उत्तर प्रदेश का विस्तृत इतिहास
(Detailed History of Uttar Pradesh)
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का ज्ञात इतिहास (History) लगभग 4000 वर्ष पुराना है, जब आर्यों ने अपना पहला कदम इस जगह पर रखा। इस समय वैदिक सभ्यता की शुरूआत हुईं और उत्तर प्रदेश में इसका जन्म हुआ। आर्यों का फैलाव सिन्धु नदी और सतलज के मैदानी भागों से यमुना और गंगा के मैदानी क्षेत्र की ओर हुआ। आर्यों ने दोब (दो-आब, यमुना तथा गंगा का मैदानी भाग) और घाघरा नदी क्षेत्र को अपना घर बनाया। इन्हीं आर्यों के नाम पर भारत देश का नाम आर्यावर्त या भारतवर्ष (भारत आर्यों के एक प्रमुख राजा थे) पड़ा। समय के साथ आर्य भारत के दूरस्थ भागों में फैल गये। संसार के प्राचीनतम शहरों में एक माना जाने वाला वाराणसी शहर यहीं पर स्थित है। वाराणसी के पास स्थित सारनाथ का चौखन्डी स्तूप भगवान बुद्ध के प्रथम प्रवचन की याद दिलाता है। समय के साथ यह क्षेत्र छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया या फिर बड़े साम्राज्यों, गुप्त, मौर्य तथा कुषाण का भाग बन गया। 7वीं शताब्दी में कन्नौज गुप्त साम्राज्य का मुख्य केन्द्र था।
प्राचीन काल में यह राज्य मध्य देश के नाम से विख्यात था। उत्तर पश्चिम से आने वाले आक्रामकों के मार्ग में पड़ने तथा दिल्ली और पटना के बीच की उपजाऊ भूमि होने के कारण इसके इतिहास का उत्तर भारत के इतिहास से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
यह क्षेत्र पूर्व में प्रयाग तक फैला हुआ था। लगभग यही वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा है। हिन्दू कथा तथा किंवदन्ती साहित्य में जितने महान व्यक्ति और देवता वर्णित हैं, उन सभी की कर्मस्थली यहीं थी। रामायण तथा महाभारत भी यहीं के लोगों की कथा है। यहीं के आर्य सुसंस्कृत, व्यवहार कुशल और आदर्श माने गए।
उत्तर प्रदेश में स्थित आठ महाजनपद
महाजनपद | राजधानी | विस्तार |
कुरु | इन्द्रप्रस्थ | मेरठ, दिल्ली, थानेश्वर |
पांचाल | अहिच्छत्र | बरेली, बदायूँ, फर्रुखाबाद |
शूरसेन | मथुरा | मथुरा एवं इसके आसपास का क्षेत्र |
वत्स | कौशाम्बी | इलाहाबाद के आसपास |
कौशल | साकेत | अयोध्या, श्रावस्ती, गोण्डा |
मल्ल | कुशीनगर | कुशीनगर और पावा |
काशी | वाराणसी | वाराणसी एवं आसपास |
चेदि | शुक्तिमती | बाँदा के आसपास |
वैदिक काल में इसे ‘ब्रह्मर्षि देश’ के नाम से जाना जाता है। वैदिक काल में उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) कई महान् ऋषि-मुनियों जैसे भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि आदि की कर्मभूमि रही है। छठीं शताब्दी में उत्तरी भारत 16 महाजनपदों में विभाजित था, जिनमें से 8 वर्तमान उत्तर प्रदेश में स्थित थे।
हिन्दू-बौद्ध काल (Hindu-Buddhist Era)
सातवीं शताब्दी ई० पू० के अन्त से भारत तथा उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का व्यवस्थित इतिहास आरम्भ होता है, जब उत्तरी भारत में 16 महाजनपद श्रेष्ठता की दौड़ में शामिल थे। बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी (बनारस) के निकट सारनाथ में दिया तथा एक ऐसे धर्म की नींव रखीं, जो न केवल भारत में, बल्कि चीन व जापान जैसे सुदूर देशों तक भी फैला। कहा जाता है कि बुद्ध को कुशीनगर में परिनिर्वाण (शरीर से मुक्त होने पर आत्मा की मुक्ति) प्राप्त हुआ था, जो पूर्वी जिले कुशीनगर में स्थित है। पाँचवीं शताब्दी ई० पू० से छठी शताब्दी ई० तक उत्तर प्रदेश अपनी वर्तमान सीमा से बाहर केन्द्रित शक्तियों के नियंत्रण में रहा, पहले मगध, जो वर्तमान बिहार राज्य में स्थित है और बाद में उज्जैन, जो वर्तमान मध्य प्रदेश राज्य में स्थित है। इस राज्य पर शासन कर चुके इस काल के महान शासकों में चन्द्रगुप्त प्रथम (शासनकाल लगभग 330-380 ई०) और अशोक (शासनकाल लगभग 268 या 265-238), जो मौर्य सम्राट थे और समुद्रगुप्त (लगभग 330-380 ई०) और चन्द्रगुप्त द्वितीय हैं (लगभग 380-415 ई०, जिन्हें कुछ विद्वान विक्रमादित्य मानते हैं)। एक अन्य प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन (शासनकाल 606-647) थे जिन्होंने कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज के निकट) स्थित अपनी राजधानी से समूचे उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh), बिहार (Bihar), मध्य प्रदेश (Madhay Pradesh), पंजाब (Panjab) तथा राजस्थान (Rajsthan) के कुछ हिस्सों पर शासन किया।
