Indian History Notes in Hindi - Page 2

वुड घोषणा पत्र (1854)

वुड घोषणा पत्र (1854)
Wood’s despatch (1854)

सन् 1853 में जब पुन: कंपनी के आज्ञा पत्र के नवीनीकरण का अवसर आया तो इंग्लैण्ड के राजनीतिक क्षेत्रों में यह विवाद का विषय था कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा नीति में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक है। इसके लिए एक संसदीय समिति भारतीय शिक्षा पद्धति के लिए नियुक्त की गई। इस समिति के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सन् 1854 में शिक्षा संबंधी एक अन्य घोषणा पत्र प्रकाशित किया गया। 

यह घोषणा पत्र 100 अनुच्छेदों का एक लम्बा अभिलेख था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सभापति सर चार्ल्स वुड ने भारतीय शिक्षा के संबंध में विस्तृत रूप से अपने सुझाव भेजे। इतिहास में इस घोषणा पत्र को “वुड का घोषणा पत्र” के नाम से जाना जाता है। इस घोषणा पत्र को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना-कार्टा (युग- प्रवर्तक) पुकारा गया है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके द्वारा ही आधुनिक शिक्षा निश्चित हुई। 

उसके सुझावों की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं – 

  1. अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति पूर्ववत रही। परन्तु भारतीय भाषाओं के ज्ञान को भी अंग्रेजी भाषा के माध्यम से विकसित करने पर बल दिया गया।
  2. गाँवों में प्राइमरी वर्नाक्यूलर स्कूल स्थापित किये जाये और जिले में ऐग्लों वर्नाक्यूलर माध्यमिक विद्यालय तथा कॉलेज स्थापित किये जायें।
  3. व्यक्तिगत प्रयत्नों से स्कूल और कॉलेज स्थापित किये जाने को प्रोत्साहन दिया जाये और सरकार उनको आर्थिक-अनुदान प्रदान करे। 
  4. प्रत्येक प्रांत में एक डायरेक्टर के अधीक्षण में एक शिक्षा-विभाग खोला जाये जो प्रांत की शिक्षा-व्यवस्था की देखभाल करे और उस सम्बन्ध मे सरकार को प्रतिवर्ष अपनी रिपोर्ट दे। 
  5. लंदन विश्वविद्यालय के समकक्ष कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में विश्वविद्यालय खोले जायें। 
  6. व्यावसायिक शिक्षा की वृद्धि के लिए पृथक स्कूल और कॉलेज खोले जायें। 
  7. इंग्लैण्ड की भांति अध्यापकों की शिक्षा के लिए पृथक ट्रेनिंग-स्कूल खोले जायें
  8. स्त्री-शिक्षा का विस्तार किया जाये ।

चार्ल्स वुड की ये सिफारिशें प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का अनुकरण थी, जिन्हें ज्यों का त्यों लागू किया गया। भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणापत्र का एक विशेष स्थान है। घोषणा-पत्र के निर्माताओं ने भारतीय शिक्षा के इतिहास में प्रथम बार क्रांतिकारी सुझाव प्रस्तुत किये। इस घोषणा पत्र में भारतीय शिक्षा के समस्त अंगों पर प्रकाश डाला गया। इसीलिए ए.एन.वसु ने कहा “यह घोषणा पत्र भारतीय शिक्षा का आधार कहा जाता है। इसी ने भारत में आधुनिक शिक्षा-प्रणाली का शिलान्यास किया ।”

सन् 1854 से 1882 तक की अवधि में तेरह महाविद्यालयों की स्थापना की गयी। सन् 1872 में विलियम म्योर ने “म्योर सेन्ट्रल कॉलेज” तथा 1875 में सैयद अहमद खां ने “मुस्लिम एंग्लो ओरियन्टल कॉलेज” की स्थापना अलीगढ़ में की जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया। 

 

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मैकाले शिक्षा पद्धति (1835)

मैकॉले का विवरण पत्र (1835)

शिक्षा की ओर सर्वप्रथम एक महत्वपूर्ण प्रयास गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक के समय में उठाया गया। बेंटिंक स्वयं पाश्चात्य-शिक्षा को आरंभ किये जाने के पक्ष में था। परन्तु उसने अपने विचार को लादने का प्रयत्न नहीं किया। बेंटिंक ने अपने कानूनी सदस्य मैकॉले को शिक्षा समिति का सभापति नियुक्त किया और उससे निर्णय लेने को कहा। 

2 फरवरी 1835 को मैकॉले ने अपने विचारों को एक विशेष ऐतिहासिक विवरण पत्र में प्रस्तुत किया। उसने भारतीय शिक्षा और शान को बहुत हीन बताया और अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया। भारतीय भाषाओं के विषय मे उसने लिखा है – “भारतीयों में प्रचलित भाषाओं में साहित्यिक तथा वैज्ञानिक शब्दकोष का अभाव है तथा वे इतनी अल्प विकसित और गँवारू है कि जब तक उसको बाह्य भंडार से सम्पन्न नहीं किया जायेगा तब तक उसमें सरलता से महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद नहीं किया जा सकता ।” इस प्रकार मैकॉले के अनुसार भारतीय भाषाएँ अविकसित और अवैज्ञानिक थीं ।

मैकॉले ने घोषणा की, कि कानूनों के ज्ञान के लिये संस्कृत, अरबी, फारसी के शिक्षालयों पर धन व्यय करना मूर्खता है। उनको बंद करके सरकार को हिन्दू और मुस्लिम कानूनों को अंग्रेजी में संहिताबद्ध कर देना चाहिए। 

1835 के शिक्षा-प्रस्ताव की धाराएँ इस प्रकार थी – 

  1. प्राच्य शिक्षा प्रसार के लिए अब तक जो कुछ भी किया गया है, उसको समाप्त न करके, उसको वैसा ही बना रहने दिया जाये । उसके अध्यापकों तथा छात्रों को पूर्व के समान अनुदान मिलता रहेगा
  2. आंग्ल सरकार का प्रमुख उद्देश्य भारतीयों में यूरोपियन साहित्य और विज्ञान का प्रचार करना है । अत: भविष्य में शिक्षा संबंधी धन राशि, अंग्रेजी माध्यम द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा पर ही व्यय की जायेगी । 
  3. प्राच्य विद्या सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन भविष्य में नहीं किया जायेगा 
  4. प्राच्य साहित्य के स्थान पर, अंग्रेजी साहित्य तथा विज्ञान से संबंधित ग्रंथों के प्रकाशन में धन व्यय किया जायेगा 

उपरोक्त विवरण पत्र पर पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने 7 मार्च, 1835 के आज्ञापत्र में मैकॉले की सभी बातें स्वीकार कर ली । इस आज्ञापत्र के बाद से लॉर्ड मैकॉले को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का जन्मदाता कहा जाता है।

1835 ई. में बेंटिंक ने कलकत्ता में एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की, रूड़की में थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज खोला गया और मद्रास में 1852 ई. में मद्रास यूनिवर्सिटी हाई स्कूल की स्थापना की गयी । 

सरकारी स्कूलों में कतिपय छात्रवृत्तियाँ देने की व्यवस्था की गयी और देशी भाषाओं की प्रगति में भी कुछ धन व्यय किया गया । 

