आंग्ल-मराठा संधियाँ (Anglo-Maratha Treaties)
सूरत की संधि (Treaty of Surat) 1775
सलसेती और बसीन के द्वीपों पर अधिकार करने के लिए बहुत लंबे समय से बंबई प्रेसीडेंसी पर निदेशक मंडल दबाव बना रहे थे इसी बीच पेशवा माधव राव की 1772 ई० में मृत्यु हो गई और रघुनाथ राव और नारायण राव के बीच गद्दी की लड़ाई होने लगी, जो कि अंग्रेजों के लिए वरदान साबित हुई।
1773 ई० में रघुनाथ राव द्वारा नारायण राव की हत्या करने के बाद मराठा सरदार नाना फड़नवीस उसके विरुद्ध हो गए जिससे रघुनाथ राव सूरत भाग गया जहां उसने कंपनी से मदद के लिए मांग की। बंबई सरकार ने, एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसकी शर्ते इस प्रकार थीं –
- कंपनी एवं पूर्व पेशवा के बीच हुई संधियों को प्रमाणित किया गया।
- अंग्रेजों द्वारा रघोबा को पेशवा की उम्मीदवारी में मदद करने के लिए 2500 सैनिकों का दल भेजा गया।
- रघोबा द्वारा अंग्रेजों के संरक्षण में 6 लाख रुपए के गहने बंधक दिए गए और सैनिकों के रख-रखाव के लिए प्रतिवर्ष 50,000 रुपए देने का वादा किया गया।
- नसीन सलसेती और बंबई के पास चार द्वीपों को वह अंग्रेजों को हमेशा के लिए सौंपने को तैयार हो गया।
- बंगाल एवं कर्नाटक पर मराठों द्वारा आक्रमण नहीं किया जाएगा और बिना अंग्रेजों के रघोबा पूना के अधिकारियों के साथ कोई समझौता नहीं करेगा।
इस युद्ध के बाद कंम्पनी पूरी तरह से आंग्ल-मराठा युद्ध से जुड़ गई।
परंधर की संधि (Treaty of Pardhar) 1776
बंबई प्रेसीडेंसी द्वारा 1773 ई० में रघुनाथ राव की पेशवा की उम्मीदवारी के दावे के लिए दी गई मदद को कलकत्ता काउंसिल द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया एवं उन्हें पूना के पेशवा दरबारियों से पुनः बातचीत करने को कहा गया। उनके बीच 1 मार्च 1776 ई० में संधि हुई जिसकी शर्तों के अनुसार –
- कंपनी सलसेती एवं उसके आस-पास के द्वीपों पर अधिकार कायम रखेगी।
- पूना द्वारा 12 लाख रुपए युद्ध के हर्जाने के रूप में देने का वादा किया।
- कंपनी का गुजरात के उन क्षेत्रों पर अधिकार कायम रहेगा, जो उन्हें रघुनाथ राव या गायकवाड़ द्वारा दिए गए थे।
- रघोबा एवं गायकवाड़ के साथ हुई संधियां खत्म कर दी गईं एवं पेशवा के दरबारियों के साथ 1739 एवं 1756 ई० में पुनः संधि की गई।
वडगांव की संधि (Treaty of Wadgaon) 1779
12 जनवरी 1779 को कंपनी क सिपाहियों का वडगांव में इकठ्ठा होना एवं उनके उपदूत के परिणामस्वरूप, यह संधि 16 जनवरी 1779 को मराठा के सरदार महादजी सिंधिया एवं बंबई सेना के संचालक कर्नल जॉन काबक के बीच हुई। इसमें –
- बबई सरकार रघुनाथ राव को संरक्षण नहीं देगी, 1773 ई० से पहले जिन क्षेत्रों को अधिकृत किया गया था, इस संधि के द्वारा वापस कर दिए जाएंगे।
- बंगाल से आ रही सेना रोक दी जाएगी और 41000 रुपए एवं विलियम फार्मर और चार्ल्स स्टेवार्ट को इस शर्त के पता पूरा होने तक जमानत पर रखे जाएंगे।
बाद में बंबई एवं बंगाल दोनों सरकारों ने इस संधि को अस्वीकृत कर दिया क्योंकि उनके द्वारा कहा गया कि कर्नल कानेक अपने अधिकृत क्षेत्र से बाहर जाकर यह संधि की थी।
सलबाई की संधि (Treaty of Salbai) 1782
सलबाई ग्वालियर से 32 कि.मी. दक्षिण में स्थित है। यहां 17 मई 1782 ई० को पेशवा माधव राव के कार्यवाहक महादजी सिंधिया एवं अंग्रेजों के बीच प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध को समाप्त करते हुए एक संधि हुई जिसकी शर्तों के अनुसार –
- कंपनी द्वारा अधिकृत किए गए पेशवा एवं गुजरात में गायकवाड़ के सभी क्षेत्र वापस कर दिए गए।
- सलसेटी और इसके तीन पड़ोसी द्वीप तथा बरोच शहर अंग्रेजों के अधिकार में रखे गए।
- कंपनी द्वारा रघुनाथ राव को दिए गए संपूर्ण क्षेत्र मराठों को वापस कर दिए गए।
- कंपनी द्वारा रघुनाथ राव की मदद एवं संरक्षण नहीं देने का वादा किया गया।
- पेशवा को हैदर अली द्वारा ब्रिटिश क्षेत्र पर किए गए दावे से मुक्त कराना।
