Revolution of 1857

1857 की क्रांति (Revolution of 1857)

1857 की क्रांति (Revolution of 1857)

1857 का विद्रोह (Revolution of 1857) ब्रिटिश शासन से भारतीय जनता की मुक्ति के संघर्ष के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक है। इसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी और कई बार तो ऐसा लगने लगा कि भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य का अंत हो जाएगा। यद्यपि यह एक महज सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था किंतु शीघ्र ही इसने उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्र की जनता एवं कृषक वर्ग को भी शामिल कर लिया। इस विद्रोह ने इतना व्यापक रूप लिया कि उस समय के कुछ पर्यवेक्षकों ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह की संज्ञा दी।

1857 के विद्रोह कारण

कृषकों का शोषण 

  • कृषकों से प्राप्त लगान में से 10/11 वाँ हिस्सा उन्हें कंपनी को देना पड़ता था ऐसा नहीं कर पाने पर उनकी सम्पत्ति को दूसरों के हाथ बेच दिया जाता था। 
  • अगर कभी कोई प्राकृतिक विपदा जैसे – सूखा व बाढ़ हुई तो उन्हें बाध्य होकर महाजनों से कर्ज लेना पड़ता था जो उनसे अत्यधिक सूद लेते थे। 
  • प्रशासन के निम्नस्तरीय अधिकारी भी कृषकों पर अत्याचार करते थे और छोटा से छोटा बहाना बनाकर इनसे पैसा ऐंठ लेते थे। 
  • जब फसल अच्छी होती थी तो खेतिहरों को पुराना कर्ज चुकाना होता था, और जब खराब होती तो कर्ज का बोझ दुगना हो जाता था। 

मध्य तथा उच्च स्तरीय भारतीयों का अलगाव 

  • अंग्रेजी प्रशासन में भारतीय सिर्फ अधीनस्थ तथा अन्य निम्न स्तर के पद पर ही काम कर सकते थे। यहाँ तक कि प्रखर बद्धि व क्षमता के भारतीयों को भी औसत या उससे भी निम्न बुद्धि वाले उन ब्रिटिश अधिकारियों के अधीन काम करना पड़ता था जो सिर्फ अंग्रेज होने के नाते उच्च पदों के हकदार हो गए थे
  • धर्म के प्रतिनिधि जैसे पंडित और मौलवी भी अपनी पुरानी साख और प्रतिष्ठा खो बैठे।

रियासतों का विलय 

  • 1856 में नवाब वाजिद अली शाह के कुप्रशासन के बहाने अवध का देशी राज्य भी डलहौजी ने अंग्रेजी शासन में मिला लिया। 
  • इसके पहले 1848 में सतारा और 1854 में नागपुर तथा झांसी को इस बहाने मिला लिया था कि उनका कोई वंशानुगत उत्तराधिकारी नहीं था। इस विलय से इन राज्यों के शासक इतने क्षुब्ध हो उठे कि झांसी की रानी और अवध की बेगम अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन बन गए। 
  • स्थिति और बदतर हो गयी जब अंग्रेजों ने नाना साहेब को जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे पेंशन देने से इंकार कर दिया । 

अंग्रेजी शासन का विदेशीपन 

  • ब्रिटिश शासन की अलोकप्रियता का दूसरा कारण था उनका परायापन । 
  • वे भारतीयों से कभी भी मेल-जोल नहीं बढ़ाते थे, यहाँ तक कि उच्च वर्ग के भारतीयों का भी वे तिरस्कार करते थे। 

सिपाहियों पर प्रभाव

  • 1857 की शुरूआत् सिपाही विद्रोह से हुई थी। ये सिपाही मुख्यतः उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के कृषक वर्ग से आये थे। 
  • सेना में भर्ती सिपाहियों को 7 से 8 रुपये का मासिक वेतन प्राप्त होता था जिसमें से उन्हें अपने भोजन, वर्दी तथा व्यक्तिगत सामानों के वहन के लिए भी चुकाना पड़ता था। एक भारतीय सिपाही का निर्वाह व्यय भारत में ब्रिटिश सिपाही पर आने वाले व्यय से एक तिहाई था।
  • भारतीय सिपाहियों के साथ ब्रिटिश अधिकारी अभद्र व्यवहार करते थे। 
  • भारतीय जवान अपनी बहादुरी और महान युद्ध सामर्थ्य के बावजूद सूबेदार के पद से ऊपर नहीं जा पाते थे जबकि इंग्लैंड का एक नव-नियुक्त सैनिक सीधा पदोन्नति पा जाता था।