लार्ड हार्डिंज की 1844 की इस घोषणा में अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों को सरकारी नौकरी प्रदान करने मैं प्राथमिकता दी जावेगी ने उन शिक्षा की गीत को और भी तीव्र कर दिया । 

 

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भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति

भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति
(British Education Policy in India) 

1772 ई. में बंगाल से भारत में प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन का आरंभ हुआ। परन्तु एक लम्बे समय तक कम्पनी के डायरेक्टरों ने भारतीयों की शिक्षा के लिए कोई भी कदम उठाना अपना उत्तरदायित्व नहीं समझा। जो कुछ भी प्रयत्न हुआ, वह भारत में निवास करने वाले अंग्रेज अधिकारियों के प्रयत्नों से हुआ। 

  • वारेन हेस्टिंग्स ने 1781 ई. में कलकत्ता-मदरसा की स्थापना की, जहाँ फारसी और अरबी भाषा की शिक्षा का प्रबंध किया गया। 
  • 1791 ई. में अंग्रेज रेजीडेण्ट जोनाथन डनकन के प्रयत्नों से बनारस में संस्कृत कॉलेज की स्थापना हुई। 
  • लॉर्ड वेलेजली ने अंग्रेज कर्मचारियों को भारतीय भाषाओं तथा रीति-रिवाजों की शिक्षा प्रदान करने के लिए 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की, स्थापना की परन्तु 1802 में डायरेक्टरों के आदेश के कारण उसे बन्द कर दिया गया ।
  • 1813 ई. के आदेश-पत्र में यह निश्चित किया गया, कि भारतीयों की शिक्षा के लिए कम्पनी की सरकार प्रतिवर्ष एक लाख रुपया व्यय करेगी। 
  • विभिन्न ईसाई पादरी और उदार भारतीय तथा राजा राम मोहन राय अंग्रेजी शिक्षा को आरंभ किये जाने के पक्ष में थे। परन्तु अनेक भारतीय तथा अंग्रेज ऐसे भी थे जो ऐसा नहीं चाहते थे । 

बाद में अंग्रेजों व भारतीयों के सहयोग से कई आयोगों के गठन किये गए जो इस प्रकार हैं  –  

  • मैकॉले का विवरण पत्र (1835)
  • वुड घोषणा पत्र (1854)
  • हंटर कमीशन (1882-83)
  • कर्जन की शिक्षा नीति (1901)
  • 1913 का शिक्षा-नीति संबंधी सरकारी प्रस्ताव
  • सैडलर विश्वविद्यालय कमीशन (1917-19)
  • हर्टाग (HARTOG) समिति (1929)
  • वुड-एबट रिपोर्ट (1936)
  • बेसिक शिक्षा की वर्धा योजना (1937)
  • सार्जेण्ट शिक्षा योजना (1944)
  • स्वाधीनता के पश्चात शिक्षा का विकास (1947-1950 ई.)

 

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बंगाल विभाजन (1905 – 1911)

बंगाल विभाजन 1905
(Bengal Partition 1905)
Bengal Partition 1905

  • वायसराय – लॉर्ड कर्जन 
  • 20 जुलाई, 1905 को बंगाल विभाजन की घोषणा हुई। 
  • 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में कलकत्ता के टाउन हाल में एक विशाल प्रदर्शन आयोजित किया गया। बंगाल विभाजन के विरोध में ‘स्वदेशी आंदोलन’ की घोषणा हुई तथा बहिष्कार प्रस्ताव पारित हुआ। 
  • 16 अक्तूबर, 1905 से बंगात विभाजन की घोषणा प्रभावी हो गई।
  • पूरा बंगाल पूर्वी तथा पश्चिमी बंगाल में बँट गया। 
  • 16 अक्तूबर, 1905 का दिन समूचे, बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। 
  • रवीन्द्रनाथ टैगोर के कहने पर इस दिवस को राखी दिवस के रूप में मनाया गया। 
  • कांग्रेस ने 1905 के बनारस अधिवेशन में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन का अनुमोदन किया। 
  • पूना एवं बंबई में इस आंदोलन का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक व उनकी पुत्री केतकर ने किया।
  • पंजाब में इस आंदोलन का नेतृत्व लाल लाजपत राय एवं अजीत सिंह ने किया।
  • दिल्ली में इस आंदोलन का नेतृत्व सैय्यद हैदर रजा ने किया।
  • मद्रास में इस आंदोलन का नेतृत्व चिदम्बरम पिल्लई ने किया।
  • कांग्रेस ने 1906 के कोलकाता अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी द्वारा प्रथम बार स्वराज्य की मांग की जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने अरुण्डेल के नेतृत्व में  एक समिति का गठन किया। 

अरुण्डेल समिति 

  • वायसराय – मिंटो – II 
  • अगस्त 1906 में राजनीतिक सुधारों के विषय में सलाह देने के लिए समिति का गठन किया गया। 
  • समिति ने बंगाल विभाजन को पुनः सयुक्त करने की आवश्यकता पर बल दिया। 

दिल्ली दरबार का आयोजन (1911) 

  • 12 दिसंबर, 1911 को दिल्ली में इंग्लेंड के सम्राट जॉर्ज पंचम एवं महारानी मैरी के स्वागत में दिल्ली दरवार का आयोजन किया गया।
  • इस समय भारत का वायसराय लार्ड हार्डिंग था 
  • इस आयोजन में 1905 में हुए बंगाल विभाजन को रद किया गया, साथ ही कलकत्ता की जगह दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया। 
  • बंगाल विभाजन को रद्द करके उड़ीसा और बिहार को बंगाल से पृथक् कर किया गया। असम में सिलहट को मिलाकर एक पृथक प्रांत के रूप में गठन किया गया।
  • 1 अप्रैल 1912 को दिल्ली भारत की राजधानी बन गई। 

 

इसी समय क्रांतिकारियों द्वारा दिल्ली षडयंत्र केस (23 दिसंबर, 1912) रचा गया। वायसराय डार्डिग जिस समय अपने परिवार के साथ समारोह में भाग लेने के लिये दिल्ली में प्रवेश कर  रहा था, उसी समय चांदनी चौक में उनके जुलुस पर बम फेंका गया, जिसमें हार्डिंग घायल हो गए। इस कार्य को रासबिहारी बोस एवं सचिन सान्याल के नेतृत्व में बसंत विश्वास, अमीर चंद, अवध बिहारी एवं बाल मुकुदं ने अंजाम दिया था। बाद में इन चारों पर दिल्ली षडयंत्र  केस चलाया गया। इसी केस के वह उनको फांसी दे दी गई।

 

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भारतीय समाज में सामाजिक व धार्मिक सुधार आन्दोलन

भारतीय समाज में सामाजिक व धार्मिक सुधार आन्दोलन
(Social and Religious Reform Movement in Indian Society)

