उत्तर प्रदेश का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
(Contribution to Uttar Pradesh’s Indian Independence)
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) प्राचीन काल से ही भारतीय राजनीति एवं शासन सत्ता का केन्द्र बिन्दु रहा है। भारतीय इतिहास में उत्तर प्रदेश का महत्त्वपूर्ण योगदान है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के बिना भारतीय इतिहास की कल्पना अधूरी है। इलाहाबाद, आगरा, फतेहपुर सीकरी, कन्नौज आदि विभिन्न कालों में विभिन्न राजाओं की राजधानी रही है। इन प्रदेश के निवासियों ने सदैव ही कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इसी प्रकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Freedom Struggle) के विभिन्न आन्दोलनों में उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का योगदान अवस्मिरणीय है।
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका रही हैं। सन् 1857 में हुए प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन की शुरूआत उत्तर प्रदेश से ही हुई जिससे भारतीय इतिहास काफी प्रभावित हुआ तथा भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त हुआ।
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में सन् 1857 ई० के विद्रोह की शुरुआत मेरठ से हुई। इस आन्दोलन के माध्यम से आजादी की क्रान्ति का जो बिगुल बजा उसमें योगदान हेतु उत्तर प्रदेश की समस्त जनता उत्साहित थी। उत्तर प्रदेश की जनता अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की आर्थिक शोषण नीति से पहले से ही दुःखी थी, बाद में अंग्रेजों द्वारा देश की राजनीति में हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया गया। सन् 1840 एवं 1853 के मध्य झाँसी, जालौन एवं हमीरपुर के राजा की बिना उत्तराधिकारी घोषित किए मृत्यु हो गई, तब डलहौजी की विलय-नीति के अनुसार उनके राज्य भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी में सम्मिलित कर लिए गए जिससे स्थानीय जनता में काफी रोष व्याप्त था।
जब 1856 में अवध को ब्रिटिश शासन में मिला लिया गया तब उत्तर प्रदेश में उमड़े जनाक्रोश ने विस्फोटक रूप ले लिया, जिसकी परिणति सर्वप्रथम 10 मई, 1857 को मेरठ में हुए विद्रोह से हुई। जब अंग्रेजी सेना में सर्वप्रथम सैनिक महाविद्रोह आरंभ हो गया बाद में यह सैनिक विद्रोह शनैः-शनैः प्रदेश के झांसी, कालपी, कानपुर, लखनऊ, बिठूर, अवध, वाराणसी, बलिया एवं आजमगढ़ आदि स्थानों में फैल गया।
23 मई – को इटावा व मैनपुरी,
25 मई – को रुड़की (वर्तमान उत्तराखण्ड में) में,
27 मई – को एटा में,
30 मई को – मथुरा एवं लखनऊ,
31 मई को – बरेली एवं शाहजहाँपुर में,
1 जून को – मुरादाबाद व बदायूँ,
3 जून को – आजमगढ़ एवं सीतापुर,
4 जून को – जालौन, मौहमदी, वाराणसी एवं कानपुर,
6 जून को – झाँसी व इलाहाबाद,
7 जून को – फैजाबाद,
9 जून को – दरियाबाद एवं फतेहपुर,
18 जून को – फतेहगढ़,
1 जुलाई को – हाथरस आदि स्थानों पर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गये।
अंग्रेजी सेना द्वारा भी विद्रोह के दमन का यथासम्भव प्रयास किया गया जिसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में अनेक वीर स्वतन्त्रता सेनानियों का उदय हुआ जिनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, बिठुर के नाना साहब एवं तात्यां टोपे एव उनके सहायक अजीमुल्ला खाँ व अवध की बेगमें, राणा बेनीमाधव एवं मौलवी अहमदुल्ला शाह आदि मुख्य थे।
यद्यपि सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत मेरठ से हुई थी, लेकिन इस विद्रोह का सर्वाधिक बड़ा केन्द्र कानपुर बना, जहाँ नाना साहब के दत्तक पुत्र को अंग्रेजों ने मान्यता देने से इनकार कर दिया था। तब धोन्धू पन्त के नेतृत्व में नाना साहब एवं उनके दत्तक पुत्र बाजीराव द्वितीय, तात्यां टोपे आदि ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए कानपुर में अंग्रेज अफसर को मार दिया 4 मई – 25 मई, 1857 तक चले इस संघर्ष में नाना साहब की सेना की विजय हुई तथा 30 जून 1857 को उन्हें बिठूर का पेशवा बना दिया गया।