धर्म को खतरा 

  • सरकार चर्च को अपने खर्च से चलाती थी और कई जगह मिशनरियों को पुलिस सुरक्षा भी प्रदान करती थी। इसके बाद सिपाहियों को अपनी जाति चिह्न (तिलक आदि) लगाने पर पाबंदी लगा दी गयी और 1856 में एक ऐक्ट पास हुआ जिसके तहत नए भर्ती होने वाले जवानों को आवश्यकता पड़ने पर विदेश में भी सेवा करने की शपथ लेनी पड़ती थी। 
  • 1824 में जवानों के 40वें रेजिमेंट ने जो बैरकपुर में था, समुद्री रास्ते से बर्मा जाने से इंकार कर दिया क्योंकि उनका धर्म उन्हें समुद्र को पार करने की अनुमति नहीं देता था उसके जवाब में अंग्रेजों ने काफी बेरहमी दिखाई, रेजिमेंट को विघटित कर दिया तथा कुछ नेताओं को मौत के घाट उतार दिया। 

तात्कालिक कारण 

नए एनफिल्ड राइफल की कारतूसें जिन्हें सेना में तुरंत लाया गया था उनको ढकने के लिए ग्रीज लगा पेपर होता था जिसे रायफल में भरने से पहले दाँत से काटना पड़ता था। कई बार ग्रीज गाय व सूअर की चर्बी से बना होता था। इससे हिन्दू और मुस्लिम सिपाही क्रुद्ध हो उठे और उन्हें विश्वास हो गया कि सरकार जानबूझकर उनके धर्म को नष्ट करना चाहती है। यही इस विद्रोह का तात्कालिक कारण बना।

1857 का विद्रोह

27 मार्च 1857 को बैरकपुर में तैनात एक युवा सैनिक मंगल पांडे ने अकेले ही ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला करके बगावत कर दी। उसे फाँसी पर लटका दिया गया और इस घटना पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। परन्तु इससे सिपाहियों में फैले अंसतोष तथा क्रोध का पता चल गया। इस घटना के एक महीने के अंदर 21 अप्रैल को मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के नब्बे लोगों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया। उनमें से 85 को बरखास्त कर दिया गया । तथा 9 मई को 10 साल के लिए जेल की सजा दे दी गई। इस पर शेष भारतीय सिपाहियों में जोरदार प्रतिक्रिया हुई और अगले दिन 10 मई को मेरठ में तैनात पूरी भारतीय फौज ने विद्रोह कर दिया। अपने साथियों को मुक्त कराकर तथा ब्रिटिश अधिकारियों को मार कर उन्होंने दिल्ली की ओर कूच करने का निर्णय लिया। 

जैसे ही मेरठ के सैनिक दिल्ली पहुंचे वहाँ भी भारतीय सेना ने बगावत कर दी और विद्रोहियों में शामिल हो गए। उन्होंने वृद्ध बहादुर शाह ज़फर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। इस प्रकार 24 घंटे के अंदर एक मामूली विद्रोह से शुरू होकर यह पूरे तौर पर राजनीति बगावत में परिवर्तित हो गया। 

अगले एक महीने में बंगाल की पूरी फौज ने बगावत कर दी। सारा उत्तर तथा उत्तर पश्चिम भारत शस्त्र लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध खड़ा हो गया। अलीगढ़, मैनपुरी, बुलंदशहर, इटावा, मथुरा, आगरा, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, शाहाबाद, दानापुर तथा पूर्वी पंजाब जहाँ भी भारतीय सैनिक थे, उन्होंने विद्रोह कर दिया। सेना के विद्रोह करने से पुलिस तथा स्थानीय प्रशासन भी तितर-बितर हो गया। इसके तुरंत बाद शहर तथा गाँवों में विद्रोह शुरू हो गये। 