संस्था  स्थापना स्थल संस्थापक  प्रमुख उद्देश्य 
आत्मीय सभा  1815 कलकत्ता राममोहन राय  हिंदू धर्म की बुराइयों पर आक्रमण व एकेश्वरवाद का प्रचार-प्रसार था। 
ब्रह्म समाज  1828 कलकत्ता राममोहन राय  पहले इसका नाम ब्रह्म सभा था तथा इसका उद्देश्य एकेश्वरवाद था। 
धर्म सभा 1829 कलकत्ता राधाकांत देव इसकी स्थापना ब्रह्मसमाज के विरोध में हुई तथा इसका उद्देश्य कट्टरपंथी हिन्दू धर्म की रक्षा था। 
तत्वबोधिनी सभा  1839 कलकत्ता देवेंद्रनाथ टैगोर  राममोहन राय के विचारों का प्रचार करना था। 
मानव धर्म सभा  1844 सूरत  दुर्गाराम मंछाराम  जाति प्रथा के बंधनों को तोड़ना था। 
परमहंस मंडली  1849 बम्बई  दादोबा पांडेरंग  जाति प्रथा के बंधनों को समाप्त करना था। 
राधा स्वामी सत्संग  1861 आगरा तुलसी राम एकेश्वरवादी सिद्धांतों का प्रचार था। 
भारत का ब्रह्म समाज 1866 कलकत्ता केशव चंद्र सेन मूल ब्रह्म समाज (राममोहन राय द्वारा स्थापित) से होकर सेन ने नई संस्था की स्थापना की, जिसका मुद्दा समाज सुधार था। इस विभाजन के बाद मूल समाज आदि ब्रह्म समाज कहा गया। 
प्रार्थना समाज 1867 बम्बई  डॉ. आत्मारंग पांडुरंग एम.जी. रानाडे तथा आर.जी. भंडारकर 1870 में इसके सदस्य बने। इसका हिन्दू धर्म के विचारों तथा प्रचलनों में सुधार था। 
आर्य समाज  1875 बम्बई  स्वामी दयानंद सरस्वती  हिंदू धर्म में सुधार तथा हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रोकना था। 
थियोसोफिकल सोसाइटी 1875 न्यूयॉर्क मैडम एच.पी. व कर्नल आलकॉट प्राचीन धर्म एवं दर्शन का प्रसार तथा विश्व बंधुत्व था।
साधारण ब्रह्म समाज 1878 कलकत्ता आनंद मोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री  ब्रह्म समाज में दूसरा विभाजन, समाज की व्यवस्था तथा समाज सुधार के प्रश्न पर के.सी. सेन के युवा अनुयायियों के एक वर्ग ने उन्हें छोड़ दिया। 
दक्कन शिक्षा समाज  1884 पूना  जी.जी. अगरकर युवाओं को देश सेवा के लिए तैयार करने हेतु शिक्षा का पुनर्गठन करना था। 
इंडियन नेशनल सोशल कॉफ्रेंस  1887 बम्बई  एम.जी. राणाडे  भारतीय समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करना तथा महिला कल्याण था। 
देव समाज 1887 लाहौर शिवनारायण अग्निहोत्री ब्रह्म समाज की तरह था पर इसके विपरीत इसके अनुयायी गुरू को पूजते थे। 
रामकृष्ण मिशन  1897 बेलूर  स्वामी विवेकानंद मानवतावादी एवं सामाजिक कार्य करना था। 
भारत सेवक समाज  1905 बम्बई गोपाल कृष्ण गोखले  मातृभूमि की सेवा के लिए भारतीयों को विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षित करना था। 
पूना सेवा सदन 1909 पूना श्रीमती रमाबाई राणाडे एवं जी.के. देवधर  महिला कल्याण को बढ़ावा देना व उनका उत्थान करना था।
सोशल सर्विस लीग 1911 बम्बई एन.एम. जोशी सामान्य नागरिक के लिए जीवन में कार्य के बेहतर करने का अवसर प्रदान करना था। 
सेवा समिति 1914 इलाहाबाद हदयनाथ कुंजरू प्राकृतिक विपदाओं के समय समाज सेवा, शिक्षा, सफाई शारीरिक संस्कृति आदि का विकास करना था। 
सेवा समिति बाल स्काउट एसोसिएशन  1914 बम्बई श्रीराम वाजपेयी भारत में बाल स्काउट आंदोलन का भारतीयकरण करना था।
वीमेंस इंडियन एसोसिएशन 1923 मद्रास भारतीय महिलाओं का कल्याण हेतु 1926 को ऑल इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस की वार्षिक बैठक से प्रारंभ हेतु। 
रहनुमाई मज्दयास्नन सभा (पारसी धर्म सुधार) 1851 बम्बई नौरोजी फुरदुनजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली  जरथ्रूष्ट्र धर्म सुधार तथा पारसी महिलाओं का आधुनिकीकरण करना था। (अवेस्ता : पवित्र धर्मग्रंथ, अहुर मज्दा : उनका देवता, जरथुष्ट्रः धर्म का संस्थापक)। 
निरंकारी 1840 पंजाब  दयाल दास, दरबारा सिंह रतन चंद  सिख धर्म का शुद्धीकरण।
नामधारी 1857 पंजाब राम सिंह सिख धर्म सुधार हेतु।

 

 

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आंग्ल-सिख युद्ध (Anglo-Sikh War)

आंग्ल-सिख युद्ध (Anglo-Sikh War)

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (First Anglo-Sikh War) (1845-1846)

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के युद्ध के कारण

  • रंजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में अव्यवस्था; खरक सिंह, नवनिहाल सिंह एवं शेरसिंह इन तीन शासकों की (1839-45) छह साल के अंदर हत्या, रंजीत सिंह के पुत्र दलीप सिंह का (1845 ई.) गद्दी पर बैठना, सेना (खालसों) पर नियंत्रण का अभाव। 
  • 1833 ई० में अंग्रेजों की पंजाब में घेराबंदी की नीति अपनाना, (फिरोजपुर एवं सिखरपुर में क्रमश: 1835 एवं 36 कब्जा, लुधियाना एवं सिंध में 1838 ई० में ब्रिटिश रेसीडेंट्स की नियक्ति) और उनकी सैनिक तैयारियां जिसमें 1836 ई० में सैनिकों की संख्या 2500 से बढ़कर 1843 ई० में 14000 हो गई थी।
  • 1843 ई० में अंग्रेजों द्वारा सिंध पर किए गए कब्जे से सिख सेना की संदेह-पुष्टि।

प्रथम आंग्ल-सिख के युद्ध का घटनाक्रम

  • प्रधानमंत्री लाल सिंह के नेतृत्व की सिख सेना को 1845 ई० में मुंडकी में सर हग गफ द्वारा हराया जाना। 
  • 1845 ई० में सेनापति तेजसिंह की नेतृत्व वाली सिख सेना को अंग्रेजों द्वारा हराया जाना। 
  • रंजुर सिंह मझीधिया के नेतृत्व की सिख सेना को हैरी स्मिथ द्वारा संचालित ब्रिटिश सेना द्वारा 1846 ई० में हराया जाना। 
  • 1846 ई० में स्मिथ द्वारा अलीवाल एवं सोबरांव में सिखों की हार और अंग्रेजों द्वारा सतलुज पार करके लाहौर पर कब्जा करना। इसमें सोबरांव की लड़ाई भारतीय इतिहास की भीषण लड़ाइयों में से एक मानी जाती है।

