पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब में क्षैतिज विषमताओं के कारण हवा उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर बहती है। क्षैतिज रूप में गतिशील हवा को पवन (Wind) कहते हैं। यह वायुदाब की विषमताओं को संतुलित करने की दशा में प्रकृति का प्रयास है। लगभग ऊर्ध्वावर दिशा में गतिमान हवा को वायुधारा कहते हैं। पवन और वायुधाराएँ मिलकर वायुमंडल में एक संचारतंत्र स्थापित करती हैं।
पृथ्वी के घूर्णन का प्रभाव वायु में गति लाकर पवन उत्पन्न करने के साथ उसके दिशा-निर्धारण पर भी पड़ता है। फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक कोरिऑलिस ने इस पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि उत्तरी गोलार्द्ध में पवन अपनी दाँयी और तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बाँयी और विचलित होता है। इसे फेरेल का नियम भी कहते हैं।
पवन के प्रकार (Types of Winds)
पूरे भू-मंडल पर वायुदाब के अक्षांशीय अंतर के कारण जो पवन प्रचलित है, अर्थात् स्थाई रूप से सालों भर चला करते हैं, वे भूमंडलीय पवन, प्रचलित पवन या स्थाई पवन कहलाते हैं। मौसम के अनुसार जो पवन अपनी दिशा बदलकर चलते हैं, उन्हें सामयिक पवन कहते हैं। दैनिक तापमान एवं वायुदाब में अंतर पड़ने के कारण जो पवन विकसित | होते हैं, उन्हें स्थानीय पवन कहते हैं। अलग-2 स्थानों पर इनके अलग-अलग नाम रखे जाते हैं।
व्यापारिक पवन (Trade Winds)
उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंध से विषुवतीय निम्न-वायुदाब कटिबंधों की ओर दोनों गोलार्द्ध में निरंतर बहने वाले पवन को व्यापारिक पवन कहते हैं। इसे अंग्रेजी में Trade Winds कहते है। Trade जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है एक निर्दिष्ट पथ अतः ट्रेड पवन निर्दिष्ट पथ पर, एक ही दिशा में निरंतर बहने वाले पवन हैं। सिद्धांतत: इस पवन को उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहना चाहिए। किन्तु कोरियॉलिस बल और फेरेल के नियम से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कैसे ये पवन उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दाँयीं ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बाँयी ओर विक्षेपित हो जाते हैं। इस प्रकार पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम होती है। वाणिज्य पवन के विभिन्न भागों में विभिन्न गुण हैं। उत्पत्ति वाले कटिबंधों में उर्ध्वाधर वायुधाराएँ ऊपर से नीचे | उतरती हैं अत: वहाँ ये पवन शांत और शुष्क होते हैं। ये जैसे-जैसे अपने पथ पर आगे बढ़ते हैं मार्ग में जलाशयों से जल ग्रहण करते हैं, विषुवत रेखा के समीप पहुँचते पहुँचते ये जलवाष्प से लगभग संतृप्त हो जाते हैं। वहाँ ये आर्द्र और गर्म वायु के रूप में पहुँचते हैं और अस्थिर होकर वर्षा करते है।
पश्चिमी या पछुआ पवन (Westerlies)
अयन रेखाओं (कर्क और मकर) की उच्च दाब पेटियों से ध्रुवों की ओर (35°_ 40°) अंक्षाशों से (60°—65°) अक्षांशों) चलने वाले पवनों को पश्चिमी या पछुआ पवन कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पर्व की ओर होती है और दक्षिणी गोलार्द्ध में असमान उच्चावच वाले विशाल स्थल खण्ड तथा वायुदाब के बदलते मौसमी प्रारूप इस पवन के सामान्यतः पश्चिम दिशा से बहाव को अस्पष्ट बना देते हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में जल के विशाल विस्तार के कारण वहाँ के पछुआ पवन उत्तरी गोलार्द्ध के पछुआ पवनों से अधिक तेज चलते हैं। पछुआ पवनों का सर्वश्रेष्ठ विकास 40° से 65° दक्षिणी अंक्षाशों के मध्य होता है। वहाँ के इन अंक्षाशों को 40° अक्षांशों पर गरजता चालीसा, 50° अक्षांशों पर प्रचण्ड पचासा तथा 60° अक्षांशों पर चीखता साठा कहा जाता है। ये सभी नाम नाविकों के द्वारा प्रदान किया गया है।
ध्रुवीय पवन (Polar Wind)
ध्रुवीय उच्च दाब कटिबंधों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर बहने वाली पवन को ध्रुवीय पवन कहते हैं। इन पवनों की वायुराशि अत्यंत ठण्डी और भारी होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये पवन उत्तर पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती हैं। बहुत कम तापमान वाले क्षेत्रों से अधिक तापमान वाले क्षेत्र की ओर बहने के कारण ये शुष्क होते हैं। तापमान कम होने के कारण इनकी जलवाष्प धारण करने की क्षमता भी कम होती है।
उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंध में जब पछुआ पवन ध्रुवीय पवन से टकराते हैं तो पछुवा पवन के ध्रुवीय वाताग्र पर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। ये चक्रवात उस कटिबंध में व्यापक वर्षा करते हैं।
सामयिक पवन (Seasonal Wind)
मौसम या समय के परिवर्तन के साथ जिन पवनों की दिशा बिल्कुल उलट जाती है उन्हें सामयिक पवन कहते हैं। मानसून एक ऐसा ही पवन तंत्र है जो जाड़े में एक दिशा से तथा गर्मी में दूसरी दिशा से चलता रहता है। स्थलीय समीर और समुद्री समीर तथा पर्वतीय समीर एवं घाटी समीर को सामयिक पवन के अंतर्गत रखा जाता है।
मानसूनी पवन (Monsoon Wind)
मानसून की उत्पत्ति कर्क और मकर रेखाओं के निकट (वाणिज्य पवन के क्षेत्र) होती है। इसका सर्वप्रसिद्ध क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी एशिया है, जहाँ एक ओर विस्तृत स्थल भाग और दूसरी ओर विस्तृत जलभाग है। ग्रीष्मकाल में स्थल भाग अधिक गर्म हो जाता है जिससे निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है। इस समय उसके निकटवर्ती समुद्री भाग पर वायु का उच्चदाब मिलता है।
फलस्वरूप उच्चदाब से निम्न दाब की ओर पवन चल पड़ती है। समुद्र की ओर से चलने के कारण इसमें वर्षा के लिए पर्याप्त आर्द्रता रहती है। जाड़े में इसके विपरीत पवनें स्थल भाग से जलभाग की ओर चलने लगती हैं।
(i) स्थलीय और समुद्री समीर : ये भी जल और स्थल के असमान गर्म और ठण्डा होने के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, पर इनका प्रभाव समुद्रतटीय भागों में ही सीमित होता है। अत: कुछ लोग इसे स्थानीय पवन कहते हैं।
(ii) पर्वत समीर एवं घाटी समीर : इसका भी संबंध तापमान तथा ऊँचाई से है।
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