया। 
  • कांग्रेस ने 1905 के बनारस अधिवेशन में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन का अनुमोदन किया। 
  • पूना एवं बंबई में इस आंदोलन का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक व उनकी पुत्री केतकर ने किया।
  • पंजाब में इस आंदोलन का नेतृत्व लाल लाजपत राय एवं अजीत सिंह ने किया।
  • दिल्ली में इस आंदोलन का नेतृत्व सैय्यद हैदर रजा ने किया।
  • मद्रास में इस आंदोलन का नेतृत्व चिदम्बरम पिल्लई ने किया।
  • कांग्रेस ने 1906 के कोलकाता अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी द्वारा प्रथम बार स्वराज्य की मांग की जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने अरुण्डेल के नेतृत्व में  एक समिति का गठन किया। 

अरुण्डेल समिति 

  • वायसराय – मिंटो – II 
  • अगस्त 1906 में राजनीतिक सुधारों के विषय में सलाह देने के लिए समिति का गठन किया गया। 
  • समिति ने बंगाल विभाजन को पुनः सयुक्त करने की आवश्यकता पर बल दिया। 

दिल्ली दरबार का आयोजन (1911) 

  • 12 दिसंबर, 1911 को दिल्ली में इंग्लेंड के सम्राट जॉर्ज पंचम एवं महारानी मैरी के स्वागत में दिल्ली दरवार का आयोजन किया गया।
  • इस समय भारत का वायसराय लार्ड हार्डिंग था 
  • इस आयोजन में 1905 में हुए बंगाल विभाजन को रद किया गया, साथ ही कलकत्ता की जगह दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया। 
  • बंगाल विभाजन को रद्द करके उड़ीसा और बिहार को बंगाल से पृथक् कर किया गया। असम में सिलहट को मिलाकर एक पृथक प्रांत के रूप में गठन किया गया।
  • 1 अप्रैल 1912 को दिल्ली भारत की राजधानी बन गई। 

 

इसी समय क्रांतिकारियों द्वारा दिल्ली षडयंत्र केस (23 दिसंबर, 1912) रचा गया। वायसराय डार्डिग जिस समय अपने परिवार के साथ समारोह में भाग लेने के लिये दिल्ली में प्रवेश कर  रहा था, उसी समय चांदनी चौक में उनके जुलुस पर बम फेंका गया, जिसमें हार्डिंग घायल हो गए। इस कार्य को रासबिहारी बोस एवं सचिन सान्याल के नेतृत्व में बसंत विश्वास, अमीर चंद, अवध बिहारी एवं बाल मुकुदं ने अंजाम दिया था। बाद में इन चारों पर दिल्ली षडयंत्र  केस चलाया गया। इसी केस के वह उनको फांसी दे दी गई।

 

Read More :

भारतीय समाज में सामाजिक व धार्मिक सुधार आन्दोलन

भारतीय समाज में सामाजिक व धार्मिक सुधार आन्दोलन
(Social and Religious Reform Movement in Indian Society)

