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मोटे अनाज (Coarse Grains)

मोटे अनाजों में ज्वार-बाजरा, मक्का और जौ शामिल किये जाते है। हमारे देश में लगभग 360 लाख हेक्टेयर भूमि पर मोटे अनाज की खेती की जाती है। सन् 1970 के दशक में इसका उत्पादक लगभग स्थिर था। सन् 1983-84 में इसका शिखर उत्पादन 325 लाख टन हो गया था। इसके बाद से यह पुनः घट गया। इसका मुख्य कारण शस्य-क्षेत्र में ह्रास था क्योंकि इन अनाजों के स्थान पर उच्च मूल्य वाली फसलें उत्पन्न की जाने लगी हैं। वर्तमान में 2017-18 में मोटे अनाजों का उत्पादन 448.7 लाख टन हो गया हैं। 

ज्वार (Sorghum)

भारत में चावल तथा गेहूँ के बाद ज्वार सबसे महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। दक्षिणी पठार के शुष्क भागों में जहाँ चावल तथा गेहूँ की कृषि नहीं की जा सकती, वहाँ यह विस्तृत क्षेत्र में बोया जाता है और लोगों का मुख्य आहार है। देश के कई भागों में इसे पशुओं के लिए चारे के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।

उत्पादक क्षेत्र : ज्वार का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य   महाराष्ट्र   है। इसके बाद द्वितीय स्थान   कर्नाटक   एवं तृतीय स्थान   मध्य प्रदेश   का है। इसके अलावा   आन्ध्र प्रदेश ,   तमिलनाडु ,   उत्तर प्रदेश ,   गुजरात  इत्यादि राज्यों में भी इसकी कृषि की जाती है। वर्ष 2005-06 के दौरान देश के कुल उत्पादन का 39.0 लाख टन (51.11 प्रतिशत ) ज्वार का उत्पादन करके महाराष्ट्र प्रथम स्थान पर रहा । ज्वार के उत्पादन में जिनअन्य राज्यों ने अशदान दिया वे कर्नाटका (21.89 प्रतिशत ), मध्य प्रदेश (8.26 प्रतिशत ), आंध्र प्रदेश (7.73 प्रतिशत ), तिमलनाडु (3.01 प्रतिशत ), उत्तर प्रदेश (3.15 प्रतिशत ), गजरात (1.97 प्रतिशत ),राजस्थान (2.23 प्रतिशत ), हरयाणा (0.26 प्रतिशत ), और उड़ीसा (0.13 प्रतिशत ) ।

बाजरा (Millet)

बाजरा निर्धन लोगों के लिए भोजन तथा पशुओं के लिए चारे के रुप में प्रयोग की जाने वाली प्रमुख फसल है। बाजरे के लिए 25 से 30° सेटीग्रेड तापमान तथा 40 से 50 से०मी० वर्षा की आवश्यकता होती हैं हल्की व रेतीली मिट्टी में यह भली-भाँति उगता हैं। भारी वर्षा इसके लिए हानिकारक होती हैं।

98 मिलियन टन हुआ। प्रमुख उत्पादक राज्य गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र है। इसके अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब तथा मध्य प्रदेश में भी बाजरे की खेती की जाती है।

मक्का (Maize)

मक्का एक अन्य महत्वपूर्ण मोटा अनाज है। इसमें ग्लूकोज तथा मांड (Starch) की मात्रा अधिक होती है, जिस कारण इसे पशुओं को मोटा करने के लिए खिलाया जाता है यह निर्धन लोगों के भोजान का काम भी करता है।

इसके लिए 21 से 27° सेंटीग्रेड, तापमान तथा 75 से०मी० वर्षा की आवश्यकता होती हैं। यह फसल नदियों द्वारा लाई दोमट मिट्टी में भली-भाँति उगती हैं। इसकी कृषि मुख्यतः मैदानी भागों में की जाती है।

भारत में उत्पादक राज्य : भारत में मक्का , राष्ट्रीय खाद्य टोकरी में लगभग 9% योगदान देता है। भारत में मक्का के कुल उत्पादन का 80% से अधिक आंध्र प्रदेश (20.9%), कर्नाटक (16.5%), राजस्थान (9.9%), महाराष्ट्र (9.1%), बिहार (8.9%), उत्तर प्रदेश (6.1%), मध्य प्रदेश (5.7%), हिमाचल प्रदेश (4.4%) इत्यादी राज्योंमें होता है। इसके अलावा जम्मू एवं कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में भी मक्का उगाया जाता है। मक्का गैर परंपरागत क्षेत्रों जैसे प्रायद्वीपीय भारत एवं आंध्र प्रदेश में महत्वपूर्ण फसल के रूप में उभरा है जहाँ कुछ जिलों में उत्पादकता (5.26 टन प्रतिहेक्टयेर ) और उच्चतम उत्पादन (4.14 लाख टन ) के अधिक या अमरीका के बराबरहोता है। मक्का का उत्पादन 2017-18 में 268.8 लाख टन था।

जौ (Barley)

जौ एक मोटे अनाज की फसल है। यह निर्धन लोगों के भोजन के काम आता हैं। इससे सत्तू, बीयर तथा शराब भी बनाई जाती हैं। इसकी सर्वाधिक माँग मदिरा कारखानों को रहती है।

जौ की उपज की दशाएँ गेहूँ से मिलती-जुलती है। अन्तर यह है कि यह कम वर्षा तथा कम तापमान को भी सहन कर लेती है। इसकी उपज के लिए 10 से 150 सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। यह 40 से०मी० से 50 से०मी० वर्षा में उग आता है। इसके लिए हल्की दोमट मिट्टी अच्छी होती हैं। यह 1000 मीटर की ऊँचाई वाले इलाको में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। जौ के कुल क्षेत्रफल के 54% भाग में सिंचाई नहीं की जाती।

भारत के उत्पादक राज्य : देश में जौ के प्रमुख उत्पादकों में राजस्थान (40%), उत्तर प्रदेश (30%), मध्य प्रदेश (8%), हरयाणा (6%) और पंजाब (5%) का नाम आता है। कुछ खेती बिहार , हिमाचल प्रदेश औरउत्तरांचल में भी की जाती है।

प्रमुख भारतीय व्यापार केंद्र : जौ के प्रमुख बाजार राजस्थान और मध्य प्रदेश में स्थित हैं। राजस्थान में तीन सबसे बडे़ बाजारों में कोटा , रामगंज मंडी और बारन का नाम आता है।

उत्पादक देश : यूरोपीय संघ , रूस , उक्रेन , कनाडा , ऑस्ट्रेलिया , जर्मनी , भारत टर्की   और अमेरिका जौ के प्रमुख उत्पादक देश हैं, ये कुल वैश्विक उत्पादन के 75 फीसदी के हिस्सेदार हैं।

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दालें (Pulses)

दालें (Pulses)

भारत में अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है और हमारे आहार में दालें प्रोटीन का प्रमुख स्त्रोत है। दालों के उत्पादन में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हुई जिस अनुपात में अनाजों के उत्पादन में हुई अन्य दालें है। सकल फसल-क्षेत्र में दालों का क्षेत्र कम हुआ है। दालों का 90% क्षेत्र वर्षा पर ही निर्भर करता है। शस्यवर्तन (Crop Rotation) द्वारा दालों का क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, हरियाण, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलानाडु तथा पश्चिमी बंगाल मुख्य उत्पादक राज्य हैं। दालें खरीफ तथा रबी दोनों ही ऋतुओं में उगाई जाती हैं। अरहर (तुर), मूंग, उर्द, मोठ आदि खरीफ की फसलें हैं जबकि चना, मटर, मसूर, आदि रबी की फसलें हैं। दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय दाल विकास कार्यक्रम सन् 1986-87 में शुरु किया गया।

