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Geography Notes in Hindi

पर्वतों का वर्गीकरण

पर्वतों का वर्गीकरण (Classification of Mountains)

निर्माण क्रिया के आधार पर पर्वतों को निम्न चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है।

  • वलित पर्वत,
  • खंड पर्वत,
  • ज्वालामुखी पर्वत और
  • अवशिष्ट पर्वत

वलित पर्वत (Fold mountains)

पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों के कारण परतदार शैलों में वलन पड़ते हैं। वलित परतदार शैलों के ऊपर उठने के परिणामस्वरूप बनी पर्वत श्रेणियों को वलित पर्वत कहते हैं। वलित परतदार शैलों पर लाखों वर्षों तक आन्तरिक क्षैतिज संपीडन-बल लगे रहते हैं तो वे मुड़ जाती हैं और उनमें उद्वलन तथा नतवलन पड़ जाते हैं। कालान्तर में ये अपनतियों और अभिनतियों के रूप में विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार की हलचलें समय-समय पर होती रहती हैं और जब वलित शैलें बहुत ऊँचाई प्राप्त कर लेती हैं तो वलित पर्वतों का जन्म होता है।

Fold mountains

एशिया के हिमालय, यूरोप के आल्प्स, उत्तर अमरीका के रॉकी और दक्षिण अमरीका के एंडीज संसार के प्रमुख वलित पर्वत हैं। इन पर्वतों का निर्माण अत्यन्त आधुनिक पर्वत निर्माणकारी युग में हुआ है, अतः ये सभी नवीन वलित पर्वतों के नाम से जाने जाते हैं। इनमें से कुछ पर्वत श्रेणियाँ जैसे। हिमालय पर्वत अब भी ऊपर उठ रहे हैं।

भ्रंश या खंड पर्वत (Block Mountains)

खंड पर्वत का निर्माण भी पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों के कारण होता है। जब परतदार शैलों पर तनाव-बल लगते हैं तो उनमें दरार या भ्रंश पड़ जाते हैं। जब लगभग दो समान्तर भ्रंशों के बीच की भूमि आसपास की भूमि की तुलना में काफी ऊपर उठ जाती है तो उस ऊपर उठी भूमि को खंड पर्वत या भ्रंशोत्थ पर्वत या भ्रंश-खंड पर्वत कहते हैं।

Block Mountains

खंड पर्वत का निर्माण उस परिस्थिति में भी होता है, जब दोनों भ्रंशों के बाहर की भूमि नीचे बैठ जाती है। और भ्रंशों के बीच की भूमि उठी रह जाती है। खंड पर्वत को होर्ट भी कहते हैं। खण्ड पर्वत में शैलों की परतें वलित अथवा समतल में से कोई भी हो सकती हैं।  फ्राँस के वासजेज, जर्मनी के ब्लैक फारेस्ट और उत्तरी अमरीका के सियेरानेवादा, खंड पर्वतों के विशिष्ट उदाहरण हैं।

ज्वालामुखी पर्वत (Volcano Mountains)

पर्वत जिनका निर्माण दो भ्रंशों के बीच की भूमि के ऊपर उठने अथवा भ्रंशों के बाहर की भूमि के बैठने के कारण होता है, इन्हें खंड अथवा भ्रंश-खंड पर्वत कहते हैं। ज्वालामुखी पर्वतः हमने पिछले पाठ में पढ़ा है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग या भूगर्भ बहुत गर्म है। भूगर्भ के गहरे भागों में अत्याधिक तापमान के कारण ठोस शैलें द्रव-मैग्मा में बदल जाती हैं। जब यह पिघला शैल-पदार्थ ज्वालामुखी के उद्गार में भूगर्भ से धरातल पर आता है तो वह मुख के चारों ओर इकट्ठा हो जाता है और जमकर शंकु का रूप धारण कर सकता है। ज्वालामुखी के प्रत्येक उद्गार के साथ इस शंकु की ऊँचाई बढ़ती जाती है और इस प्रकार वह पर्वत का रूप ले लेता है। पर्वत, जो ज्वालामुखी से निकले पदार्थों के जमा होने से बने हैं उन्हें ज्वालामुखी पर्वत या संग्रहित पर्वत कहते हैं।

Volcano Mountains

हवाई द्वीपों का मोनालुआ; म्यानमार (बर्मा) का माउन्ट पोपा, इटली का विसूवियस, इक्वेडोर का कोटोपैक्सी तथा जापान का फ्यूजीयामा ज्वालामुखी पर्वतों के उदाहरण हैं।

अवशिष्ट पर्वत (Residual Mountain or Reliet Mountains)

अपक्षय तथा अपरदन के विभिन्न कारक – नदियाँ, पवन, हिमानी आदि धरातल पर निरन्तर कार्य करते रहते हैं। वे भूपर्पटी की ऊपरी सतह को कमजोर करने के साथ उसे काटते-छाँटते रहते हैं। जैसे ही धरातल पर किसी-पर्वत श्रेणी का उद्भव होता है तो क्रमण के कारक अपरदन द्वारा उसे नीचा करना शुरू कर देते हैं। अपरदन कार्य शैलों की बनावट पर बहुत निर्भर करता है।