संस्था  स्थापना स्थल संस्थापक  प्रमुख उद्देश्य 
आत्मीय सभा  1815 कलकत्ता राममोहन राय  हिंदू धर्म की बुराइयों पर आक्रमण व एकेश्वरवाद का प्रचार-प्रसार था। 
ब्रह्म समाज  1828 कलकत्ता राममोहन राय  पहले इसका नाम ब्रह्म सभा था तथा इसका उद्देश्य एकेश्वरवाद था। 
धर्म सभा 1829 कलकत्ता राधाकांत देव इसकी स्थापना ब्रह्मसमाज के विरोध में हुई तथा इसका उद्देश्य कट्टरपंथी हिन्दू धर्म की रक्षा था। 
तत्वबोधिनी सभा  1839 कलकत्ता देवेंद्रनाथ टैगोर  राममोहन राय के विचारों का प्रचार करना था। 
मानव धर्म सभा  1844 सूरत  दुर्गाराम मंछाराम  जाति प्रथा के बंधनों को तोड़ना था। 
परमहंस मंडली  1849 बम्बई  दादोबा पांडेरंग  जाति प्रथा के बंधनों को समाप्त करना था। 
राधा स्वामी सत्संग  1861 आगरा तुलसी राम एकेश्वरवादी सिद्धांतों का प्रचार था। 
भारत का ब्रह्म समाज 1866 कलकत्ता केशव चंद्र सेन मूल ब्रह्म समाज (राममोहन राय द्वारा स्थापित) से होकर सेन ने नई संस्था की स्थापना की, जिसका मुद्दा समाज सुधार था। इस विभाजन के बाद मूल समाज आदि ब्रह्म समाज कहा गया। 
प्रार्थना समाज 1867 बम्बई  डॉ. आत्मारंग पांडुरंग एम.जी. रानाडे तथा आर.जी. भंडारकर 1870 में इसके सदस्य बने। इसका हिन्दू धर्म के विचारों तथा प्रचलनों में सुधार था। 
आर्य समाज  1875 बम्बई  स्वामी दयानंद सरस्वती  हिंदू धर्म में सुधार तथा हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रोकना था। 
थियोसोफिकल सोसाइटी 1875 न्यूयॉर्क मैडम एच.पी. व कर्नल आलकॉट प्राचीन धर्म एवं दर्शन का प्रसार तथा विश्व बंधुत्व था।
साधारण ब्रह्म समाज 1878 कलकत्ता आनंद मोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री  ब्रह्म समाज में दूसरा विभाजन, समाज की व्यवस्था तथा समाज सुधार के प्रश्न पर के.सी. सेन के युवा अनुयायियों के एक वर्ग ने उन्हें छोड़ दिया। 
दक्कन शिक्षा समाज  1884 पूना  जी.जी. अगरकर युवाओं को देश सेवा के लिए तैयार करने हेतु शिक्षा का पुनर्गठन करना था। 
इंडियन नेशनल सोशल कॉफ्रेंस  1887 बम्बई  एम.जी. राणाडे  भारतीय समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करना तथा महिला कल्याण था। 
देव समाज 1887 लाहौर शिवनारायण अग्निहोत्री ब्रह्म समाज की तरह था पर इसके विपरीत इसके अनुयायी गुरू को पूजते थे। 
रामकृष्ण मिशन  1897 बेलूर  स्वामी विवेकानंद मानवतावादी एवं सामाजिक कार्य करना था। 
भारत सेवक समाज  1905 बम्बई गोपाल कृष्ण गोखले  मातृभूमि की सेवा के लिए भारतीयों को विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षित करना था। 
पूना सेवा सदन 1909 पूना श्रीमती रमाबाई राणाडे एवं जी.के. देवधर  महिला कल्याण को बढ़ावा देना व उनका उत्थान करना था।
सोशल सर्विस लीग 1911 बम्बई एन.एम. जोशी सामान्य नागरिक के लिए जीवन में कार्य के बेहतर करने का अवसर प्रदान करना था। 
सेवा समिति 1914 इलाहाबाद हदयनाथ कुंजरू प्राकृतिक विपदाओं के समय समाज सेवा, शिक्षा, सफाई शारीरिक संस्कृति आदि का विकास करना था। 
सेवा समिति बाल स्काउट एसोसिएशन  1914 बम्बई श्रीराम वाजपेयी भारत में बाल स्काउट आंदोलन का भारतीयकरण करना था।
वीमेंस इंडियन एसोसिएशन 1923 मद्रास भारतीय महिलाओं का कल्याण हेतु 1926 को ऑल इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस की वार्षिक बैठक से प्रारंभ हेतु। 
रहनुमाई मज्दयास्नन सभा (पारसी धर्म सुधार) 1851 बम्बई नौरोजी फुरदुनजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली  जरथ्रूष्ट्र धर्म सुधार तथा पारसी महिलाओं का आधुनिकीकरण करना था। (अवेस्ता : पवित्र धर्मग्रंथ, अहुर मज्दा : उनका देवता, जरथुष्ट्रः धर्म का संस्थापक)। 
निरंकारी 1840 पंजाब  दयाल दास, दरबारा सिंह रतन चंद  सिख धर्म का शुद्धीकरण।
नामधारी 1857 पंजाब राम सिंह सिख धर्म सुधार हेतु।

 

 

Read More :

देवगिरि के यादव (Yadav of Devagiri)

देवगिरि के यादव (Yadav of Devagiri)

