Rajasthan GK Notes in Hindi - Page 6

राजस्थान इतिहास के स्रोत – ताम्रपत्र, सिक्के, स्मारक एवं मूर्तियां

ताम्रपत्र (Copper Sheet)

इतिहास के निर्माण में तामपत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राय राजा या ठिकाने के सामन्तों द्वारा ताम्रपत्र दिये जाते थे। ईनाम, दान-पुण्य, जागीर आदि अनुदानों को ताम्रपत्रों पर खुदवाकर अनुदान-प्राप्तकर्ता को दे दिया जाता था जिसे वह अपने पास संभाल कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी रख सकता था। ताम्रपत्रों में पहले संगत भाषा का प्रयोग किया गया परन्तु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा। दानपत्र में राजा अथवा दानदाता का नाम, अनुदान पाने वाले का नाम, अनुदान देने का कारण, अनुदान में दी गई भूमि का विवरण, समय तथा अन्य जानकारी का उल्लेख किया जाता था। इसलिए दानपत्रों से हमें कई राजनीतिक घटनाओं, आर्थिक स्थिति, धार्मिक विश्वासों, जातिगत स्थिति आदि के बारे में उपयोगी जानकारी मिलती है।

कई बार दान पत्रों से विविध राजवंश के वंश क्रम को निर्धारित करने में सहायता मिलती है।

  • आहड के ताम्रपत्र (1206 ई.) में गुजरात के मूलराज से लेकर भीमदेव दवितीय तक सोलंकी राजाओं की वंशावली दी गई है। इससे यह भी पता चलता है कि भीमदेव के समय में मेवाड़ पर गुजरात का प्रभुत्व था।
  • खेरोदा के ताम्रपत्र (1437 ई.) से एकलिंगजी में महाराणा कुम्भा द्वारा दान दिये गये खेतों के आस-पास से गुजरने वाले मुख्य मार्गों, उस समय में प्रचलित मुद्रा धार्मिक स्थिति आदि की जानकारी मिलती है।
  • चौकली ताम्रपत्र (1483 ई.) से किसानों से वसूल की जाने वाली विविध लाग-बागों का पता चलता है ।
  • पुर के ताम्रपत्र (1535 ई.) से हाडी रानी कर्मावती द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिये गये भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है ।

सिक्के (Coins)

राजस्थान के इतिहास लेखन में सिक्कों (मुद्राओं) से बड़ी सहायता मिलती है। ये सोने, चांदी, तांबे या मिश्रित धातुओं के होते थे। सिक्के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं भौतिक जीवन पर उल्लेखनीय प्रकाश डालते हैं। इनके प्राप्ति स्थलों से काफी सीमा तक राज्यों के विस्तार का ज्ञान होता है। सिक्कों के ढेर राजस्थान में काफी मात्रा में विभिन्न स्थानों पर मिले हैं।

  • 1871 ई. में कार्लायल को नगर (उणियारा) से लगभग 6000 मालव सिक्के मिले थे जिससे वहां मालवों के आधिपत्य तथा उनकी समृद्धि का पता चलता है ।
  • रैढ़ (टोंक) की खुदाई से वहाँ 3075 चांदी के पंचमार्क सिक्के मिले ये सिक्के भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं । इन पर विशेष प्रकार का चिह्न अंकित हैं और कोई लेप नहीं है। ये सिक्के मौर्य काल के थे।
  • 1948 ई. में बयाना में 1921 गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के मिले थे। तत्कालीन राजपूताना की रियासतों के सिक्कों के विषय पर केब ने 1893 में ‘द करेंसीज आफ दि हिन्दू स्टेट्स ऑफ राजपूताना’ नामक पुस्तक लिखी, जो आज भी अवितीय मानी जाती है।
  • 10-11वीं शताब्दी में प्रचलित सिक्कों पर गधे के समान आकृति का अंकन मिलता है, इसलिए इन्हें गधिया सिक्के कहा जाता है। इस प्रकार के सिक्के राजस्थान के कई हिस्सों से प्राप्त होते हैं।
  • मेवाड़ में कुम्भा के काल में सोने, चाँदी व ताँबे के गोल व चौकोर सिक्के प्रचलित थे।
  • महाराणा अमरसिंह के समय में मुगलों के संधि हो जाने के बाद यहाँ मुगलिया सिक्कों का चलन शुरू हो गया मुगल शासकों के साथ अधिक मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के कारण जयपुर के कछवाह शासकों को अपने राज्य में टकसाल खोलने की स्वीकृति अन्य राज्यों से पहले मिल गई थी। यहाँ के सिक्कों को ‘झाडशाही’ कहा जाता था।
  • बीकानेर में ‘आलमशाही’ नामक मुगलिया सिक्कों का काफी प्रचलन हुआ।
  • ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के बाद कलदार रुपये का प्रचलन हुआ और धीरे-धीरे राजपूत राज्यों में ढलने वाले सिक्कों का प्रचलन बन्द हो गया।

स्मारक एवं मूर्तियां (Monuments and Statues) (दुर्ग, मंदिर, स्तूप तथा स्तम्भ)