प्रथम आंग्ल-सिख के युद्ध का महत्त्व एवं परिणाम

मार्च 1846 ई० में लाहौर की संधि के साथ इस युद्ध का अंत हुआ, जिसके परिणामस्वरूप – 

  • जालंधर दोआब और 1 ½ करोड़ रुपए अंग्रेजों को हर्जाने के रूप में दिए गए। इस राशि का आधा भाग ही सिखों द्वारा भुगतान किया गया और शेष अंग्रेजों द्वारा काश्मीर पर अधिकार कर प्राप्त किया गया जिसे बाद में कंपनी द्वारा गुलाब सिंह को बेच दिया गया। 
  • सर हेनरी लॉरेंस का ब्रिटिश रेसीडेंट के रूप में लाहौर में नियुक्त होना, दलीप सिंह को पंजाब का शासक और रानी जिंदन को रीजेन्ट के रूप में प्रमाणित किया गया। सिख सेना में कमी करना एवं इसके शासकों द्वारा अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रखना। 
  • ब्रिटिश सेना को जब भी जरूरत हो तब सिखों के अधिकार क्षेत्र से आने-जाने की अनुमति प्राप्त थी। 

इसके कुछ दिनों बाद ही दिसंबर 1846 ई० में भैरोंवाल की संधि हुई जिसमें – 

  • रानी जिंदन को रीजेन्ट पद से हटाया जाना तय हुआ एवं रीजेंसी काउंसिल की स्थापना की गई जिसमें आठ सिख सरदार थे और इसका प्रेसीडेंट हेनरी लौरेंस था। 
  • एक ब्रिटिश सेना लाहौर में स्थापित की गई जिसके लिए सिखों को 22 लाख रुपए देने का वादा किया गया। 
  • भारत के गवर्नर जनरल को पंजाब के किसी भी क्षेत्र को अपने अधिकार में करने का अधिकार था

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (Second Anglo-Sikh War) (1848 – 49)

द्वितीय आंग्ल-सिख के युद्ध के कारण

  • सिख सेना द्वारा अपने पहले युद्ध के दमन का बदला लेने की इच्छा ।
  • पंजाब पर ब्रिटिश नियंत्रण से सिख सरदारों में असंतुष्ट। 
  • रानी जिंदन के साथ अंग्रेजों का बुरा व्यवहार सबसे पहले उसे शेखपुर एवं बाद में बनारस भेजा जाना और उसकी पेंशन में कमी करना। 
  • मुलतान के गवर्नर मूलराज का विद्रोह और वहां भेजे गरा दो प्रशासनिक अंग्रेज अधिकारी बैंस एगन्यू लेफ्टीनेंट एंडरसन की हत्या हो जाना। 
  • मूलराज के दमन के लिए मुलतान भेजे गए शेरसिंह द्वारा विद्रोह में शामिल हो जाने से सभी सिख सरदारों एवं सिख सेना द्वारा आम विद्रोह की घोषणा करना।

द्वितीय आंग्ल-सिख के युद्ध का घटनाक्रम

  • 1848 ई० में शेर सिंह एवं ब्रिटिश सेनानायक लॉर्ड गफ के बीच रामनगर की लड़ाई एवं 1849 ई० में चिलीयांवाला युद्ध। ये दोनों लड़ाईयां बिना किसी परिणाम के समाप्त हो गईं। 
  • लॉर्ड गफ द्वारा मुल्तान पर अधिकार और मूलराज द्वारा आत्मसमर्पण जिसे बाद में देश निकाला दिया गया। 
  • 1849 ई० में गुजरात लड़ाई में चेनाब शहर के निकट गुघ द्वारा सिखों की पूरी तरह से पराजय। शेरसिंह एवं अन्य सिख सरदारों द्वारा आत्मसमर्पण किया गया।

द्वितीय आंग्ल-सिख के युद्ध का महत्त्व एवं परिणाम

  • पंजाब पर लॉर्ड डलहौजी का अधिकार, दलीपसिंह को पेंशन देकर हटाया जाना तथा रानी जिंदन के साथ उसे वापस इंग्लैंड भेज देना। 
  • 1849 ई० में पंजाब के प्रशासन के लिए तीन कमिश्नरों की परिषद (लॉरेंस का भाई जॉन हेनरी तथा चार्ल्स. जी. मेंसल) की नियुक्ति। 
  • परिषद को हटाया जाना एवं सर जॉन लौरेंस की 1853 ई० में पंजाब के प्रथम मुख्य कमिश्नर के रूप में नियुक्ति
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आंग्ल-मराठा संधियाँ (Anglo-Maratha Treaties)

आंग्ल-मराठा संधियाँ (Anglo-Maratha Treaties)

सूरत की संधि (Treaty of Surat) 1775 

सलसेती और बसीन के द्वीपों पर अधिकार करने के लिए बहुत लंबे समय से बंबई प्रेसीडेंसी पर निदेशक मंडल दबाव बना रहे थे इसी बीच पेशवा माधव राव की 1772 ई० में मृत्यु हो गई और रघुनाथ राव और नारायण राव के बीच गद्दी की लड़ाई होने लगी, जो कि अंग्रेजों के लिए वरदान साबित हुई। 

1773 ई० में रघुनाथ राव द्वारा नारायण राव की हत्या करने के बाद मराठा सरदार नाना फड़नवीस उसके विरुद्ध हो गए जिससे रघुनाथ राव सूरत भाग गया जहां उसने कंपनी से मदद के लिए मांग की। बंबई सरकार ने, एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसकी शर्ते इस प्रकार थीं – 

  • कंपनी एवं पूर्व पेशवा के बीच हुई संधियों को प्रमाणित किया गया। 
  • अंग्रेजों द्वारा रघोबा को पेशवा की उम्मीदवारी में मदद करने के लिए 2500 सैनिकों का दल भेजा गया। 
  • रघोबा द्वारा अंग्रेजों के संरक्षण में 6 लाख रुपए के गहने बंधक दिए गए और सैनिकों के रख-रखाव के लिए प्रतिवर्ष 50,000 रुपए देने का वादा किया गया। 
  • नसीन सलसेती और बंबई के पास चार द्वीपों को वह अंग्रेजों को हमेशा के लिए सौंपने को तैयार हो गया। 
  • बंगाल एवं कर्नाटक पर मराठों द्वारा आक्रमण नहीं किया जाएगा और बिना अंग्रेजों के रघोबा पूना के अधिकारियों के साथ कोई समझौता नहीं करेगा। 

इस युद्ध के बाद कंम्पनी पूरी तरह से आंग्ल-मराठा युद्ध से जुड़ गई।

परंधर की संधि (Treaty of Pardhar) 1776

बंबई प्रेसीडेंसी द्वारा 1773 ई० में रघुनाथ राव की पेशवा की उम्मीदवारी के दावे के लिए दी गई मदद को कलकत्ता काउंसिल द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया एवं उन्हें पूना के पेशवा दरबारियों से पुनः बातचीत करने को कहा गया। उनके बीच 1 मार्च 1776 ई० में संधि हुई जिसकी शर्तों के अनुसार –  

  • कंपनी सलसेती एवं उसके आस-पास के द्वीपों पर अधिकार कायम रखेगी। 
  • पूना द्वारा 12 लाख रुपए युद्ध के हर्जाने के रूप में देने का वादा किया। 
  • कंपनी का गुजरात के उन क्षेत्रों पर अधिकार कायम रहेगा, जो उन्हें रघुनाथ राव या गायकवाड़ द्वारा दिए गए थे। 
  • रघोबा एवं गायकवाड़ के साथ हुई संधियां खत्म कर दी गईं एवं पेशवा के दरबारियों के साथ 1739 एवं 1756 ई० में पुनः संधि की गई।

