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रूपांतरित या कायांतरित शैल (Metamorphic Rock)

पर्वतीय प्रदेशों में अधिकांश शैलों में परिवर्तन के प्रमाण मिलते हैं। ये सभी शैलें कालान्तर में रूपान्तरित हो जाती हैं। अवसादी अथवा आग्नेय शैलों पर अत्याधिक ताप  से या दाब पड़ने के कारण रूपान्तरित शैलें बनती हैं। उच्च ताप और उच्च दाब, पूर्ववर्ती शैलों के रंग, कठोरता, गठन तथा खनिज संघटन में परिवर्तन कर देते हैं। जहाँ शैलें गर्म-द्रवित मैग्मा के संपर्क में आती हैं, वहाँ उनकी रचना में परिवर्तन आ जाता है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया को रूपान्तरण और कायांतरण कहते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा बनी शैल को रूपांतरित शैल कहते हैं।

Metamorphic Rock
रूपांतरित या कायांतरित शैल (Metamorphic Rock)
  • भूपर्पटी में मौजूद अत्यधिक ऊष्मा के प्रभाव से अवसादी और आग्नेय शैलों के खनिजों में जब रवों का पुनर्निर्माण अथवा रूप में परिवर्तन होता है तो उसे तापीय रूपान्तरण अथवा संस्पर्शीय रूपान्तरण कहते हैं।
  • जब द्रवित मैग्मा अथवा लावा शैलों के संपर्क में आता है तो शैलों के मूल रूप में परिवर्तन ला देता हैं। इसी प्रकार भारी दबाव के कारण शैलों में परिवर्तन होता है। दबाव के कारण हुए परिवर्तन को गतिक या प्रादेशिक रूपान्तरण कहते हैं।
  • स्लेट, नीस-शीस्ट, संगमरमर और हीरा रूपान्तरित शैलों के उदाहरण हैं। रूपान्तरित शैल अपनी मूल शैलों से अधिक कठोर और मजबूत होती हैं। 

मूल शैल तथा इसकी रूपांतरित शैल

शैल का नाम शैल के प्रकार बनने वाली रूपान्तरित शैल
चूना पत्थर अवसादी शैल संगमरमर
डोलोमाइट अवसादी शैल संगमरमर
बलुआ पत्थर अवसादी शैल क्वार्टजाइट
शेल अवसादी शैल स्लेट
स्लेट रूपान्तरित शैल फाइलिट
कोयला अवसादी शैल हीरा
ग्रेनाइट आग्नेय शैल नीस
फाइलिट रूपान्तरित शैल शिस्ट

संसार में विभिन्न प्रकार की रूपान्तरित शैलें पाई जाती हैं। भारत में संगमरमर राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश में मिलता है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा और कुमायूँ क्षेत्र में विभिन्न रंगों की स्लेट मिलती है।

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आग्नेय शैल (Igneous Rock)

आग्नेय शैल (Igneous Rock)

“इंगनियस (Igneous)” अंग्रेजी भाषा का शब्द है। यह लैटिन भाषा के “इंग्निस” शब्द से बना है। “इंग्निस” शब्द का अर्थ अग्नि से है। इससे इन शैलों की उत्पत्ति स्पष्ट होती है अर्थात वह शैल जिनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है, उन्हें आग्नेय शैल कहते हैं। आग्नेय शैलें अति तप्त चट्टानी तरल पदार्थ, जिसे मैग्मा कहते हैं, के ठण्डे होकर जमने से बनती हैं।

  • भूगर्भ में मैग्मा के बनने की निश्चित गहराई की हमें जानकारी नहीं है। यह सम्भवतः विभिन्न गहराइयों पर बनता है जो 40 किलोमीटर से अधिक नहीं होती।
  • शैलों के पिघलने से आयतन में वृद्धि होती हैं, जिसके कारण भूपर्पटी टूटती है या उसमें दरारें पड़ती हैं। इन खुले छिद्रों या मुखों के सहारे ऊपर से पड़ने वाले दबाव में कमी आती है। इससे मैग्मा बाहर निकलता है। अगर ऐसा न हो तो ऊपर से पड़ने वाला अत्यधिक दाब मैग्मा को बाहर जाने नहीं देगा।
  • जब मैग्मा धरातल पर निकलता है तो उसे लावा (Lava) कहते हैं। पिघला हुआ मैग्मा, भूगर्भ में या पृथ्वी की सतह पर जब ठंडा होकर ठोस रूप धारण करता है तो आग्नेय शैलों का निर्माण होता है।
  • पृथ्वी की प्रारम्भिक भूपर्पटी आग्नेय शैलों से बनी है, अतः अन्य सभी शैलों का निर्माण आग्नेय शैलों से ही हुआ है। इसी कारण आग्नेय शैलों को जनक या मूल शैल भी कहते हैं।
  • भूगर्भ के सबसे ऊपरी 16 किलोमीटर की मोटाई में आग्नेय शैलों का भाग लगभग 95 प्रतिशत है।
  • आग्नेय शैलें सामान्यतया कठोर, भारी, विशालकाय और रबेदार होती हैं। निर्माण स्थल के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में बाँटा गया है। बाह्य या बहिर्भेदी (ज्वालामुखी) और आन्तरिक या अन्तर्भेदी आग्नेय शैल ।

1. बाह्य आग्नेय शैलें

  • धरातल पर लावा के ठण्डा होकर जमने से बनी है। इन शैलों की रचना में लावा बहुत जल्दी ठण्डा हो जाता है।
  • लावा के जल्दी ठण्डा होने से इनमें छोटे आकार के रवे बनते हैं।
  • इन्हें ज्वालामुखी शैल भी कहते हैं।
  • गेब्रो और बैसाल्ट बाह्य आग्नेय शैलों के सामान्य उदाहरण हैं।
  • ये शैलें ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाई जाती हैं। भारत के दक्कन पठार की “रेगुर” अथवा काली मिट्टी लावा से बनी है

