Indian Geography Notes in Hindi - Page 3

बादल (Cloud)

बादल (Cloud)

मेघों का निर्माण वायु में उपस्थिति महीन धूलकणों के केन्द्रक के चारों ओर जलवाष्प के संघनित होने से होता है। अधिकांश दशाओं में मेघ जल की अत्यधिक छोटी-छोटी बँन्दों से बने होते हैं, लेकिन ये बर्फ कणों से भी निर्मित हो सकते हैं, बशर्ते कि तापमान हिमांक से नीचे हो। अधिकांशतः मेघ निर्माण गर्म एवं आर्द्र वायु के ऊपर उठने से होता है। ऊपर उठती हवा फैलती है और जब तक ओसांक तक न पहुँच जाए ठण्डी होती जाती है और कुछ जलवाष्प मेघों के रूप में संघनित होती है। दो विभिन्न तापमान वाली वायुराशियों के आपस में मिलने से भी मेघों की रचना होती है।

औसत ऊँचाई के आधार पर मेघों को तीन भागों में बाँटा गया है:

  1. उच्च स्तरीय मेघ – 5000 से 10000 मी० ऊँचा
  2. मध्यस्तरीय मेघ – 2000 से 5000 मी० ऊँचा
  3. निम्नस्तरीय मेघ – 2000 मी० से नीचे

उच्च स्तरीय मेघ

इनको तीन उपवर्गों में विभाजित किया गया है –

(i) पक्षीय मेघ

यह तंतुनुमा कोमल तथा सिल्क जैसी आकृति के मेघ हैं। जब ये मेघ समूह से अलग होकर आकाश में अव्यवस्थित तरीके से तैरते नजर आते हैं, तो ये साफ मौसम लाते हैं। इसके विपरीत जब ये व्यवस्थित तरीके से पट्टियों के रूप में अथवा पक्षाभ स्तरी अथव मध्यस्तरी मेघों से जुड़े हुए होते हैं तो आर्द्र मौसम लाते हैं।

(ii) पक्षाभ स्तरी मेघ

पतले श्वेत चादर जैसे मेघ जो लगभग समस्त आकाश को घेरते हैं, पक्षाभस्तरी मेघ कहलाते हैं। सामान्यतः ये मेघ सूर्य एवं चन्द्रमा के चारों ओर प्रभामंडल का निर्माण करते हैं। सामान्यतः ये बादल आने वाले तूफान के लक्षण हैं।

(iii) पक्षाभ कपासी मेघ

ये मेघ छोटे-छोटे श्वेत पत्रकों अथवा छोटे गोलाकर रूप में दिखाई देते हैं इनकी कोई छाया नहीं पड़ती है। सामान्यत: ये समूहों रेखाओं में व्यवस्थित होते हैं, जो मेघ रूपी चादर में पड़ने वाली सिलवटों से उत्पन्न होते हैं। ऐसी व्यवस्था को मैकरेल आकाश कहते हैं।

मध्य मेघ

इन्हें दो उपवर्गों में विभाजित किया गया है –

(i) मध्य स्तरी मेघ

भूरे अथवा नीले रंग के मेघों की समान चादर, जिनकी संरचना सामान्यत: तंतुनुमा होती है, इस वर्ग से संबंधित हैं। बहुधा ये मेघ धीरे-धीरे पक्षाभ स्तरी मेघ में बदल जाते हैं। इन मेघों से होकर सूर्य तथा चन्द्रमा धुंधले दिखाई देते हैं। कभी-कभी इनसे प्रभामंडल की छटा दिखाई देती है। साधारणत्या इनसे दूर-दूर तक लगातार वर्षा होती है।

(ii) मध्य कपासी मेघ

ये चपटे हुए गोलाकार मेघों के समूह हैं जो रेखाओं अथवा तरंगों की भाँति व्यवस्थित होते हैं। ये पक्षाभ कपासी मेघ से भिन्न होते हैं, क्योंकि- इनकी गोलाकार आकृति काफी विशाल होती है, अक्सर इनकी छाया भूमि पर दिखाई देती है।

निम्न मेघ

इन्हें 5 उपवर्गों में विभाजित किया गया हैः

(i) स्तरीकपासी मेघ

कोमल एवं भूरे मेघों के बड़े गोलाकार समूह जो चमकीले अंतराल के साथ देखे जाते हैं इस वर्ग में शामिल हैं। साधारणतः इनकी व्यवस्था नियमित प्रतिरूप में होती है।

(ii) स्तरी मेघ

ये निम्न एक समान परत वाले मेघ हैं जो कुहरे से मिलते-जुलते हैं, परंतु भू-पृष्ठ पर ठहरे नहीं होते हैं। ये मेघ किरीट या प्रभामंडल उत्पन्न करते हैं।

(iii) वर्षा स्तरी

ये घने, आकृतिविहीन तथा बहुधा बिखरे परतों के रूप में निम्न मेघ हैं जो सामान्यतः लगातार वर्षा देते हैं।

(iv) कपासी मेघ

ये मोटे घने उर्ध्वाधर विकास वाले मेघ हैं। इनका ऊपरी भाग गुम्बद की शक्ल का होता है। इसकी संरचना गोभी के फूल जैसी होती है। अधिकांश कपासी मेघ साफ आकाश अथवा साफ मौसम रचते हैं। हालाँकि इनका आकार कपासी वर्षा मेघ में बदलकर तुफानों को जन्म देता है।

(v) कपासी वर्षा मेघ

उर्ध्वाधर विकास वाले मेघों के भारी समूह जिनके शिखर पर्वत अथवा टावर की भाँति होते है कपासी वर्षा मेघ कहलाते हैं। उसकी विशेषता ऊपरी तिहाई आकृति का होना है। इनके साथ भारी वर्षा, तड़ित झंझा और कभी-कभी ऊनी ओलों का गिरना भी जुड़ा है।

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वायुमंडल की आर्द्रता

वायुमंडल की आर्द्रता (Atmospheric Humidity)