वडगांव की संधि (Treaty of Wadgaon) 1779

12 जनवरी 1779 को कंपनी क सिपाहियों का वडगांव में इकठ्ठा होना एवं उनके उपदूत के परिणामस्वरूप, यह संधि 16 जनवरी 1779 को मराठा के सरदार महादजी सिंधिया एवं बंबई सेना के संचालक कर्नल जॉन काबक के बीच हुई। इसमें – 

  • बबई सरकार रघुनाथ राव को संरक्षण नहीं देगी, 1773 ई० से पहले जिन क्षेत्रों को अधिकृत किया गया था, इस संधि के द्वारा वापस कर दिए जाएंगे।
  • बंगाल से आ रही सेना रोक दी जाएगी और 41000 रुपए एवं विलियम फार्मर और चार्ल्स स्टेवार्ट को इस शर्त के पता पूरा होने तक जमानत पर रखे जाएंगे 

बाद में बंबई एवं बंगाल दोनों सरकारों ने इस संधि को अस्वीकृत कर दिया क्योंकि उनके द्वारा कहा गया कि कर्नल कानेक अपने अधिकृत क्षेत्र से बाहर जाकर यह संधि की थी।

सलबाई की संधि (Treaty of Salbai) 1782

सलबाई ग्वालियर से 32 कि.मी. दक्षिण में स्थित है। यहां 17 मई 1782 ई० को पेशवा माधव राव के कार्यवाहक महादजी सिंधिया एवं अंग्रेजों के बीच प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध को समाप्त करते हुए एक संधि हुई जिसकी शर्तों के अनुसार – 

  • कंपनी द्वारा अधिकृत किए गए पेशवा एवं गुजरात में गायकवाड़ के सभी क्षेत्र वापस कर दिए गए। 
  • सलसेटी और इसके तीन पड़ोसी द्वीप तथा बरोच शहर अंग्रेजों के अधिकार में रखे गए। 
  • कंपनी द्वारा रघुनाथ राव को दिए गए संपूर्ण क्षेत्र मराठों को वापस कर दिए गए। 
  • कंपनी द्वारा रघुनाथ राव की मदद एवं संरक्षण नहीं देने का वादा किया गया। 
  • पेशवा को हैदर अली द्वारा ब्रिटिश क्षेत्र पर किए गए दावे से मुक्त कराना। 
  • दोनों पक्षों द्वारा एक-दूसरे पर और सहयोगियों पर आक्रमण नहीं करना जबकि अंग्रेजों की अनुमति के बिना पेशवा द्वारा किसी यूरोपीय शक्ति को अपने अधिकृत क्षेत्र में स्थापित न करना, उनकी सहायता नहीं करना।
  • कंपनी को प्राप्त व्यापारिक सुविधाएं जारी रखना। 

यह संधि कंपनी के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुई क्योंकि इससे कंपनी एक निर्णायक भविष्य के तरफ बढ़ी। इस संधि से कंपनी की मराठों के साथ 20 वर्षों तक शांति व्यवस्था बनी रही और इस तरह बिना किसी कठिनाई से व्यवस्थित होने एवं भारतीय राजनीति में पकड़ बनाने में सहायता मिली।

बसीन की संधि (Treaty of Basin) 1802

13 दिसंबर 1802 ई० को अंग्रेजों एवं पेशवा के बीच एक सहायक संधि हुई जिसमें पेशवा ने लगभग अपना एवं अपने लोगों की स्वतंत्रता के साथ ही समझौता कर लिया। इस संधि के अनुसार पेशवा निम्न शर्तों को मानने के लिए तैयार हो गया –

  • एक सहायक सेना जिसमें 6000 पैदल सैनिक और उसी अनुपात में तोपखाने; जिसके रखरखाव का प्रतिवर्ष 25 लाख रुपए खर्च था। 
  • अंग्रेजों के किसी भी विदेशी विरोधी नागरिक को अपनी सेवा में नहीं रखने के लिए तैयार होना। 
  • निज़ाम एवं गायकवाड़ के साथ अपने मतभेदों को दूर करने के लिए अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करना और अन्य किसी भी राज्य से अपने मतभेदों को दूर कराने की कोशिश नहीं करना। 
  • किसी भी राज्य के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने के पूर्व कंपनी का आदेश लेना
  • सूरत शहर से अपने सभी अधिकार एवं दावे, वापस लेना। 

16 दिसंबर 1803 को एक परिशिष्ट संधि (supplementary treaty) पर हस्ताक्षर हुआ जिसमें एक घुड़सवार सेना का दस्ता अंग्रेजी सेना में सम्मिलित किया गया। बसीन की संधि से अंग्रेजों को पेशवा के आंतरिक कार्यों में दखलंदाजी करने का अधिकार प्राप्त हो गया। कुछ मराठा सरदारों द्वारा इसका विरोध करने के कारण द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध में इन मराठों का विघटन हुआ। आधुनिक इतिहासकार इस संधि को अंग्रेजों का भारत में प्रभुत्व स्थापित करने की एक प्रबल घटना मानते हैं

देवगांव की संधि (Treaty of Devgaon) 1803

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान 17 दिसंबर 1803 को रघुजी भोंसले एवं कंपनी के बीच यह संधि हुई। इस संधि के अनुसार भोंसले निम्न शर्तों को मानने के लिए तैयार हुआ – 

  • कटक एवं वालासोर छोड़ देना एवं मद्रास और बंगाल प्रेसीडेंसियों को मिलाने के लिए पूर्वी समुद्री किनारे को कंपनी के अधिकार में दे देना। 
  • अपनी सेवा से सभी विदेशियों को निकाल देना। 
  • निज़ाम एवं पेशवा के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने के लिए अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करना। 
  • मराठा सरदारों से स्वयं एवं अपने उत्तराधिकारियों को दूर रखना। 
  • अपने दरबार में एक अंग्रेज दरबारी रखना (माउंटस्ट्राट एलफिन स्टोन इस पद पर नियुक्त हुआ)

सूरजी अर्जनगांव की संधि (Treaty of Suraji Arjangaon) 1803

30 दिसंबर 1803 को इस संधि के अंतर्गत निम्न शर्ते मानने को राजी हुए –  

  • गंगा एवं यमुना के बीच के क्षेत्र को छोड़ देना
  • दिल्ली, आगरा एवं अन्य राजपूत राज्यों पर से अपना नियंत्रण हटा लेना। 
  • अपने दरबार में एक अधिकृत मंत्री रखना (जॉन माल्कोहम प्रथम अंग्रेज दूत के रूप में इस पद पर नियुक्त हुआ)। 
  • बुंदेलखंड, अहमदनगर, बरूच के भाग एवं अंजता पहाड़ी के पश्चिम क्षेत्रों का आत्मसमर्पण करना। 
  • बसीन की संधि मानना। 
  • पेशवा, मुगलबादशाह, निज़ाम एवं गायकवाड़ के ऊपर सभी दावों का त्याग करना एवं कंपनी को संप्रभुत्व शक्ति के रूप में स्वीकृत करना। 
  • अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रखना। 
  • बदले में कंपनी ने निम्न शर्ते पूरी करने का वादा किया। 
    • सिंधिया को पैदल सेना की छह बटालियन देना जिसका खर्च उसके द्वारा दिए गए क्षेत्रों से प्राप्त भूमिकर से दिया जाएगा। 
    • असीरगढ़, बुरहानपुर, पोवनधुर, दोहद, खांडेस और गुजरात के क्षेत्रों को भोंसले को सौंपना। 