इस परिवार का पहला व्यक्ति दृधप्रहार था। उनके पुत्र सेउनाचंद्र I ने सर्वप्रथम परिवार के लिए सामंतों का स्तर प्राप्त किया था। उनके महत्त्व को इस बात से समझा जा सकता है कि यादवों के राज्य को सेउना-देश के नाम से जाना गया। भील्लम II के समय राष्ट्रकूट राज्य में पश्चिमी चालुक्यों ने नष्ट कर दिया। उनके बाद वेसुंगी, भील्लाम III, के भील्लाम IV, सेउनाचन्द II, सिम्हराज, मल्लुजी तथा भील्लाम V आए।

भील्लाम V (Bhillam V)

  • जब भील्लाम V गद्दी पर आए तो चालुक्य शक्ति का पतन हो रहा था। 
  • यादवों ने इस स्थिति का फायदा उठा अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। 
  • भील्लाम ने इस तरह जिस यादव साम्राज्य की नींव रखी वह लगभग एक शताब्दी तक चली।

जैतुगी (Jaitugi)

  • इन्होंने अपनी दक्षिणी सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए काकातियों की उभरती शक्ति पर आक्रमण किया।
  • काकातिया राजा रुद्र इसमें मारा गया तथा उसके भतीजे गणपति को बन्दी बना लिया गया। जैतुगी ने गणपति को गद्दी पर बिठाया। 
  • जैतुगी मात्र एक सैनिक नहीं था बल्कि एक विद्वान भी था। महान खगोलशास्त्री भास्कराचार्य का पुत्र लक्ष्मीधर इनका मुख्य दरबारी कवि था।

सिम्हन (Simhan)

  • यह पूरे परिवार का सबसे शक्तिशाली राजा था। 
  • इन्होंने परमार राजा अर्जुनवर्मण को पराजित कर उसे मौत के घाट उतार दिया। 
  • इस तरह यादव राज्य अपने पराक्रम तथा वैभव के शीर्ष पर पहुंच गया। 
  • होयशाल, काकातिया, परमार तथा चालुक्य में से किसी ने उनकी स्थिति को चुनौती देने की हिम्मत नहीं की।
  • सिम्हन एक योद्धा के साथ-साथ संगीत तथा साहित्य में रुचि रखने वाला व्यक्ति था। 
  • संगीत पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य, सारंगदेव का संगीतरत्नाकर इनके दरबार में लिखा गया था। 
  • अनन्तदेव तथा चांगदेव इनके दरबार के दो प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे। 
  • चांगदेव ने अपने दादा भास्कराचार्य की याद में खानदेश के पटाना में एक खगोलीय महाविद्यालय की स्थापना की थी। 
  • अनन्तदेव ने ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मस्फूत सिद्धान्त तथा वराहमिहिर के वृहद जातक पर टिप्पणियां लिखी थीं।

कृष्ण (Krishna)

  • इनके शासनकाल में वेदान्तकल्पतरु, जो कि भामती पर टिप्पणी (जो खुद शंकराचार्य के वेदांतसूत्रभाष्य पर टिप्पणी लिखी गई थी) है।

महादेव (Mahadev)

  • इन्होंने काकातिया राजा रुद्रंब को पराजित किया परन्तु उन्हें जीवनदान दिया। 
  • हेमादी, जो एक महत्त्वपूर्ण स्मृति लेखक था, महादेव का एक महत्त्वपूर्ण अधिकारी था। 
  • इन्होंने अपने व्रतखांदा की रचना महादेव के शासनकाल में की।

रामचन्द्र (Ram Chandra)

  • रामचन्द्र के शासन के अन्तिम दो दशक बहुत विनाशकारी थे जिसमें यह राजवंश ही समाप्त हो गया। 
  • प्रारंभ में 1296 में अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरी पर आक्रमण कर रामचन्द्र को शान्ति के लिए बाध्य कर दिया। 
  • यद्यपि रामचन्द्र अपना राज्य बचा पाने में सफल रहा परन्तु अपनी स्वतंत्रता खो बैठा। 
  • रामचन्द्र ने 1303-04 तक अलाउद्दीन को कर भेजना जारी रखा। 

शंकरदेव (Shankardev)

  • विदेशी शासन के खिलाफ रहे तथा गद्दी पर आते ही पुन: अलाउद्दीन को चुनौती दे बैठे। 
  • अलाउद्दीन ने फिर से काफूर को भेजा जिन्होंने शंकरदेव को मारकर यादव राज्य पर कब्जा कर लिया।

 

Read Also :

Read Related Posts

 

पूर्वी चालुक्य शासक (Eastern Chalukya Ruler)