Residual Mountain or Reliet Mountains

हजारों वर्षों के बाद मुलायम शैलें कट कर बह जाती हैं तथा कठोर शैलों से बने भूभाग उच्च भूखण्डों के रूप में ही खड़े रहते हैं। इन्हें ही अवशिष्ट पर्वत कहते हैं। भारत की नीलगिरि, पारसनाथ तथा राजमहल की पहाड़ियाँ अवशिष्ट पर्वतों के उदाहरण हैं।

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प्रमुख भू-स्थल – पर्वत

धरातल पर विद्यमान तीन विस्तृत स्थलरूप पर्वत, पठार और मैदान हैं जो भूपर्पटी के विरूपण का परिणाम हैं। इनमें से पर्वत सबसे रहस्यमयी रचना है। पर्वतों द्वारा पृथ्वी की सम्पूर्ण सतह का 27 प्रतिशत भाग घिरा हुआ है। पर्वत पृथ्वी की सतह के ऊपर उठे हुये वे भाग हैं, जो आसपास की भूमि से बहुत ऊँचे हैं। परन्तु धरातल के सभी ऊपर उठे हुये भाग पर्वत नहीं कहलाते। किसी भी स्थलरूप को पहचानने के लिये ऊँचाई और ढाल दोनों को सम्मिलित किया जाता है। इस नाते तिब्बत की ऊपर उठी हुई भूमि पर्वत नहीं कहलाती यद्यपि उसकी ऊँचाई समुद्र तल से 4500 मीटर है।

यह ध्यान रखने योग्य बात है कि एक पर्वत श्रेणी के बनने में लाखों वर्ष लगते हैं। इस लम्बी अवधि में आन्तरिक बल भूमि को ऊपर उठाने में व्यस्त रहते हैं तो इसके विपरीत बाह्य बल इस ऊपर उठी भूमि को काटने-छाँटने या अपरदित करने में जुटे रहते हैं। माउन्ट एवरेस्ट जैसे ऊँचे एक पर्वत शिखर का निर्माण तब ही हो पाता है जब आन्तरिक बलों का पर्वत निर्माणकारी या जमीन को ऊपर उठाने वाला कार्य बाह्य बलों के अपरदन कार्य की अपेक्षा अधिक द्रुत गति से होता है। अतः पर्वत धरातल के ऊपर उठे हुए वे भू–भाग हैं, जिनके ढाल तीव्र होते हैं और समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं। पर्वतों की समुद्र की सतह से सामान्य ऊँचाई हजार मीटर से अधिक मानी जाती है। स्थानीय उच्चावच लक्षणों में पर्वत ही एक ऐसा स्थलरूप है, जिसके उच्चतम और निम्नतम भागों के बीच सर्वाधिक अन्तर होता है।

पर्वतों का वर्गीकरण

निर्माण क्रिया के आधार पर पर्वतों को निम्न चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है।

  • वलित पर्वत,
  • खंड पर्वत,
  • ज्वालामुखी पर्वत और
  • अवशिष्ट पर्वत
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रूपांतरित या कायांतरित शैल (Metamorphic Rock)

पर्वतीय प्रदेशों में अधिकांश शैलों में परिवर्तन के प्रमाण मिलते हैं। ये सभी शैलें कालान्तर में रूपान्तरित हो जाती हैं। अवसादी अथवा आग्नेय शैलों पर अत्याधिक ताप  से या दाब पड़ने के कारण रूपान्तरित शैलें बनती हैं। उच्च ताप और उच्च दाब, पूर्ववर्ती शैलों के रंग, कठोरता, गठन तथा खनिज संघटन में परिवर्तन कर देते हैं। जहाँ शैलें गर्म-द्रवित मैग्मा के संपर्क में आती हैं, वहाँ उनकी रचना में परिवर्तन आ जाता है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया को रूपान्तरण और कायांतरण कहते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा बनी शैल को रूपांतरित शैल कहते हैं।

Metamorphic Rock
रूपांतरित या कायांतरित शैल (Metamorphic Rock)
  • भूपर्पटी में मौजूद अत्यधिक ऊष्मा के प्रभाव से अवसादी और आग्नेय शैलों के खनिजों में जब रवों का पुनर्निर्माण अथवा रूप में परिवर्तन होता है तो उसे तापीय रूपान्तरण अथवा संस्पर्शीय रूपान्तरण कहते हैं।
  • जब द्रवित मैग्मा अथवा लावा शैलों के संपर्क में आता है तो शैलों के मूल रूप में परिवर्तन ला देता हैं। इसी प्रकार भारी दबाव के कारण शैलों में परिवर्तन होता है। दबाव के कारण हुए परिवर्तन को गतिक या प्रादेशिक रूपान्तरण कहते हैं।
  • स्लेट, नीस-शीस्ट, संगमरमर और हीरा रूपान्तरित शैलों के उदाहरण हैं। रूपान्तरित शैल अपनी मूल शैलों से अधिक कठोर और मजबूत होती हैं। 

मूल शैल तथा इसकी रूपांतरित शैल

शैल का नाम शैल के प्रकार बनने वाली रूपान्तरित शैल
चूना पत्थर अवसादी शैल संगमरमर
डोलोमाइट अवसादी शैल संगमरमर
बलुआ पत्थर अवसादी शैल क्वार्टजाइट
शेल अवसादी शैल स्लेट
स्लेट रूपान्तरित शैल फाइलिट
कोयला अवसादी शैल हीरा
ग्रेनाइट आग्नेय शैल नीस
फाइलिट रूपान्तरित शैल शिस्ट