यद्यपि जलवाष्प वायुमंडल में कम ही अनुपात में (0-4%) मौजूद है, फिर भी यह मौसम और जलवायु के निर्णायक के रूप में हवा का सबसे प्रमुख घटक है। जल वायुमंडल में अपने तीनों रूपों में मौजूद रह सकता है। यह गैसीय अवस्था में जलवाष्प, तरल अवस्था में जल की बूंदों तथा ठोस अवस्था में हिमकणों के रूप में रहता है। वायुमंडल में मौजूद अदृश्य जलवाष्प की मात्रा को आर्द्रता कहते हैं। यद्यपि जलवाष्प वायुमंडल की समस्त राशि के 2% और आयतन के 4% का ही प्रतिनिधित्व करता है, तथापि यह मौसम और जलवायु के नियंत्रण का कार्य करता है। यह कई कारणों से बड़े महत्व का है –

  1. यह संघनन और वर्षण के सभी रूपों का स्रोत है। इसकी उपस्थित मात्रा जलवृष्टि की क्षमता प्रदर्शित करती है।
  2. यह सौर विकिरण तथा पार्थिव विकिरण दोनों को सोखने में समर्थ है, अतः वायुमंडल एवं पृथ्वी के लिए ताप नियंत्रक का कार्य करता है।
  3. इसमें गुप्त उष्मा होती है और यह संघनित होती है तो उष्मा का त्याग कर देता है। वायुमंडलीय संचरण के लिए जलवाष्प की गुप्त उष्मा महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत का कार्य करती है। अत्यधिक मात्रा में गुप्त उष्मा निकलने से तुफानी मौसम उत्पन्न होता है।
  4. इसकी मात्रा वाष्पन की दर को प्रभावित करती है। यह हमारे शरीर के ठण्डा होने की दर को प्रभावित करती है। 60% आर्द्रता स्वास्थ्य के लिए आदर्श मानी जाती है। इससे अधिक या कम होना हानिकारक होता है।

आर्द्रता की माप

वायु में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा को निम्नांकित विधियों से व्यक्त किया जाता है –

  1. निरपेक्ष या वास्तविक आर्द्रता (Absolute humidity) : हवा के प्रति इकाई आयतन में मौजूद जलवाष्प की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं। इसे अधिकतर ग्राम प्रति घन मीटर में व्यक्त किया जाता है।
  2. विशिष्ट आर्द्रता (Specific humidity) : आर्द्रता को व्यक्त करने का दूसरा अधिक उपयोगी तरीका भी है। हवा के प्रति इकाई भार में जलवाष्प का भार विशिष्ट आर्द्रता कहलाता है। विशिष्ट आर्द्रता पर तापमान और वायुदाब के परिवर्तन का कोई असर नहीं पड़ता है।
  3. सापेक्ष आर्द्रता (Relative humidity) : किसी भी तापमान पर हवा में मौजूद जलवाष्प को उसी तापमान पर हवा की जलवाष्प धारक क्षमता के अनुपात (प्रतिशत) के रूप में व्यक्त करते हैं। सापेक्ष आर्द्रता जितनी ही अधिक होगी, मौसम में उतनी ही नमी होगी, चाहे इस वायु की वास्तविक आर्द्रता कम क्यों न हो। सबसे अधिक सापेक्ष आर्द्रता विषुवतीय क्षेत्रों में होती है (कारण जलवाष्प की अधिकता)। कर्क और मकर रेखाओं से ध्रुवों की ओर पुनः यह बढ़ती है (कारण तापमान में कमी)।

यदि वायु में इतना जलवाष्प हो कि वह और अधिक जलवाष्प ग्रहण करने में असमर्थ है तो उसकी सापेक्षिक आर्द्रता 100 कहलाएगी। ऐसी वायु को संतृप्त वायु कहते हैं। सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ने पर वर्षा की संभावना अधिक होती है। वर्षा की संभावनाओं को जानने के लिए यह जानकारी ली जाती है कि वायु संतृप्त होने के कितना निकट है। वायु जिस तापमान पर तृप्त या संतृप्त होती है उसे ओसांक (Dew point) कहते है।।

वाष्पीकरण

जल के तरल अवस्था से गैसीय अवस्था में परिवर्तन की प्रक्रिया को वाष्पीकरण कहते हैं। एक ग्राम जल को जलवाष्प में बदलने में लगभग 600 कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। एक ग्राम जल के तापमान को एक डिग्री सेल्सियस बढ़ाने में जितनी उष्मा लगती है उसे ही कैलोरी कहते हैं।

संघनन (Condensation)

जल के गैसीय अवस्था से तरल या ठोस अवस्था में बदलने की प्रक्रिया को संघनन कहते है।

संघनन के रूप : जिस तापमान पर हवा ओसांक बिन्दू पर पहुँच जाती है उसी के आधार पर संघनन के मुख्य रूपों का वर्गीकरण किया जाता है। संघनन के समय में ओसांक या तो हिमांक से ऊपर होगा या हिमांक से नीचे। पहली दशा में संघनन हुआ तो इससे ओस कुहरा कुहासा तथा बादल बनते हैं। यदि संघनन दूसरी दशा में हुआ तो इससे तुषार हिम तथा पक्षीय मेघ का निर्माण होता है।

ओस : हवा की जलवाष्प जब संघनित होकर नन्हीं बून्दों के रूप में धरातल पर स्थित घास की नोकों पर जमा हो जाती है। तो इसे ओस कहते हैं। इसके बनने के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ हैं साफ आकाश, शांत वातावरण या हल्की पवन, उच्च सापेक्ष आर्द्रता और ठण्ढी तथा लंबी रातें। ओस के निर्माण के लिए यह भी जरूरी है कि तापमान हिमांक से ऊपर हो।

तुषार (पाला) : जब संघनन एक ऐसे ओसांक पर होता है जो हिमांक से नीचे हो, तो अतिरिक्त जलवाष्प जल कणों के बदले हिम-कणों के रूप में बदल जाते हैं। इसे तुषार या पाला कहते हैं। उसके निर्माण के लिए तापमान का हिमांक पर या उससे नीचे होना जरूरी है।

कुहरा : कुहरा एक प्रकार का बादल है जिसका आधार पृथ्वी के धरातल पर उसके बिल्कुल समीप होता है। ठण्डी होने की प्रक्रिया की प्रकृति के आधार पर कुहरा कई प्रकार का होता है। कुहरे में कुहासे की अपेक्षा जलकण अधिक और घने होते हैं। कुहरे में धरातलीय वस्तुएँ साफ नहीं दिखती। दृश्यता आधे किलोमीटर से कम होती है। जबकि कुहासे में दृश्यता एक किलोमीटर तक बनी रहती है। ये दोनों धरातलीय वायु के धुंधलापन के द्योतक है।