पूर्वी चालुक्य शासक (Eastern Chalukya Ruler)

बादामी के राजा पुलकेषिन II ने पिशहतापुर के राजा तथा विष्णुकुंदीन को पराजित कर इस नए जीते गए क्षेत्र का वाइसराय अपने भाई विष्णुवर्धन को बना दिया। जल्दी ही यह एक स्वतंत्र राज्य बन गया तथा विष्णुवर्धन ने वेंगी के पूर्वी चालुक्य वंश की स्थापना की। यह मुख्य राज्यवंश से कहीं लंबा चला। 

प्रारम्भिक शासक

  • विष्णुवर्धन ने 18 वर्षों तक शासन किया। उनकी रानी अय्याना-महादेवी ने विजयवाड़ा में एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया। 
  • तेलुगू प्रदेश में यह जैन धर्म का पहला उल्लेख है। 
  • विष्णुवर्धन स्वयं एक भागवत था। 
  • विष्णुवर्धन के बाद उनका पुत्र जयसिम्हा I आया जो अपने पिता की तरह ही भागवत था। 
  • जयसिम्हा I के बाद विष्णुवर्धन II, विजयासिद्धी, विजयासिम्हा II, विक्रमादित्य, विष्णुवर्धन III तथा विजयादित्य एक के बाद एक आए।

विजयादित्य (Vijayaditya)

  • विजयादित्य के शासनकाल में दक्षिण में एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन आया जब राष्ट्रकूटों ने महान चालुक्यों की मुख्य शाखा को उखाड़ फेंका।

विष्णुवर्धन IV (Vishnuvardhan IV)

  • उन्हें राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से शान्ति समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा। 
  • इनका विवाह ध्रुव की पुत्री शिलम्हा देवी से हुआ था। 
  • जिसके साथ ही वेंगी राष्ट्रकूटों के अधीनस्थ बन गए।

विजयादित्य II (Vijayaditya II)

  • ये एक शक्तिशाली राजा थे तथा इन्होंने 40 वर्षों तक शासन किया। 
  • इनके बाद विजयादित्य III आए जिनकी मां राष्ट्रकूट शिलम्हा देवी थीं।

जियादित्य III गुनागा (Jiyaditya III Gunaga)

  • इन्होंने उग्र साम्राज्यवाद की नीति का पालन किया। जिसमें इनकी मदद इनके योग्य मंत्री विनयदिशरमण तथा सैनिक अध्यक्ष पांदुरंगा ने किया। 
  • इन्होने अपने आपको पूरे दक्षिणपंथ का स्वामी घोषित कर दिया। 
  • ये परे वंश का सबसे महान शासक था तथा इसका राज्य उत्तर में महेन्द्र गिरि से दक्षिण में पुलिकट झील तक फैला था। 
  • 44 वर्षों के लंबे शासनकाल के बाद गद्दी पर इनके भाई का पुत्र भीम आया।

भीम I (Bheem I)

  • इनके उत्तराधिकार को इनके चाचा युद्धमल्ला ने चुनौती दी तथा राष्ट्रकूट कृष्ण II के सहयोग से वेंगी पर कब्जा कर लिया, परन्तु चालुक्य सामंतों ने कृष्णा II को पराजित कर पुन: भीम को गद्दी पर बिठाया। 
  • ये एक शैव थे तथा इन्होंने पूर्वी गोदावरी जिले में भीमवरम् तथा दराक्षरभम् मंदिरों का निर्माण करवाया।

 

Read Also :

Read Related Posts

 

कल्याणी के चालुक्य शासक (Chalukya Ruler of Kalyani)

कल्याणी के चालुक्य शासक
(Chalukya Ruler of Kalyani)

तैल II (Tail II)

  • तैल II ने अपना जीवन राष्ट्रकूट राजा कृष्ण III केस के रूप में प्रारंभ किया था, परन्तु शीघ्र ही उसने राष्ट्रकट राजा करक्का II को मारकर अपने को मुक्त कर लिया। 
  • वह गुजरात छोड पूरे राष्ट्रकूट राज्य का मालिक बन गया। 
  • तैल II ने परमार राज्य पर 6 बार आक्रमण किए परन्तु प्रत्येक बार मुंज उसे वापस खदेड देता था। 
  • जब मुंज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया तो तैल ने उसे पराजित कर मार डाला। 
  • तैल की राजधानी मान्यखेत थी।  
  • तैल के बाद उनका पुत्र सत्यसराया ने शासन किया। 