2. आन्तरिक आग्नेय शैल

  • आन्तरिक आग्नेय शैलों की रचना मैग्मा के धरातल के नीचे जमने से होती है।
  • धरातल के नीचे मैग्मा धीरे-धीरे ठण्डा होता है। अतः इन शैलों में बड़ आकार के रवे बनते हैं।
  • अधिक गहराई में पाई जाने वाली आन्तरिक शैलों को पातालीय आग्नेय शैल कहते हैं।
  • ग्रेनाइट और डोलाराइट आन्तरिक आग्नेय शैलों के सामान्य उदाहरण हैं।
  • दक्कन पठार और हिमालय क्षेत्र में ग्रेनाइट शैलों के विस्तृत भूखण्ड देखे जा सकते हैं।
  • आन्तरिक आग्नेय शैलों की आकृति कई प्रकार की होती है।
Igneous Rock
Image Source – NCERT
  • पूर्ववर्ती शैलों के बीच मैग्मा के समानान्तर तहों के रूप में जमने के स्वरूप को सिल कहते हैं।
  • डाइक शैलों के बीच मैग्मा का लम्बवत जमाव है। इनकी लम्बाई कुछ एक मीटर से लेकर कई किलोमीटर तथा चौड़ाई कुछ एक सेन्टीमीटर से लेकर सैंकड़ों मीटर तक हो सकती है।
  • रासायनिक गुणों के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है – अम्लीय और क्षारीय शैल। ये क्रमशः अम्लीय और क्षारीय लावा के जमने से बनती है।
  • अम्लीय आग्नेय शैलों में सिलीका की मात्रा 65 प्रतिशत होती है। इनका रंग बहुत हल्का होता हैये कठोर और मजबूत शैल हैग्रेनाइट इसी प्रकार की शैल का उदाहरण है।
  • क्षारीय आग्नेय शैलों में सिलीका की मात्रा अम्लीय शैलों से कम पाई जाती है। इनमें सिलीका की मात्रा 55 प्रतिशत से कम होती हैऐसी शैलों में लोहा और मैगनीशियम की अधिकता है। इनका रंग गहरा और काला होता है। इन पर ऋतु अपक्षय का बहुत प्रभाव पड़ता है। गैब्रो, बैसाल्ट तथा डोलेराइट क्षारीय शैलों के उदाहरण हैं।
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भूगर्भ का तापमान, दबाव तथा घनत्व

भूगर्भ का तापमान (Temperature of the Underground)

  • गहरी खानों और गहरे कूपों से जानकारी मिलती है कि पृथ्वी के भीतर गहराई बढ़ने के साथ तापमान बढ़ता है।
  • यह बात ज्वालामुखी के उद्गारों में पृथ्वी के अन्दर से निकले अत्यन्त गर्म लावा से भी सिद्ध होती है कि भूगर्भ की ओर तापमान बढ़ता जाता है।
  • विभिन्न प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि भूगर्भ में धरातल से केन्द्र की ओर तापमान बढ़ने की दर एक समान नहीं है।
  • प्रारम्भ में तापमान बढ़ने की औसत दर प्रत्येक 32 मीटर की गइराई पर 1° C है।
  • तापमान की इस स्थिर वृद्धि के आधार पर 10 किलोमीटर की गहराई में तापमान धरातल की अपेक्षा 3000 से अधिक होना चाहिये और 40 किलोमीटर की गहराई में इसे 1200° C होना चाहिये ।
  • तापमान की इस वृद्धि दर के अनुसार भूगर्भ के सभी पदार्थ पिघली हुई अवस्था में होने चाहिये। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है।
  • चट्टानें जितनी अधिक गहराई में होंगी उनके पिघलने का तापमान-बिन्दु उतना ही ऊँचा होगा। इसका कारण यह है कि भूगर्भ में नीचे दबी शैलों पर ऊपर की शैलों का इतना अधिक दाब होता है जिससे उनके पिघलने का तापमान–बिन्दु धरातल की तुलना में बहुत अधिक हो जाता है।
  • भूकम्प की तरंगों के व्यवहार से भी यह बात सिद्ध होती है। उनसे इस बात की भी पुष्टि होती है कि भूगर्भ में तापमान के बदलने के साथ पदार्थों की संरचना में भी परिवर्तन आता है।
  • भूगर्भ के ऊपरी 100 किलोमीटर में तापमान के बढ़ने की दर 120° C प्रति किलोमीटर है, अगले 300 किलोमीटर में यह वृद्धि दर 20° C प्रति किलोमीटर है और इसके बाद यह वृद्धि दर केवल 10° C प्रति किलोमीटर रह जाती है।
  • धरातल के नीचे तापमान के बढ़ने की दर पृथ्वी के केन्द्र की ओर घटती जाती है। इस गणना के अनुसार पृथ्वी के केन्द्र का तापमान लगभग 4000° से 5000° C के बीच है।
  • भूगर्भ में इतना ऊँचा तापमान उच्च दाब के फलस्वरूप हुई रासायनिक प्रक्रियाओं और रेडियोधर्मी तत्वों के विखंडन के कारण ही संभव है।

भूगर्भ का दबाव (Pressure of the Underground)

  • भूगर्भ में ऊपरी परतों के बहुत अधिक भार के कारण पृथ्वी के सतह से केन्द्र की ओर जाने पर दबाव भी निरन्तर बढ़ता जाता है।
  • पृथ्वी के केन्द्र पर अत्यधिक दबाव है। यह दबाव समुद्र तल पर वायुमंडल के दाब से 30-40 लाख गुना अधिक है।
  • केन्द्र पर उच्च तापमान होने के कारण यहां पाये जाने वाले पदार्थों को द्रव रूप में होना स्वाभाविक है, परन्तु इस ऊपरी भारी दबाव के कारण यह द्रव रूप ठोस का आचरण करता है।

भूगर्भ का घनत्व (Density of the Underground)

  • पृथ्वी के केन्द्र की ओर निरन्तर दबाव के बढ़ने और भारी पदार्थों के होने के कारण उसकी परतों का घनत्व भी बढ़ता जाता है।
  • अतः सबसे गहरे भागों में अत्यधिक घनत्व वाले पदार्थों का होना स्वाभाविक है।
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पृथ्वी का आन्तरिक भाग या भूगर्भ

पृथ्वी के आन्तरिक भाग को प्रत्यक्ष रूप से देखना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह बहुत बड़ा गोला है और इसके भूगर्भीय पदार्थों की बनावट गहराई बढ़ने के साथ बदलती जाती है। मनुष्य ने खनन् एवम् वेधन क्रियाओं द्वारा इसके कुछ ही किलोमीटर तक के आन्तरिक भाग को प्रत्यक्ष रूप से देखा है। गहराई के साथ तापमान में तेजी से वृद्धि के कारण अधिक गहराइयों तक खनन और वेधन कार्य करना संभव नहीं है। भूगर्भ में इतना अधिक ऊँचा तापमान है कि वह वेधन में प्रयोग किए जाने वाले किसी भी प्रकार के यंत्र को पिघला सकता है। अतः वेधन कार्य कम गहराइयों तक ही सीमित है। इसलिए पृथ्वी के गर्भ के विषय में प्रत्यक्ष जानकारी के मिलने में कई कठिनाइयाँ आती हैं। पृथ्वी के विशाल आकार और गइराई के साथ बढ़ते तापमान ने भूगर्भ की प्रत्यक्ष जानकारी की सीमाएँ निश्चित कर दी हैं।