- दोनों पक्षों द्वारा एक-दूसरे पर और सहयोगियों पर आक्रमण नहीं करना जबकि अंग्रेजों की अनुमति के बिना पेशवा द्वारा किसी यूरोपीय शक्ति को अपने अधिकृत क्षेत्र में स्थापित न करना, उनकी सहायता नहीं करना।
- कंपनी को प्राप्त व्यापारिक सुविधाएं जारी रखना।
यह संधि कंपनी के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुई क्योंकि इससे कंपनी एक निर्णायक भविष्य के तरफ बढ़ी। इस संधि से कंपनी की मराठों के साथ 20 वर्षों तक शांति व्यवस्था बनी रही और इस तरह बिना किसी कठिनाई से व्यवस्थित होने एवं भारतीय राजनीति में पकड़ बनाने में सहायता मिली।
बसीन की संधि (Treaty of Basin) 1802
13 दिसंबर 1802 ई० को अंग्रेजों एवं पेशवा के बीच एक सहायक संधि हुई जिसमें पेशवा ने लगभग अपना एवं अपने लोगों की स्वतंत्रता के साथ ही समझौता कर लिया। इस संधि के अनुसार पेशवा निम्न शर्तों को मानने के लिए तैयार हो गया –
- एक सहायक सेना जिसमें 6000 पैदल सैनिक और उसी अनुपात में तोपखाने; जिसके रखरखाव का प्रतिवर्ष 25 लाख रुपए खर्च था।
- अंग्रेजों के किसी भी विदेशी विरोधी नागरिक को अपनी सेवा में नहीं रखने के लिए तैयार होना।
- निज़ाम एवं गायकवाड़ के साथ अपने मतभेदों को दूर करने के लिए अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करना और अन्य किसी भी राज्य से अपने मतभेदों को दूर कराने की कोशिश नहीं करना।
- किसी भी राज्य के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने के पूर्व कंपनी का आदेश लेना।
- सूरत शहर से अपने सभी अधिकार एवं दावे, वापस लेना।
16 दिसंबर 1803 को एक परिशिष्ट संधि (supplementary treaty) पर हस्ताक्षर हुआ जिसमें एक घुड़सवार सेना का दस्ता अंग्रेजी सेना में सम्मिलित किया गया। बसीन की संधि से अंग्रेजों को पेशवा के आंतरिक कार्यों में दखलंदाजी करने का अधिकार प्राप्त हो गया। कुछ मराठा सरदारों द्वारा इसका विरोध करने के कारण द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध में इन मराठों का विघटन हुआ। आधुनिक इतिहासकार इस संधि को अंग्रेजों का भारत में प्रभुत्व स्थापित करने की एक प्रबल घटना मानते हैं।
देवगांव की संधि (Treaty of Devgaon) 1803
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान 17 दिसंबर 1803 को रघुजी भोंसले एवं कंपनी के बीच यह संधि हुई। इस संधि के अनुसार भोंसले निम्न शर्तों को मानने के लिए तैयार हुआ –
- कटक एवं वालासोर छोड़ देना एवं मद्रास और बंगाल प्रेसीडेंसियों को मिलाने के लिए पूर्वी समुद्री किनारे को कंपनी के अधिकार में दे देना।
- अपनी सेवा से सभी विदेशियों को निकाल देना।
- निज़ाम एवं पेशवा के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने के लिए अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करना।
- मराठा सरदारों से स्वयं एवं अपने उत्तराधिकारियों को दूर रखना।
- अपने दरबार में एक अंग्रेज दरबारी रखना (माउंटस्ट्राट एलफिन स्टोन इस पद पर नियुक्त हुआ)
सूरजी अर्जनगांव की संधि (Treaty of Suraji Arjangaon) 1803
30 दिसंबर 1803 को इस संधि के अंतर्गत निम्न शर्ते मानने को राजी हुए –
- गंगा एवं यमुना के बीच के क्षेत्र को छोड़ देना।
- दिल्ली, आगरा एवं अन्य राजपूत राज्यों पर से अपना नियंत्रण हटा लेना।
- अपने दरबार में एक अधिकृत मंत्री रखना (जॉन माल्कोहम प्रथम अंग्रेज दूत के रूप में इस पद पर नियुक्त हुआ)।
- बुंदेलखंड, अहमदनगर, बरूच के भाग एवं अंजता पहाड़ी के पश्चिम क्षेत्रों का आत्मसमर्पण करना।
- बसीन की संधि मानना।
- पेशवा, मुगलबादशाह, निज़ाम एवं गायकवाड़ के ऊपर सभी दावों का त्याग करना एवं कंपनी को संप्रभुत्व शक्ति के रूप में स्वीकृत करना।
- अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रखना।
- बदले में कंपनी ने निम्न शर्ते पूरी करने का वादा किया।