इस काल के दौरान बौद्ध और हिन्दू (ब्राह्मण) संस्कृति, दोनों का उत्कर्ष हुआ। अशोक के शासनकाल के दौरान बौद्ध कला के स्थापत्य व वास्तुशिल्प प्रतीक अपने चरम पर पहुँचे। गुप्त काल (लगभग 320-550) के दौरान हिन्दू कला का भी अधिकतम विकास हुआ। लगभग 647 ई० में हर्ष की मृत्यु के पश्चात् हिन्दूवाद के पुनरुत्थान के साथ ही बौद्ध धर्म का धीरे-धीरे पतन हो गया। इस पुनरुत्थान के प्रमुख रचयिता दक्षिण भारत में जन्मे शंकर थे, जो वाराणसी पहुँचे। उन्होंने उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के मैदानों की यात्रा की, तथा हिमालय में बद्रीनाथ में प्रसिद्ध मन्दिर की स्थापना की। इसे हिन्दू मतावलम्बी चौथा एवं अन्तिम मठ (हिन्दू संस्कृति का केन्द्र) मानते हैं।
आठवीं सदी में (हर्ष की मृत्यु के पश्चात्) यशोवर्मन ने कन्नौज में अपना आधिपत्य जमा लिया। यशोवर्मन ने कश्मीर के राजा मुक्तापीड़ ललितादित्य के सहयोग से भारत की तिब्बतियों और अरबों के आक्रमण से रक्षा की। तत्कालीन समय में अरबों ने अपनी शक्ति के बल पर पड़ोसी राज्यों में आतंक सा कायम कर रखा था तथा चीनी ने तुर्किस्तान से लेकर स्पेन के कार्डोबा नगर तक अपना राज्य स्थापित कर लिया था, वे कन्नौज के प्रतिरोध के कारण भारत पर अपने पैर नहीं जमा सके। लेकिन, तत्पश्चात् मुक्तापीड़ एवं यशोवर्मन एक साथ न रह सके। यशोवर्मन के उत्तराधिकारी बंगाल के पाल नरेशों एवं महाराष्ट्र सम्राटों के संयुक्त आक्रमणों का सामना न कर सके। फलस्वरूप कन्नौज का पतन-सा हो गया। बाद में आयुधवंशीय काल में कन्नौज पर आधिपत्य के लिये बंगाल के पाल, दक्षिण के राष्ट्रकूट तथा पश्चिमी भारत के गुर्जर प्रतिहारों में बहुत काल तक स्पर्धा चली, किन्तु अन्त में गुर्जर प्रतिहार सफल हुए। यह वंश नवीं एवं दसवीं शताब्दी में उत्तर भारत पर छाये रहे। इनको सन् 1018-19 में महमूद गजनवी ने परास्त किया। जेजाकभक्ति या वर्तमान बुन्देलखण्ड में चन्देल राजाओं ने महमूद गजनवी के आक्रमणों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया। उनका कालिंजर गढ़ अजेय बना रहा।
गुर्जर प्रतिहार नरेश बड़े वीर योद्धा थे। वे कला, संस्कृति तथा साहित्य के भी प्रशंसक एवं संरक्षक थे। इस वंश में मिहिरभोज, महिपाल तथा महेन्द्रपाल काफी प्रसिद्ध शासक हुए। इनका राज्य पश्चिम में मुल्तान तथा सौराष्ट्र तक पूर्व में बिहार तक तथा दक्षिण में विंध्याचल पर्वत तक फैला हुआ था।
प्रतिहारों की पराजय के पश्चात् मध्य देश में पुनः अराजकता फैल गई। तब दक्षिणी एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में दो नये राजवंशों का उदय हुआ। इनमें से एक महोबा का चन्देल वंश था, जिन्होंने 400 वर्ष तक शासन किया। खजुराहो के अति सुन्दर मन्दिरों का निर्माण इन्हीं चन्देल राजाओं के शासन काल में किया गया। दूसरा वंश गहरबाडों का था। इस राजवंश के प्रादुर्भाव से इस क्षेत्र में पुनः शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित हुई। गहरवार वंश के दो प्रमुख राजा थे-गोविन्द चन्द्र (सन् 1108-1154) तथा जयचन्द (1170 से 1193 तक) 1192 में तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी द्वारा पराजय जयचन्द की अदूरदर्शिता के कारण हुई। स्वयं जयचन्द भी इन यवनों के आक्रमणों से छन्दवार (इटावा) में पराजित हुआ तथा मारा गया। धीरे-धीरे मध्य देश तुर्की के हाथ में आता गया। सन् 1194 ई० में कन्नौज के पतन के बाद अवध के कुछ लोगों ने अपने-अपने राज्य कायम कर लिए लेकिन वे 50 वर्षों से अधिक न टिक सके।
मुस्लिम काल (Muslim Period)