जिन क्षेत्रों के लोगों ने बगावत में सक्रिय भाग नहीं लिया उन लोगों ने भी अपनी सहानुभूति विद्रोहियों को दी और उनकी सहायता की। ये कहा जाता था कि विद्रोही सिपाहियों को अपने साथ भोजन नहीं ढोना पड़ता था क्योंकि गाँव वाले उन्हें भोजन खिलाते थे। दूसरी तरफ ब्रिटिश फौजों के प्रति जनता का विद्वेष भी स्पष्ट था । उन्होंने उन्हें किसी भी तरह की सहायता अथवा सूचना देने से इंकार किया और कई अवसर पर उन्होंने ब्रिटिश फौजों को गलत सूचना देकर गुमराह भी किया। 

मध्य भारत में भी जहाँ कि शासक ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार थे, फौजों ने विद्रोह कर दिया। हजारों की संख्या में इंदौर सैन्य दल, इंदौर में विद्रोही सिपाहियों के साथ हो गए। इसी प्रकार से 20,000 से भी ज्यादा ग्वालियर की सैन्य दल तात्या टोपे तथा झाँसी की रानी के साथ चले गए। 

विद्रोह की सबसे ध्यान देने वाली बात हिन्दू-मुस्लिम एकता थी। मेरठ व दिल्ली के हिन्दू सिपाहियों ने एकमत होकर बहादुर शाह को सम्राट घोषित किया। सभी हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों ने सम्राट का आधिपत्य स्वीकार किया और विद्रोह के बाद “दिल्ली चलो” का आह्वान किया। हिन्दू और मुस्लिम ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी और साथ ही मरे। 

1857 की क्रांति का नेतृत्व

बख्त खाँ 

दिल्ली में बहादुर शाह नेता थे। लेकिन वास्तविक अधिकार सिपाहियों के पास था। बख्त खाँ जिसने कि सिपाहियों के विद्रोह का बरेली में नेतृत्व किया था, 3 जुलाई 1857 को दिल्ली पहुँचा। उस तिथि से उसने वास्तविक अधिकार का संचालन प्रारंभ किया। उसने सिपाहियों के न्यायालय की स्थापना की जिसमें दोनों हिन्दू और मुस्लिम विद्रोही शामिल थे। 

नाना साहेब और तात्या टोपे 

कानपुर में नाना साहेब द्वारा विद्रोह का नेतृत्व किया गया जो कि पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। विद्रोही सिपाहियों ने भी नाना साहेब को सहयोग दिया और उनके नेतृत्व में सैनिक और नागरिक दोनों ने मिलकर युद्ध किया। उन्होंने अंग्रेजों को कानपुर से बाहर निकाल दिया और नाना साहेब को पेशवा घोषित किया जिन्होंने कि बहादुर शाह को भारत का सम्राट स्वीकारा। पर ज्यादातर लड़ाईयाँ तात्या टोपे के नेतृत्व में ही लड़ी गई और वह एक महान् देशभक्त और ब्रिटिश विरोधी नेता के रूप में चर्चित रहे।

अवध की बेगम 

लखनऊ में अवध की बेगम ने नेतृत्व प्रदान किया और अपने लड़के बिरजिस कदर को अवध का नवाब घोषित किया। लेकिन यहाँ भी सबसे प्रसिद्ध नेता हुए फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला जिन्होंने विद्रोहियों को संगठित किया तथा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

रानी लक्ष्मीबाई 

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी बहुत लोकप्रिय नेता थी। उनका यह विश्वास था कि हिन्दू कानून का उल्लंघन कर उनके शासन अधिकारों को छीना गया है। हालांकि वे आरंभिक अवस्था में हिचक रही थीं परन्तु एक बार विद्रोह में शामिल होने के बाद उन्होंने बहादुरी से युद्ध किया।