अरहर (Cajanus Indicus ) – यह पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा अन्य राज्यों में सर्वाधिक खाई जानेवाली दाल है। अरहर में प्रोटीन 27.67%, वसा 2.31%, कार्बोहाइड्रेट 57.27%, लवण 5.50% तथा जल 10.08% रहता है। इसमें विटामिन B पाया जाता है।

मूँग (Phaseolus Mungo) – इसमें प्रोटीन 23.62%, वसा 2.69%, कार्बोहाइड्रेट 53.45%, लवण 6.57% तथा जल 10.87% रहता है। इसमें विटामिन B मिलता है। अन्य दालों की अपेक्षा यह शीघ्र पचती है। अत: रोगियों को पथ्य के रूप में भी दी जाती है।

उड़द (Phaseolus Radiatus) – इसी को माष भी कहते हैं इसमें प्रोटीन 25.5%, वसा 1.7%, कार्बोहाइड्रेट 53.4%, लवण 3.3% एवं जल 13.1% होता है। इस दाल का पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मद्रास एवं मध्य प्रदेश में अत्यधिक प्रचलन है दाल के अतिरिक्त बड़ा, कचौड़ी, इमिरती, इडली और दोसे इत्यादि के बनान में उड़द की दाल का ही विशेष उपयोग होता है।

मसूर (Lentil) –इटली , ग्रीस और एशिया का देशज है। भारत में उत्तरप्रदेश, मद्रास, बंगाल एवं महाराष्ट्र में इसका व्यवहार अत्यधिक हाता है और इसे पौष्टिक आहार समझा जाता है। इसमें 25.5% प्रोटीन, 1.9% तेल, 52.2% कार्बोहाइड्रेट, 3.4% रफेज एवं 2.8% लोहा होता है।इसकी राख में पोटाश एवं फॉस्फेट अधिक मात्रा में रहता है।

मटर (Pisum Arvense) –पूर्वी यूरोप का देशज है। इसकी दूसरी जाति पीसम सैटिवम (Pisum sativum) है , जो एशिया का देशज है। इसमें 22.5% प्रोटीन, 1.6% तेल, 53.7% कार्बोहाइड्रेट, 5.4% रफेज तथा 2.9% राख रहती है। लगभग सभ राज्यों में इसका उपयोग होता है।हरी फली से निकली मटर सब्जी के का आती है और पक जाने पर दाल के लिय इसका उपयोग होता है।

चना (Chick Pea or Cicer Arietinum) – इसका प्रयोग भारत में लगभग सभी प्रदेशों में सामान्य रूप से हाता है।  यह सभी दलहनों में सर्वाधिक पौष्टिक पदार्थ है। पालतू घोड़े को भी यह खिलाया जाता है। घोड़े कोखिलाया जानेवाला चना अंग्रेजी में हॉर्स ग्राम (Horse Gram) कहलाता है। सका वानस्पतिक नाम डॉलिकोस बाइफ्लोरस (Dolichos biflorus) है। इसमें विटामिन सी पर्याप्त मात्रा में रहता है।चने का बेसन पकौड़ी, बेसनी , कढ़ी तथा मिठाई बनाने के काम में आता है। हरा चना सब्जी बनाने एवं तलकर खाने के काम में आता है।

खेसारी (Lathyrus Sativum) – यह अत्यंत निम्नकोटि का दलहन है। पशुओं के खिलाने और खेतों में हरी खाद के लिए इसका उपयोग अधिक होता है। यह अल्प मात्रा में ही दाल के रूप में खाई जाती है। इसकेअधिक सेबन से कुछ रोग हो जाने की सूचना मिली है।

सोयाबीन (Glycinemax) – यह पूर्वी एशिया का देशज है। इसकी फलियाँ छोटी, रोएँदार होती हैं , जिनमें दो से चार तक बीज होते हैं। इसमें 66-71% जल , 5.5% राख, 14 से 19% वसा , 4.5 से 5.5 % रफेज , 5 से 6 % नाइट्रोजन , 1.5 से 3% स्टार्च , 8 से 9.5% हेमिसेलूलोज़, 4 से 5% पेंटोसन रहता है। इनके अतिरिक्त कैल्सियम , मैग्नीशियम और फॉस्फोरस रहते हैं।

सेम (Bean) –यह कई प्रकार की होती है , जिसमें लाल और सफेद अधिक प्रचलित है। इसमें प्रोटीन 15 से 20%, राख 6 से 7%, शर्करा 21 से 29%, स्टार्च और डेक्सट्रिन 14 से 23% हेमिसेलूलाज 8.5 से 11% तथा पेंटोसन लगभग 7% रहता है। इसके प्रोटीन बिना पकाए शीघ्र नहीं पचते।

उत्पादन – वित्त वर्ष 2017-18 में भारत में 245.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्र दलहनों के लिये था जिसमे मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश द्वारा योगदान किया गया था। 

 

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भारत के प्रमुख फसलें – गेहूँ (Wheat)

गेहूँ (Wheat)

चावल के बाद गेहूँ हमारे देश का दूसरा महत्वपूर्ण खाद्यान्न पदार्थ है। भारत गेहूं का विश्व में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है और यह विश्व का लगभग 8% गेहूँ उत्पन्न करता है। देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में रहने वाले लोगों का यह मुख्य आहार है।

गेहूँ की उपज के लिए निम्नलिखित दशाएँ उपलब्ध है।

तापमान – यह एक शितोष्ण कटिबन्धीय पौधा है, जिसके लिए 10 से 15° सोल्सियम तापमान होना आवश्यक है। गेहूँ को उगाते समय 10° सेल्सियस वर्द्धन के समय 15°C और पकते समय 20 से 25° सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है।

वर्षा – गेहूँ की कृषि के लिए 80 से०मी० वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। 100 से०मी० से अधिक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में गेहूं की कृषि नहीं की जाती। वास्तव में 100 से०मी० वार्षिक वर्षा की समवर्षा रेखा गेहूँ तथा चावल के क्षेत्रों को विभाजित करती है। सिंचाई की सहायता से गेहूं 20 से०मी० वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है।

मिट्टी – गेहूँ की कृषि अनेक प्रकार की मिट्टियों में की जा सकती हैं। परंतु हल्की चिका मिट्टी, चिकायुक्त दोमट मिट्टी, भारी दोमट मिट्टी तथा बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त होती है। भारत में अधिकांश गेहूँ विशाल मैदान के जलोढ़ मिट्टियों के क्षेत्र में उगाया जाता है।

भूमि – गेहूँ की कृषि में बड़े पैमाने पर यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है इसलिए इसे समतल मैदानी भाग की आवश्यकता होती है।

श्रम – गेहूं की कृषि में यन्त्रों का प्रयोग अधिक किया जाता है अतः इसकी कृषि के लिए अधिक श्रम की आवश्यकता नहीं होती।

उत्पादन तथा वितरण – भारत की लगभग एक-तिहाई कृषि भूमि पर गेहूँ की कृषि की जाती हैं। यह भारत में रबी (शीतकालीन) की फसल है जो शीत ऋतु के समाप्त होने पर काट ली जाती है। हमारे देश में गेहूं के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। पैकेज टेकनोलॉजी के कारण देश में 1967 में हरित क्रान्ति आई जिसके प्रभावाधीन भारत में कृषि उत्पादन बढ़ा परंतु हरित क्रान्ति का सबसे अधिक प्रभाव गेहूँ के उत्पादन पर पड़ा। सन् 1970-71 में 1960-61 की तुलना में गेहूं का उत्पादन दुगुने से भी अधिक हो गया। इसी अवधि में गेहूँ के क्षेत्रफल तथा प्रति हेक्टेयर उपज में लगभग डेढ़ गुना वृद्धि हुई। 2017-2018 में लगभग 986.1 लाख टन गेहूँ पैदा किया गया।