Structure of the earth
Image Source – NCERT

भूगर्भ की संरचना

  • पृथ्वी की सबसे अधिक गहराई वाली परत को क्रोड कहते हैं। यह सबसे अधिक घनत्व वाली परत है। इसका घनत्व 11.0 से भी अधिक है। यह लोहा और निकिल धातुओं से बनी है। इसीलिये क्रोड़ को निफे (निकिल+फेरम, लोहा) कहते हैं।
  • क्रोड को पुनः दो परतों में बाँट सकते हैं।
    • इसकी भीतरी परत ठोस है।
    • दूसरी परत अर्द्ध तरल है।
  • जो परत क्रोड को घेरे हुए है, उसे मैंटल कहते हैं। यह परत मुख्यतः सिलीका और मैगनीशियम से बनी है। इसलिए इस परत को सीमा (सिलीका+मैगनीशियम) भी कहते हैं। इसका घनत्व 3.1 से 5.1 तक है।
  • मैंटल पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत से घिरा है। इसे रथलमण्डल कहते हैं, जिसका घनत्व 2.75 से 2.90 है।
  • स्थलमण्डल के प्रमुख निर्माणकारी तत्व सिलीका (C) एल्यूमीनियम (Al) हैं। इसलिए इस परत की स्याल (सिलीका + एल्यूमीनियम) भी कहते हैं।
  • स्थलमण्डल के ऊपरी भाग को भूपर्पटी कहते हैं।
  • पृथ्वी के आन्तरिक भाग की तीन प्रमुख संकेन्द्रीय परते हैं – क्रोड, मैंटल और स्थलमंडल ।
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भारत में प्राकृतिक वनस्पति

पौधों की जातियों, जैसे पेड़ों, झाड़ियों, घासों, बेलों, लताओं आदि के समूह, जो किसी विशिष्ट पर्यावरण में एक दूसरे के साहचर्य में विकसित हो रहे हैं, को प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं। इसके विपरीत वन से तात्पर्य पेड़ों व झाड़ियों से युक्त एक विस्तृत भाग से है जिसका हमारे लिये आर्थिक महत्व है। इस प्रकार प्राकृतिक वनस्पति की तुलना में वन का अर्थ भिन्न है।

प्रमुख वनस्पति प्रकार

भारत में पायी जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति को सामान्यतया निम्न प्रकारों में बांटा जाता है :-

Natural Vegetation in India
Image Source – NCERT
  1. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय सदाहरित एवं अर्द्ध सदाहरित वनस्पति
  2. उष्णकटिबन्धीय आर्द्र पर्णपाती वनस्पति
  3. उष्णकटिबन्धीय शुष्क वनस्पति
  4. ज्वारीय वनस्पति तथा
  5. पर्वतीय वनस्पति

1. आर्द्र उष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वनस्पति (Tropical Wet Evergreen Vegetation)

ये उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन हैं जिन्हें उनकी विशेषताओं के आधार पर निम्न दो प्रकारों में बांटा जाता है :

I. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय सदाबहार वनस्पति (Humid tropical Evergreen Vegetation) :

  • यह उन प्रदेशों में पायी जाती है जहां वार्षिक वर्षा 300 से.मी. से अधिक तथा शुष्क ऋतु बहुत छोटी होती है।
  • पश्चिमी घाट के दक्षिणी भागों, केरल व कर्नाटक तथा अधिक आर्द्र उत्तर पूर्वी पहाड़ियों में इस प्रकार की वनस्पति पायी जाती है।
  • यह विषुवतीय वनस्पति से मिलती जुलती है। यह वनस्पति, अत्यधिक कटाई से नष्ट प्राय हो गई है। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें हैं –
    • ये वन घने हैं तथा लम्बे सदा हरित पेड़ों से युक्त हैं। पेड़ों की लम्बाई अक्सर 60 मीटर या इससे भी अधिक होती है।
    • प्रति इकाई क्षेत्र पर पौधों की जातियां इतनी अधिक हैं कि उनका वाणिज्यिक उपयोग नहीं हो पाता।
    • महोगनी, सिनकोना, बांस तथा ताड़, इन वनों में पाये जाने वाले खास पेड़ हैं। पेड़ों के नीचे झाड़ियों, बेलों, लताओं आदि का सघन मोटा जाल पाया जाता है। घास प्रायः अनुपस्थिति है।
    • इन पेड़ों की लकड़ी अधिक कठोर व भारी होती है। अतः इन्हें काटने व लाने ले जाने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है।

II. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय अर्द्ध सदाहरित वनस्पति (Wet Tropical Semi-Evergreen Vegetation):

  • यह आर्द्र सदाहरित वनस्पति तथा आर्द्र शीतोष्ण पर्णपाती वनस्पति के मध्यवर्ती भागों में पायी जाती है।
  • इस प्रकार की वनस्पति मेघालय पठार, सह्याद्रि एवं अण्डमान व निकोबार द्वीपों में मिलती है।
  • यह वनस्पति 250 से.मी. से 300 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों तक ही सीमित है। इनकी प्रमुख विशेषतायें हैं : –
    • यह वनस्पति आर्द्र सदाहरित वनों से कम घनी है।
    • इन वनों की लकड़ी दानेदार अच्छी किस्म की होती है।
    • रोजवुड, ऐनी तथा तेलसर सह्याद्रि के वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। चम्पा, जून तथा गुरजन, असम व मेघालय तथा आइरनवुड, एबोनी व लॉरेल अन्य प्रदेशों के प्रमुख वृक्ष हैं।
    • स्थानान्तरी कृषि एवं अत्यधिक शोषण से इन वनों का अत्यधिक हास हुआ है।

2. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वनस्पति (Wet Tropical Deciduous Vegetation)