संसार में विभिन्न प्रकार की रूपान्तरित शैलें पाई जाती हैं। भारत में संगमरमर राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश में मिलता है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा और कुमायूँ क्षेत्र में विभिन्न रंगों की स्लेट मिलती है।

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अवसादी शैल (Sedimentary Rock)

अवसादी शैलें (Sedimentary Rock)

इन शैलों की रचना अवसादों के निरन्तर जमाव से होती है। ये अवसाद किसी भी पूर्ववर्ती शैल – आग्नेय, रूपान्तरित या अवसादी शैलों का अपरदित मलवा हो सकता है। अवसादों का जमाव परतों के रूप में होता है। इसलिए इन शैलों को परतदार शैल भी कहते हैं। इन शैलों की मोटाई कुछ मिलीमीटर से लेकर कई मीटर तक होती है। इन शैलों की परतों के बीच में जीवाश्म भी मिलते हैं। जीवाश्म प्रागैतिहासिक काल के पशु और पौधों के अवशेष हैं। ये अवशेष अवसादी शैलों की परतों में दबकर भार पड़ने के कारण ठोस रूप धारण कर लेते हैं। धरातल पर अधिकतर अवसादी शैलों का विस्तार मिलता है, परन्तु ये शैलें कम गइराई तक ही मिलती हैं।

  • शैलों से पहले अनेकों कण टूटते हैं और फिर उन टूटे कणों को परिवहन के कारक बहता-जल, समुद्री लहरें, हिमानी, पवन आदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं।
  • जब परिवहन के कारकों में इन कणों को ढोने की शक्ति में कमी आती है तो वे समुद्र, झील या नदी के शांत जल में अथवा अन्यत्र उपयुक्त स्थानों पर जमा हो जाते हैं।
  • ढोकर लाये गये शैलों के कणों के किसी स्थान पर जमा होने की प्रक्रिया को अवसादन या निक्षेपण कहते हैं।
  • अवसादी शैलों का नाम अवसाद ढोने वाले कारकों और उनके जमाव स्थल के संदर्भ में रखा जाता है।
  • जैसे नदी-नदीकृत शैल, झील-सरोवरी शैल, समुद्र-समुद्रकृत शैल, मरुस्थल-पवनकृत शैल, हिमानी–हिमानीकृत शैल, आदि।
Sedimentary Rock
अवसादी शैल (Sedimentary Rock)

अवसाद प्रायः बारीक कणों से निर्मित मुलायम परत होती हैं। प्रारम्भ में ये बालू मिट्टी के रूप में होते हैं। कालान्तर में यही पदार्थ भारी दवाब के कारण संयुक्त रूप धारण कर ठोस बन जाते हैं और अवसादी शैलों का निर्माण करते हैं।

  • प्रारम्भ में अवसादी शैलों का जमाव क्षैतिज रूप में होता है। बाद में चलकर भूपर्पटी में हुई हलचलों के कारण झुकाव पैदा हो जाते हैं। बलुआ पत्थर, शैल, चूना पत्थर और डोलोमाइट अवसादी शैलें हैं।
  • परिवहन के विभिन्न कारक जैसे बहता जल, पवन या हिमानी अवसादों को अलग-अलग आकारों में छाँटते रहते हैं। विभिन्न आकार के अवसाद अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं।
  • कांगलोमरेट इस प्रकार की अवसादी शैल का उदाहरण है। इस प्रकार की प्रक्रिया से बनी शैलों को भौतिक अवसादी शैल कहते हैं।
  • पेड़-पौधों अथवा जानवरों से प्राप्त जैवीय पदार्थों के एकीकरण से बनी अवसादी शैलें जैविक मूल की शैल होती है।
  • कोयला और चूना पत्थर जैविक मूल की अवसादी शैलें हैं।

अवसादों की रचना रासायनिक प्रक्रिया से भी संभव है। जल अपनी घुलन क्रिया के द्वारा शैलों से बहुत सारे रासायनिक तत्व ग्रहण कर अवसाद के रूप में जमा करता रहता है। यही अवसाद कालान्तर में शैल बन जाता हैं। सेंधा नमक, जिप्सम, शोरा आदि सब इसी प्रकार की शैलें है। संसार के विशालकाय बलित पर्वतों जैसे हिमालय, एण्डीज आदि की रचना शैलों से हुई है। संसार के सभी जलोढ़ निक्षेप भी अवसादों के एकीकृत रूप हैं। अतः सभी नदी | द्रोणियों विशेषकर उनके मैदान तथा डेल्टा अवसादों के जमाव से बने हैं। इनमें सिंधु–गंगा का मैदान और गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा सबसे उत्तम उदाहरण है।

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आग्नेय शैल (Igneous Rock)

आग्नेय शैल (Igneous Rock)

“इंगनियस (Igneous)” अंग्रेजी भाषा का शब्द है। यह लैटिन भाषा के “इंग्निस” शब्द से बना है। “इंग्निस” शब्द का अर्थ अग्नि से है। इससे इन शैलों की उत्पत्ति स्पष्ट होती है अर्थात वह शैल जिनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है, उन्हें आग्नेय शैल कहते हैं। आग्नेय शैलें अति तप्त चट्टानी तरल पदार्थ, जिसे मैग्मा कहते हैं, के ठण्डे होकर जमने से बनती हैं।