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स्थानीय पवनें (Local wind)

स्थाई पवन के मार्ग में धरातल के स्थानीय तापांतर के कारण अनेक प्रकार के स्थानीय पवन उत्पन्न होते हैं। इनके अलग-अलग नाम हैं।

स्थानीय गर्म हवाएँ (Local Hot Winds)

1. लू (L00) : उत्तरी भारत एवं पाकिस्तान के मैदानों में मई-जून में प्रवाहित होने वाली यह काफी गर्म एवं शुष्क वायु है।

2. फॉन (Fohn) : यह हवा दक्षिणी आल्पस के सहारे ऊपर उठती है एवं वर्षा के पश्चात् आल्पस पर्वत के उत्तरी ढाल पर नीचे उतरती है। उतरते समय दबाव के कारण यह हवा गर्म हो जाती है। यह वायु फ्रांस, इटली आदि देशों में प्रवाहित होती है। इसका तापमान 15°C से 20°C तक होता है। इसके प्रभाव से बर्फ पिघलने लगता है, पशुओं को चलने की सुविधा मिलती है एवं अंगूर पकने लगते हैं।

3. चिनूक या शिनूक (Chinook): अमेरिका एवं कनाडा में यह पवन रॉकी पर्वत श्रेणी के पूर्वी ढाल पर नीचे उतरती है। चिनूक शब्द का अर्थ हिमभक्षी होता है। यह पवन रॉकी के पूर्वी ढालों को हिम के प्रभाव से मुक्त रखती है।

4. हरमट्टन (Harmattan) : यह पश्चिमी अफ्रीका के सहारा से उ०पू० से द०-पू० दिशा में चलने वाली गर्म एवं अति शुष्क वायु है। यह तेज रफ्तार वाली धूल से भरी आँधी है। इस वायु को डाक्टर वायु भी कहा जाता है, क्योंकि जब यह वायु सहारा से गोबी तट की ओर प्रवाहित होती है तो वहाँ के आर्द्र मौसम से राहत मिलती है। परंतु सहारा मरूस्थल में यह ऊँट के काफिले के लिए कष्टदायी होता है।

5. बर्ग (Berg) : दक्षिण अफ्रीका में यह फोन एवं चिनूक के समान एक गर्म एवं शुष्क वायु है जो आंतरिक पठारी भाग से तटवर्ती क्षेत्र की ओर बहती है।

6. सिमूम (Simoom): अरब एवं सहारा के मरूस्थलों में चलने वाली यह एक शुष्कउष्ण एवं दमघोंटू हवा है। ये हवाएँ बालूओं से भरी होती हैं, जिसके कारण दृश्यता काफी कम हो जाती है।

7. काराबुरान (Kara-buran) : यह मध्य एशिया के ताश्मिन बेसिन में चलने वाली गर्म शुष्क वायु है। यह वायु धूल से भरी हुई होती है। मध्य एशिया के पाओस के मैदान का निर्माण इसी वायु से होता है।

8. सिराक्को (Sirocco) : सहारा मरूस्थल से इटली में प्रवाहित होने वाली एक गर्म वायु है जो बालू के कणों से युक्त होती है। मिस्र में इसे खमसिन, लीबिया में गिबली तथा ट्यूनीशिया में चिली के नाम से जाना जाता है। मरूस्थल से चलने के कारण इटली में जो वर्षा होती है वह लाल रंग की होती है इसलिए इसे खूनी वर्षा कहते हैं। स्पेन में इसे लेवेच के नाम से जाना जाता है।

9. ब्लैक रोलर (Black Roller) उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदानों में चलने वाली धूल भरी गर्म वायु को ब्लैक रोलर कहा जाता है।

10. शामल (Shamal) : अरब, इरान एवं इराक के मरूस्थलीय क्षेत्र की यह एक गर्म हवा है।

11. ब्रिक फील्डर (Brick Fielder) : आस्ट्रेलिया के मरूस्थलीय क्षेत्रों में चलने वाली एक गर्म तीव्र एवं शुल्क वायु है।

12. सान्ना आना (Santa Ana) : कैलिफोर्निया में सान्ना आना घाटी से तटवर्ती कैलिफनिया की ओर चलने वाली गर्म एवं शुष्क वायु है। यह कैलिफनिया में फलों की बगीचों को नुकसान पहुँचाते हैं।

13. योमा (Yoma) : जापान में चलने वाली गर्म वायु।

14. जोन्डा : अर्जेन्टीना ।

15. कोयम बैंग : इण्डोनेशिया, तम्बाकू के फसलों के लिए हानिकारक।

16. नार्वेस्टर : न्यूजीलैण्ड।

17. अयाला : फ्रांस के सेंट्रल मैसिफ में।

18. बाग्या : फीलीपींस में चलने वाला उष्ण कटिबंधीय चक्रवात।

ठण्डी स्थनीय पवनें (Cold Local Winds)

1. मिस्ट्रल : फ्रांस में आल्पस से भू-मध्य सागर की ओर।

2. बोरा : यूरोप के पर्वतीय क्षेत्र से एड्रियाटिक सागर की ओर।

3. ब्लिजार्ड : साइबेरिया एवं उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भाग में।

4. बुरान : रूस एवं मध्यवर्ती एशिया में। हिमयुक्त होने पर पूर्गा के नाम से जाना जाता है।

5. नार्दर : उत्तरी अमेरिका उत्तरी भाग में।

6. पैम्पेरो : अर्जेन्टीना एवं उरूग्वे के पम्पास क्षेत्रों में।

7. बाइज : दक्षिण फ्रांस में चलने वाली।

8. केप डाक्टर : दक्षिण अफ्रीका के पठारी भाग से दक्षिण तट की और बहने वाली इसे टेबल क्लॉथर भी कहा जाता है।

9. ट्रामोण्टाना : भूमध्यसागरीय क्षेत्र कोर्सिका में प्रवाहित होने वाली।

10. दक्षिण बस्तर : ध्रुवीय क्षेत्रों से आस्ट्रेलिया के दक्षिणी भागों में प्रवाहित होने वाली।

 