  • यह भारत की सबसे विस्तृत वनस्पति पेटी है।
  • इस प्रकार की वनस्पति 100 से.मी. से 200 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पायी जाती है।
  • इसमें सह्याद्रि, प्रायद्वीपीय पठार का उत्तरी पूर्वी भाग, शिवालिक में हिमालय पदीय पहाड़ियां, भाबर तथा तराई क्षेत्र शामिल हैं। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें है : –
    • पर्णपाती वनस्पति क्षेत्र में वृक्ष वर्ष में एक बार शुष्क ऋतु में अपनी पत्तियां गिरा देते हैं।
    • यह खासतौर पर मानसूनी वनस्पति है जिसमें वाणिज्यिक महत्व के पेड़ों की किस्में सदाहरित वनों से अधिक पायी जाती है।
    • सागवान, साल, चन्दन, शीशम, बेंत तथा बांस इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं।
    • लकड़ी के लिये पेड़ों की अन्धाधुंध कटाई से इन वनों का अत्यधिक विनाश हुआ है।

3. शुष्क उष्णकटिबन्धीय वनस्पति (Dry Tropical Vegetation)

इस प्रकार की वनस्पति को निम्न दो वर्गों में बांटा जाता है :

I.  शुष्क पर्णपाती (Dry Deciduous):

  • यह वनस्पति 70 से 100 सें.मी. वार्षिक वर्षा पाने वाले भागों में पायी जाती है।
  • इन प्रदेशों में उत्तर प्रदेश के कुछ भाग, उत्तरी व पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आँध्र प्रदेश, कनार्टक तथा तमिलनाडु के कुछ भाग सम्मिलित हैं।
  • इन क्षेत्रों में शुष्क ऋतु लम्बी होती है तथा वर्षा हल्की व चार महीनों तक सीमित होती है। इसकी प्रमुख विशेषतायें हैं –
    • पेड़ों के झुरमुटों के बीच विस्तृत घास भूमियां आम तौर से पायी जाती हैं। सागवान इस प्रकार की वनस्पति का प्रधान वृक्ष है।
    • पेड़ अपनी पत्तियां लम्बी शुष्क ऋतु में गिरा देते हैं।

II. शुष्क उष्णकटिबन्धीय कंटीली वनस्पति (Dry Tropical Thorny Vegetation):

  • यह 70 सें.मी. से कम वार्षिक वर्षा पाने वाले भागों में पायी जाती है।
  • इनमें भारत के उत्तरी व उत्तरी पश्चिमी भाग तथा सह्याद्रि के पवन विमुख ढाल शामिल हैं। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें हैं : –
    • यहां दूर-दूर तक फैले पेड़ों व झाड़ियों के झुरमुटों के बीच फैली निम्न किस्म की घास वाली विस्तृत भूमियां पायी जाती हैं।
    • बबूल, सेहुँड, कैक्टस आदि इस प्रकार की वनस्पति के सच्चे प्रतिनिधि वृक्ष हैं। जंगली खजूर, कंटीले प्रकार के अन्य वृक्ष व झाड़ियां जहां-तहां पायी जाती हैं।

4. ज्वारीय वनस्पति (Tidal Vegetation)

  • इस प्रकार की वनस्पति मुख्य रूप से गंगा, महानदी, गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के डेल्टा प्रदेशों में पाई जाती है, जहां ज्वार-भाटों व ऊंची समुद्री लहरों के कारण खारे जल की बाढ़े आती रहती हैं।
  • मैनग्रोव इस प्रकार की प्रतिनिधि वनस्पति है।
  • सुन्दरी ज्वारीय वनों का प्रमुख वृक्ष है। यह पश्चिमी बंगाल के डेल्टा के निचले भाग में बहुतायत से पाया जाता है। यही कारण है कि इन्हें सुन्दरवन कहते हैं।
  • यह अपनी कठोर व टिकाऊ लकड़ी के लिये जाना जाता है।

5. पर्वतीय वनस्पति (Mountain Vegetation)

उत्तरी तथा प्रायद्वीपीय पर्वतीय श्रेणियों के तापमान तथा अन्य मौसमी दशाओं में अन्तर होने के कारण इन दो पर्वत समूहों की प्राकृतिक वनस्पति में अन्तर पाया जाता है। अतः पर्वतीय वनस्पति को दो भागों प्रायद्वीपीय पठार की पर्वतीय वनस्पति तथा हिमालय श्रेणियों की पर्वतीय वनस्पति के रूप में बांटा जा सकता है।

I. प्रायद्वीपीय पठार की पर्वतीय वनस्पति (Mountainous Vegetation of Peninsular Plateau)

  • पठारी प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में नीलगिरि, अन्नामलाई व पालनी पहाड़ियां, पश्चिमीघाट में महाबलेश्वर, सतपुड़ा तथा मैकाल पहाड़ियां शामिल हैं। इस प्रदेश की वनस्पति की महत्वपूर्ण विशेषतायें हैं : –
    • अविकसित वनों या झाड़ियों के साथ खुली हुई विस्तृत घास भूमियां पायी जाती हैं।
    • 1500 मीटर से कम ऊंचाई पर पाये जाने वाले आर्द्र शीतोष्ण वन कम सघन है। अधिक ऊंचाई पर पाये जाने वाले वनों की सघनता ज्यादा है।
    • इन वनों में पेड़ों के नीचे वनस्पति का जाल पाया जाता है। जिनमें परपोषी, पौधे, काई व बारीक पत्तियों वाले पौधे प्रमुख हैं।
    • मैग्नोलिया, लॉरेल एवं एल्म सामान्य वृक्ष हैं।
    • सिनकोना तथा यूकेलिप्टस के वृक्ष विदेशों से लाकर लगाये गये हैं।