विक्रमादित्य V (Vikramaditya V)

  • सत्यसराया के बाद उनका भतीजा विक्रमादित्य V आया जिसने 6 सालों तक शासन किया। 
  • इसके शासन की एकमात्र महत्त्वपूर्ण घटना राजेन्द्र चोल का आक्रमण था।

जयसिम्हा II (Jaysimha II)

  • जयसिम्हा II ने अपने पूर्वजों के समय चोलों को हारे क्षेत्र पर पुनः कब्जा करने का प्रयास किया। 

सोमेश्वर I (Someshwar I)

  • सोमेश्वर I के गद्दी पर आते ही कल्याणी के चालुक्यों के इतिहास का वह गौरवपूर्ण काल प्रारंभ हुआ जो उनके पुत्र विक्रमादित्य VI के समय अपने शीर्ष पर पहुंचा। 
  • सोमेश्वर I का काल चोलों से संघर्ष से भरा रहा। 
  • इन्होंने राजधानी मान्यखेत से कल्याणी स्थानान्तरित की तथा इसके अनेक नए भवनों का सजाया। 
  • गद्दी पर आते ही सोमेश्वर ने वेंगी पर आक्रमण किया।
  • इन्होंने उत्तरी कोंकण पर विजय प्राप्त कर गुजरात तथा मालवा पर भी आक्रमण किया तथा परमार राज भोज की राजधानी धार पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया। 
  • सोमेश्वर I के चार पर थे जिनमें से उन्होंने अपने सबसे बड़े पुत्र सोमेश्वर II को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

सोमेश्वर II (Someshwar II)

  • इनके आठ साल के छोटे शासन काल में इनके तथा इनके भाई विक्रमादित्य VI के बीच संघर्ष होता रहा। 
  • अन्ततः विक्रमादित्य ने अपने बड़े भाई की हत्या कर 1076 में गद्दी पर अधिकार कर लिया। 

विक्रमादित्य VI (Vikramaditya VI)

  • इन्हें भी अपने छोटे भाई जयसिम्हा के विद्रोह का सामना करना पड़ा जो अन्तत: विफल रहा। 
  • विक्रमादित्य के शासनकाल में चार होयशाल प्रधान हुए – विनयादित्य, इरेयांगा, बल्लाल I तथा विष्णुवर्धन। 
  • विक्रमादित्य का राज्य उत्तर में नर्मदा तक तथा दक्षिण में तुमकुर तथा कोद्दापाह जिला तक था। 
  • 50 सालों का इसका लम्बा शासनकाल कला तथा साहित्य के क्षेत्र में भी विकास का समय था। 

सोमेश्वर III (Someshwar III)

  • विक्रमादित्य के बाद गद्दी पर सोमेश्वर III आए जिनके शासनकाल में चालुक्य राज्य बिखरने लगा। 
  • होयशाल सामंत विष्णुवर्धन ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी तथा पश्चिमी चालुक्य राज्य के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। 
  • सोमेश्वर III अभिलाषीतर्पचिन्तामणि अथवा मनासोल्लासा  विश्वकोष के रचियता थे तथा इस कारण इन्हें सर्वज्ञ भी कहा जाता था।

बाद के शासक

  • सोमेश्वर के पुत्र जगदेकामाल्ल तथा तैल III के समय कालचुरियों की शत्रुता के कारण चालुक्य राज्य टूट गया। 
  • तैल के पुत्र सोमेश्वर IV ने कुछ समय तक राज्य को सम्भाल लिया परन्तु यादव राजा भिल्लामा ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया। 
  • इसके साथ ही कर्नाटक में चालुक्य शासन समाप्त हो गया तथा यहां अब तुंगभद्रा के ऊपर यादवों का तथा उसके नीचे होयशालों का राज्य था।

 

Read Also :

Read Related Posts

 

दक्षिण भारत के चोल शासक (Chola Ruler of South India)

चोल राजवंश (Chola Dynasty)

विजयलया (Vijayalaya)

  • पांड्यों के सहयोगी गुत्तरयार से 850 ई०पू० के लगभग विजयलया द्वारा तंजौर छीनना तथा उसके द्वारा निशुंभसुदीनी (दुर्गा) के मंदिर की स्थापना-चोलों (Chola) के उदय से पहले चरण थे जो उस समय पल्लवों के सामंत थे।