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पवन और उनके प्रकार

पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब में क्षैतिज विषमताओं के कारण हवा उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर बहती है। क्षैतिज रूप में गतिशील हवा को पवन (Wind) कहते हैं। यह वायुदाब की विषमताओं को संतुलित करने की दशा में प्रकृति का प्रयास है। लगभग ऊर्ध्वावर दिशा में गतिमान हवा को वायुधारा कहते हैं। पवन और वायुधाराएँ मिलकर वायुमंडल में एक संचारतंत्र स्थापित करती हैं।

पृथ्वी के घूर्णन का प्रभाव वायु में गति लाकर पवन उत्पन्न करने के साथ उसके दिशा-निर्धारण पर भी पड़ता है। फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक कोरिऑलिस ने इस पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि उत्तरी गोलार्द्ध में पवन अपनी दाँयी और तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बाँयी और विचलित होता है। इसे फेरेल का नियम भी कहते हैं।

पवन के प्रकार (Types of Winds)

पूरे भू-मंडल पर वायुदाब के अक्षांशीय अंतर के कारण जो पवन प्रचलित है, अर्थात् स्थाई रूप से सालों भर चला करते हैं, वे भूमंडलीय पवन, प्रचलित पवन या स्थाई पवन कहलाते हैं। मौसम के अनुसार जो पवन अपनी दिशा बदलकर चलते हैं, उन्हें सामयिक पवन कहते हैं। दैनिक तापमान एवं वायुदाब में अंतर पड़ने के कारण जो पवन विकसित | होते हैं, उन्हें स्थानीय पवन कहते हैं। अलग-2 स्थानों पर इनके अलग-अलग नाम रखे जाते हैं।

व्यापारिक पवन (Trade Winds)

उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंध से विषुवतीय निम्न-वायुदाब कटिबंधों की ओर दोनों गोलार्द्ध में निरंतर बहने वाले पवन को व्यापारिक पवन कहते हैं। इसे अंग्रेजी में Trade Winds कहते है। Trade जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है एक निर्दिष्ट पथ अतः ट्रेड पवन निर्दिष्ट पथ पर, एक ही दिशा में निरंतर बहने वाले पवन हैं। सिद्धांतत: इस पवन को उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहना चाहिए। किन्तु कोरियॉलिस बल और फेरेल के नियम से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कैसे ये पवन उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दाँयीं ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बाँयी ओर विक्षेपित हो जाते हैं। इस प्रकार पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम होती है। वाणिज्य पवन के विभिन्न भागों में विभिन्न गुण हैं। उत्पत्ति वाले कटिबंधों में उर्ध्वाधर वायुधाराएँ ऊपर से नीचे | उतरती हैं अत: वहाँ ये पवन शांत और शुष्क होते हैं। ये जैसे-जैसे अपने पथ पर आगे बढ़ते हैं मार्ग में जलाशयों से जल ग्रहण करते हैं, विषुवत रेखा के समीप पहुँचते पहुँचते ये जलवाष्प से लगभग संतृप्त हो जाते हैं। वहाँ ये आर्द्र और गर्म वायु के रूप में पहुँचते हैं और अस्थिर होकर वर्षा करते है।

पश्चिमी या पछुआ पवन (Westerlies)

अयन रेखाओं (कर्क और मकर) की उच्च दाब पेटियों से ध्रुवों की ओर (35°_ 40°) अंक्षाशों से (60°—65°) अक्षांशों) चलने वाले पवनों को पश्चिमी या पछुआ पवन कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पर्व की ओर होती है और दक्षिणी गोलार्द्ध में असमान उच्चावच वाले विशाल स्थल खण्ड तथा वायुदाब के बदलते मौसमी प्रारूप इस पवन के सामान्यतः पश्चिम दिशा से बहाव को अस्पष्ट बना देते हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में जल के विशाल विस्तार के कारण वहाँ के पछुआ पवन उत्तरी गोलार्द्ध के पछुआ पवनों से अधिक तेज चलते हैं। पछुआ पवनों का सर्वश्रेष्ठ विकास 40° से 65° दक्षिणी अंक्षाशों के मध्य होता है। वहाँ के इन अंक्षाशों को 40° अक्षांशों पर गरजता चालीसा, 50° अक्षांशों पर प्रचण्ड पचासा तथा 60° अक्षांशों पर चीखता साठा कहा जाता है। ये सभी नाम नाविकों के द्वारा प्रदान किया गया है।

ध्रुवीय पवन (Polar Wind)

ध्रुवीय उच्च दाब कटिबंधों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर बहने वाली पवन को ध्रुवीय पवन कहते हैं। इन पवनों की वायुराशि अत्यंत ठण्डी और भारी होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये पवन उत्तर पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती हैं। बहुत कम तापमान वाले क्षेत्रों से अधिक तापमान वाले क्षेत्र की ओर बहने के कारण ये शुष्क होते हैं। तापमान कम होने के कारण इनकी जलवाष्प धारण करने की क्षमता भी कम होती है।

उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंध में जब पछुआ पवन ध्रुवीय पवन से टकराते हैं तो पछुवा पवन के ध्रुवीय वाताग्र पर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। ये चक्रवात उस कटिबंध में व्यापक वर्षा करते हैं।

सामयिक पवन (Seasonal Wind)

मौसम या समय के परिवर्तन के साथ जिन पवनों की दिशा बिल्कुल उलट जाती है उन्हें सामयिक पवन कहते हैं। मानसून एक ऐसा ही पवन तंत्र है जो जाड़े में एक दिशा से तथा गर्मी में दूसरी दिशा से चलता रहता है। स्थलीय समीर और समुद्री समीर तथा पर्वतीय समीर एवं घाटी समीर को सामयिक पवन के अंतर्गत रखा जाता है।

मानसूनी पवन (Monsoon Wind)

मानसून की उत्पत्ति कर्क और मकर रेखाओं के निकट (वाणिज्य पवन के क्षेत्र) होती है। इसका सर्वप्रसिद्ध क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी एशिया है, जहाँ एक ओर विस्तृत स्थल भाग और दूसरी ओर विस्तृत जलभाग है। ग्रीष्मकाल में स्थल भाग अधिक गर्म हो जाता है जिससे निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है। इस समय उसके निकटवर्ती समुद्री भाग पर वायु का उच्चदाब मिलता है।