  • भूगर्भ में मैग्मा के बनने की निश्चित गहराई की हमें जानकारी नहीं है। यह सम्भवतः विभिन्न गहराइयों पर बनता है जो 40 किलोमीटर से अधिक नहीं होती।
  • शैलों के पिघलने से आयतन में वृद्धि होती हैं, जिसके कारण भूपर्पटी टूटती है या उसमें दरारें पड़ती हैं। इन खुले छिद्रों या मुखों के सहारे ऊपर से पड़ने वाले दबाव में कमी आती है। इससे मैग्मा बाहर निकलता है। अगर ऐसा न हो तो ऊपर से पड़ने वाला अत्यधिक दाब मैग्मा को बाहर जाने नहीं देगा।
  • जब मैग्मा धरातल पर निकलता है तो उसे लावा (Lava) कहते हैं। पिघला हुआ मैग्मा, भूगर्भ में या पृथ्वी की सतह पर जब ठंडा होकर ठोस रूप धारण करता है तो आग्नेय शैलों का निर्माण होता है।
  • पृथ्वी की प्रारम्भिक भूपर्पटी आग्नेय शैलों से बनी है, अतः अन्य सभी शैलों का निर्माण आग्नेय शैलों से ही हुआ है। इसी कारण आग्नेय शैलों को जनक या मूल शैल भी कहते हैं।
  • भूगर्भ के सबसे ऊपरी 16 किलोमीटर की मोटाई में आग्नेय शैलों का भाग लगभग 95 प्रतिशत है।
  • आग्नेय शैलें सामान्यतया कठोर, भारी, विशालकाय और रबेदार होती हैं। निर्माण स्थल के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में बाँटा गया है। बाह्य या बहिर्भेदी (ज्वालामुखी) और आन्तरिक या अन्तर्भेदी आग्नेय शैल ।

1. बाह्य आग्नेय शैलें

  • धरातल पर लावा के ठण्डा होकर जमने से बनी है। इन शैलों की रचना में लावा बहुत जल्दी ठण्डा हो जाता है।
  • लावा के जल्दी ठण्डा होने से इनमें छोटे आकार के रवे बनते हैं।
  • इन्हें ज्वालामुखी शैल भी कहते हैं।
  • गेब्रो और बैसाल्ट बाह्य आग्नेय शैलों के सामान्य उदाहरण हैं।
  • ये शैलें ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाई जाती हैं। भारत के दक्कन पठार की “रेगुर” अथवा काली मिट्टी लावा से बनी है

2. आन्तरिक आग्नेय शैल

  • आन्तरिक आग्नेय शैलों की रचना मैग्मा के धरातल के नीचे जमने से होती है।
  • धरातल के नीचे मैग्मा धीरे-धीरे ठण्डा होता है। अतः इन शैलों में बड़ आकार के रवे बनते हैं।
  • अधिक गहराई में पाई जाने वाली आन्तरिक शैलों को पातालीय आग्नेय शैल कहते हैं।
  • ग्रेनाइट और डोलाराइट आन्तरिक आग्नेय शैलों के सामान्य उदाहरण हैं।
  • दक्कन पठार और हिमालय क्षेत्र में ग्रेनाइट शैलों के विस्तृत भूखण्ड देखे जा सकते हैं।
  • आन्तरिक आग्नेय शैलों की आकृति कई प्रकार की होती है।
Igneous Rock
Image Source – NCERT
  • पूर्ववर्ती शैलों के बीच मैग्मा के समानान्तर तहों के रूप में जमने के स्वरूप को सिल कहते हैं।
  • डाइक शैलों के बीच मैग्मा का लम्बवत जमाव है। इनकी लम्बाई कुछ एक मीटर से लेकर कई किलोमीटर तथा चौड़ाई कुछ एक सेन्टीमीटर से लेकर सैंकड़ों मीटर तक हो सकती है।
  • रासायनिक गुणों के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है – अम्लीय और क्षारीय शैल। ये क्रमशः अम्लीय और क्षारीय लावा के जमने से बनती है।
  • अम्लीय आग्नेय शैलों में सिलीका की मात्रा 65 प्रतिशत होती है। इनका रंग बहुत हल्का होता हैये कठोर और मजबूत शैल हैग्रेनाइट इसी प्रकार की शैल का उदाहरण है।
  • क्षारीय आग्नेय शैलों में सिलीका की मात्रा अम्लीय शैलों से कम पाई जाती है। इनमें सिलीका की मात्रा 55 प्रतिशत से कम होती हैऐसी शैलों में लोहा और मैगनीशियम की अधिकता है। इनका रंग गहरा और काला होता है। इन पर ऋतु अपक्षय का बहुत प्रभाव पड़ता है। गैब्रो, बैसाल्ट तथा डोलेराइट क्षारीय शैलों के उदाहरण हैं।
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भूपर्पटी या क्रस्ट के पदार्थ

स्थलमंडल का सबसे ऊपर भाग भूपर्पटी कहलाता है। यह पृथ्वी का सबसे महत्वपूर्ण भाग है; क्योंकि इसकी ऊपरी सतह पर मानव रहते हैं। जिन पदार्थों से भूपर्पटी बनी है, उन्हें शैल कहते हैं। शैलें विभिन्न प्रकार की होती हैं।