गेहूँ की कृषि मुख्यतः पंजाब, हरियाण तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में की जाती है। राजस्थान और गुजरात के कुछ चयनित क्षेत्रों में कृषि की जाती है। देश में कुल गेहूँ उत्पादन का लगभग दो-तिहाई भाग पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से प्राप्त होता है गेहूँ के अन्तर्गत क्षेत्र को भी अब काफी बढ़ा दिया गया है, विशेष तौर पर बिहार और पश्चिमी बंगाल जैसे गैर-परम्परागत क्षेत्रों तक। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भी गेहूँ की कृषि पर्याप्त बड़े क्षेत्र पर की जाती है। बिहार और पश्चिमी बंगाल दोनों मिलकर देश में गेहूं के कुल उप्पादन का 8% भाग उत्पन्न करते हैं। पश्चिमी बंगाल में गेहूं की उपज प्रति हेक्टेयर बहुत अधिक है।

वैश्विक बाजार

डेरिवेटिव्स एक्सचेंजेस शिकागो मर्कन्टाइल एक्सचेंज जिसने शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड का अधिग्रहण किया, कानसास सिटी बोर्ड ऑफ ट्रेड, झेंगझोउ कमोडिटी एक्सचेंज, दक्षिण अफ्रीकी फ्यूचर्स एक्सचेंज, एमसीएक्स और एनसीडीईएक्स। यूएसएफओबी और ईयू (फ्रांस) एफओबी कीमतें भौतिक मूल्यों का निर्धारण करती हैं।

आयात और निर्यात

अमेरिका , यूरोपीय संघ -28, कनाडा , ऑस्ट्रेलिया अर्जेंटिना और भारत  प्रमुख निर्यातक हैं वहीं ऐसे कई देश हैं जो विकासशील देशों से उत्पन्न अधिकतम मांग के लिए गेहूं का आयात करते हैं। मध्य-पूर्व एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका आयात करने वाले प्रमुख क्षेत्र हैं। इजिप्ट, ब्राजील, इंडोनेशिया और अल्जीरिया सबसे महत्वपूर्ण आयातक राष्ट्र हैं।

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भारत के प्रमुख फसलें – चावल (Rice)

चावल (Rice)

चावल (Rice) भारत की सर्वप्रमुख फसल है जिस पर भारत की लगभग आधी से भी अधिक जनसंख्या रहती करती है। चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा चावल का सर्वाधिक उत्पादक करता है। विश्व का लगभग 29% चावल क्षेत्र भारत में ही होता हैं। भारत की कुल कृषि भूमि के 25% भाग पर चावल बोया जाता हैं। 150 से० मी० से अधिक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में चावल लोगों का मुख्य आहार है।

चावल की उपज के लिए निम्नलिखित दशाएँ अनुकूल हैं:

तापमान – यह एक उष्ण कटिबंधीय फसल है जिसके लिए कम-से-कम 24° सेल्सियम तापमान होना आवश्यक है। इसे बोते समय 21° सेल्सियस बढ़ते समय 24° सेल्सियस तथा पकते समय 27° सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती हैं।

वर्षा – चावल की फसल के लिए 125 से 200 से०मी० वार्षिक वर्षा आवश्यक है।

मिट्टी – चावल के लिए बहुत उपजाऊ मिट्टी चाहिए। इसके लिए उपजाऊ चीका या दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी में यह पौधा भली-भाँति उगता हैं।

भूमि – चावल की कृषि के लिए हल्की ढाल वाले मैदानी भाग अनुकूल होते हैं। नदियों के डेल्टों तथा बाढ़ के मैदानों में चावल खूब फलता है।

श्रम – चावल की कृषि में मशीनों से काम नहीं लिया जा सकता, इसलिए इसकी कृषि के लिए अत्यधिक श्रम की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि चावल साधारणतया घनी जनसंख्या वाले क्षेत्रों में बोया जाता हैं।

उत्पादन – भारत में चावल का उत्पादन निरन्तर बढ़ रहा है। 1950-51 में केवल 205 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ था। यह उत्पादन 2017-2018 बढ़कर 1115.2 लाख टन हो गया।

यद्यपि हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों में चावल की कृषि में उल्लेखनीय प्रगति हुई है फिर भी हम अन्य देशों की तुलना में काफी पिछड़े हुए हैं। उदाहरणतः भारत में चावल की प्रति हेक्टेयर उपज केवल 1990 किलोग्राम हैं जबकि रूस में 2,630, चीन में 3,600 अमेरिका में 4,770 जापान में 6,220 तथा कोरिया में 6,670 किलाग्राम प्रति हेक्टेयर चावल प्राप्त किया जाता है।

वितरण – यदि जल उपलब्ध हो तो हिमालय के 2440 मीटर से अधिक ऊँचे भागों को छोड़कर शेष समस्या भारत में ग्रीष्म ऋतु में चावल की कृषि की जा सकती है। भारत में बोई गई भूमि के अन्तर्गत सबसे अधिक क्षेत्रफल चावल का है।

भारत का अधिकांश चावल डेल्टाई तथा तटीय भागों में होता है। इसके अतिरिक्त इसकी कृषि दक्षिणी पठार के कुछ भागों में भी की जाती हैं। पिछले कुछ वर्षों से सतलुज-गंगा के मैदान में चावल की कृषि ने उल्लेखनीय उन्नति की है। इसका मुख्य कारण सिंचाई की सुविधाओं का विस्तार तथा उत्तम बीजों का प्रयोग हैं। हिमालय पर्वत की निचली घाटियों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर चावल की कृषि की जाती हैं। मुख्य उत्पादक राज्य पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब आदि है। पश्चिमी बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा तमिलनाडु में वर्ष में कहीं-कहीं चावल की तीन-तीन फसलें उगाई जाती हैं क्योंकि यहाँ पर शरद और ग्रीष्म ऋतुओं में भी चावल उगाया जाता है।

वैश्विक परिदृश्य

विश्व उत्पादन : चावल  विश्व की दूसरी सर्वाधिक क्षेत्रफल पर उगाई जाने वाली फ़सल है। विश्व में लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर 45 करोड़ टन चावल का उत्पादन होता है। विश्व में कुल चावल उत्पादन का 90% चावल दक्षिण – पूर्वी एशिया में प्राप्तकिया जाता है।एशिया में प्रमुख उत्पादन देश चीन, भारत , जापान , बांग्लादेश , पाकिस्तान, इण्डोनेशिया, ताइवान, म्यांमार, मलेशिया, फिलिपींस, वियतनाम तथा कोरिया आदि हैं। एशिया से बाहर चावल के प्रमुख उत्पादक देश मिस्र, ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, संयुक्त राज्य अमरीका, इटली, स्पेन, तुर्की गिनी कोस्ट तथा मलागासी हैं। चावल का अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थान मनीला (फिलीपींस ) में स्थित है।

चीन : चीन विश्व का सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है। यहाँ पर 3.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर 17.1 करोड़ मीट्रिक टन चावल पैदा किया जाता है जो विश्व के कुल उत्पादन का लगभग एक तिहाई है।