II. हिमालय श्रेणियों की पर्वतीय वनस्पति (Himalayan Ranges Mountain Vegetation)

  • हिमालय पर्वतीय प्रदेश में बढ़ती हुई ऊंचाईयों पर भिन्न प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इसे निम्न प्रकारों में बांटा जा सकता है : –
    • आर्द्र उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वन शिवालिक श्रेणियों के पदीय क्षेत्रों, भाबर तथा तराई क्षेत्रों में 1000 मीटर की ऊंचाई तक पाये जाते हैं। हम इन वनों के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं।
    • आर्द्र शीतोष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वन 1000 से 3000 मीटर की ऊंचाईयों के मध्यवर्ती क्षेत्रों में पाये जाते हैं। इन वनों की महत्वपूर्ण विशेषतायें निम्न हैं : –
      • ये घने वन लम्बे पेड़ों से युक्त हैं।
      • चेस्टनट तथा ओक पूर्वी हिमालय प्रदेश के प्रधान वृक्ष हैं; जबकि चीड़ और पाइन पश्चिमी हिमालय प्रदेश में प्रधानता से पाये जाने वाले वृक्ष हैं।
      • साल निम्न ऊंचाई वाले क्षेत्रों का महत्वपूर्ण वृक्ष है।
      • देवदार, सिलवर फर तथा स्पूस 2000 से 3000 मीटर के मध्यवर्ती भागों के प्रधान वृक्ष हैं। इन ऊंचाईयों पर पाये जाने वले वन कम ऊंचाई के वनों की तुलना में कम घने हैं।
      • स्थानीय व्यक्तियों के लिये इन वनों का आर्थिक महत्व अधिक है।
  • शुष्क शीतोष्ण वनस्पति इस पर्वतीय प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी ढालों पर पायी जाती है। यहां तापमान कम तथा वर्षा 70 से 100 सें.मी. होती है। इस वनस्पति की महत्वपूर्ण विशेषतायें हैं : –
    • यह वनस्पति भूमध्यसागरीय वनस्पति से मिलती जुलती हैं।
    • जंगली जैतून और बबूल कठोर व मोटी सवाना घास के साथ उगे प्रमुख वृक्ष है।
    • कहीं-कहीं ओक तथा देवदार के वृक्ष भी पाये जाते हैं।
  • अल्पाइन वनस्पति 3000 से 4000 मीटर की ऊंचाईयों के मध्य पायी जाती है। इन वनों की प्रमुख विशेषतायें हैं :
    • ये कम घने वन हैं।
    • सिल्वर फर, जुनी फर, बर्च, पाइन तथा राडॉनड्रान इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। ये सभी वृक्ष आकार में छोटे हैं।
    • अल्पाइन चारागाह इससे भी अधिक ऊंचाई वाले भागों में मिलते हैं।
    • हिम रेखा की ओर बढ़ने पर पेड़ों की ऊंचाई क्रमशः कम होती जाती है।
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मृदा संसाधन (Soil Resource)

असंगठित पदार्थों से बनी पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत को मृदा या मिट्टी (Soil) कहते हैं। यह अनेक प्रकार के खनिजों, पौधों और जीव-जन्तुओं के अवशेषों से बनी है। यह जलवायु, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और भूमि की ऊँचाई के बीच लगातार परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप विकसित हुई है। इनमें से प्रत्येक घटक क्षेत्र विशेष के अनुरूप बदलता रहता है। अतः मृदाओं में भी एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच भिन्नता पाई जाती है। मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि यह पेड़-पौधों का आश्रय स्थल होने के साथ उन्हें पोषक तत्व प्रदान करने का मुख्य स्रोत है। 

मृदाओं के प्रमुख प्रकार (Major Types of Soils)

भारत की मृदाओं को निम्नलिखित छ: प्रकारों में बाँटा जाता है : –

Types of Soils
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1. जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil)

  • जलोढ़ मृदाएँ भारत के सतलुज, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के विस्तृत घाटी क्षेत्रों और दक्षिणी प्रायद्वीप के सीमावर्ती भागों में पाई जाती हैं।
  • भारत की सबसे उपजाऊ भूमि के 6.4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में जलोढ़ मृदाएँ फैली हुई हैं।
  • जलोढ़ मृदाओं का गठन बलुई-दोमट से मृत्तिका-दोमट तक होता है। इसमें पोटाश की अधिकता होती है, लेकिन नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी होती है।
  • सामान्यतया ये मृदाएँ धुंधले से लालामी भूरे रंग तक की होती हैं। इन मृदाओं का निर्माण हिमालय पर्वत और विशाल भारतीय पठार से निकलने वाली नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद और बालू के लगातार जमाव से हुआ है।
  • अत्यधिक उत्पादक होने के नाते इन मृदाओं को दो उप-विभागों में बाँटा गया है:
    • नवीन जलोढ़क (खादर) और
    • प्राचीन जलोढ़क (बांगर)।
  • दोनों प्रकार की मृदाएँ संरचना, रासायनिक संघटन, जलविकास क्षमता एवं उर्वरता में एक दूसरे से भिन्न हैं।
  • नवीन जलोढ़क हल्का भुरभुरा दोमट है। जिसमें बालू और मृत्तिका का मिश्रण पाया जाता है। यह मृदा नदियों की घाटियों, बाढ़ मैदानों और डेल्टा प्रदेशों में पाई जाती है।
  • प्राचीन जलोढ़क दोआबा (दो नदियों के बीच की ऊँची भूमि) क्षेत्र में पाया जाता है। मृत्तिका का अनुपात अधिक होने के कारण यह मृदा चिपचिपी है और जलनिकास कमजोर है।
  • इन दोनों प्रकार की मृदाओं में लगभग सभी प्रकार की फसलें पैदा की जाती हैं।

2. काली मृदा (रेगड़ मृदा) [Black Soil (Ragd Soil)]

  • काली मृदा दक्कन के लावा प्रदेश में पाई जाती है।
  • यह मृदा महाराष्ट्र के बहुत बड़े भाग, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में पाई जाती है।
  • इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी के बेसाल्ट लावा के विघटन के परिणामस्वरूप हुआ है। इस मृदा का रंग सामान्यतया काला है जो इसमें उपस्थित अलुमीनियम और लोहे के यौगिकों के कारण है।
  • इस मृदा का स्थानीय नाम रेगड़ मिट्टी है और यह लगभग 6.4 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर फैली है।
  • यह सामान्यतया गहरी मृत्तिका (चिकनी मिट्टी) से बनी है और यह अपारगम्य है या इसकी पारगम्यता बहुत कम है।
  • मृदा की गहराई भिन्न-भिन्न स्थानों में अलग-अलग है। निम्न भूमियों में इस मृदा की गहराई अधिक है जबकि उच्चभूमियों में यह कम है।
  • इस मृदा की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि शुष्क ऋतु में भी यह मृदा अपने में नमी बनाये रखती है।
  • ग्रीष्म ऋतु में इसमें से नमी निकलने से मृदा में चौड़ी-चौड़ी दरारें पड़ जाती है और जल से संतृप्त होने पर यह फूल जाती है और चिपचिपी हो जाती है, इस प्रकार मृदा पर्याप्त गहराई तक हवा से युक्त और आक्सीकृत होती है जो इसकी उर्वरता बनाये रखने में मदद देते हैं।
  • मृदा की इस प्रकार लगातार उर्वरता बनी रहने के कारण यह कम वर्षा के क्षेत्रों में भी बिना सिंचाई के कपास की खेती करने के लिये अनुकूल है।
  • कपास के अतिरिक्त यह मृदा गन्ना, गेहूँ, प्याज और फलों की खेती करने के लिये अनुकूल है।