  • शैलें ग्रेनाइट की तरह कठोर, चीका मिट्टी की तरह मुलायम अथवा बजरी के समान बिखरी होती है।
  • शैलें विभिन्न रंग, भार और कठोरता लिए होती है।
  • शैलें खनिजों से बनी हैं। वे एक या एक से अधिक खनिजों का मिश्रण हैं।
  • दूसरी ओर खनिज एक या एक से अधिक तत्वों के निश्चित अनुपात में मिलने से बने हैं।
  • खनिजों में एक निश्चित रासायनिक संगठन होता है।
  • भूपर्पटी 2000 से भी अधिक खनिजों से बनी है, परन्तु इनमें से केवल 6 खनिजों की अधिकता है। इन्हीं का पृथ्वी की ऊपरी परत के निर्माण में विशेष योग है। इन 6 खनिजों के नाम – फेल्सपार, क्वार्ट्ज, पाइराक्सीन, एम्फीबोल, अभ्रक और ओलीबीन हैं।

ग्रेनाइट एक कठोर शैल है। इसके निर्माणकारी खनिज क्वार्टज, फेल्सपार और अभ्रक हैं। इन खनिजों के अनुपात में भिन्नता होने से ग्रेनाइट के रंग और उसकी कठोरता में अन्तर आ जाता है। जिन खनिजों में धात्विक अंश होता है, उन्हें धात्त्विक खनिज कहते हैं। हैमेटाइट एक प्रमुख लौह-अयस्क है। यह धात्विक खनिज है। अयस्क धात्विक खनिज होते हैं, जिनसे धातुओं का निकालना लाभकारी होता है। शैलों का निर्माण खनिजों से हुआ है। इनका मानव जीवन में बहुत अधिक महत्व है।

शैलों के प्रकार

शैलें अपने गुण, कणों के आकार और उनके बनने की प्रक्रिया के आधार पर विभिन्न प्रकार की होती हैं। निर्माण क्रिया की दृष्टि से शैलों के तीन वर्ग हैं :-

  1. आग्नेय शैल (Igneous Rock),
  2. अवसादी शैल (Sedimentary Rock),
  3. रूपांतरित या कायांतरित शैल (Metamorphic Rock)
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पृथ्वी का आन्तरिक भाग या भूगर्भ

पृथ्वी के आन्तरिक भाग को प्रत्यक्ष रूप से देखना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह बहुत बड़ा गोला है और इसके भूगर्भीय पदार्थों की बनावट गहराई बढ़ने के साथ बदलती जाती है। मनुष्य ने खनन् एवम् वेधन क्रियाओं द्वारा इसके कुछ ही किलोमीटर तक के आन्तरिक भाग को प्रत्यक्ष रूप से देखा है। गहराई के साथ तापमान में तेजी से वृद्धि के कारण अधिक गहराइयों तक खनन और वेधन कार्य करना संभव नहीं है। भूगर्भ में इतना अधिक ऊँचा तापमान है कि वह वेधन में प्रयोग किए जाने वाले किसी भी प्रकार के यंत्र को पिघला सकता है। अतः वेधन कार्य कम गहराइयों तक ही सीमित है। इसलिए पृथ्वी के गर्भ के विषय में प्रत्यक्ष जानकारी के मिलने में कई कठिनाइयाँ आती हैं। पृथ्वी के विशाल आकार और गइराई के साथ बढ़ते तापमान ने भूगर्भ की प्रत्यक्ष जानकारी की सीमाएँ निश्चित कर दी हैं।

Structure of the earth
Image Source – NCERT

भूगर्भ की संरचना

  • पृथ्वी की सबसे अधिक गहराई वाली परत को क्रोड कहते हैं। यह सबसे अधिक घनत्व वाली परत है। इसका घनत्व 11.0 से भी अधिक है। यह लोहा और निकिल धातुओं से बनी है। इसीलिये क्रोड़ को निफे (निकिल+फेरम, लोहा) कहते हैं।
  • क्रोड को पुनः दो परतों में बाँट सकते हैं।
    • इसकी भीतरी परत ठोस है।
    • दूसरी परत अर्द्ध तरल है।
  • जो परत क्रोड को घेरे हुए है, उसे मैंटल कहते हैं। यह परत मुख्यतः सिलीका और मैगनीशियम से बनी है। इसलिए इस परत को सीमा (सिलीका+मैगनीशियम) भी कहते हैं। इसका घनत्व 3.1 से 5.1 तक है।
  • मैंटल पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत से घिरा है। इसे रथलमण्डल कहते हैं, जिसका घनत्व 2.75 से 2.90 है।
  • स्थलमण्डल के प्रमुख निर्माणकारी तत्व सिलीका (C) एल्यूमीनियम (Al) हैं। इसलिए इस परत की स्याल (सिलीका + एल्यूमीनियम) भी कहते हैं।
  • स्थलमण्डल के ऊपरी भाग को भूपर्पटी कहते हैं।
  • पृथ्वी के आन्तरिक भाग की तीन प्रमुख संकेन्द्रीय परते हैं – क्रोड, मैंटल और स्थलमंडल ।
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मृदा संसाधन (Soil Resource)

