चंपारन में सत्याग्रह | TheExamPillar
Satyagraha in Champaran

चंपारन में सत्याग्रह

चंपारन में सत्याग्रह (Satyagraha in Champaran)

चंपारन (बिहार) में अंग्रेज व्यापारी किसानों को तिनकठिया व्यवस्था के अन्तर्गत नील पैदा करने के लिए विवश करते थे। इस व्यवस्था में किसान अपनी जमीन के 3/20 भाग पर नील उगाने के लिए बाध्य थे। इसके खिलाफ किसानों का असंतोष, स्थानीय मध्यम और धनी वर्ग के किसान नेताओं के नेतृत्व में 1860 के दशक से ही बढ़ता चला आ रहा था। 19वीं सदी के समाप्त होते-होते जर्मनी के रासायनिक रंगों (डाईज) ने नील को बाजार से बाहर कर दिया। नील की मांग कम होने से चंपारन के किसान और यूरोपीय बागान मालिक नील की खेती बंद करने के लिए विवश हो गए। किसानों को अनुबन्ध से मुक्त करने के लिए बागान मालिकों ने लगान व अन्य गैर कानूनी करो की दर मनमाने ढंग से बढ़ा दी। चंपारन के किसान नेता राजकुमार शुक्ल 1916 के लखनऊ काँग्रेस अधिवेशन में पहुंचे और गाँधीजी को बिहार आकर आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए तैयार किया। सरकार ने गाँधीजी के चम्पारन प्रवेश पर रोक लगा दी थी, परन्तु गाँधीजी ने इस आदेश की पालना अस्वीकार कर दी। इसके लिए किसी भी सजा को भुगतने का फैसला कर लिया। लोगों के लिए यह आश्चर्यजनक प्रयास था। चूंकि भारत सरकार अब तक गाँधीजी को विद्रोही नहीं मानती थी और इस मुद्दे को अनावश्यक महल नहीं देना चाहती थी, अत: उसने गाँधीजी को चंपारन के गांवों में जाने की छूट देने का निश्चय किया ।

गाँधीजी की जांच एवं प्रचार के फलस्वरूप तिनकठिया पद्धति समाप्त कर दी गईनवम्बर 1918 में चंपारन कृषि कानून पारित होने के साथ ही गाँधीजी का लक्ष्य पूरा हो गया । इस ऐक्ट से किसानों के कष्ट काफी हद तक दूर हो गये। गाँधीजी के हस्तक्षेप ने गरीब किसानों के मन से डर को बाहर निकाल फेंका, अब वे अंग्रेजी राज और यूरोप के नील की खेती करवाने वाले ठेकेदारों की सत्ता को चुनौती देने का साहस कर पाते थे | यह गाँधीजी की भारत में पहली विजय थी और इससे उनको यह विश्वास हो गया कि भारत में सत्याग्रह का प्रयोग किया जा सकता है । 

 

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