इस क्षेत्र में हालांकि 1000-1030 ई० तक मुसलमानों का आगमन हो चुका था, किन्तु उत्तरी भारत में 12वीं शताब्दी के अन्तिम दशक के पश्चात् ही मुस्लिम शासन स्थापित हुआ, जब मुहम्मद गौरी ने गहड़वालों (जिनका उत्तर प्रदेश पर शासन था) और अन्य प्रतिस्पर्धा वंशों को पराजित किया था। लगभग 650 वर्षों तक अधिकांश भारत की तरह उत्तर प्रदेश पर भी किसी न किसी मुस्लिम वंश का शासन रहा, जिनका केन्द्र दिल्ली या उसके आसपास था। 1526 ई० में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को पराजित किया और सर्वाधिक सफल मुस्लिम वंश, मुगल वंश की नींव रखी। इस साम्राज्य ने 350 वर्षों से भी अधिक समय तक उपमहाद्वीप पर शासन किया। इस साम्राज्य का महानतम काल अकबर (शासनकाल 1556-1605 ई0) से लेकर औरंगजेब आलमगीर (1707) का काल था, जिन्होंने आगरा के समीप नई शाही राजधानी फतेहपुर सीकरी का निर्माण किया। उनके पोते शाहजहाँ (शासनकाल 1628-1658 ई०) ने आगरा में ताजमहल (अपनी बेगम की याद में बनवाया गया मकबरा, जो प्रसव के दौरान चल बसी थीं) बनवाया, जो विश्व के महानतम वास्तुशिल्पीय नमूनों में से एक है। शाहजहाँ ने आगरा तथा दिल्ली में भी वास्तुशिल्प की दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण इमारतें बनवाई थीं। मुस्लिम काल के भारत को ही अंग्रेज ‘सोने की चिड़िया’ कहा करते थे।
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में केन्द्रित मुगल साम्राज्य ने एक नई मिश्रित संस्कृति के विकास को प्रोत्साहित किया। अकबर इसके महानतम प्रतिपादक थे, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के अपने दरबार में वास्तुशिल्प, साहित्य, चित्रकला तथा संगीत विशेषज्ञों को नियक्त किया था। भारत के विभिन्न मत और इस्लाम के मेल ने कई नए मतों का विकास किया, जो भारत की विभिन्न जातियों के बीच आम सहमति कायम करना चाहते थे। भक्ति आन्दोलन के संस्थापक रामानन्द (लगभग 1400-1470 ई०), जिनका दावा था कि मुक्ति लिंग या जाति पर आश्रित नहीं है और सभी धर्मों के बीच अनिवार्य एकता की शिक्षा देने वाले कबीर ने उत्तर प्रदेश में मौजूद धार्मिक सहिष्णुता के खिलाफ अपनी लड़ाई केन्द्रित की। 18वीं शताब्दी में मुगलों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था तथा जहाँ साम्प्रदायिक सदभाव के माहौल में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ।
मुगल साम्राज्य के चरमोत्कर्ष के समय आगरा भारत की राजधानी थी। ये विशेषतायें जहाँगीर और शाहजहाँ के काल में भी चलती रहीं, तत्कालीन इतिहासकार उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) को ‘हिन्दुस्तान’ की संज्ञा देते थे। उत्तर प्रदेश ने दिल्ली साम्राज्य के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब तक कि शाहजहाँ ने दिल्ली को राजधानी नहीं बनाया, आगरा ही मुगल साम्राज्य की राजधानी बना रहा। टोडरमल तथा बीरबल इसी क्षेत्र के रत्न थे। मुगल साम्राज्य को औरंगजेब की कट्टरपंथी नीतियों से भारी धक्का लगा। साम्राज्य का तख्त चरमरा उठा। विद्रोह के बिगुल बज उठे। वीर छत्रसाल (बुन्देलखण्ड) ने इस विद्रोह की शुरूआत की। बुन्देलो की यह लड़ाई रुक-रुक कर 50 वर्षों तक चली। छत्रसाल द्वारा पेशवा बाजीराव की मदद करने के कारण उत्तर प्रदेश में मराठों के पाँव जमे। मुगल साम्राज्य के दुर्बल होने पर मुहम्मदशाह वंशज ने फर्रुखाबाद में अपना राज्य स्थापित कर लिया, साथ ही अली मुहम्मद रुहेलखण्ड का सूबेदार हो गया। अवध का सूबेदार सआदत खाँ सन् 1732 में स्वतन्त्र हो गया। लगभग इसी समय रुहेलों ने भी स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। सन् 1761 में मुगल सम्राट शाहआलम ने इलाहाबाद को अपनी राजधानी बनाया तथा उसी ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल की दीवानी दी। सन् 1765 में अवध के नवाब शुजाउद्दौला को अंग्रेजों ने जाजामऊ के युद्ध में पराजित कर दिया। अवध के नवाब ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को र 50 लाख प्रतिवर्ष जुर्माना के रूप में देना स्वीकार किया। 1774 ई० में अवध के नवाब ने रुहेलों (रुहेलखण्ड) को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मदद से परास्त किया। मराठे कुछ समय तक गंगा-यमुना के क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाने के प्रयास में लगे रहे, किन्तु 1761 ई० में पानीपत के तृतीय युद्ध में हार जाने के कारण उनकी आशाओं पर पानी फिर गया। अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने दोआब में अपनी स्थिति सुदृढ़ बना ली।