भारत : भारत विश्व में चावल का दूसरा बड़ा उत्पादक देश है। भारत विश्व में चावल का दूसरा बड़ा उत्पादक देश है। यहाँ पर विश्व के कुल उत्पादन का 20% चावल पैदा किया जाता है। भारत में 4.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर 9.2 करोड़ मीट्रिक टन चावल काउत्पादन किया जाता है। चावल भारत की सर्वाधिक मात्रा में उत्पादित की जाने वाली फ़सल है।

इण्डोनेशिया : इण्डोनेशिया विश्व का तीसरा बड़ा उत्पादक देश है जो कुल उत्पादन का 8% चावल उत्पादन करता है। यहाँ पर  जावा द्वीप  में सबसे अधिक चावल का उत्पादन होता है।

बांग्लादेश: विश्व का 5% चावल उत्पादन कर बांग्लादेश  विश्व का चौथा बड़ा उत्पादक देश है। यहाँ पर भूमि के 60% भाग में चावल का उत्पादन किया जाता है। यहाँ वर्ष में चावल की तीन फ़सलें उगाई जाती हैं।

इसके अतिरिक्त थाईलैण्ड , जापान , म्यांमार तथा कोरिया चावल के प्रमुख उत्पादक देश हैं। चावल का सबसे बड़ा निर्यातक देश थाईलैण्ड है।

इसके अतिरिक्त म्यांमार , वियतनाम , संयुक्त राज्य अमेरिका , संयुक्त अरब गणराज्य , पाक़िस्तान , इटली ,ब्राजील , पेरू तथा आस्ट्रेलिया आदि बड़े निर्यातक देशों में शामिल हैं।

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चक्रवात एवं प्रतिचक्रवात (Cyclone and Anticyclone)

चक्रवात (Cyclone)

सामान्य रूप से चक्रवात निम्न वायुदाब के केन्द्र होते हैं, जिनके चारों तरफ समकेन्द्रीय समवायुदाब रेखाएँ विस्तृत होती हैं तथा केन्द्र से बाहर की ओर वायुदाब बढ़ता जाता है। परिणामस्वरूप परिधि (बाहर से) केन्द्र की ओर हवाएँ चलने लगती है। हवाओं की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी के सुइयों के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी के सुइयों के अनुकूल होती है। चक्रवातों का आकार प्रायः गोलाकार या अण्डाकार या V अक्षर के समान होता है। जलवायु तथा मौसम में चक्रवातों का पर्याप्त महत्व होता है, क्योंकि इनके द्वारा किसी भी स्थान (जहाँ पर वे पहुँचते हैं,) की वर्षा तथा तापमान प्रभावित होते है। स्थिति के दृष्टिकोण से चक्रवात को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।

  1. शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclone)
  2. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclone)

शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclone)

मध्य अक्षांशों में निर्मित वायुविक्षोभ के केन्द्र में कम वायुदाब तथा बाहर की ओर अधिक वायुदाब होता है और ये प्रायः गोलाकर, अण्डाकार या L के आकार के होते हैं जिस कारण इन्हें लो गर्त या ट्रफ कहते हैं। इनका निर्माण दो विपरीत स्वभाव वाली ठण्डी तथा उष्णार्द्ध हवाओं के मिलने के कारण होता है तथा इनका क्षेत्र दोनों गोलार्थों के 35 से 65° अक्षांशों में पाया जाता है, जहाँ पर ये पछुआ पवनों के प्रभाव में पश्चिम से पूर्व दिशा में चलते रहते हैं। मध्य अक्षांशों के मौसम को ये चक्रवात बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। इसका विस्तार बहुत ज्यादा होता है लगभग 500 से 3000 कि.मी.) इसकी गति प्रतिघंटा गर्मी में 32 कि.मी./घंटा तथा जाड़ों में 48 कि.मी./घण्टा होती है।

उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclone)

कर्क तथा मकर रेखाओं के मध्य उत्पन्न चक्रवातों को ‘उष्णकटिबंधीय चक्रवात’ के नाम से जाना जाता है। शीतोष्ण चक्रवातों की तरह इन चक्रवातों में समरूपता नहीं होती है। इन चक्रवातों के कई रूप होते हैं, जिनकी गति, आकार तथा मौसम संबंधी तत्वों में पर्याप्त अन्तर होता है। निम्न अक्षांशों के मौसम खासकर वर्षा पर उष्णकटिबंधयी चक्रवातों का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। इनका व्यास सामान्य रूप से 80 से 300 कि.मी. तक होता है। इनकी गति 32 कि.मी. से 200 कि.मी. घण्टे से भी अधिक होती है। ये चक्रवात सागरों पर तेज चलते हैं। परन्तु स्थलों पर पहुँचते-पहुँचते इनकी गति क्षीण हो जाती हैं तथा आंतरिक भागों में पहुँचने के पहले समाप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि ये महाद्वीपों के केवल तटीय भाग पर अधिक प्रभावशाली होते हैं। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का समय निश्चित रहता है। यह ग्रीष्म काल में ही आते हैं।

उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के उदाहरण

  • हरिकेन – संयुक्त राज्य अमेरिका और कैरेबियन सागर
  • टायफून – चीन
  • टारनेडो – संयुक्त राज्य अमेरिका
  • विली-विली – आस्ट्रेलिया
  • साइक्लोन – भारत/हिन्द महासागर

प्रतिचक्रवात (Anticyclone)

इसमें वायु व्यवस्था चक्रवात के विपरीत होती है। केन्द्र में उच्च वायुदाब रहता है। तथा बाहर की ओर निम्न वायुदाब रहता है। चक्रवात की अपेक्षा प्रतिचक्रवात में समदाब रेखाएँ बहुत दूर-दूर होती हैं। इसमें पवन की गति मंद पड़ पाती है। प्रतिचक्रवात उत्तरीगोलार्द्ध में Clockwise तथा दक्षिण गोलार्द्ध में Anticlockwise चलती हैं।

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वृष्टि (Precipitation)

खुली स्वछन्द हवा में वायुमंडलीय जलवाष्प का लगातार होने वाला संघनन संघनित कणों की आकार-वृद्धि में सहायक होता है। जब ये कण बड़े हो जाते हैं और हवा का अवरोध उन्हें गुरूत्वाकर्षण बल के खिलाफ लटकाए रखने में असफल होता है तो आकार में बड़े संघनित कण पृथ्वी की धरातल पर गिरने लगते हैं। जल की बून्दों और हिमखडों के गिरने की इस प्रक्रिया को वृष्टि या वर्षण (Precipitation) कहते हैं।

जब वृष्टि जल के बून्दों के रूप में होती है तो इसे जलवृष्टि या वर्षा कहते हैं। जब तापमान हिमांक से नीचे होता है तो वृष्टि हिम-रवों के रूप में होती है, जिसे हिमवृष्टि या हिमपात कहते है। यही दो मुख्य प्रकार की वृष्टियाँ हैं। इनके अलावा सहिम-वृष्टि (स्लीट) और ऊपलवृष्टि (ओले) भी वृष्टि में सम्मिलित हैं। सहिमवृष्टि और ऊपलवृष्टि की घटनाएँ अपेक्षाकृत कम होती हैं। समय और क्षेत्र के संदर्भ में इस प्रकार की वृष्टि केवल कभी-कभी और यत्र-तत्र ही होते हैं।