3. लाल मृदा (Red Soil)

  • प्रायद्वीपीय पठार के बहुत बड़े भाग पर लाल मृदा पाई जाती हैं, इसमें तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, दक्षिण-पूर्व महाराष्ट्र, आँध्र प्रदेश, उड़ीसा, छोटानागपुर पठार और मेघालय पठार के भाग सम्मिलित हैं।
  • यह मृदा ग्रेनाइट और नींस जैसी रवेदार चट्टानों पर विकसित हुई है और यह कृषि भूमि के 7.2 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र पर फैली है।
  • इस मृदा में लोहे के यौगिकों की अधिकता के कारण इसका रंग लाल है, परन्तु इसमें जैव पदार्थों की कमी है।
  • यह मृदा सामान्यतया कम उपजाऊ है और काली मृदा अथवा जलोढ़ मृदा की तुलना में लाल मृदा का कृषि के लिये कम महत्त्व है।
  • इसकी उत्पादकता सिंचाई और उर्वरकों के प्रयोग द्वारा बढ़ाई जा सकती है।
  • यह मृदा चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू और फलों की पैदावार के लिये उपयुक्त है।

4. लैटराइट मृदा (Laterite Soil)

  • लैटराइट मृदा कर्नाटक, तमिलनाडू, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, असम और मेघालय के ऊँचे एवं भारी वर्षा वाले भूभागों में पाई जाती है।
  • इस मृदा का विस्तार 1.3 करोड़ हैक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल पर है।
  • इस मृदा का निर्माण उष्ण एवं आर्द्र जलवायु दशाओं में होता है।
  • लैटराइट मृदा विशेषतया ऋतुवत भारी वर्षा वाले ऊँचे सपाट अपरदित सतहों पर पाई जाती है।
  • इस मृदा का पृष्ठ गिट्टीदार होता है। जो आर्द्र और शुष्क अवधियों के प्रत्यावर्तन के परिणामस्वरूप बनता है।
  • अपक्षय के कारण लैटराइट मृदा अत्यन्त कठोर हो जाती है, इस प्रकार लैटराइट मृदा की प्रमुख विशेषतायें है:
    • जनक शैल का पूर्णतया रासायनिक विघटन,
    • सिलिका का सम्पूर्ण निक्षालन,
    • अलुमीनियम और लोहे के ऑक्साइडों द्वारा मिला लाल-भूरा रंग और ह्यूमस की कमी।
  • इस मृदा में पैदा की जाने वाले सामान्य फसलें चावल, ज्वार-बाजरा और गन्ना निम्न भूमियों में और रबर, कहवा तथा चाय जैसी रोपण फसलें उच्च भूमियों में है।

5. मरूस्थलीय मृदा (Desert Soil)

  • मरूस्थलीय मृदाएं पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चिमी हरियाणा और दक्षिणी पंजाब में पाई जाती है।
  • इन क्षेत्रों में इस मृदा के पाये जाने का सीधा संबन्ध वहाँ पर विद्यमान मरुस्थलों एवं अर्ध-मरुस्थलों की दशाओं का होना तथा छः महीनों तक पानी की अनुपलब्धता है।
  • जैव पदार्थों की कमी सहित बलुई एवं पथरीली मृदा, ह्यूमस का कम होना, वर्षा का कभी-कभी होना, आर्द्रता की कमी और लम्बी शुष्क ऋतु मरुस्थलीय मृदा की विशेषतायें हैं।
  • इस मृदा के क्षेत्र में पौधे एक दूसरे से बहुत दूरी पर मिलते हैं।
  • मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा हैं।
  • सामान्यतया इस मृदा में कृषि के लिये आधारभूत आवश्यकताओं की कमी है। परन्तु जब पानी उपलब्ध होता है तो इससे विविध प्रकार की फसलें जैसे कपास, चावल, गेहूं आदि उर्वरकों की उपयुक्त मात्रा देकर पैदा की जा सकती है।

6. पर्वतीय मृदा (Mountain Soil)

  • पर्वतीय मृदाएँ जटिल है और इनमें अत्यधिक विविधता मिलती है।
  • यह नदी द्रोणियों और निम्न ढलानों पर जलोढ़ मृदा के रूप में पायी जाती है।
  • ऊँचे भागों पर अपरिपक्व मृदा या पथरीली है।
  • पर्वतीय भागों में भू आकृतिक, भूवैज्ञानिक, वानस्पतिक एवं जलवायु दशाओं की विविधता तथा जटिलता के कारण यहाँ एक ही तरह की मृदा के बड़े-बड़े क्षेत्र नहीं मिलते ।
  • इस मृदा के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाई जाती है, जैसे चावल नदी घाटियों में, फलों के बाग ढलानों पर और आलू लगभग सभी क्षेत्रों में पैदा किया जाता है।
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चक्रवात (Cyclone)

चक्रवात (Cyclone) निम्न वायुदाब के केन्द्र होते हैं। इनमें केन्द्र से बाहर की ओर वायु दाब-बढ़ता जाता है। नतीजतन परिधि से केन्द्र की ओर पवन चलने लगती है। चक्रवात में पवनों की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूईयों के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उनके अनुरूप होती है।

स्थिति और भौतिक गुणों की दृष्टि से चक्रवात दो प्रकार के होते हैं।

  • शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात और
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात

मौसम विज्ञान की शब्दावली में शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात को अवदाब और उष्ण कटिबंधीय चक्रवात को केवल चक्रवात ही कहते हैं।

“चक्रवात अत्यंत निम्न वायुदाब का लगभग वृत्ताकार तूफानी केन्द्र हैं, जिसमें चक्करदार पवन प्रचंड वेग से चलती है तथा मूसलाधार वर्षा होती है।” वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण में चक्रवात महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक पूर्ण विकसित चक्रवात मात्र एक घंटे में 3 अरब 50 करोड़ टन कोष्ण आर्द्र वायु को निम्न अक्षांशों में स्थानान्तरित कर देता है।