फलस्वरूप उच्चदाब से निम्न दाब की ओर पवन चल पड़ती है। समुद्र की ओर से चलने के कारण इसमें वर्षा के लिए पर्याप्त आर्द्रता रहती है। जाड़े में इसके विपरीत पवनें स्थल भाग से जलभाग की ओर चलने लगती हैं।

(i) स्थलीय और समुद्री समीर : ये भी जल और स्थल के असमान गर्म और ठण्डा होने के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, पर इनका प्रभाव समुद्रतटीय भागों में ही सीमित होता है। अत: कुछ लोग इसे स्थानीय पवन कहते हैं।

(ii) पर्वत समीर एवं घाटी समीर : इसका भी संबंध तापमान तथा ऊँचाई से है।

 

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वायुमंडल की संरचना (Structure of Atmosphere)

वायुमंडल में हवा की अनेक संकेद्री पर्ते हैं जो घनत्व और तापमान की दृष्टि से एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। हवा का घनत्व धरातल पर सर्वाधिक है और ऊपर की ओर तेजी से घटता जाता है। वायुमंडल को पांच मुख्य संस्तरों में बाँट सकते हैं –

Structure of Atmosphere

1. क्षोभमंडल (Troposphere)

  • वायुमंडल के सबसे निचली संस्तर का क्षोभ मंडल कहते हैं। यह पृथ्वी के धरातल से कुछ ही ऊँचाई पर स्थित है।
  • इसकी ऊँचाई ध्रुवों पर 8 किमी० तथा विषुवत रेखा पर 18 किमी० है।
  • ट्रोपोस्फीयर या विक्षोभ प्रदेश (Troposphere) नामक शब्द का प्रयोग तिज्रांस-डि-बोर ने सर्वप्रथम किया था
  • संवहनी तरंगों तथा विक्षुब्ध संवहन के कारण इस मंडल को कर्म से संवहनी मंडल और विक्षोभ मंडल भी कहते हैं
  • विषुवत रेखा पर क्षोभमंडल की ऊँचाई सर्वाधिक है क्योंकि तेज संवहनीय धाराएँ धरातल की ऊष्मा को अधिक ऊँचाई पर ले जाती है।
  • इस संस्तर पर ऊँचाई के साथ तापमान कम होता है। तापमान में गिरावट की दर एक डिग्री सेल्सियस प्रति 165 मी० है। इसे सामान्य ह्रास दर कहते हैं।
  • इस संस्तर में धूल के कणों और जलवाष्प की मात्रा अधिक होती है।
  • ग्रीष्म ऋतु में इस स्तर की ऊँचाई में वृद्धि और शीतऋतु में कमी पाई जाती है
  • मौसम की प्रायः सभी घटनाएँ कुहरा, बादल, ओला, तुषार, आँधी, तूफान, मेघ गर्जन, विद्युत प्रकाश आदि इसी भाग में घटित होती हैं।
  • क्षोभमंडल और समताप मंडल के मध्य डेढ़ किमी० मोटी परत को ट्रोपोयास कहते हैं। वास्तव में यह मंडल क्षोभ तथा समताप मंडल के बीच विभाजक होता है।

2. समतापमंडल (Stratosphere)

  • समताप मंडल क्षोभमंडल के ऊपर स्थित है।
  • ट्रोपोयास से इस सीमा तक ऊँचाई के साथ तापमान प्राय: समान रहता है। (20 किमी० तक) इसके ऊपर 50 किमी० की ऊँचाई तक तापमान क्रमश: बढ़ता है।
  • यहाँ सूर्य की पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करने वाली ओजोन गैस मौजूद होती है।
  • यहाँ संघनन से विशिष्ट प्रकार के “मुकताभ मेघ” की उत्पत्ति होती है और एवं गिरने वाले बूदों को Noctilucent कहते हैं
  • यह ओजोन मंडल 30-35 किमी० में पाया जाता है।
  • यह मंडल मौसमी हलचल से रहित होता है, इसलिए वायुयान चालकों के लिए उत्तम होता है।
  • इस मंडल की खोज सर्वप्रथम तिज्रांस-डि-बोर ने 1902 में की थी।

3. मध्यमंडल (Mesosphere)

  • 50 किमी० से 80 किमी० की ऊँचाई वाला भाग मध्य मंडल कहा जाता है।
  • उसमें ऊँचाई के साथ तापमान में ह्रास होता है।
  • 80 किमी० की ऊँचाई पर तापमान -80°C हो जाता है। इस तापमान की सीमा को “मेसोपास” कहते हैं। इसके ऊपर जाने पर पुनः तापमान में वृद्धि होती जाती है।

4. आयन मंडल (Ionosphere)

  • धरातल से 80-640 कि.मी. के बीच आयन मंडल का विस्तार है
  • यहाँ पर अत्यधिक तापमान के कारण अति न्यून दबाव होता है
  • पराबैगनी फोटोंस (UV photons) एवं उच्च वेगीय कणों के द्वारा लगातार प्रहार होने से गैसों का आयनन (Ionization) हो जाता है
  • आयनमंडल के पुनः तीन उपमंडल होते हैं –
    • D परत- यह आयनमंडल का सबसे निचला भाग होता है।
    • E परत- यह D-परत के ऊपर स्थित होता है।
    • F परत- सबसे ऊपरी भाग को F -परत कहते हैं।

    यदि आयन मंडल की स्थिति नहीं होती तो रेडियो तरंगें भूतल पर न आकर आकाश में असीमित ऊँचाईयों तक चली जाती। इसी मंडल में उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश (Aurora Borealis) तथा दक्षिणी ध्रुवीये प्रकाश (Aurora Australis) के दर्शन होते हैं।

5. बाह्य मंडल (Exosphere)

  • सामान्यतः 640 कि.मी. के ऊपर बाह्य मंडल का विस्तार पाया जाता है।
  • यहाँ पर हाइड्रोजन एवं हीलियम गैसों की प्रधानता है।
  • अद्यतन शोधों के अनुसार यहाँ नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हीलियम तथा हाइड्रोजन की अलग-अलग परतें भी होती हैं।
  • लेमन स्पिट्जर ने इस मंडल पर विशेष शोध किया है।