आदित्य (Aditya)

  • आदित्य ने अपने पल्लव अधिराज को युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी तथा पूरे तोंडाइमंडलम पर अधिकार कर लिया। 
  • आदित्य ने उसके बाद कोंगु राज्य पर भी अधिकार किया। 
  • आदित्य  ने कावेरी नदी के दोनों तटों पर शिव के मंदिरों का निर्माण करवाया।

परान्तक I (Parantak I)

  • परान्तक I ने शासन के प्रारंभिक दिनों में पांड्य राज्य पर आक्रमण किया तथा ‘मदुरै कोंडा’ (मदुरै को जीतने वाला) की उपाधि धारण की। 
  • 916 में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण II ने चोल राज्य पर आक्रमण किया, उन्हें वल्लाल में बुरी तरह पराजित होना पड़ा। 
  • राष्ट्रकूट राजा कृष्ण III ने परांतक को तावकोलम के युद्ध में 949 में पराजित कर उत्तरी चोल राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया।
  • परांतक I के बाद अगले 30 वर्षों तक काफी अव्यवस्था रही। 
  • उनके उत्तराधिकारी गणरादित्य, अरिंजय, परांतक II तथा उत्तम चोल थे। 
  • इनमें से मात्र परांतक II का कुछ महत्त्व है क्योंकि उन्होंने राष्ट्रकूटों से हारे गए क्षेत्र में से कुछ वापस जीता।

राजाराज I (Rajaraj I)

  • ये मूलत: अरुमोलिवर्मण के नाम से जाने जाते थे तथा परांतक II के पुत्र थे। 
  • चोलों का वास्तविक महान युग उनके समय से प्रारंभ हुआ। 
  • उन्होंने पांड्य, केरल तथा सिलोन राज्य की एक सम्मिलित सेना को पराजित कर इनके राज्यों पर अधिकार कर लिया। 
  • महेंद्र V को पराजित कर सिलोन की राजधानी अनुराधापुरा को नष्ट कर उत्तरी सिलोन में चोल प्रान्त की स्थापना की गई जिसकी राजधानी पोलोन्नारुवा थी। 
  • उन्होंने तंजौर के भव्य शिव अथवा वृहदेश्वर (राजराजेश्वर) मंदिर का निर्माण करवाया था। 

राजेन्द्र I (Rajendra I)

  • उन्होंने चोल राज्य को विस्तारित कर उस समय का सबसे सम्माननीय राज्य बना दिया। 
  • उन्होंने महेन्द्र V को पराजित कर उसे बंदी बना लिया तथा सिलोन की विजय को पूरा किया। 
  • उन्होंने पांड्य तथा केरल राज्यों को पराजित कर अपने एक बेटे को इस क्षेत्र का वाइसराय बना दिया तथा मदुरै को इसकी राजधानी। 
  • उन्होंने कलिंग के पूर्वी गंगा राजा मधुकुमारनव को भी पराजित किया जिसने पश्चिमी चालुक्यों का साथ दिया था।
  • राजेन्द्र I ने गंगा घाटी पर एक सफल सैनिक अभियान का नेतृत्व किया तथा इस अवसर पर एक नई राजधानी तथा मंदिर का निर्माण करवाया जिसका नाम था गंगाई कोंडाचोलापुरम। 

राजाधिराज (Rajadiraj)

  • उन्होंने पांड्य, केरल तथा सिलोन में विद्रोहों का दबाया था। 
  • उन्होंने वेंगी में चोल राज्य को पुनः स्थापित करन के लिए भी अभियान छेडा। 
  • येतागीरी (याडगीर) में उन्होंने शेर चिह्न वाला एक स्तम्भ बनवाया। 
  • कल्याणी पर अधिकार कर राजाधिराज ने वहां विराभिषेक (विजय उत्सव) या तथा ‘विजयराजेन्द्र’ की उपाधि धारण की। 
  • अपने शासन के अन्तिम दिनों में उन्होंने पश्चिमी चालुक्य शासन सोमेश्वर के खिलाफ अभियान छेड़ा परन्तु इसमें उनकी मृत्यु हो गई। 

राजेन्द्र II (Rajendra II)

  • विजय के बाद उसने एक जय स्तम्भ कोल्लापुरा में लगवाया तथा अपनी राजधानी वापस लौट गया। 
  • बाद में सोमेश्वर को कोप्पम की पराजय को बदलने का प्रयास किया किन्तु उसमें वह असफल रहा। 
  • इसके कुछ ही दिनों के बाद राजेन्द्र की मृत्यु हो गई।