जब बर्फ की कड़ी और बड़ी गोलियों की बौछार होने लगती है तो इसे ऊपल वृष्टि या ओला वृष्टि कहते हैं। कभी-कभी तेज उर्ध्वाधर वायु धाराएँ ऊपर उठते समय वर्षा की बून्दों को हिमांक तल के ऊपर चढ़ा देती हैं। एक बार जम जाने के बाद ये हिमरवे आकार में बड़े होने लगते हैं और हवा उन्हें लटकाए रखने में असमर्थ हो जाती है जिससे ये नीचे गिरने लगते हैं। किन्तु तेजी से ऊपर उठने वाली वायुधाराएँ इन्हें पुनः ऊपर उठा देती हैं। इस प्रक्रिया में इन पर बर्फ की और पर्ते चढ़ जाती हैं। और बड़े भार के कारण इनका धरातल पर गिरना शुरू हो जाता है। इसलिए ओले में बर्फ की कई संकेन्द्री पर्ते पाई जाती हैं।

वृष्टि के प्रकार (Types of Precipitation)

उत्पत्ति के अनुसार वृष्टि को हम तीन मुख्य वर्गों में बाँट सकते हैं –

  1. संवहनीय वर्षा
  2. पर्वतकृत वर्षा
  3. चक्रवर्ती या वाताग्री वर्षा।

संवहनीय वृष्टि

गर्म और नम हवा का अधिक ऊँचाई तक ऊपर उठना ही संवहनीय वृष्टि का मुख्य कारण है। यह अधिकतर जलवृष्टि के रूप में होती है। ग्रीष्म ऋतु में पृथ्वी के धरातल के अत्यधिक तपने से ऊर्ध्वाधर वायुधाराएँ पैदा होती हैं। जैसे-जैसे धरातलीय वायु ऊपर उठती है, यह फैलती है और ठण्डी होती जाती है तथा अधिक ऊँचाई पर पहुँचकर संतृप्त हो जाती है। इसके बाद इसके जलवाष्प का संघनन होता है और फिर वृष्टि होती है। इस प्रक्रिया से गुप्त उष्मा निकलती है जो वहाँ की हवा को पुनः गर्म करती है तथा उसे और ऊपर उठने को बाध्य करती है। इससे और संघनन तथा वर्षण होता है किन्तु उसका क्षेत्र बड़ा ही सीमित होता है, और उसमें आकाश का बहुत कम भाग बादलों से ढका होता है। डोलड्रम या विषुवतीय शांत कटिबंध में वर्षा संवहनीय प्रकार की होती है।

पर्वतकृत वृष्टि

गर्म और आर्द्र वायु जब पर्वत श्रेणी सरीखे स्थलाकृति से टकराती है तो बाध्य होकर ऊपर उठती है इससे जो वृष्टि होती है उसे पर्वतकृत वृष्टि कहते हैं। पर्वतकृत वृष्टि में पवन-विमुख ढालों की अपेक्षा पवनभिमुख ढालों पर वृष्टि की मात्रा बहुत अधिक होती है। पवन विमुख ढालों पर हवा नीचे उतरती है और क्रमशः गर्म होती जाती है। साथ ही पवनाभिमुख ढालों पर अधिक वृष्टि करने के बाद हवा में वाष्प की मात्रा भी काफी कम हो जाती है। यही कारण है कि पवन विमुख ढालों और उनके आस-पास की नीची भूमि अपेक्षाकृत शुष्क होती है। इन्हें वृष्टि-छाया क्षेत्र कहते हैं। प्रायद्वीपीय भारत में स्थित महाबलेश्वर व पुणे, एक दूसरे से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं किन्तु इन दोनों स्थानों की वर्षा की मात्रा में काफी अंतर होता है। इस अंतर का कारण पर्वतकृत वृष्टि है। महाबलेश्वर में वर्षा 600 से०मी० है जबकि पुणे में इसकी मात्रा सिर्फ 70 से०मी० है। पुणे की स्थिति वृष्टि छाया क्षेत्र में पड़ती है।

चक्रवाती या वाताग्री वृष्टि

चक्रवातों के कारण होने वाली वृष्टि को चक्रवाती वृष्टि कहते हैं। वाताग्री उत्पत्ति वाली वर्षा तथा हिमवृष्टि चक्रवात वाले क्षेत्रों में विशेषकर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातीय क्षेत्रों में होती है। गर्म और आर्द्र वायुराशि ठंडी वायुराशि से टकराती है तो भीषण तुफानी दशाएँ उत्पन्न होती हैं। गर्म वायुराशि ठण्डी वायुराशि पर चढ़ती है और वहाँ वृष्टि होने लगती है। खासकर इन वायुराशियों के वाताग्रों पर ऐसा प्रायः होता है।

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बादल (Cloud)

बादल (Cloud)

मेघों का निर्माण वायु में उपस्थिति महीन धूलकणों के केन्द्रक के चारों ओर जलवाष्प के संघनित होने से होता है। अधिकांश दशाओं में मेघ जल की अत्यधिक छोटी-छोटी बँन्दों से बने होते हैं, लेकिन ये बर्फ कणों से भी निर्मित हो सकते हैं, बशर्ते कि तापमान हिमांक से नीचे हो। अधिकांशतः मेघ निर्माण गर्म एवं आर्द्र वायु के ऊपर उठने से होता है। ऊपर उठती हवा फैलती है और जब तक ओसांक तक न पहुँच जाए ठण्डी होती जाती है और कुछ जलवाष्प मेघों के रूप में संघनित होती है। दो विभिन्न तापमान वाली वायुराशियों के आपस में मिलने से भी मेघों की रचना होती है।

औसत ऊँचाई के आधार पर मेघों को तीन भागों में बाँटा गया है:

  1. उच्च स्तरीय मेघ – 5000 से 10000 मी० ऊँचा
  2. मध्यस्तरीय मेघ – 2000 से 5000 मी० ऊँचा
  3. निम्नस्तरीय मेघ – 2000 मी० से नीचे

उच्च स्तरीय मेघ

इनको तीन उपवर्गों में विभाजित किया गया है –

(i) पक्षीय मेघ

यह तंतुनुमा कोमल तथा सिल्क जैसी आकृति के मेघ हैं। जब ये मेघ समूह से अलग होकर आकाश में अव्यवस्थित तरीके से तैरते नजर आते हैं, तो ये साफ मौसम लाते हैं। इसके विपरीत जब ये व्यवस्थित तरीके से पट्टियों के रूप में अथवा पक्षाभ स्तरी अथव मध्यस्तरी मेघों से जुड़े हुए होते हैं तो आर्द्र मौसम लाते हैं।

(ii) पक्षाभ स्तरी मेघ

पतले श्वेत चादर जैसे मेघ जो लगभग समस्त आकाश को घेरते हैं, पक्षाभस्तरी मेघ कहलाते हैं। सामान्यतः ये मेघ सूर्य एवं चन्द्रमा के चारों ओर प्रभामंडल का निर्माण करते हैं। सामान्यतः ये बादल आने वाले तूफान के लक्षण हैं।

(iii) पक्षाभ कपासी मेघ

ये मेघ छोटे-छोटे श्वेत पत्रकों अथवा छोटे गोलाकर रूप में दिखाई देते हैं इनकी कोई छाया नहीं पड़ती है। सामान्यत: ये समूहों रेखाओं में व्यवस्थित होते हैं, जो मेघ रूपी चादर में पड़ने वाली सिलवटों से उत्पन्न होते हैं। ऐसी व्यवस्था को मैकरेल आकाश कहते हैं।