वायुमंडल का रासायनिक संगठन

रासायनिक दृष्टिकोण से वायुमंडल को दो भाग में विभक्त किया गया है –

  1. सममंडल (Homosphere) :- इसमें गैसों के अनुपात में परिवर्तन नहीं होता है। (90 किमी० ऊँचाई)
  2. विषममंडल (Hexosphere) :- इसमें ऑक्सीजन के अणु पाए जाते हैं। इसकी ऊँचाई 200 से 1100 किमी है।
  3. हीलियम परत :- इसमें हीलियम के अणु पाए जाते हैं तथा इसका विस्तार 1100 से 3500 किमी० के बीच है।
  4. हाइड्रोजन परत :- सामान्य तौर पर इसका विस्तार 10,000 किमी० तक माना जाता है। इसमें हाइड्रोजन के अणु पाए जाते हैं।
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वायुमंडल एवं उनके संघटन

वायुमंडल (Atmosphere)

पृथ्वी को चारों ओर से आवरण की तरह घेरे हुए हवा के विस्तृत भंडार को वायुमंडल (Atmosphere) कहते हैं।

  • इसमें मनुष्य एवं जानवर के लिए ऑक्सीजन एवं पेड़-पौधों के लिए कार्बनडाईआक्साइड जैसी जीवनदायी गैसें उपस्थित हैं।
  • सूर्य के खतरनाक विकिरण से यह पृथ्वी की रक्षा करता है।
  • वायुमंडल जलवाष्प का भंडार है जिससे धरातल पर वृद्धि होती है और स्थल तथा समुद्र पर वृद्धि के नियमित वितरण को भी यह नियंत्रित करता है।

वायुमंडल का संघटन (Composition of Atmosphere)

वायुमंडल अनेक गैसों का मिश्रण है जिसमें ठोस और तरल पदार्थों के कण असमान मात्रा में तैरते रहते हैं। शुद्ध शुष्क हवा में 78% नाइट्रोजन तथा 21% ऑक्सीजन होता है। ये दोनों मिलकर आयतन का 99% हैं। शेष 1% में ऑर्गन 0.93%, कार्बनडाईऑक्साइड 0. 03%,  हाइड्रोजन ओजोन इत्यादि गैसें हैं। जलवाष्प के अलावा धूलकण तथा अन्य अशुद्धियाँ भी असमान मात्रा में हवा में होती हैं।

वायुमंडल के संघटन के महत्वपूर्ण तत्व

संसार की जलवायु और मौसमी दशाओं के लिए जलवाष्प, धूलकण, कार्बनडाईऑक्साइड, ओजोन आदि अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।

जलवाष्प (Watervapour)

जलवायु के दृष्टिकोण से जलवाष्प सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। आयतन के हिसाब से यह गैस उष्णकटिबंध और ध्रुवीय क्षेत्रों में हवा के 1% से भी कम होती है। भूतल से 5 किमी० तक वायुमंडल वाले भाग में समस्त वाष्प का 90% भाग रहता है। ऊपर जाने पर वाष्प की मात्रा घटती जाती है। वाष्प के कारण ही सभी प्रकार के संघनन तथा वर्षण एवं उनके विभिन्न रूप (बादल, तुषार, जलवृष्टि, हिम, ओस आदि) का सृजन होता है। जलवाष्प सूर्य की किरणों के लिए पारदर्शक होता है, जिस कारण वह बिना रूकावट धरातल पर चली आती हैं, परन्तु पृथ्वी से विकीर्ण शक्ति के लिए अपेक्षाकृत कम पारदर्शक होने के कारण पृथ्वी को गर्म करने में सहायक होती है।

धूलकण (Dust)

गैस तथा वाष्प के अलावा वायुमंडल में कुछ ठोस कण भी पाए जाते हैं। इनमें धूलकण सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इनकी उपस्थिति के कारण वायुमंडल में अनेक घटनाएँ घटित होती हैं। सूर्य से आने वाली किरणों में प्रकीर्णन (Scattering) इन्हीं कणों के द्वारा होता है। जिस कारण आकाश का नीला रंग, सूर्योदय तथा सूर्यास्त एवं गोधुलि बेला के समय आकाश का रंग लाल नजर आता है। वर्षा, कुहरा, बादल आदि इन्हीं के प्रतिफल बनते हैं।

अन्य गैसे (Other Gasses)

हवा में कार्बनडाइ आक्साइड उसके कुल आयतन का 0.03% ही है, फिर भी यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह सूर्य से आने वाले विकिरण के लिए पारगम्य है। किन्तु पृथ्वी से बाहर आने वाली विकिरण के लिए अपारगम्य है। इस विकिरण के अंश का अवशोषण करके उसका कुछ अंश पुनः धरातल पर लौटा देती हैं अत: यह धरातल के समीप वाले हवा को गर्म रखती है। यह पृथ्वी की धरालत से 20 किमी० तक होती है।

वायुमंडल का दूसरा घटक ओजोन गैस है। यह एक छन्नी का काम करती है और सूर्य के पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित कर लेती है। यह मुख्यत: धरातल से 10 से 50 किमी० की ऊँचाई पर स्थित है।

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मैदान एवं उनका वर्गीकरण

मैदान (Plain)

धरातल पर पायी जाने वाली समस्त स्थलाकृतियों में मैदान (Plain) सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। अति मंद ढाल वाली लगभग सपाट या लहरिया निम्न भूमि को मैदान कहते हैं। मैदान धरातल के लगभग 55 प्रतिशत भाग पर फैले हुए हैं। संसार के अधिकांश मैदान नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से बने हैं। मैदानों की औसत ऊँचाई लगभग 200 मीटर होती है। नदियों के अलावा कुछ मैदानों का निर्माण वायु, ज्वालामुखी और हिमानी द्वारा भी होता है।

मैदानों का वर्गीकरण (Classification of Plains)

बनावट के आधार पर मैदानों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है –

  1. संरचनात्मक मैदान,
  2. अपरदन द्वारा बने मैदान,
  3. निक्षेपण द्वारा बने मैदान

1. संरचनात्मक मैदान (Structural Plain)