27 फरवरी, 1804 ई० बुरहानपुर की एक अन्य संधि द्वारा अंग्रेजों ने उन्हें एक सहायक सेना की सहायता दी।

राजपुरघाट की संधि (Treaty of Rajpurghat) 1805

यह संधि 24 दिसंबर 1805 ई० को हुई जिसमें यशवंत राव होल्कर निम्न शर्ते मानने के लिए तैयार हुए – 

  • बूंदी हिल के उत्तरी क्षेत्रों पर अपना दावा समाप्त करना। 
  • अपनी सेवा में किसी यूरोपीय को नहीं लगाना। 
  • मालवा एवं मेवाड़ में होल्करों का अधिकार था चंबल के दक्षिणी शासकों को नहीं छेड़ना। 
  • कंपनी द्वारा ताप्ती नदी के दक्षिण अधिकृत क्षेत्र को वापस करना। 

2 फरवरी, 1806 ई., को अंग्रेजों ने बूंदी हिल के उत्तरी क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया तथा इस संधि के दारा द्वितीय मराठा-आंग्ल युद्ध का अंत हो गया।

पूना की संधि (Treaty of Poona) 1817

अंग्रेजों को यह भय था कि अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय उनसे विरोध की भावना रखते हए अपनी सेना को मजबूत कर रहा है। अतः 13 जून, 1817 ई० को बसीन संधि को पूरा करने के लिए एक नई संधि अंग्रेजों एवं पेशवा के बीच हुई। इस संधि में पेशवा निम्न शर्तों को मानने के लिए तैयार हुआ। 

  • अंग्रेजों को कुछ और भूमि हमेशा के लिए देना। 
  • बसीन की संधि मानना जो नई संधि के विरुद्ध नहीं थी।

 

ग्वालियर की संधि (Treaty of Gwalior) 1817

पिंडरियों के विरुद्ध अपनी तैयारी के दौरान लॉर्ड हेस्टिंग्स एवं दौलतराम सिंधिया के बीच 5 नवंबर 1817 को एक संधि हुई जिसमें – 

  • दोनों पक्ष पिंडरियों एवं अन्य लुटेरों के विरोध में अपनी सेना तैनात करेंगे। 
  • सिंधिया पिंडरियों की पुन: नियुक्ति नहीं करेगा और न मदद करेगा। 
  • सिंधिया पिंडरियों के विरुद्ध 5000 घुड़सवार तैयार करेगा। 
  • सिंधिया अंग्रेजों की सहमति के बिना अपनी सेना की स्थिति परिवर्तन एवं उनकी बढ़ोतरी नहीं करेगा। 
  • हांडी एवं असीरगढ़ के किलों में ब्रिटिश सेना को जाने की अनुमति। 
  • अरजानगांव और सुरजी की संधियों के होने के बावजूद अंग्रेजों को उदयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी और चंबल के किनारे के अन्य राज्यों के साथ संबंध बनाने में छूट होगी। 
  • 22 नवंबर 1805 ई० में हुई सुरजी, अरजानगांव एवं मुस्तफापुर की संधियां जो कि नई संधि से प्रभावित नहीं थीं, पूरी तरह से लागू रहेंगी।

इस संधि ने सिंधिया को तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध में मूक दर्शक बना दिया था।

 

मंदसौर की संधि (Treaty of Mandsaur) 1818

यह संधि 6 जनवरी, 1818 को तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान मल्हार राव होल्कर द्वितीय द्वारा की गई जिसमें होल्कर द्वारा निम्न शर्ते मानी गईं – 

  • पिंडारी प्रमुख नवाब मीर अली खान को ब्रिटिशों द्वारा आश्वासन तथा उसको दिए गए क्षेत्र पर कोई भी दावा नहीं करना। 
  • कोटा के राजा जालिम सिंह द्वारा लिए गए चार परगना क्षेत्र हमेशा के लिए वापस करना। 
  • उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी एवं करौली के राजाओं पर लागू कर एवं उपहार के दावे को अंग्रेजों को देना। 
  • बंदी पहाड़ियों के उत्तरी क्षेत्रों पर से अपना दावा छोड़ना। 
  • सतपुड़ा पहाडियों के दक्षिणी क्षेत्रों को अंग्रेजों को देना। 
  • एक ब्रिटिश रक्षक सेना क्षेत्र को उसकी आंतरिक सुरक्षा का वादा करना। 
  • कंपनी की अनुमति के बिना किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रखना। 
  • अधिकृत ब्रिटिश मंत्री को दरबार में रखना। 

इसके बदले में अंग्रेजों ने पेशवा और उसके उत्तराधिकारियों को मल्हार राव एवं उसके उत्तराधिकारियों पर किसी भी प्रकार का दावा और संप्रभुत्व अधिकारों का उपयोग करने की अनुमति नहीं देने का वादा किया।

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आंग्ल-मराठा युद्ध (Anglo-Maratha War)

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (First Anglo-Maratha War) (1775-82) 

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के कारण

  • मराठों के बीच की लड़ाई (सवाई माधव राव जिसे नाना फड़नवीस की सहायता प्राप्त थी एवं उसके चाचा रघुनाथ राव के बीच) 
  • अंग्रेजों द्वारा रघुनाथ राव की मदद कर इस लड़ाई का फायदा उठाने की काशिश की गई। 

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध का घटनाक्रम 

  • 1776 ई० में मराठों ने तेलेगांव में अंग्रेजों को पराजित किया।
  • 1779-80 ई० में गोडार्ड के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना का कलकत्ता के मध्य भारत होते हुए अहमदाबाद आई एवं रास्ते में उसने कई स्थानों पर विजय प्राप्त की। 
  • 1781-82 ई० तक दो वर्षों में तनावपूर्ण स्थिति बनी रही।

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध का महत्त्व एवं परिणाम

  • 1782 ई० में सलबाई संधि जिसमें वस्तुस्थिति का बना रहना, एवं मराठों के साथ अंग्रेजों का 20 वर्षों तक शांति बनाए रखने का वादा किया। 
  • इस संधि से अंग्रेजों को मराठों की मदद मिली, जिससे हैदर अली पर दबाव बनाने एवं उसके क्षेत्रों पर कब्जा स्थापित करने में सहायता मिली।
  • इस संधि से अंग्रेजों ने अपने को भारतीय शक्ति के सामूहिक विरोध से बचा लिया एवं दूसरी तरफ भारतीय शक्ति को विभाजित करने में सफलता प्राप्त कर ली।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (Second Anglo-Maratha War) (1803 – 05)