कुंवर सिंह 

सबसे ज्यादा लोकप्रिय और विशिष्ट नेता आरा के कुंवर सिंह थे। उनके नेतृत्व में सैनिक और नागरिक विद्रोह पूरी तरह मिल गये थे और अंग्रेज उनसे सबसे ज्यादा भयभीत रहते थे। युद्ध दल के करीब 5,000 जवानों के साथ जिनमें कि दानापुर के 600 सिपाही और रामगढ़ के विद्रोही भी शामिल थे, कुंवर सिंह ने मिर्जापुर, बांदा और कानपुर के क्षेत्रों में कूच किये। वेरेवा राज्य तक पहुँचे और यह सोचा गया कि जितनी जल्दी रेवा विद्रोहियों के हाथ आ जाएगी, ब्रिटिश बाध्य होकर दक्षिण की ओर जायेंगे। लेकिन, किसी कारणवश कुंवर सिंह दक्षिण दिशा की तरफ नहीं बढ़े।वे बांदा लौट आये और वहाँ से आरा वापस पहुंचे जहां कि उन्होंने ब्रिटिश दल को परास्त किया। वे गंभीर रूप से घायल हो गए और अपने पैतृक घर जगदीशपुर में 27 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गयी।

1857 की क्रांति में पराजय

अंग्रेजों ने 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर कब्जा किया। इससे पहले विद्रोहियों को कानपुर, आगरा, लखनऊ और कुछ अन्य जगहों पर मात खानी पड़ी। पर इन सब पराजयों से विद्रोहियों के जोश में कमी नहीं आई। लेकिन दिल्ली के पतन होते, ही उन्हें गहरा आघात लगा। इससे अब स्पष्ट हो गया कि अंग्रेजों का ध्यान सबसे अधिक दिल्ली पर क्यों केन्द्रित था। और इसके लिए उन्हें काफी जन और माल की हानि उठानी पड़ी। बहादुर शाह को दिल्ली में कैद कर लिया गया और उसके राजकुमारों को पकड़कर कत्ल कर दिया गया। 

एक के बाद एक सभी विद्रोही नेताओं की हार होती गई। नाना साहेब कानपुर में पराजित हुए और उसके बाद 1857 के शुरू में नेपाल भाग गए। उनके बारे में उसके बाद कुछ पता नहीं चला। तात्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में भाग गए। वहीं से गुरिल्ला युद्ध जारी रखा। अप्रैल 1857 में उनके एक जमींदार मित्र ने धोखे से सुप्तावस्था में उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। उन पर शीघ्र मुकदमा चलाकर उन्हें 15 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी गयी। झांसी की रानी 17 जून 1858 को लड़ाई के मैदान में मारी गयीं। 1859 तक कुँवरसिंह, बखत खाँ, बरेली के खान बहादुर खान, मौलवी अहमदुल्ला सभी मर चुके थे जबकि अवध की बेगम नेपाल भाग गयीं थीं। 1859 के अंत तक, अंग्रेजों का भारत के ऊपर फिर से पूरी तरह और दृढ़ता से प्रभुत्व कायम हो गया।

1857 की क्रांति के विफलता के कारण

इस शक्तिशाली विद्रोह के पतन के कई कारण थे। 

एकरूप विचारधारा एवं कार्यक्रम का अभाव 

1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार और शासन प्रणाली को कुछ समय के लिए उखाड़ फेंका, लेकिन विद्रोही यह नहीं जानते थे कि इसकी जगह पर क्या विकल्प होना चाहिए। उनके दिमाग में कोई भी दूरदर्शी योजना नहीं थी इस कारण उन्हें पुरानी सामन्त व्यवस्था की ओर देखना पड़ा। यह व्यवस्था इतनी जर्जरित हो चुकी थी और उसमें इतनी शक्ति भी नहीं रह गई थी जिससे कि अंग्रेजों का सामना कर पाए।