मध्य मेघ

इन्हें दो उपवर्गों में विभाजित किया गया है –

(i) मध्य स्तरी मेघ

भूरे अथवा नीले रंग के मेघों की समान चादर, जिनकी संरचना सामान्यत: तंतुनुमा होती है, इस वर्ग से संबंधित हैं। बहुधा ये मेघ धीरे-धीरे पक्षाभ स्तरी मेघ में बदल जाते हैं। इन मेघों से होकर सूर्य तथा चन्द्रमा धुंधले दिखाई देते हैं। कभी-कभी इनसे प्रभामंडल की छटा दिखाई देती है। साधारणत्या इनसे दूर-दूर तक लगातार वर्षा होती है।

(ii) मध्य कपासी मेघ

ये चपटे हुए गोलाकार मेघों के समूह हैं जो रेखाओं अथवा तरंगों की भाँति व्यवस्थित होते हैं। ये पक्षाभ कपासी मेघ से भिन्न होते हैं, क्योंकि- इनकी गोलाकार आकृति काफी विशाल होती है, अक्सर इनकी छाया भूमि पर दिखाई देती है।

निम्न मेघ

इन्हें 5 उपवर्गों में विभाजित किया गया हैः

(i) स्तरीकपासी मेघ

कोमल एवं भूरे मेघों के बड़े गोलाकार समूह जो चमकीले अंतराल के साथ देखे जाते हैं इस वर्ग में शामिल हैं। साधारणतः इनकी व्यवस्था नियमित प्रतिरूप में होती है।

(ii) स्तरी मेघ

ये निम्न एक समान परत वाले मेघ हैं जो कुहरे से मिलते-जुलते हैं, परंतु भू-पृष्ठ पर ठहरे नहीं होते हैं। ये मेघ किरीट या प्रभामंडल उत्पन्न करते हैं।

(iii) वर्षा स्तरी

ये घने, आकृतिविहीन तथा बहुधा बिखरे परतों के रूप में निम्न मेघ हैं जो सामान्यतः लगातार वर्षा देते हैं।

(iv) कपासी मेघ

ये मोटे घने उर्ध्वाधर विकास वाले मेघ हैं। इनका ऊपरी भाग गुम्बद की शक्ल का होता है। इसकी संरचना गोभी के फूल जैसी होती है। अधिकांश कपासी मेघ साफ आकाश अथवा साफ मौसम रचते हैं। हालाँकि इनका आकार कपासी वर्षा मेघ में बदलकर तुफानों को जन्म देता है।

(v) कपासी वर्षा मेघ

उर्ध्वाधर विकास वाले मेघों के भारी समूह जिनके शिखर पर्वत अथवा टावर की भाँति होते है कपासी वर्षा मेघ कहलाते हैं। उसकी विशेषता ऊपरी तिहाई आकृति का होना है। इनके साथ भारी वर्षा, तड़ित झंझा और कभी-कभी ऊनी ओलों का गिरना भी जुड़ा है।

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वायुमंडल की आर्द्रता

वायुमंडल की आर्द्रता (Atmospheric Humidity)

यद्यपि जलवाष्प वायुमंडल में कम ही अनुपात में (0-4%) मौजूद है, फिर भी यह मौसम और जलवायु के निर्णायक के रूप में हवा का सबसे प्रमुख घटक है। जल वायुमंडल में अपने तीनों रूपों में मौजूद रह सकता है। यह गैसीय अवस्था में जलवाष्प, तरल अवस्था में जल की बूंदों तथा ठोस अवस्था में हिमकणों के रूप में रहता है। वायुमंडल में मौजूद अदृश्य जलवाष्प की मात्रा को आर्द्रता कहते हैं। यद्यपि जलवाष्प वायुमंडल की समस्त राशि के 2% और आयतन के 4% का ही प्रतिनिधित्व करता है, तथापि यह मौसम और जलवायु के नियंत्रण का कार्य करता है। यह कई कारणों से बड़े महत्व का है –

  1. यह संघनन और वर्षण के सभी रूपों का स्रोत है। इसकी उपस्थित मात्रा जलवृष्टि की क्षमता प्रदर्शित करती है।
  2. यह सौर विकिरण तथा पार्थिव विकिरण दोनों को सोखने में समर्थ है, अतः वायुमंडल एवं पृथ्वी के लिए ताप नियंत्रक का कार्य करता है।
  3. इसमें गुप्त उष्मा होती है और यह संघनित होती है तो उष्मा का त्याग कर देता है। वायुमंडलीय संचरण के लिए जलवाष्प की गुप्त उष्मा महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत का कार्य करती है। अत्यधिक मात्रा में गुप्त उष्मा निकलने से तुफानी मौसम उत्पन्न होता है।
  4. इसकी मात्रा वाष्पन की दर को प्रभावित करती है। यह हमारे शरीर के ठण्डा होने की दर को प्रभावित करती है। 60% आर्द्रता स्वास्थ्य के लिए आदर्श मानी जाती है। इससे अधिक या कम होना हानिकारक होता है।

आर्द्रता की माप

वायु में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा को निम्नांकित विधियों से व्यक्त किया जाता है –

  1. निरपेक्ष या वास्तविक आर्द्रता (Absolute humidity) : हवा के प्रति इकाई आयतन में मौजूद जलवाष्प की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं। इसे अधिकतर ग्राम प्रति घन मीटर में व्यक्त किया जाता है।
  2. विशिष्ट आर्द्रता (Specific humidity) : आर्द्रता को व्यक्त करने का दूसरा अधिक उपयोगी तरीका भी है। हवा के प्रति इकाई भार में जलवाष्प का भार विशिष्ट आर्द्रता कहलाता है। विशिष्ट आर्द्रता पर तापमान और वायुदाब के परिवर्तन का कोई असर नहीं पड़ता है।
  3. सापेक्ष आर्द्रता (Relative humidity) : किसी भी तापमान पर हवा में मौजूद जलवाष्प को उसी तापमान पर हवा की जलवाष्प धारक क्षमता के अनुपात (प्रतिशत) के रूप में व्यक्त करते हैं। सापेक्ष आर्द्रता जितनी ही अधिक होगी, मौसम में उतनी ही नमी होगी, चाहे इस वायु की वास्तविक आर्द्रता कम क्यों न हो। सबसे अधिक सापेक्ष आर्द्रता विषुवतीय क्षेत्रों में होती है (कारण जलवाष्प की अधिकता)। कर्क और मकर रेखाओं से ध्रुवों की ओर पुनः यह बढ़ती है (कारण तापमान में कमी)।

यदि वायु में इतना जलवाष्प हो कि वह और अधिक जलवाष्प ग्रहण करने में असमर्थ है तो उसकी सापेक्षिक आर्द्रता 100 कहलाएगी। ऐसी वायु को संतृप्त वायु कहते हैं। सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ने पर वर्षा की संभावना अधिक होती है। वर्षा की संभावनाओं को जानने के लिए यह जानकारी ली जाती है कि वायु संतृप्त होने के कितना निकट है। वायु जिस तापमान पर तृप्त या संतृप्त होती है उसे ओसांक (Dew point) कहते है।।

वाष्पीकरण

जल के तरल अवस्था से गैसीय अवस्था में परिवर्तन की प्रक्रिया को वाष्पीकरण कहते हैं। एक ग्राम जल को जलवाष्प में बदलने में लगभग 600 कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। एक ग्राम जल के तापमान को एक डिग्री सेल्सियस बढ़ाने में जितनी उष्मा लगती है उसे ही कैलोरी कहते हैं।

संघनन (Condensation)