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के कारण

  • लॉर्ड वेलेसली द्वारा मराठों के आंतरिक कार्य में दखलंदाजी करने की नीति अपनाना एवं उन पर सहायक संधि लागू करने की इच्छा उस पर निर्भर थी। 
  • अठारहवीं शताब्दी के अंत तक मराठों के सभी बुद्धिमान एंव अनुभवी शासकों के मर जाने से अंग्रेजों को अवसर प्राप्त हुए। 
  • मराठा सरदारों में एक भाई द्वारा दूसरे भाई की हत्या का क्रम जारी रहा। जिसके चलते पेशवा बाजीराव द्वितीय ने बेसिन में 1802 ई० में अंग्रेजों के साथ सहायक संधि पर हस्ताक्षर किए।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का महत्त्व एवं परिणाम

  • 1803 ई० में वेलेसली के नेतृत्व में सिंधिया और भोंसले की संयुक्त सेना को असाये और अरगांव में अंग्रेजों द्वारा हटाया गया एवं उनके द्वारा सहायक संधि पर हस्ताक्षर किए गए। 
  • होल्कर को हराने में अंग्रेज असफल रहे तथा राजपुरघाट संधि द्वारा शांति स्थापित की गई। 
  • मराठा साम्राज्य में ब्रिटिश हितों की स्थापना हुई। 
  • इस युद्ध के बाद कंपनी का भारत में सर्वश्रेष्ठ शक्ति बनना।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (Second Anglo-Maratha War) (1817 – 18) 

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के कारण

  • अपनी स्वतंत्रता खो देने के कारण मराठों का अंग्रेजों से द्वेष उत्पन्न। 
  • अंग्रेज अफसरों द्वारा मराठा सरदारों पर कठोर नियंत्रण किया गया।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का महत्त्व एवं परिणाम

  • पेशवा को गद्दी से हटाकर उसके संपूर्ण अधिकार क्षेत्र पर कब्जा कर अंग्रेजों द्वारा बम्बई प्रेसीडेंसी स्थापित की गई। 
  • मराठों के आत्मगौरव को रखने के लिए पेशवा की भूमि से सतारा राज्य की स्थापना की गई। 
  • मराठा सरदारों के बड़े भू-भाग पर कंपनी का अधिकार हो गया। 
  • इस युद्ध के बाद मराठा सरदारों का अंग्रेजों का दयापात्र बन जाना।

 

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आंग्ल-मैसूर युद्ध (Anglo-Mysore War)

आंग्ल-मैसूर युद्ध (Anglo-Mysore War)

प्रथम आंग्ल-मैसूर (First Anglo-Mysore War) (1766 – 69) 

प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण

  • हैदरअली द्वारा अंग्रेजों को कर्नाटक से भगाने की महत्त्वाकांक्षा रखना, इस तरह अंग्रेजों को हैदर से उत्पन्न खतरे का पता चलना। 
  • हैदरअली के विरुद्ध अंग्रेजों, एवं मराठों के बीच त्रिपक्षीय संधि हुई। 
  • हैदरअली द्वारा संधि तोड़ने में सफलता मिली और अंग्रेजों के साथ युद्ध की घोषणा की गई।

प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध का घटनाक्रम 

  • हैदर की अंग्रेजों पर विजय एवं मार्च 1769 ई० में पांच मील के क्षेत्र तक मद्रास में उसका अधिकार हो गया। 
  • युद्ध का अंत हो गया एवं अप्रैल 1769 ई० में रक्षात्मक संधि पर हस्ताक्षर किए गए।

मद्रास की संधि (1769)

यह संधि हैदर अली, तंजौर के राजा, मालाबार के शासक एवं कंपनी के बीच हुई थी। 

  • मैसूर के शासक को दिए गए कारुर एवं इसके जिलों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों पर आपसी सहयोग से सबका अधिकार था।
  • किसी भी पक्ष पर आक्रमण करने की स्थिति में सभी दलों द्वारा एक-दूसरे का सहयोग करने का वादा किया गया। 
  • हैदर अली द्वारा मद्रास सरकार के सभी बंदी कर्मचारियों को रिहा कर दिया गया। 
  • तंजौर के राजा के साथ हैदरअली द्वारा मित्रतापूर्वक व्यवहार करना। 
  • बांबे प्रेसीडेंसी एवं अंग्रेजी कारखानों की व्यापारिक सुविधाएं पूर्ववत् कायम रखी गईं। 

द्वितीय आंग्ल-मैसूर (Second Anglo-Mysore War) (1780-84) 

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण

  • अंग्रेजों द्वारा परस्पर संदेह करना
  • 1717 ई० में हैदर पर मराठों द्वारा आक्रमण करने पर अंग्रेजों द्वारा रक्षात्मक संधि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया गया। 
  • अमेरिकन स्वतंत्रता युद्ध के समय अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच शत्रुता बढ़ गई। 
  • हैदर अधिकृत एक फ्रांसीसी ठिकाने पर अंग्रेजों द्वारा कब्जा कर लिया गया। अंग्रेजों के विरुद्ध हैदर 1779 ई० में मराठों एवं निज़ाम के साथ संधि कर ली

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का घटनाक्रम 

  • हैदर ने कर्नल वेली को हटाकर 1780 ई० में आरकोट पर कब्जा कर लिया।
  • सर आयर कोटे द्वारा पोर्टोनोवो 1781 ई० में हैदर की हार हुई।
  • 1782 ई० में हैदर ने कर्नल ब्रेथवेट को हराया। 
  • 1783 ई० में टीपू द्वारा ब्रिगेडियर मैथ्यू एवं उसके आदमियों पर कब्जा कर लिया गया। 
  • 1784 ई० में लॉर्ड मैकार्टनी (मद्रास के गवर्नर) एवं टीपू के बीच मार्च में मंगलौर की संधि हुई। 

मंगलौर की संधि (1784)

  • दोनों पक्ष (मद्रास के गवर्नर एवं टीपू के बीच) एक-दूसरे के शत्रुओं को सीधे या परोक्ष रूप में मदद नहीं करेंगे एवं एक-दूसरे के सहयोगियों के साथ युद्ध नहीं करेंगे। 
  • 1770 ई० में हैदरअली द्वारा कंपनी की दी गई व्यापारिक सुविधाएं पूर्ववत् कायम रहीं। 
  • दोनों पक्ष (मद्रास के गवर्नर एवं टीपू के बीच) अम्बोरगुर एवं सतगुर महलों को छोड़ के बाकी क्षेत्रों पर पूर्ववत् अधिकार के लिए राजी हुए और टीपू भविष्य में कर्नाटक पर दावा नहीं करने के लिए तैयार हुआ। 
  • टीपू युद्ध के सभी बंदियों को जिनकी संख्या 1,680 थी, छोड़ने के लिए तैयार हुआ। 
  • कंपनी को कालीकट 1779 ई० में जो कारखाने तथा अधिकार प्राप्त थे, टीपू उसे वापस देने के लिए राजी हुए। 

तृतीय आंग्ल-मैसूर (Third Anglo-Mysore War) (1790 – 92) 