भारतीयों में एकता का अभाव 

  • बंगाल के सिपाहियों ने विद्रोह में भाग लिया था किंतु सिख तथा दक्षिण भारतीय सिपाही अंग्रेजों की ओर से विद्रोहियों का दमन कर रहे थे। 
  • पूर्व एवं दक्षिण भारत के अधिकतर क्षेत्रों में कोई विद्रोह नहीं हुए। 
  • सिखों ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। इन वर्गों के विद्रोह में भाग नहीं लेने के निजी कारण थे। मुगल शासन के पुनरुत्थान की संभावना से सिखों में भय उत्पन्न हो गया था। ये मुगलों के द्वारा बहुत सताए गए थे। 
  • राजस्थान के राजपूत राजाओं और हैदराबाद के निजाम मराठा शक्ति के पुनरुत्थान से आशंकित थे, मराठों ने इनके राज्यों में जाकर लूटपाट मचायी थी। 
  • कृषकों के कुछ वर्गों ने जो ब्रिटिश शासन से लाभान्वित थे अंग्रेजों को विद्रोह के खिलाफ सहयोग दिया। 
  • कलकत्ता, बंबई एवं मद्रास के बड़े व्यापारियों ने भी विद्रोहियों के साथ होने की बजाय अंग्रेजों के सहायक बने ।

शिक्षित भारतीयों के सहयोग का अभाव 

आधुनिक शिक्षित भारतीयों ने भी विद्रोह को सहयोग नहीं दिया क्योंकि उनके विचार से विद्रोह का रूप पिछड़ा हुआ था। यह शिक्षित मध्य वर्ग ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था की उपज थे और उनकी ऐसी धारणा बन गयी थी कि देश को आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर करने में अंग्रेज ही नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं।

नेताओं में फूट 

सबसे मुख्य समस्या विद्रोहियों के वर्ग में एकता के अभाव की थी। उनके नेता एक दूसरे के प्रति संदेहास्पद एवं ईर्ष्यालु थे और अक्सर छोटे झगड़ों में उलझते रहते थे। 

  • अवध की बेगम, मौलवी अहमदुल्ला के साथ और मुगल शासक, सेना प्रमुख के साथ झगड़ते रहते थे। 
  • नाना साहेब के राजनीतिक सलाहकार अजीमुल्लाह ने उन्हें दिल्ली न जाने की सलाह दी क्योंकि वे सम्राट बहादुरशाह के सामने छोटे पड़ जायेंगे इसलिए नेताओं के स्वार्थपन एवं संकीर्ण दृष्टिकोण ने विद्रोह को दुर्बल बना दिया और इसके एकीकरण में रुकावट डाली।

ब्रिटिशों की सैनिक श्रेष्ठता 

  • विद्रोह की विफलता का अन्य मुख्य कारण था अंग्रेजों के पास उत्कृष्ट शस्त्रों का होना। 
  • विद्रोहियों में अनुशासन एवं केंद्रीय नियंत्रण का अभाव था, अंग्रेजी सेना को लगातार अनुशासित जवानों, युद्ध सामग्रियों और पैसों का स्रोत ब्रिटेन से मुहैया होता था। 
  • अनुशासनहीनता के कारण ही मुठभेड़ में विद्रोहियों को अंग्रेजों की अपेक्षा अधिक जान माल की हानि उठानी पड़ी। 

1857 की क्रांति का प्रभाव

1857 विद्रोह की असफलता के बावजूद इसने भारत में ब्रिटिश प्रशासन को गहरा आघात पहुँचाया। विद्रोह के बाद के ब्रिटिश शासन की संरचना और नीतियों में भारी फेर-बदल किया गया।

सत्ता का हस्तांतरण 

  • भारत का शासन 1858 एक्ट के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन के पास चला गया। अब भारत के लिए राजकीय सचिव (सेक्रेटी आफ स्टेट) जिसे एक परिषद् द्वारा सहयोग प्राप्त होगा, भारत में शासन के लिए जिम्मेवार था। पहले यह अधिकार कंपनी के निर्देशकों के पास हुआ करता था।

सैन्य संगठन में परिवर्तन 

  • यूरोपीय जवानों की संख्या बढ़ा दी गयी और बंगाल की सेना में दो भारतीय सिपाहियों पर एक यूरोपीय, बंबई एवं मद्रास की सेनाओं में पांच भारतीय सिपाहियों पर दो यूरोपीय को नियुक्त किया गया 
  • सेना की प्रमुख शाखाओं जैसे तोपखानों को सिर्फ यूरोपियों के हाथों सौंप दिया गया। 
  • जवानों में राष्ट्रीय भावना न जागे इसलिए जाति, समुदाय और क्षेत्र के आधार पर रेजिमेंटों की स्थापित हुई।

 

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