कब-कब आते हैं चक्रवात

चक्रवात एक ऐसी परिघटना है जो वर्ष के कुछ महीनों तक ही सीमित रहती है। भारत में अधिकतर चक्रवात मानसून के बाद अक्टूबर – दिसंबर या मानसून से पहले अप्रैल – मई में आते हैं। सामान्यतः चक्रवात की जीवन अवधि 7 से 14 दिनों की होती है।

Cyclone in India
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चक्रवातों का संचलन

चक्रवात में बाहर के उच्च वायुदाब से केन्द्र के निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर पवन बड़े वेग से चलती हैं। इनके साथ-साथ ही चक्रवात का पूरा का पूरा तंत्र ही (बंगाल की खाड़ी में) पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर 15 से 30 कि.मी. प्रति घंटे की गति से आगे बढ़ता है।

चक्रवात की श्रेणियां

चक्रवातों को हवा की गति और क्षति के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।

श्रेणी 1 – प्रति घंटे 90 से 125 किलोमीटर के बीच हवा की गति, घरों और पेड़ों को कुछ ध्यान देने योग्य नुकसान।
श्रेणी 2 – प्रति घंटे 125 और 164 किलोमीटर के बीच हवा की गति, घरों को नुकसान और फसलों और पेड़ों को अत्यधिक नुकसान ।
श्रेणी 3 – प्रति घंटे 165 से 224 किलोमीटर प्रति घंटा के बीच हवा की गति, घरों के लिए संरचनात्मक क्षति, फसलों को व्यापक क्षति और ऊँचे पेड़ों, ऊँचे वाहनों और इमारतों का विनाश।
श्रेणी 4 – प्रति घंटे 225 और 279 किलोमीटर के बीच हवा की गति, बिजली की विफलता और शहरों और गाँवों को बहुत नुकसान।
श्रेणी 5 – प्रति घंटे 280 किलोमीटर से अधिक की हवा की गति, व्यापक क्षति।

कहाँ-कहाँ आते हैं भारत में चक्रवात

भारत में सबसे अधिक चक्रवात पूर्वी तट पर आते हैं। चक्रवात के संकट की आशंका वाले राज्य हैं- पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु। पश्चिमी तट अरब सागर में बने चक्रवातों से प्रभावित होता है। चक्रवात से उत्पन्न विपदा को सबसे अधिक झेलने वाला पश्चिमी तट का राज्य गुजरात है। महाराष्ट्र के तटीय और कुछ अंदरूनी क्षेत्र भी चक्रवात के प्रकोप की चपेट में आते हैं। संसार किसी भी सागर की तुलना में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में सबसे अधिक चक्रवात आते है।

चक्रवातों द्वारा महाविनाश

चक्रवात जिधर से गुजरते हैं, वहां महाविनाश करके निकलते हैं। चक्रवातों के प्रचंड वेग से काफी जन-धन की हानि होती हैं। मूसलाधार वर्षा बाढ़ का कारण बन जाती है। बाढ़ का पानी चारों ओर तबाही मचा देता है। चक्रवात के वेग से सागर में उत्ताल तरंगें उठती हैं। चक्रवाती वर्षा से उत्प्रेरित भूस्खलन और भी अधिक विनाशकारी सिद्ध होते हैं।

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भूस्खलन (Landslide)

16 एवं 17 जून 2013 को तेज वर्षा से प्रेरित भूस्खलन ने मंदाकिनी नदी एवं उसकी उपशाखाओं की धारा को रोककर, अल्पकालिक झील का निर्माण कर दिया बादल के फटने से आयी त्वरित बाढ़ ने बस्तियों एवं सडकों को बहा दिया और उत्तराखण्ड में विशेष कर केदारनाथ क्षेत्र में ऐसा विनाश किया

क्या होता है भूस्खलन?

पर्वतीय ढालों या नदी तटों पर छोटी शिलाओं, मिट्टी या मलबे का अचानक खिसकर नीचे आ जाना ही, भूस्खलन है। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन का सिलसिला निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इससे पर्वतों के जन-जीवन पर बुरे प्रभाव दिखाई पड़ने लगे हैं।

भूस्खलन प्रवण क्षेत्र

हिमालय, पश्चिमी घाट और नदी घाटियों में प्राय भूस्खलन होते रहते हैं। भूस्खलनों का प्रभाव जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम तथा सभी सात उत्तर पूर्वी राज्य भूस्खलन से ज्यादा ही त्रस्त है। दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल को भूस्खलन का प्रकोप झेलना पड़ता है।

Landslide Area in India
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भूस्खलन के कारण

  • भारी वर्षा – भारी वर्षा भूस्खलन का एक प्रमुख कारण है।
  • वन-नाशन – वनों का विनाश भूस्खलन का मुख्य कारण है। वृक्ष, झाड़ियाँ और घासपात मृदा कणों को बांधे रखते हैं। पेड़ों के कटने से पहाड़ी ढाल नंगे हो जाते हैं। ऐसे ढालों पर वर्षा का जल निर्बाध गति से बहता है। उसे सोखने के लिए वनस्पति का आवरण नहीं होता।
  • भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट –  हिमालयी क्षेत्र में प्रायः भूकंप आते रहते हैं। भूकंप के झटके पहाड़ों को हिला देते हैं और वे टूट कर नीचे की ओर खिसक जाते हैं। ज्वालामुखी विस्फोटों से भी पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन होते हैं।
  • सड़क निर्माण – विकास के लिए पहाड़ों में सड़कों का निर्माण चल रहा है। सड़क बनाते समय ढेर सारा मलबा हटाना पड़ता है। इस तरह चट्टानों की बनावट एवं उनके ढाल में बदलाव आता है। फलतः भूस्खलन तीव्र हो जाता है।
  • झूम कृषि – उत्तरपूर्वी भारत में झूम खेती के कारण भूस्खलनों की संख्या या आवृत्ति बढ़ी है।
  • भवन निर्माण – जनसंख्या वृद्धि तथा पर्यटन के लिए आवास की व्यवस्था हेतु पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक मकान और होटल बनाए जा रहे हैं। इनसे भी भूस्खलनों में वृद्धि होती है।

भूस्खलन के परिणाम

  • पर्यावरण का ह्रास  – भूस्खलनों से पर्वतों के पर्यावरण में ह्रास हो रहा है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य धीरे-धीरे घट रहा है।
  • जल स्रोत सूख रहे हैं।
  • नदियों में बाढ़ की वृद्धि हो रही है।
  • सड़क मार्ग अवरूद्ध हो रहा है।
  • अपार धन-जन की हानि हो रही है।