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण

  • टीपू ने विभिन्न आंतरिक सुधारों द्वारा अपनी स्थिति को मजबूत करने में सफलता प्राप्त की, जिसके कारण अंग्रेजों निज़ाम एवं मराठों को भय उत्पन्न हुआ। 
  • 1787 ई० में फ्रांस एवं टर्की में टीपू द्वारा अपने दूत भेजकर उनकी मदद प्राप्त करने की कोशिश करना। 
  • 1789 ई० में टीपू द्वारा अपने पड़ोसियों मुख्यतः त्रावणकोर के राजा (जो अंग्रेजों का सहयोगी था) की सीमा में अपने सीमा क्षेत्र का विस्तार करना। 
  • 1790 ई० में अंग्रेजों द्वारा निजाम एवं मराठों के साथ टीपू के विरुद्ध संधि कर ली गई।

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का घटनाक्रम 

  • टीपू द्वारा 1790 ई० में मेजर जनरल मेडोस की हार और जनवरी 1791 ई० कार्नवालिस द्वारा स्वयं सेना का संचालन करना। 
  • 1792 ई० फरवरी में कार्नवालिस द्वारा श्रीरंगपटनम पर विजय प्राप्त करना।
  • मार्च 1792 ई० में श्रीरंगपटनम की संधि के साथ युद्ध की समाप्ति।

श्रीरंगपटनम की संधि (1792)

यह संधि टीपू एवं अंग्रेजों और उसके सहयोगी निज़ाम एवं पेशवा के बीच हुई। 

  • अंग्रेजों एवं मैसूर के पूर्व शासकों के बीच हुई संधियों को प्रमाणित किया गया। 
  • टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग अंग्रेजों एवं उसके सहयोगियों के बीच बांट दिया, जिसमें निज़ाम एवं मराठों को अपने सीमा क्षेत्र का भाग एवं कावेरी का उत्तरी पूर्व क्षेत्र कंपनी के अधिकार में और नदी का दक्षिण-पश्चिम भाग टीपू को मिला। 
  • टीपू द्वारा युद्ध में हुए हर्जाने के 3 करोड़ रुपए दिए गए। बाकी 2 करोड़ तीन किस्तों में चुकाया गया। 
  • टीपू ने युद्ध के सभी बंदियों को छोड़ दिया। 
  • इन शर्तों के पूरा करने में अंग्रेजों ने उसके दो पुत्रों को जमानत के रूप में रखा। 

निज़ाम को क्षेत्र का सबसे बड़ा भाग मिला, जबकि मराठों ने अपने राज्य का फैलाव तुंगभद्रा एवं कृष्णानदी तक किया। अंग्रेजों द्वारा मालाबार तट पर कैन्नोर तक एवं दक्षिण में पुनानी नदी तक का क्षेत्र अधिकृत कर लिया गया, जिसमें कुर्म को अंग्रेजों ने अपना रक्षात्मक क्षेत्र बनाया। अंग्रेजों ने बारामहल जिला एवं डिंडीगल पर भी अपने कब्जे पर कर लिया लेकिन त्रावणकोर राजा जिसके लिए प्रत्यक्ष रूप से लड़ाई हुई थी, को कुछ नहीं मिला। 

चौथा आंग्ल-मैसूर (First Anglo-Mysore War) (1799) 

चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण

  • टीपू द्वारा अंग्रेजों से अपनी शर्मनाक हार का बदला लेने एवं अपने ऊपर लगाए गए प्रतिबंधों के लिए बदला लेने की इच्छा प्रबल हुई और मैसूर को पुनः मजबूत बनाने में सफलता मिली।
  • टीपू द्वारा क्रांतिकारी फ्रांसीसियों, अरब, काबुल और टर्की के मुसलमानों से अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए मदद प्राप्त करने कोशिश की गई। (उसने इन सभी देशों में अपने दूत भेजे और 1798 ई० अप्रैल को फ्रांसीसी सेना की एक छोटी टुकड़ी मंगलौर पहुंची) 
  • नया गवर्नर जरनल लॉर्ड वेलेसली द्वारा टीपू से उत्पन्न भय को खत्म करने का निर्णय लिया गया।

चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध का घटनाक्रम 

  • पहली बार 5 मार्च को स्टुवर्ड द्वारा सेदासीर में एवं 27 मार्च को जनरल हैरिस द्वारा मालवेली में टीपू की हार हुई। 
  • टीपू का श्रीरंगपटनम चला जाना, जहां 4 मई को युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। 
  • मैसूर के बड़े हिस्से पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया और एक छोटे हिस्से को अंग्रेजों द्वारा वोडेयार वंश के राजा कृष्णराजा तृतीय को दे दिया गया जो कि पांच वर्ष का बालक था। 
  • 1799 ई० में नए राजा के साथ अंग्रेजों ने एक सहायक संधि पर हस्ताक्षर किए। मैसूर के शासक द्वारा अच्छी तरह से शासन नहीं करने के कारण विलियम बेनटिंक ने 1831 ई० में प्रशासन अपने हाथों में ले लिया। लेकिन 1881 ई० में लॉर्ड रिपन द्वारा पुनः वहां के शासक को प्रशासन की बागडोर वापस कर दी गई।

 

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बक्सर की लड़ाई (Battle of Buxar)

बक्सर की लड़ाई (Battle of Buxar) 1764

बक्सर के युद्ध के कारण 

  • बंगाल के नवाब मीर कासिम एवं अंग्रेजों के बीच संप्रभुता की लड़ाई शुरू हो गई। 
  • अंग्रेजों द्वारा 1717 के फरमान एवं दस्तक का दुरुपयोग किया गया एवं नवाब के द्वारा आंतरिक व्यापार पर सभी करों को हटा दिया गया। 
  • अंग्रेजों द्वारा नवाब के अधिकारियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया एवं कंम्पनी के सेवकों द्वारा बंगाल के लोगों पर अत्याचार किया जाने लगा।

बक्सर के युद्ध का घटनाक्रम 

  • बक्सर शहर पटना से 120 किलोमीटर पश्चिमम स्थित है। 
  • 22 अक्टूबर, 1764 ई० में अंग्रेजों और मीर कासिम, शुजाउद्दौला एवं शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना के बीच यहा लड़ाई हुई। 
  • अंग्रेजों की सेना का नेतृत्व मेजर हेक्टर मुनरा कर रहा था जिसकी सेना की संख्या 7,702 थी जिसमें 857 यूरोपियन 5,297 सिपाही एवं 918 भारतीय घुड़सवार थे, जबकि संयुक्त सेना की संख्या लगभग 50 हजार थी। 
  • संयुक्त सेना के हारने का मुख्य कारण तीनों सेनाओं के बीच आपसी असहयोग था।
  • इस लड़ाई में अंग्रेजों के लगभग 847 सैनिक मारे गए जबकि संयुक्त सेना के लगभग 2000 सैनिक मारे गए। 
  • मीर कासिम एक योग्य सेनापति नहीं था। वह यूरोपियन सेनानायकों पर आश्रित था। 
  • मारकर एवं सुमरो की पलटनों ने युद्ध के दौरान यूरोपियनों का साथ देकर मीर कासिम को हराने में मुख्य भूमिका निभाई।

बक्सर के युद्ध का महत्त्व एवं परिणाम 

  • अंग्रेज बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के वास्तविक शासक बन गए। 
  • बंगाल का नवाब अंग्रेजों पर आश्रित था तथा मुगल बादशाह उनका पेंशनर हो गया, जिससे अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ी। 
  • अंग्रेजों की सैनिक दक्षता एवं हथियारों की श्रेष्ठता का प्रदर्शन हुआ।

 

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