जल के गैसीय अवस्था से तरल या ठोस अवस्था में बदलने की प्रक्रिया को संघनन कहते है।

संघनन के रूप : जिस तापमान पर हवा ओसांक बिन्दू पर पहुँच जाती है उसी के आधार पर संघनन के मुख्य रूपों का वर्गीकरण किया जाता है। संघनन के समय में ओसांक या तो हिमांक से ऊपर होगा या हिमांक से नीचे। पहली दशा में संघनन हुआ तो इससे ओस कुहरा कुहासा तथा बादल बनते हैं। यदि संघनन दूसरी दशा में हुआ तो इससे तुषार हिम तथा पक्षीय मेघ का निर्माण होता है।

ओस : हवा की जलवाष्प जब संघनित होकर नन्हीं बून्दों के रूप में धरातल पर स्थित घास की नोकों पर जमा हो जाती है। तो इसे ओस कहते हैं। इसके बनने के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ हैं साफ आकाश, शांत वातावरण या हल्की पवन, उच्च सापेक्ष आर्द्रता और ठण्ढी तथा लंबी रातें। ओस के निर्माण के लिए यह भी जरूरी है कि तापमान हिमांक से ऊपर हो।

तुषार (पाला) : जब संघनन एक ऐसे ओसांक पर होता है जो हिमांक से नीचे हो, तो अतिरिक्त जलवाष्प जल कणों के बदले हिम-कणों के रूप में बदल जाते हैं। इसे तुषार या पाला कहते हैं। उसके निर्माण के लिए तापमान का हिमांक पर या उससे नीचे होना जरूरी है।

कुहरा : कुहरा एक प्रकार का बादल है जिसका आधार पृथ्वी के धरातल पर उसके बिल्कुल समीप होता है। ठण्डी होने की प्रक्रिया की प्रकृति के आधार पर कुहरा कई प्रकार का होता है। कुहरे में कुहासे की अपेक्षा जलकण अधिक और घने होते हैं। कुहरे में धरातलीय वस्तुएँ साफ नहीं दिखती। दृश्यता आधे किलोमीटर से कम होती है। जबकि कुहासे में दृश्यता एक किलोमीटर तक बनी रहती है। ये दोनों धरातलीय वायु के धुंधलापन के द्योतक है।

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स्थानीय पवनें (Local wind)

स्थाई पवन के मार्ग में धरातल के स्थानीय तापांतर के कारण अनेक प्रकार के स्थानीय पवन उत्पन्न होते हैं। इनके अलग-अलग नाम हैं।

स्थानीय गर्म हवाएँ (Local Hot Winds)

1. लू (L00) : उत्तरी भारत एवं पाकिस्तान के मैदानों में मई-जून में प्रवाहित होने वाली यह काफी गर्म एवं शुष्क वायु है।

2. फॉन (Fohn) : यह हवा दक्षिणी आल्पस के सहारे ऊपर उठती है एवं वर्षा के पश्चात् आल्पस पर्वत के उत्तरी ढाल पर नीचे उतरती है। उतरते समय दबाव के कारण यह हवा गर्म हो जाती है। यह वायु फ्रांस, इटली आदि देशों में प्रवाहित होती है। इसका तापमान 15°C से 20°C तक होता है। इसके प्रभाव से बर्फ पिघलने लगता है, पशुओं को चलने की सुविधा मिलती है एवं अंगूर पकने लगते हैं।

3. चिनूक या शिनूक (Chinook): अमेरिका एवं कनाडा में यह पवन रॉकी पर्वत श्रेणी के पूर्वी ढाल पर नीचे उतरती है। चिनूक शब्द का अर्थ हिमभक्षी होता है। यह पवन रॉकी के पूर्वी ढालों को हिम के प्रभाव से मुक्त रखती है।

4. हरमट्टन (Harmattan) : यह पश्चिमी अफ्रीका के सहारा से उ०पू० से द०-पू० दिशा में चलने वाली गर्म एवं अति शुष्क वायु है। यह तेज रफ्तार वाली धूल से भरी आँधी है। इस वायु को डाक्टर वायु भी कहा जाता है, क्योंकि जब यह वायु सहारा से गोबी तट की ओर प्रवाहित होती है तो वहाँ के आर्द्र मौसम से राहत मिलती है। परंतु सहारा मरूस्थल में यह ऊँट के काफिले के लिए कष्टदायी होता है।

5. बर्ग (Berg) : दक्षिण अफ्रीका में यह फोन एवं चिनूक के समान एक गर्म एवं शुष्क वायु है जो आंतरिक पठारी भाग से तटवर्ती क्षेत्र की ओर बहती है।

6. सिमूम (Simoom): अरब एवं सहारा के मरूस्थलों में चलने वाली यह एक शुष्कउष्ण एवं दमघोंटू हवा है। ये हवाएँ बालूओं से भरी होती हैं, जिसके कारण दृश्यता काफी कम हो जाती है।

7. काराबुरान (Kara-buran) : यह मध्य एशिया के ताश्मिन बेसिन में चलने वाली गर्म शुष्क वायु है। यह वायु धूल से भरी हुई होती है। मध्य एशिया के पाओस के मैदान का निर्माण इसी वायु से होता है।

8. सिराक्को (Sirocco) : सहारा मरूस्थल से इटली में प्रवाहित होने वाली एक गर्म वायु है जो बालू के कणों से युक्त होती है। मिस्र में इसे खमसिन, लीबिया में गिबली तथा ट्यूनीशिया में चिली के नाम से जाना जाता है। मरूस्थल से चलने के कारण इटली में जो वर्षा होती है वह लाल रंग की होती है इसलिए इसे खूनी वर्षा कहते हैं। स्पेन में इसे लेवेच के नाम से जाना जाता है।

9. ब्लैक रोलर (Black Roller) उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदानों में चलने वाली धूल भरी गर्म वायु को ब्लैक रोलर कहा जाता है।

10. शामल (Shamal) : अरब, इरान एवं इराक के मरूस्थलीय क्षेत्र की यह एक गर्म हवा है।

11. ब्रिक फील्डर (Brick Fielder) : आस्ट्रेलिया के मरूस्थलीय क्षेत्रों में चलने वाली एक गर्म तीव्र एवं शुल्क वायु है।

12. सान्ना आना (Santa Ana) : कैलिफोर्निया में सान्ना आना घाटी से तटवर्ती कैलिफनिया की ओर चलने वाली गर्म एवं शुष्क वायु है। यह कैलिफनिया में फलों की बगीचों को नुकसान पहुँचाते हैं।

13. योमा (Yoma) : जापान में चलने वाली गर्म वायु।

14. जोन्डा : अर्जेन्टीना ।

15. कोयम बैंग : इण्डोनेशिया, तम्बाकू के फसलों के लिए हानिकारक।

16. नार्वेस्टर : न्यूजीलैण्ड।

17. अयाला : फ्रांस के सेंट्रल मैसिफ में।

18. बाग्या : फीलीपींस में चलने वाला उष्ण कटिबंधीय चक्रवात।

ठण्डी स्थनीय पवनें (Cold Local Winds)

1. मिस्ट्रल : फ्रांस में आल्पस से भू-मध्य सागर की ओर।

2. बोरा : यूरोप के पर्वतीय क्षेत्र से एड्रियाटिक सागर की ओर।

3. ब्लिजार्ड : साइबेरिया एवं उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भाग में।

4. बुरान : रूस एवं मध्यवर्ती एशिया में। हिमयुक्त होने पर पूर्गा के नाम से जाना जाता है।

5. नार्दर : उत्तरी अमेरिका उत्तरी भाग में।

6. पैम्पेरो : अर्जेन्टीना एवं उरूग्वे के पम्पास क्षेत्रों में।

7. बाइज : दक्षिण फ्रांस में चलने वाली।

8. केप डाक्टर : दक्षिण अफ्रीका के पठारी भाग से दक्षिण तट की और बहने वाली इसे टेबल क्लॉथर भी कहा जाता है।