इन मैदानों का निर्माण मुख्यतः सागरीय तल अर्थात् महाद्वीपीय निमग्न तट के उत्थान के कारण होता है। ऐसे मैदान प्रायः सभी महाद्वीपों के किनारों पर मिलते हैं। मैक्सिको की खाड़ी के सहारे फैला संयुक्त राज्य अमेरिका का दक्षिणी पूर्वी मैदान इसका उदाहरण है। भूमि के नीचे धंसने के कारण भी संरचनात्मक मैदानों का निर्माण होता है। आस्ट्रेलिया के मध्यवर्ती मैदान का निर्माण इसी प्रकार हुआ है।

2. अपरदन द्वारा बने मैदान (Erosional Plain)

पृथ्वी के धरातल पर निरन्तर अपरदन की प्रक्रिया चलती रहती है, जिससे दीर्घकाल में पर्वत तथा पठार नदी, पवन और हिमानी जैसे कारकों द्वारा घिस कर मैदानों में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार बने मैदान पूर्णतः समतल नहीं होते। कठोर शैलों के टीले बीच-बीच में खड़े रहते हैं। उत्तरी कनाडा एवं पश्चिमी साइबेरिया का मैदान अपरदन द्वारा बने मैदान हैं। अपरदन द्वारा बने मैदानों को समप्राय भूमि/पेनीप्लेन भी कहते हैं।

3. निक्षेपण द्वारा बने मैदान (Depositional Plain)

ऐसे मैदानों का निर्माण नदी, हिमानी, पवन आदि तथा संतुलन के कारकों द्वारा ढोये अवसादों से झील या समुद्र जैसे गर्तों के भरने से होता है। जब मैदानों का निर्माण नदी द्वारा ढोये गये अवसादों के निक्षेपण से होता है तो उसे नदीकृत या जलोढ़ मैदान कहते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप का सिन्धु–गंगा का मैदान, उत्तरी चीन में हाँगहो का मैदान, इटली में पो नदी द्वारा बना लोम्बार्डी का मैदान और बाँग्लादेश का गंगा ब्रह्मपुत्र का डेल्टाई मैदान जलोढ़ मैदानों के विशिष्ट उदाहरण हैं।

जब मैदानों का निर्माण झील में अवसादों के निक्षेपण से होता है तो उसे सरोवरी या झील मैदान कहते हैं। कश्मीर और मणिपुर की घाटियाँ भारत में सरोवरी मैदानों के उदाहरण हैं। जब मैदान का निर्माण हिमानी द्वारा ढोये पदार्थों के निक्षेपण से होता है तो उसे हिमानी कृत या हिमोढ़ मैदान कहते हैं। कनाडा और उत्तरी-पश्चिमी यूरोप के मैदान हिमानी कृत मैदानों के उदाहरण हैं।

जब निक्षेपण का प्रमुख कारक पवन होती है तो लोयस मैदान बनते हैं। उत्तरी-पश्चिमी चीन के लोयस मैदान का निर्माण पवन द्वारा उड़ाकर लाये गए सूक्ष्म धूल कण के निक्षेपण से हुआ है।

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पठारों का महत्त्व

पठारों का महत्त्व (Importance of Plateaus)

लम्बे समय से लगातार अपरदन के कारण पठार के तल प्रायः असमतल हो गये हैं, जिसके कारण यहाँ, आवागमन के साधनों तथा जनसंख्या का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता। फिर भी पठार मानव के लिए बहुत उपयोगी हैं। पठारों ने मानव जीवन को निम्न प्रकार से प्रभावित किया है –

1. खनिजों के भण्डार

विश्व के अधिकांश खनिज पठारों से ही प्राप्त होते हैं, जिन खनिजों पर हमारे उद्योग कच्चे माल के लिए निर्भर हैं। पश्चिमी आस्ट्रेलिया के पठार में सोना, अफ्रीका के पठार में ताँबा, हीरा और सोना तथा भारत के पठार में कोयला, लोहा, मैंगनीज और अभ्रक के विशाल भंडार हैं।

2. जल विद्युत उत्पादन – पठारों के ढालों पर नदियाँ जल प्रपात बनाती हैं, यह जल प्राप्त जल विद्युत उत्पादन के आदर्श स्थल है।

3. ठन्डी जलवायु – उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पठारों के ऊँचे भाग ठण्डी जलवायु के कारण यूरोपवासियो को आकर्षित करते रहे, जहाँ रहकर उन्होंने अर्थव्यवस्था का विकास किया। उदाहरणार्थ दक्षिण और पूर्व अफ्रीका।

4. पशु-चारण के लिए उपयोगी – पठारी भाग पशुचारण के लिए बहुत उपयोगी हैं। ये भेड़, बकरियों के पालन के लिए बहुत उपयोगी है। भेड़, बकरियों से वस्त्रों के लिए ऊन तथा भोजन के लिए दूध और माँस की प्राप्ति होती है। लावा से बने पठार उपजाऊ हैं। अतः उन पर अन्य पठारों की अपेक्षा कृषि का अधिक विकास हुआ है।

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पठार व उनका का वर्गीकरण

पठार (Plateau)

पठार (Plateau) पृथ्वी की सतह का लगभग 18 प्रतिशत भाग घेरे हुये हैं। पठार एक बहुत विस्तृत ऊँचा भू–भाग है, जिसका सबसे ऊपर का भाग पर्वत के विपरीत लम्बा-चौड़ा और लगभग समतल होता है। पठारी क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ पठार पर प्रायः गहरी घाटियाँ और महाखड़ड बनाती हैं। इस प्रकार पठार का मौलिक समतल रूप कटा-फटा या ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। फिर भी पठार आसपास के क्षेत्र या समुद्र तल से काफी ऊँचा होता है। पठार की ऊँचाई समुद्रतल से 600 मीटर ऊपर मानी जाती है। परन्तु तिब्बत और बोलिविया जैसे पठार समुद्र तल से 3600 मीटर से भी अधिक ऊँचे हैं।

पठारों का वर्गीकरण (Classification of Plateaus)

भौगोलिक स्थिति एवं संरचना के आधार पर पठारों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

  • अन्तरा पर्वतीय पठार
  • गिरिपद पठार,
  • महाद्वीपीय पठार

अन्तरा-पर्वतीय पठार (Inter-Mountain Plateau)