असंगठित पदार्थों से बनी पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत को मृदा या मिट्टी (Soil) कहते हैं। यह अनेक प्रकार के खनिजों, पौधों और जीव-जन्तुओं के अवशेषों से बनी है। यह जलवायु, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और भूमि की ऊँचाई के बीच लगातार परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप विकसित हुई है। इनमें से प्रत्येक घटक क्षेत्र विशेष के अनुरूप बदलता रहता है। अतः मृदाओं में भी एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच भिन्नता पाई जाती है। मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि यह पेड़-पौधों का आश्रय स्थल होने के साथ उन्हें पोषक तत्व प्रदान करने का मुख्य स्रोत है। 

मृदाओं के प्रमुख प्रकार (Major Types of Soils)

भारत की मृदाओं को निम्नलिखित छ: प्रकारों में बाँटा जाता है : –

Types of Soils
Image Source – NCERT

1. जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil)

  • जलोढ़ मृदाएँ भारत के सतलुज, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के विस्तृत घाटी क्षेत्रों और दक्षिणी प्रायद्वीप के सीमावर्ती भागों में पाई जाती हैं।
  • भारत की सबसे उपजाऊ भूमि के 6.4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में जलोढ़ मृदाएँ फैली हुई हैं।
  • जलोढ़ मृदाओं का गठन बलुई-दोमट से मृत्तिका-दोमट तक होता है। इसमें पोटाश की अधिकता होती है, लेकिन नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी होती है।
  • सामान्यतया ये मृदाएँ धुंधले से लालामी भूरे रंग तक की होती हैं। इन मृदाओं का निर्माण हिमालय पर्वत और विशाल भारतीय पठार से निकलने वाली नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद और बालू के लगातार जमाव से हुआ है।
  • अत्यधिक उत्पादक होने के नाते इन मृदाओं को दो उप-विभागों में बाँटा गया है:
    • नवीन जलोढ़क (खादर) और
    • प्राचीन जलोढ़क (बांगर)।
  • दोनों प्रकार की मृदाएँ संरचना, रासायनिक संघटन, जलविकास क्षमता एवं उर्वरता में एक दूसरे से भिन्न हैं।
  • नवीन जलोढ़क हल्का भुरभुरा दोमट है। जिसमें बालू और मृत्तिका का मिश्रण पाया जाता है। यह मृदा नदियों की घाटियों, बाढ़ मैदानों और डेल्टा प्रदेशों में पाई जाती है।
  • प्राचीन जलोढ़क दोआबा (दो नदियों के बीच की ऊँची भूमि) क्षेत्र में पाया जाता है। मृत्तिका का अनुपात अधिक होने के कारण यह मृदा चिपचिपी है और जलनिकास कमजोर है।
  • इन दोनों प्रकार की मृदाओं में लगभग सभी प्रकार की फसलें पैदा की जाती हैं।

2. काली मृदा (रेगड़ मृदा) [Black Soil (Ragd Soil)]

  • काली मृदा दक्कन के लावा प्रदेश में पाई जाती है।
  • यह मृदा महाराष्ट्र के बहुत बड़े भाग, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में पाई जाती है।
  • इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी के बेसाल्ट लावा के विघटन के परिणामस्वरूप हुआ है। इस मृदा का रंग सामान्यतया काला है जो इसमें उपस्थित अलुमीनियम और लोहे के यौगिकों के कारण है।
  • इस मृदा का स्थानीय नाम रेगड़ मिट्टी है और यह लगभग 6.4 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर फैली है।
  • यह सामान्यतया गहरी मृत्तिका (चिकनी मिट्टी) से बनी है और यह अपारगम्य है या इसकी पारगम्यता बहुत कम है।
  • मृदा की गहराई भिन्न-भिन्न स्थानों में अलग-अलग है। निम्न भूमियों में इस मृदा की गहराई अधिक है जबकि उच्चभूमियों में यह कम है।
  • इस मृदा की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि शुष्क ऋतु में भी यह मृदा अपने में नमी बनाये रखती है।
  • ग्रीष्म ऋतु में इसमें से नमी निकलने से मृदा में चौड़ी-चौड़ी दरारें पड़ जाती है और जल से संतृप्त होने पर यह फूल जाती है और चिपचिपी हो जाती है, इस प्रकार मृदा पर्याप्त गहराई तक हवा से युक्त और आक्सीकृत होती है जो इसकी उर्वरता बनाये रखने में मदद देते हैं।
  • मृदा की इस प्रकार लगातार उर्वरता बनी रहने के कारण यह कम वर्षा के क्षेत्रों में भी बिना सिंचाई के कपास की खेती करने के लिये अनुकूल है।
  • कपास के अतिरिक्त यह मृदा गन्ना, गेहूँ, प्याज और फलों की खेती करने के लिये अनुकूल है।

3. लाल मृदा (Red Soil)

  • प्रायद्वीपीय पठार के बहुत बड़े भाग पर लाल मृदा पाई जाती हैं, इसमें तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, दक्षिण-पूर्व महाराष्ट्र, आँध्र प्रदेश, उड़ीसा, छोटानागपुर पठार और मेघालय पठार के भाग सम्मिलित हैं।
  • यह मृदा ग्रेनाइट और नींस जैसी रवेदार चट्टानों पर विकसित हुई है और यह कृषि भूमि के 7.2 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र पर फैली है।
  • इस मृदा में लोहे के यौगिकों की अधिकता के कारण इसका रंग लाल है, परन्तु इसमें जैव पदार्थों की कमी है।
  • यह मृदा सामान्यतया कम उपजाऊ है और काली मृदा अथवा जलोढ़ मृदा की तुलना में लाल मृदा का कृषि के लिये कम महत्त्व है।
  • इसकी उत्पादकता सिंचाई और उर्वरकों के प्रयोग द्वारा बढ़ाई जा सकती है।
  • यह मृदा चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू और फलों की पैदावार के लिये उपयुक्त है।