कानपुर के बाद यह संघर्ष प्रदेश के दक्षिण में स्थित झाँसी में पहुँच गया जहाँ पर रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोह का नेतृत्व किया। 5-8 जून के मध्य यह संग्राम पूरे झाँसी में फैल गया। अंग्रेजी अफसरों पर हिंसक हमले किए गए।
झांसी से यह संग्राम बरेली पहुंचा जहाँ रोहिला शासक खान बहादुर खान के नेतृत्व में शुरू हुआ जिन्होंने अंग्रेजी सेना को हरा कर स्वयं को वहाँ का शासक घोषित किया। लगभग एक वर्ष रोहिलखण्ड अंग्रेजी शासन से मुक्त रहा। 18 जून, 1857 को फतेहगढ़ छावनी में हुए विद्रोह के उपरान्त नवाब तफज्जुल हुसैन खान ने स्वयं को फर्रुखाबाद का शासक घोषित किया।
मई माह में अवध अपेक्षाकृत शान्त रहा, लेकिन माह के अन्तिम दिन यहाँ भी विद्रोह की शुरूआत हो गयी जिसके फलस्वरूप अवध में उपस्थित अंग्रेज अफसरों को भागना पड़ा। इस विद्रोह का प्रारम्भ तब हुआ जब अवध के नवाब वाजिद अली शाह की मृत्यु के बाद उसकी विधवा रानी बेगम हजरत महल ने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादिर को अवध का शासक घोषित कर दिया। अनेक जमींदारों तथा ताल्लुकदारों ने इस समारोह में भाग लिया, परन्तु अंग्रेजों ने डलहौजी के द्वारा प्रतिपादित विलयीकरण की नीति के अन्तर्गत अवध को अपने अधीन कर लिया तथा उसे अपनी रेजीडेन्सी घोषित कर वहाँ पर अंग्रेज रेजीडेन्ट अफसर की नियुक्ति कर दी। ऐसी स्थिति में अवध की रानी तथा जनता में रोष फैलना स्वाभाविक था। फलस्वरूप 30 जून, 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध यहाँ पर भी विद्रोह प्रारम्भ हो गया। अवध शहर से 15 किलोमीटर दूर स्थित चिनाहट में अंग्रेजी रेजीडेन्ट हेनरी लॉरेन्स ने इस विद्रोहियों को हराने का प्रयास किया, लेकिन अवध की बेगम हजरत महल एवं फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला के नेतृत्व में स्वतन्त्रता संग्रामियों ने अंग्रेजी सेना को हरा कर दिया। रेजीडेन्ट हेनरी लॉरेन्स को वापस लौटना पड़ा। इस स्थिति को देखकर इलाहाबाद से जनरल हैव लॉक को हेनरी लॉरेन्स की मदद के लिए भेजा गया, लेकिन अपने प्रथम प्रयास में वह भी असफल रहा। जुलाई एवं अगस्त में अवध अंग्रेजों के नियन्त्रण से बाहर रहा, लेकिन 25 सितम्बर, 1857 को जनरल हैव लॉक एवं आउट्रॉम ने पुनः अवध पर आक्रमण कर दिया। अन्ततः 6 दिसम्बर, 1857 को सर कोलिन कैम्पवेल के निर्देशन में अवध पर पुनः अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जब नाना साहब के चचेरे भाई राव साहब एवं तात्या टोपे को अंग्रेजों ने हरा दिया। इसी माह में फतेहगढ़ पर भी अंग्रेजों ने पुनः अधिकार कर लिया। वर्ष 1858 के आरम्भ में ही अंग्रेजों ने नेपाल से गोरखाओं को युद्ध हेतु भारत भेजना आरम्भ कर दिया तथा लखनऊ पर आक्रमण कर गोरखा सेना की मदद से 21 मार्च, 1887 को उस पर पूर्णरूपेण अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। विद्रोहियों की सेना को अवध की ओर खदेड़ दिया गया।
जब अंग्रेजों ने अवध, लखनऊ, फतेहगढ़ एवं कानपुर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया तब उन्होंने प्रदेश के दक्षिणी भाग में स्थित झाँसी की तरफ ध्यान दिया, क्योंकि सन् 1857 के विद्रोह में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजी सेना का जमकर सामना किया था तथा अपनी वीरता एवं कुशल नेतृत्व के बल पर अंग्रेजों को उस क्षेत्र से बाहर खदेड़ दिया था। 1 अप्रैल, 1858 को सर ह्यूज रोज के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने तात्याँ टोपे को हरा दिया। 7 मई, 1858 को बरेली एवं रोहिलखण्ड पर भी अंग्रेजों ने पुनः अधिकार कर लिया हालांकि उन्हें इन स्थानों को हस्तगत करने में मोहमदी के मौलवी अहमद उल्ला के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा था।
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