Inter-Mountain Plateau

चारों ओर से ऊँची पर्वत श्रेणियों से पूरी तरह या आंशिक रूप से घिरे भू–भाग को अन्तरा पर्वतीय पठार कहते हैं। उर्ध्वाधर हलचलें लगभग क्षैतिज संस्तरों वाली शैलों के बहुत बड़े भूभाग को समुद्रतल से हजारों मीटर ऊँचा उठा देती है। संसार के अधिकांश ऊँचे पठार इसी श्रेणी में आते हैं। इनकी औसत ऊँचाई 3000 मीटर है। तिब्बत का विस्तृत एवं 4500 मीटर ऊँचा उठार ऐसा ही एक उदाहरण है। यह वलित पर्वत जैसे हिमालय, काराकोरम, क्यूनलुन, तियनशान से दो ओर से घिरा हुआ है। कोलोरेडो दूसरा चिर परिचित उदाहरण है जो एक किलोमीटर से अधिक ऊँचा है, जिसे नदियों ने ग्रॉड केनियन तथा अन्य महाखड्डों को काटकर बना दिया है। मेक्सिको, बोलीविया, ईरान और हंगरी इसी प्रकार के पठार के अन्य उदाहरण है।

गिरिपद (पीडमान्ट) पठार (Mountain Plateau)

Mountain Plateau

पर्वत के पदों में स्थित अथवा पर्वतमाला से जुड़े हुए पठारों को जिनके दूसरी ओर मैदान या समुद्र हों, गिरिपद पठार कहते हैं। इन पठारों का क्षेत्रफल प्रायः कम होता है। इन पठारों का निर्माण कठोर शैलों से होता है। भारत में मालवा पठार, दक्षिण अमेरिका में पैटेगोनिया का पठार जिसके एक ओर अटलांटिक महासागर है और संयुक्त राज्य अमेरिका में एप्लेशियन पर्वत और अटलांटिक तटीय मैदान के बीच एप्लेशियन पठार इसके उदाहरण हैं। ये किसी समय बहुत ऊँचे थे परन्तु अब अपरदन के बहुत से कारकों द्वारा घिस दिए गए हैं। इसी कारणवश इन्हें अपरदन के पठार भी कहा जाता है।

महाद्वीपीय पठार (Continental Plateau)

धरातल के एक बहुत बड़े भाग के ऊपर उठने या बड़े भू–भाग पर लावा की परतों के काफी ऊँचाई तक जाने से महाद्वीपीय पठारो का निर्माण होता है। महाराष्ट्र का लावा पठार, उत्तर-पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका में स्नेक नदी पठार, इस प्रकार के पठारों के उदाहरण हैं। इनको निक्षेपण के पठार भी कहते हैं। महाद्वीपीय पठार अपने आस-पास के क्षेत्रों तथा समुद्र तल से स्पष्ट ऊँचे उठे दिखते हैं। इस प्रकार के पठारों का विस्तार सबसे अधिक है। भारत का विशाल पठार, ब्राजील का पठार, अरब का पठार, स्पेन, ग्रीनलैण्ड और अंटार्कटिका के पठार, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया के पठार महाद्वीपीय पठारों के उदाहरण हैं।

 

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पर्वतों का आर्थिक महत्व

पर्वतों का आर्थिक महत्व (Economic importance of mountains)

पर्वत हमारे लिए निम्न प्रकार से उपयोगी हैं –

1. संसाधनों के भण्डार – पर्वत प्राकृतिक सम्पदा के भंडार हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की अप्लेशियन पर्वतमाला कोयले और चूना पत्थर के लिए प्रसिद्ध है। पर्वतों पर उगने वाले कई प्रकार के वनों में हमें विभिन्न उद्योगों के लिए इमारती लकड़ी, लाख, गोंद, जड़ी बूटियाँ तथा कागज उद्योगों के लिए लकड़ी प्राप्त होती हैं। पर्वतीय ढलानों पर चाय तथा फलों की कृषि का विकास हुआ है।

2. जल विद्युत उत्पादन – पर्वतीय प्रदेशों में बहने वाली नदियों के जल प्रपातों द्वारा जल विद्युत उत्पन्न की जाती है। कोयले की कमी वाले पर्वतीय देशों जैसे-जापान, इटली और स्विटजरलैण्ड में जल विद्युत का बहुत महत्व है।

3. जल के असीम भंडार – ऊँचे हिमाच्छादित या भारी वर्षा वाले पर्वतों से निकलने वाली सदा वाहिनी नदियाँ जल के भंडार हैं। उनसे नहरें निकाल कर खेतों की सिंचाई की जाती है, जिससे विभिन्न फसलों का अधिक उत्पादन होता है। उपजाऊ मैदानों के निर्माण में सहायक ऊँचे पर्वतों से निकलने वाली नदियाँ कटाव द्वारा मिट्टी बहाकर निचली घाटियों में जमा करती हैं, जिससे उपजाऊ मैदानों का निर्माण होता है। उत्तरी भारत का विशाल मैदान गंगा, सतलुज और ब्रह्मपुत्र नदियों की ही देन है।

4. राजनीतिक सीमायें – पर्वत दो देशों के बीच राजनीतिक सीमायें बनाते हैं तथा कुछ हद तक आपसी आक्रमण से बचाते हैं। हिमालय पर्वतमाला भारत और चीन के बीच राजनीतिक सीमा बनाये हुए हैं।

5. जलवायु पर प्रभाव – पर्वतों पर नीचे तापमान पाये जाते हैं। पर्वत दो प्रदेशों के बीच जलवायु विभाजक का कार्य करते हैं। उदाहरण के लिये हिमालय पर्वतमाला मध्य एशिया से आने वाली अति शीत पवनों को भारत में आने से रोकती है। वह दक्षिण-पश्चिम मानसून पवनों को भी रोककर उन्हें दक्षिणी ढलानों पर वर्षा करने को बाध्य करती है।

6. पर्यटन केन्द्र – प्राकृतिक सौन्दर्य के केन्द्र तथा स्वास्थ्यवर्धक स्थान होने के कारण बहुत से पर्वतीय स्थल पर्यटन केन्द्रों के रूप में विकसित हो जाते हैं। ऐसे स्थानों पर पर्यटन एवं होटल व्यवसाय विकसित हो जाते हैं। भारत के शिमला, नैनीताल, मसूरी तथा श्रीनगर पर्वतीय नगरों के उदाहरण हैं। ये सारी दुनिया के सैलानियों को आकर्षित करते हैं।

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