- सिंधिया को पैदल सेना की छह बटालियन देना जिसका खर्च उसके द्वारा दिए गए क्षेत्रों से प्राप्त भूमिकर से दिया जाएगा।
- असीरगढ़, बुरहानपुर, पोवनधुर, दोहद, खांडेस और गुजरात के क्षेत्रों को भोंसले को सौंपना।
27 फरवरी, 1804 ई० बुरहानपुर की एक अन्य संधि द्वारा अंग्रेजों ने उन्हें एक सहायक सेना की सहायता दी।
राजपुरघाट की संधि (Treaty of Rajpurghat) 1805
यह संधि 24 दिसंबर 1805 ई० को हुई जिसमें यशवंत राव होल्कर निम्न शर्ते मानने के लिए तैयार हुए –
- बूंदी हिल के उत्तरी क्षेत्रों पर अपना दावा समाप्त करना।
- अपनी सेवा में किसी यूरोपीय को नहीं लगाना।
- मालवा एवं मेवाड़ में होल्करों का अधिकार था चंबल के दक्षिणी शासकों को नहीं छेड़ना।
- कंपनी द्वारा ताप्ती नदी के दक्षिण अधिकृत क्षेत्र को वापस करना।
2 फरवरी, 1806 ई., को अंग्रेजों ने बूंदी हिल के उत्तरी क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया तथा इस संधि के दारा द्वितीय मराठा-आंग्ल युद्ध का अंत हो गया।
पूना की संधि (Treaty of Poona) 1817
अंग्रेजों को यह भय था कि अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय उनसे विरोध की भावना रखते हए अपनी सेना को मजबूत कर रहा है। अतः 13 जून, 1817 ई० को बसीन संधि को पूरा करने के लिए एक नई संधि अंग्रेजों एवं पेशवा के बीच हुई। इस संधि में पेशवा निम्न शर्तों को मानने के लिए तैयार हुआ।
- अंग्रेजों को कुछ और भूमि हमेशा के लिए देना।
- बसीन की संधि मानना जो नई संधि के विरुद्ध नहीं थी।
ग्वालियर की संधि (Treaty of Gwalior) 1817
पिंडरियों के विरुद्ध अपनी तैयारी के दौरान लॉर्ड हेस्टिंग्स एवं दौलतराम सिंधिया के बीच 5 नवंबर 1817 को एक संधि हुई जिसमें –
- दोनों पक्ष पिंडरियों एवं अन्य लुटेरों के विरोध में अपनी सेना तैनात करेंगे।
- सिंधिया पिंडरियों की पुन: नियुक्ति नहीं करेगा और न मदद करेगा।
- सिंधिया पिंडरियों के विरुद्ध 5000 घुड़सवार तैयार करेगा।
- सिंधिया अंग्रेजों की सहमति के बिना अपनी सेना की स्थिति परिवर्तन एवं उनकी बढ़ोतरी नहीं करेगा।
- हांडी एवं असीरगढ़ के किलों में ब्रिटिश सेना को जाने की अनुमति।
- अरजानगांव और सुरजी की संधियों के होने के बावजूद अंग्रेजों को उदयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी और चंबल के किनारे के अन्य राज्यों के साथ संबंध बनाने में छूट होगी।
- 22 नवंबर 1805 ई० में हुई सुरजी, अरजानगांव एवं मुस्तफापुर की संधियां जो कि नई संधि से प्रभावित नहीं थीं, पूरी तरह से लागू रहेंगी।
इस संधि ने सिंधिया को तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध में मूक दर्शक बना दिया था।
मंदसौर की संधि (Treaty of Mandsaur) 1818
यह संधि 6 जनवरी, 1818 को तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान मल्हार राव होल्कर द्वितीय द्वारा की गई जिसमें होल्कर द्वारा निम्न शर्ते मानी गईं –
- पिंडारी प्रमुख नवाब मीर अली खान को ब्रिटिशों द्वारा आश्वासन तथा उसको दिए गए क्षेत्र पर कोई भी दावा नहीं करना।
- कोटा के राजा जालिम सिंह द्वारा लिए गए चार परगना क्षेत्र हमेशा के लिए वापस करना।
- उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी एवं करौली के राजाओं पर लागू कर एवं उपहार के दावे को अंग्रेजों को देना।
- बंदी पहाड़ियों के उत्तरी क्षेत्रों पर से अपना दावा छोड़ना।
- सतपुड़ा पहाडियों के दक्षिणी क्षेत्रों को अंग्रेजों को देना।
- एक ब्रिटिश रक्षक सेना क्षेत्र को उसकी आंतरिक सुरक्षा का वादा करना।
- कंपनी की अनुमति के बिना किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रखना।
- अधिकृत ब्रिटिश मंत्री को दरबार में रखना।
इसके बदले में अंग्रेजों ने पेशवा और उसके उत्तराधिकारियों को मल्हार राव एवं उसके उत्तराधिकारियों पर किसी भी प्रकार का दावा और संप्रभुत्व अधिकारों का उपयोग करने की अनुमति नहीं देने का वादा किया।
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