4. लैटराइट मृदा (Laterite Soil)

  • लैटराइट मृदा कर्नाटक, तमिलनाडू, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, असम और मेघालय के ऊँचे एवं भारी वर्षा वाले भूभागों में पाई जाती है।
  • इस मृदा का विस्तार 1.3 करोड़ हैक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल पर है।
  • इस मृदा का निर्माण उष्ण एवं आर्द्र जलवायु दशाओं में होता है।
  • लैटराइट मृदा विशेषतया ऋतुवत भारी वर्षा वाले ऊँचे सपाट अपरदित सतहों पर पाई जाती है।
  • इस मृदा का पृष्ठ गिट्टीदार होता है। जो आर्द्र और शुष्क अवधियों के प्रत्यावर्तन के परिणामस्वरूप बनता है।
  • अपक्षय के कारण लैटराइट मृदा अत्यन्त कठोर हो जाती है, इस प्रकार लैटराइट मृदा की प्रमुख विशेषतायें है:
    • जनक शैल का पूर्णतया रासायनिक विघटन,
    • सिलिका का सम्पूर्ण निक्षालन,
    • अलुमीनियम और लोहे के ऑक्साइडों द्वारा मिला लाल-भूरा रंग और ह्यूमस की कमी।
  • इस मृदा में पैदा की जाने वाले सामान्य फसलें चावल, ज्वार-बाजरा और गन्ना निम्न भूमियों में और रबर, कहवा तथा चाय जैसी रोपण फसलें उच्च भूमियों में है।

5. मरूस्थलीय मृदा (Desert Soil)

  • मरूस्थलीय मृदाएं पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चिमी हरियाणा और दक्षिणी पंजाब में पाई जाती है।
  • इन क्षेत्रों में इस मृदा के पाये जाने का सीधा संबन्ध वहाँ पर विद्यमान मरुस्थलों एवं अर्ध-मरुस्थलों की दशाओं का होना तथा छः महीनों तक पानी की अनुपलब्धता है।
  • जैव पदार्थों की कमी सहित बलुई एवं पथरीली मृदा, ह्यूमस का कम होना, वर्षा का कभी-कभी होना, आर्द्रता की कमी और लम्बी शुष्क ऋतु मरुस्थलीय मृदा की विशेषतायें हैं।
  • इस मृदा के क्षेत्र में पौधे एक दूसरे से बहुत दूरी पर मिलते हैं।
  • मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा हैं।
  • सामान्यतया इस मृदा में कृषि के लिये आधारभूत आवश्यकताओं की कमी है। परन्तु जब पानी उपलब्ध होता है तो इससे विविध प्रकार की फसलें जैसे कपास, चावल, गेहूं आदि उर्वरकों की उपयुक्त मात्रा देकर पैदा की जा सकती है।

6. पर्वतीय मृदा (Mountain Soil)

  • पर्वतीय मृदाएँ जटिल है और इनमें अत्यधिक विविधता मिलती है।
  • यह नदी द्रोणियों और निम्न ढलानों पर जलोढ़ मृदा के रूप में पायी जाती है।
  • ऊँचे भागों पर अपरिपक्व मृदा या पथरीली है।
  • पर्वतीय भागों में भू आकृतिक, भूवैज्ञानिक, वानस्पतिक एवं जलवायु दशाओं की विविधता तथा जटिलता के कारण यहाँ एक ही तरह की मृदा के बड़े-बड़े क्षेत्र नहीं मिलते ।
  • इस मृदा के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाई जाती है, जैसे चावल नदी घाटियों में, फलों के बाग ढलानों पर और आलू लगभग सभी क्षेत्रों में पैदा किया जाता है।
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भारत में बाढ़ (Flood in India)

मानसूनी वर्षा के प्रारंभ होते ही देश के 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में रहने वाले लोगों की चिंताएँ बढ़ने लगती हैं। पता नहीं कब नदी में उफान आ जाए और उनके गाढ़े पसीने की कमाई पानी में बह जाए। अन्य सभी विपदाओं की तुलना में बाढ़ से जान-माल को सबसे अधिक हानि होती है।

बाढ़ क्या है?

ऐसे भूमि क्षेत्र में वर्षा या किन्हीं अन्य जल स्रोतों के जल का भर जाना जिसमें सामान्यतः पानी नहीं भरता है, बाढ़ कहलाता है। दूसरे शब्दों में नदी के तटों को तोड़कर या उनके ऊपर से होकर जल का चारों ओर फैल जाना ही बाढ़ है।