भूस्खलन रोकने तथा इसके दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय

  • वनरोपण – वृक्ष और झाड़ियाँ मृदा को बांधे रखने में सहायक होती है।
  • सड़कों के निर्माण में नई तकनीक – सड़क इस तरह बनायी जानी चाहिए ताकि कम से कम मलबा निकले।
  • खनिजों और पत्थरों के निकालने पर रोक लगाई जाए।
  • वनों का शोषण न करके वैज्ञानिक दोहन किया जाए।
  • ऋतुवत या वार्षिक फसलों के बदले स्थायी फसलें जैसे फलों के बाग लगाए जाएँ।
  • भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्रों में पृष्ठीय जल प्रवाह को नियन्त्रित करके जलरिसाव को कम किया जाए।
  • पहाड़ी ढालों पर मलबे को खिसकने से रोकने के लिए मजबूत दीवारें बनाई जाएं।
  • भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों का मानचित्रण किया जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों में निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जाए।

 

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भारत में बाढ़ (Flood in India)

मानसूनी वर्षा के प्रारंभ होते ही देश के 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में रहने वाले लोगों की चिंताएँ बढ़ने लगती हैं। पता नहीं कब नदी में उफान आ जाए और उनके गाढ़े पसीने की कमाई पानी में बह जाए। अन्य सभी विपदाओं की तुलना में बाढ़ से जान-माल को सबसे अधिक हानि होती है।

बाढ़ क्या है?

ऐसे भूमि क्षेत्र में वर्षा या किन्हीं अन्य जल स्रोतों के जल का भर जाना जिसमें सामान्यतः पानी नहीं भरता है, बाढ़ कहलाता है। दूसरे शब्दों में नदी के तटों को तोड़कर या उनके ऊपर से होकर जल का चारों ओर फैल जाना ही बाढ़ है।

बाढ़ के कारण

भारत में बाढ़ आने के निम्नलिखित कारण हैं: –

  • भारी वर्षा – नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में होने वाली भारी वर्षा के कारण अतिरिक्त जल तेज प्रवाह के साथ बहता है जिससे बाढ़ आती है।
  • नदियों में अवसादों का जमा होना – नदियों की धारा क्षेत्र में अवसादों के जमा होने से वे छिछली हो जाती हैं। ऐसी नदियों की जल प्रवाह की क्षमता घट जाती है। भारी वर्षा का पानी किनारों के ऊपर से बहने लगता है।
  • वनों का विनाश – वनस्पति वर्षा जल को बहने से रोककर भूमि में रिसने को बाध्य करती है। वनस्पति के विनाश से भूमि नंगी हो जाती है और वर्षा का पानी बेरोक-टोक तेज गति से नदियों में पहुंच कर बाढ़ का कारण बनता है।
  • चक्रवात – चक्रवातों के कारण उठी ऊंची-ऊंची लहरें समुद्री जल को तटवर्ती । क्षेत्रों में फैला देती है। अक्तूबर 1999 के चक्रवात के कारण आई बाढ़ ने उड़ीसा में भारी तबाही मचाई थी।
  • अपवाह तंत्र से छेड़छाड़ – बिना सोचे-समझे सड़कों, रेलमार्गों, नहरों आदि के निर्माण से प्राकृतिक अपवाह तंत्र अवरुद्ध होकर बाढ़ का कारण बनता है।
  • नदियों का मार्ग परिवर्तन – नदियों के मोड़ और उनके मार्ग परिवर्तन से भी बाढ़ आती है।
  • सुनामी (भूकंपीय ऊंची समुद्री लहर) –  तटवर्ती क्षेत्रों को दूर-दूर तक जल मग्न कर देती है।

बाढ़ से हानि

नदियों में आई बाढ़ की मार मनुष्य और पशुओं दोनों को झेलनी पड़ती है। बाढ़ से लोग बेघर हो जाते हैं। मकान ढह जाते हैं। उद्योग धन्धे चौपट हो जाते हैं। फसलें पानी में डूब जाती हैं। बेजुबान पालतू पशु और वन्य जीव मर जाते हैं। तटवर्ती क्षेत्रों में मछुआरों की नावें, जाल आदि नष्ट हो जाते हैं। मलेरिया, दस्त जैसी बीमारियां फैल जाती हैं। पेय जल प्रदूषित हो जाता है तथा कभी-कभी उसकी भारी कमी हो जाती है। खाद्यान्न नष्ट हो जाते हैं और बाहर से आपूर्ति कठिन हो जाती है।

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 

देश का लगभग 4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र बाढ़ प्रवण है, जो देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग आठवां भाग है। सबसे अधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्र सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र की द्रोणियों में ही है। राज्यों की दृष्टि से बाढ़ प्रवण राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम हैं। इनके बाद हरियाणा, पंजाब और आंध्रप्रदेश का स्थान है। अब तो राजस्थान और गुजरात में भी बाढ़ आती है। कर्नाटक और महाराष्ट्र भी बाढ़ से अछूते नहीं हैं।

Flooding Area in India
Image Source – NCERT

बाढ़ रोकने के उपाय

  • संग्रहण जलाशय – नदियों के मार्गों में संग्रहण जलाशयों के निर्माण से अतिरिक्त पानी को उनमें रोका जा सकता है लेकिन अब तक किए गए उपाय कारगर सिद्ध नहीं हुए हैं। दामोदर नदी की बाढ़ रोकने के लिए बनाए गए बाध उसकी बाढ़ों को नहीं रोक पाए हैं।
  • तटबंध – नदियों के किनारों पर तटबंध बनाकर पाश्र्ववर्ती क्षेत्रों में फैलने वाले बाढ़ के पानी को रोका जा सकता है। दिल्ली में यमुना पर बने तटबंधों का निर्माण बाढ़ रोकने में कारगर सिद्ध हुआ है।
  • वृक्षारोपण – नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में यदि वृक्षारोपण किया जाए तो बाढ़ के प्रकोपों को काफी कम किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक अपवाह तंत्र की पुनस्र्थापना – सड़कों, नहरों, रेलमार्गों आदि के निर्माण से अवरूद्ध प्राकृतिक अपवाह तंत्र को पुनः चालू करने से भी बाढ़े रोकी जा सकती हैं।
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