वीर राजेन्द्र (Veer Rajendra)

  • सोमेश्वर ने वीर राजेन्द्र को चुनौती दी जिसके परिणामत: कुदाल-संगमम का युद्ध हुआ परन्तु चालुक्य राजा अपनी बीमारी के कारण इस युद्ध में नहीं आए तथा कुछ समय बाद अपने को तुंगभद्रा में डुबोकर परमयोग प्राप्त किया। 
  • वीर राजेन्द्र ने सहायता तथा संरक्षण के लिए अपनी शरण में आए राजकुमार के पक्ष में कदारम (श्री विजय) एक नौसैनिक अभियान भेजा (1068)।

कुलुतुंगा I (Kulutunla I)

  • वेंगी के राजराजा नरेन्द्र तथा चोल राजकुमारी अम्मंगादेवी के इस पुत्र का मूल नाम राजेन्द्र II था। 
  • इसने वीर राजेन्द्र की मृत्यु का फायदा उठाकर चोल गद्दी पर अधिकार कर लिया। 
  • इस तरह उसने वेंगी तथा चोल राज्यों को मिला दिया। 
  • कुलुतुगा ने पूरे राज्य पर पुनः एक मजबूत सैन्य अभियान छेड़ दिया। 
  • 1115 तक सिलोन को छोड़कर चोल राज्य का स्वरूप मारवतित रहा; परन्तु अपने शासन के अंतिम दिनों में यह वेंगी 9 मसूर चालुक्य राजा विक्रमादित्य को हार गए। 
  • कुलुतुगा I ने 72 व्यापारियों का एक दल चीन भेजा तथा श्री विजया से भी उनके अच्छे संबंध थे जहां से उसके लिए भी एक दूत भेजा गया था। 
  • पुरालेख तथा लोक अवधारण उन्हें ‘शुंगम तविर्त’ की उपाधि देता है। 

बाद के शासक 

  • कुलुतुंगा I के बाद विक्रम चोल, कुलुतुंगा II, राजराजा II, राजाधिराज II, कुलुतुंगा III आए। 
  • राजाधिराज II के समय से सामंतों की बढ़ती स्वतंत्रता राजाधिराज II के समय पूरी तरह उभरने लगी। 
  • कुलुतुंगा III ने चोल राज्य के विघटन को कुछ समय तक रोके रखा। 
  • कुलुतुंगा III के बाद चोल स्थानीय प्रमुखों के रूप में बने रहे।

 

Read Also :

Read Related Posts

 

मध्यकालीन भारत के प्रमुख राजवंश – (तोमर राजवंश)

मध्यकालीन भारत के प्रमुख राजवंश

तोमर राजवंश (Tomar Dynasty)

तोमरों (Tomar) को 36 राजपूत वंशों में से एक माना जाता है। पारम्परिक स्रोतों के अनुसार अनंगपाल तोमर ने 736 में दिल्ली की नींव डाली तथा तोमर वंश की स्थापना की। तोमरों ने हरियाणा पर अपनी राजधानी दिल्लिका अथवा दिल्ली से शासन किया। जौला राजा तोमर वंश का एक छोटा सामंत था। इस वंश का अगला महत्त्वपूर्ण शासक वजरत था जो 9वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था।

वजरत के बाद उनका पुत्र जिज्जुक आया जिसके तीन पुत्र थे – गोग्गा, पुर्णराजा तथा देवराजा। इन तीनों भाइयों ने करनाल जिले के पृथुदक में सरस्वती नदी के किनारे विष्णु के तीन मंदिरों का निर्माण करवाया। 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में तोमर मुस्लिम आक्रमणकारियों से भिड़े। शाकंभरी के चाहमनों के उदय के साथ ही उन पर दबाव बढ़ने लगा। रुद्रसेन नामक एक तोमर प्रधान की मृत्यु चाहमन राजा चंदनराजा II के साथ युद्ध में हुई थी। यह संघर्ष 12वीं शताब्दी के मध्य में चाहमनों ने विग्रहराजा के नेतृत्व में दिल्ली पर अधिकार कर हमेशा के लिए समाप्त कर दिया।

 

Read Also :

Read Related Posts

 

error: Content is protected !!