9. ट्रामोण्टाना : भूमध्यसागरीय क्षेत्र कोर्सिका में प्रवाहित होने वाली।

10. दक्षिण बस्तर : ध्रुवीय क्षेत्रों से आस्ट्रेलिया के दक्षिणी भागों में प्रवाहित होने वाली।

 

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पवन और उनके प्रकार

पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब में क्षैतिज विषमताओं के कारण हवा उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर बहती है। क्षैतिज रूप में गतिशील हवा को पवन (Wind) कहते हैं। यह वायुदाब की विषमताओं को संतुलित करने की दशा में प्रकृति का प्रयास है। लगभग ऊर्ध्वावर दिशा में गतिमान हवा को वायुधारा कहते हैं। पवन और वायुधाराएँ मिलकर वायुमंडल में एक संचारतंत्र स्थापित करती हैं।

पृथ्वी के घूर्णन का प्रभाव वायु में गति लाकर पवन उत्पन्न करने के साथ उसके दिशा-निर्धारण पर भी पड़ता है। फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक कोरिऑलिस ने इस पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि उत्तरी गोलार्द्ध में पवन अपनी दाँयी और तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बाँयी और विचलित होता है। इसे फेरेल का नियम भी कहते हैं।

पवन के प्रकार (Types of Winds)

पूरे भू-मंडल पर वायुदाब के अक्षांशीय अंतर के कारण जो पवन प्रचलित है, अर्थात् स्थाई रूप से सालों भर चला करते हैं, वे भूमंडलीय पवन, प्रचलित पवन या स्थाई पवन कहलाते हैं। मौसम के अनुसार जो पवन अपनी दिशा बदलकर चलते हैं, उन्हें सामयिक पवन कहते हैं। दैनिक तापमान एवं वायुदाब में अंतर पड़ने के कारण जो पवन विकसित | होते हैं, उन्हें स्थानीय पवन कहते हैं। अलग-2 स्थानों पर इनके अलग-अलग नाम रखे जाते हैं।

व्यापारिक पवन (Trade Winds)

उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंध से विषुवतीय निम्न-वायुदाब कटिबंधों की ओर दोनों गोलार्द्ध में निरंतर बहने वाले पवन को व्यापारिक पवन कहते हैं। इसे अंग्रेजी में Trade Winds कहते है। Trade जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है एक निर्दिष्ट पथ अतः ट्रेड पवन निर्दिष्ट पथ पर, एक ही दिशा में निरंतर बहने वाले पवन हैं। सिद्धांतत: इस पवन को उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहना चाहिए। किन्तु कोरियॉलिस बल और फेरेल के नियम से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कैसे ये पवन उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दाँयीं ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बाँयी ओर विक्षेपित हो जाते हैं। इस प्रकार पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम होती है। वाणिज्य पवन के विभिन्न भागों में विभिन्न गुण हैं। उत्पत्ति वाले कटिबंधों में उर्ध्वाधर वायुधाराएँ ऊपर से नीचे | उतरती हैं अत: वहाँ ये पवन शांत और शुष्क होते हैं। ये जैसे-जैसे अपने पथ पर आगे बढ़ते हैं मार्ग में जलाशयों से जल ग्रहण करते हैं, विषुवत रेखा के समीप पहुँचते पहुँचते ये जलवाष्प से लगभग संतृप्त हो जाते हैं। वहाँ ये आर्द्र और गर्म वायु के रूप में पहुँचते हैं और अस्थिर होकर वर्षा करते है।

पश्चिमी या पछुआ पवन (Westerlies)

अयन रेखाओं (कर्क और मकर) की उच्च दाब पेटियों से ध्रुवों की ओर (35°_ 40°) अंक्षाशों से (60°—65°) अक्षांशों) चलने वाले पवनों को पश्चिमी या पछुआ पवन कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पर्व की ओर होती है और दक्षिणी गोलार्द्ध में असमान उच्चावच वाले विशाल स्थल खण्ड तथा वायुदाब के बदलते मौसमी प्रारूप इस पवन के सामान्यतः पश्चिम दिशा से बहाव को अस्पष्ट बना देते हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में जल के विशाल विस्तार के कारण वहाँ के पछुआ पवन उत्तरी गोलार्द्ध के पछुआ पवनों से अधिक तेज चलते हैं। पछुआ पवनों का सर्वश्रेष्ठ विकास 40° से 65° दक्षिणी अंक्षाशों के मध्य होता है। वहाँ के इन अंक्षाशों को 40° अक्षांशों पर गरजता चालीसा, 50° अक्षांशों पर प्रचण्ड पचासा तथा 60° अक्षांशों पर चीखता साठा कहा जाता है। ये सभी नाम नाविकों के द्वारा प्रदान किया गया है।

ध्रुवीय पवन (Polar Wind)

ध्रुवीय उच्च दाब कटिबंधों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर बहने वाली पवन को ध्रुवीय पवन कहते हैं। इन पवनों की वायुराशि अत्यंत ठण्डी और भारी होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये पवन उत्तर पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती हैं। बहुत कम तापमान वाले क्षेत्रों से अधिक तापमान वाले क्षेत्र की ओर बहने के कारण ये शुष्क होते हैं। तापमान कम होने के कारण इनकी जलवाष्प धारण करने की क्षमता भी कम होती है।

उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंध में जब पछुआ पवन ध्रुवीय पवन से टकराते हैं तो पछुवा पवन के ध्रुवीय वाताग्र पर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। ये चक्रवात उस कटिबंध में व्यापक वर्षा करते हैं।

सामयिक पवन (Seasonal Wind)

मौसम या समय के परिवर्तन के साथ जिन पवनों की दिशा बिल्कुल उलट जाती है उन्हें सामयिक पवन कहते हैं। मानसून एक ऐसा ही पवन तंत्र है जो जाड़े में एक दिशा से तथा गर्मी में दूसरी दिशा से चलता रहता है। स्थलीय समीर और समुद्री समीर तथा पर्वतीय समीर एवं घाटी समीर को सामयिक पवन के अंतर्गत रखा जाता है।

मानसूनी पवन (Monsoon Wind)

मानसून की उत्पत्ति कर्क और मकर रेखाओं के निकट (वाणिज्य पवन के क्षेत्र) होती है। इसका सर्वप्रसिद्ध क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी एशिया है, जहाँ एक ओर विस्तृत स्थल भाग और दूसरी ओर विस्तृत जलभाग है। ग्रीष्मकाल में स्थल भाग अधिक गर्म हो जाता है जिससे निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है। इस समय उसके निकटवर्ती समुद्री भाग पर वायु का उच्चदाब मिलता है।

फलस्वरूप उच्चदाब से निम्न दाब की ओर पवन चल पड़ती है। समुद्र की ओर से चलने के कारण इसमें वर्षा के लिए पर्याप्त आर्द्रता रहती है। जाड़े में इसके विपरीत पवनें स्थल भाग से जलभाग की ओर चलने लगती हैं।

(i) स्थलीय और समुद्री समीर : ये भी जल और स्थल के असमान गर्म और ठण्डा होने के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, पर इनका प्रभाव समुद्रतटीय भागों में ही सीमित होता है। अत: कुछ लोग इसे स्थानीय पवन कहते हैं।

(ii) पर्वत समीर एवं घाटी समीर : इसका भी संबंध तापमान तथा ऊँचाई से है।

 

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