सन् 1754 ई० से 1775 ई० तक अवध में तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने शासन किया। इसी काल में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी अवध के शासकों के सम्पर्क में आयी।
ब्रिटिश काल (British Period)
लगभग 75 वर्ष की अवधि में वर्तमान उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775 ई०, 1798 ई० और 1801 ई० में नवाबों, 1803 ई० में सिंधिया तथा 1816 ई० में गोरखों से छीने गए प्रदेश को पहले बंगाल प्रेजिडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, परन्तु 1833 ई० में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेजिडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई० में कम्पनी ने अवैध पर अधिकार कर लिया और आगरा और अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई० में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई० में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया।
1857-1859 ई० के बीच इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह प्रमुखतः पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई, 1857 ई० को मेरठ में सैनिकों के बीच भडका विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 1858 ई० में विद्रोह के दमन के पश्चात् पश्मिोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई० के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, परन्तु चौरी-चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेजों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 ई० में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (First War of Independence)
सन् 1857 में अंग्रेजों की दोषपूर्ण राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों के विरुद्ध भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह की शुरूआत मेरठ शहर से हुई। यह विद्रोह लगभग एक साल तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फैल गया। इस विद्रोह का मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। इस संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, बख्त खान (नाना साहेब), अवध की बेगम हजरत महल, मौलवी अहमदुल्ला शाह, राजा बेनी, माधव सिंह, अजीमुल्लाह खान और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया।
बीसवीं शताब्दी (Twentieth Century)
सन् 1902 ई० में नॉर्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम परिवर्तित कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया तथा सन् 1921 ई० में इसकी राजधानी इलाहाबाद से लखनऊ स्थानांतरित कर दी गयी। सन् 1937 में इसका नाम संयुक्त प्रान्त कर दिया गया। इसका वर्तमान नाम उत्तर प्रदेश 12 जनवरी, 1950 से प्रारंभ हुआ। स्वतंत्र भारत का संविधान लागू होने पर उत्तर प्रदेश एक संपूर्ण राज्य बना। उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का वर्तमान स्वरूप (उत्तराखण्ड अलग होने से पहले तक) 1 नवम्बर, 1956 को अस्तित्व में आया। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि उत्तर प्रदेश का इतिहास भारतीय इतिहास का अति महत्त्वपूर्ण तथा अभिन्न है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी भारतीय राजनीति में इस प्रदेश का अहम योगदान है। उत्तर प्रदेश ने भारत को सर्वाधिक प्रधानमंत्री दिए हैं जिनमें जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गाँधी, चौधरी चरण सिंह, वी० पी० सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी आदि मुख्य हैं।
विभाजन (The Division)
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के गठन के 1990 के दशक में उत्तराखण्ड क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम विकास से स्थानीय लोगों ने अलग राज्य की माँग को लेकर व्यापक आन्दोलन छेड़ा। अन्ततः 9 नवम्बर, 2000 को उत्तर प्रदेश के पश्चिमोत्तर हिस्से से उत्तरांचल राज्य का गठन किया गया।
Read Also : |
---|