बाढ़ के कारण

भारत में बाढ़ आने के निम्नलिखित कारण हैं: –

  • भारी वर्षा – नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में होने वाली भारी वर्षा के कारण अतिरिक्त जल तेज प्रवाह के साथ बहता है जिससे बाढ़ आती है।
  • नदियों में अवसादों का जमा होना – नदियों की धारा क्षेत्र में अवसादों के जमा होने से वे छिछली हो जाती हैं। ऐसी नदियों की जल प्रवाह की क्षमता घट जाती है। भारी वर्षा का पानी किनारों के ऊपर से बहने लगता है।
  • वनों का विनाश – वनस्पति वर्षा जल को बहने से रोककर भूमि में रिसने को बाध्य करती है। वनस्पति के विनाश से भूमि नंगी हो जाती है और वर्षा का पानी बेरोक-टोक तेज गति से नदियों में पहुंच कर बाढ़ का कारण बनता है।
  • चक्रवात – चक्रवातों के कारण उठी ऊंची-ऊंची लहरें समुद्री जल को तटवर्ती । क्षेत्रों में फैला देती है। अक्तूबर 1999 के चक्रवात के कारण आई बाढ़ ने उड़ीसा में भारी तबाही मचाई थी।
  • अपवाह तंत्र से छेड़छाड़ – बिना सोचे-समझे सड़कों, रेलमार्गों, नहरों आदि के निर्माण से प्राकृतिक अपवाह तंत्र अवरुद्ध होकर बाढ़ का कारण बनता है।
  • नदियों का मार्ग परिवर्तन – नदियों के मोड़ और उनके मार्ग परिवर्तन से भी बाढ़ आती है।
  • सुनामी (भूकंपीय ऊंची समुद्री लहर) –  तटवर्ती क्षेत्रों को दूर-दूर तक जल मग्न कर देती है।

बाढ़ से हानि

नदियों में आई बाढ़ की मार मनुष्य और पशुओं दोनों को झेलनी पड़ती है। बाढ़ से लोग बेघर हो जाते हैं। मकान ढह जाते हैं। उद्योग धन्धे चौपट हो जाते हैं। फसलें पानी में डूब जाती हैं। बेजुबान पालतू पशु और वन्य जीव मर जाते हैं। तटवर्ती क्षेत्रों में मछुआरों की नावें, जाल आदि नष्ट हो जाते हैं। मलेरिया, दस्त जैसी बीमारियां फैल जाती हैं। पेय जल प्रदूषित हो जाता है तथा कभी-कभी उसकी भारी कमी हो जाती है। खाद्यान्न नष्ट हो जाते हैं और बाहर से आपूर्ति कठिन हो जाती है।

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 

देश का लगभग 4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र बाढ़ प्रवण है, जो देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग आठवां भाग है। सबसे अधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्र सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र की द्रोणियों में ही है। राज्यों की दृष्टि से बाढ़ प्रवण राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम हैं। इनके बाद हरियाणा, पंजाब और आंध्रप्रदेश का स्थान है। अब तो राजस्थान और गुजरात में भी बाढ़ आती है। कर्नाटक और महाराष्ट्र भी बाढ़ से अछूते नहीं हैं।

Flooding Area in India
Image Source – NCERT

बाढ़ रोकने के उपाय

  • संग्रहण जलाशय – नदियों के मार्गों में संग्रहण जलाशयों के निर्माण से अतिरिक्त पानी को उनमें रोका जा सकता है लेकिन अब तक किए गए उपाय कारगर सिद्ध नहीं हुए हैं। दामोदर नदी की बाढ़ रोकने के लिए बनाए गए बाध उसकी बाढ़ों को नहीं रोक पाए हैं।
  • तटबंध – नदियों के किनारों पर तटबंध बनाकर पाश्र्ववर्ती क्षेत्रों में फैलने वाले बाढ़ के पानी को रोका जा सकता है। दिल्ली में यमुना पर बने तटबंधों का निर्माण बाढ़ रोकने में कारगर सिद्ध हुआ है।
  • वृक्षारोपण – नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में यदि वृक्षारोपण किया जाए तो बाढ़ के प्रकोपों को काफी कम किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक अपवाह तंत्र की पुनस्र्थापना – सड़कों, नहरों, रेलमार्गों आदि के निर्माण से अवरूद्ध प्राकृतिक अपवाह तंत्र को पुनः चालू करने से भी बाढ़े रोकी जा सकती हैं।
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प्राकृतिक विपदाएँ (Natural calamities)

मनुष्य अनन्त काल से प्राकृतिक विपदाओं की मार झेलता रहा है। अनेक विपदाएँ ऐसी हैं जिनका वह प्रतिकार करने में असमर्थ हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे संसार में औसतन एक लाख से अधिक लोग प्राकृतिक विपदाओं से मर जाते हैं और 20,000 करोड़ रुपयों की संपत्ति नष्ट हो जाती है।

संसार के सबसे अधिक प्राकृतिक विपदा प्रवण देशों में भारत का स्थान दूसरा है। पहले स्थान पर चीन है। अतः विपदाओं के कारण, परिणाम एवं इसके रोकथाम के उपाय के बारे में आम नागरिकों में जागरूकता पैदा करना आवश्यक है। इससे व्यक्ति एवं समाज अच्छी तरह से निपट सकता है।

कुछ प्राकृतिक विपदा इस प्रकार है –

भारत में विपदाएँ

विभिन्न प्रकार की विपदाओं के कारण भारत को ‘विपदा प्रवण राष्ट्र’ कहा जाता है। इसके कारण है –

  • 55% से ज्यादा भू-भाग भूकम्प की आशंका से ग्रस्त है,
  • 12% भूभाग बाढ़ प्रवण है,
  • 8% भाग चक्रवातों से प्रभावित है, और
  • 70% कृषि भूमि सूखा प्रवण है।
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