राजस्थान में अनेक स्थलों से प्राप्त भवन, दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तम्भ आदि स्तूप तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन दुर्ग एवं भवन राजस्थान में स्थान-स्थान पर देखे जा सकते हैं। चित्तौड़, जालौर, गागरोन, रणथम्भौर, आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, कुम्भलगढ, अचलगढ़ आदि दुर्ग इतिहास के बोलते साक्ष्य हैं। दुर्गों में बने महल, मन्दिर, जलाशय आदि तत्कालीन समाज एवं धर्म की जानकारी देते हैं।

राजस्थान के प्रसिद्ध मन्दिर यथा देलवाडा एवं रणकपुर के जैन मन्दिर आमेर का जगत शिरोमणि मंदिर, नागदा का सास-बहू का मंदिर, उदयपुर का जगदीश मंदिर, ओसियां का सच्चिमाता एवं जैन मंदिर, झालरापाटन का सूर्य मंदिर आदि उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त किराडू, बाडोली, पुष्कर आदि स्थानों के मंदिर भी इतिहास के अध्ययन के लिए उपयोगी है। ये मंदिर धर्म एवं कला के अध्ययन के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। मूर्तियों के गहन अध्ययन से तत्कालीन वेशभूषा, श्रृंगार के तौर-तरीकों, आभूषणों, विविध वाद्य यंत्रों, नृत्य की मुद्राओं आदि का बोध होता है। राजस्थान में स्थापत्य एवं तक्षणकला के लिए चित्तौड़ दुर्ग स्थित कीर्ति स्तम्भ एक श्रेष्ठ उदाहरण है। आमेर का जगत शिरोमणि का मंदिर, मुगल-राजपूत समन्वय की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

 

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राजस्थान के शिलालेख (Inscriptions of Rajasthan)

शिलालेख (Inscriptions)

पुरातात्विक स्रोतों (Archaeological Sources) के अन्तर्गत अन्य महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख (Record) हैं। इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है। ये साधारणत पाषाण पट्टिकाओं, स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं। इनमें वंशवली, तिथियाँ, विजय, दान, उपाधियाँ, शासकीय नियम, उपनियम, सामाजिक नियमावली अथवा आचार संहिता, विशेष घटना आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है। इनके द्वारा सामन्तों, रानियों, मन्त्रियों एवं अन्य गणमान्य नागरिकों द्वारा किये गये निर्माण कार्य, वीर पुरूषों का योगदान, सतियों की महिमा आदि जानकारी मिलती है।

इनकी सहायता से संस्कृतियों के विकास क्रम को समझने में भी सहायता मिलती है। प्रारम्भिक शिलालेखों की भाषा संस्कृत है, जबकि मध्यकालीन शिलालेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू राजस्थानी आदि है। जिन शिलालेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे ‘प्रशस्ति’ भी कहते हैं। शिलालेखों में वर्णित घटनाओं के आधार पर हमें तिथिक्रम निर्धारित करने में सहायता मिलती है। बहुत से शिलालेख राजस्थान के विभिन्न शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल सम्राटों के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं। शिलालेखों की जानकारी सामान्यत विश्वसनीय होती है परन्तु यदा कदा उनमें अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी पाया जाता है।

संस्कृत शिलालेख (Sanskrit Inscriptions)

घोसुण्डी शिलालेख (Inscriptions of Ghosundi) (द्वतीय शताब्दी ईसा पूर्व) –  यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। यह लेख घीसुण्डी गाँव (नगरी, चित्तौड) से प्राप्त हुआ था। इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है।

मानमोरी अभिलेख (Monomery Record) (713 ई.) – यह लेख चित्तौड़ के पास मानसरोवर झील के तट से कर्नल टॉड को मिला था। चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति एवं मोरी वंश के इतिहास के लिए यह अभिलेख उपयोगी है। इस लेख से यह भी जात होता है कि धार्मिक भावना से अनुप्राणित होकर मानसरोवर झील का निर्माण करवाया गया था ।

सारणेश्वर प्रशस्ति (Saraneshwar Prashasti) (953 ई.) – यह उदयपुर के श्मशान के सारणेश्वर नामक शिवालय पर स्थित इस प्रशस्ति से बराह मन्दिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है। गोपीनाथ शर्मा की मान्यता है कि मूलत यह प्रशस्ति उदयपुर के आहड़ गाँव के किसी वराह मन्दिर में लगी होगी। बाद में इसे वहाँ से हटाकर वर्तमान सारणेश्वर मन्दिर के निर्माण के समय में सभा मण्डप के छबने के काम में ले ली हो ।

बिजौलिया अभिलेख (Bijoulaia Record) (1170 ई.) – यह लेख बिजौलिया कस्बे के पार्श्वनाथ मन्दिर परिसर की एक बड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण है। लेख संस्कृत भाषा में है और इसमें 93 पद्य हैं। यह अभिलेख चौहानों का इतिहास जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है। इस अभिलेख में उल्लिखित ‘विप्रः श्रीवत्सगोत्रेभूत् के आधार पर डॉ. दशरथ शर्मा ने चौहनों का वत्सगोत्र का ब्रहामण कहा है। इस अभिलेख से तत्कालीन कृषि धर्म तथा शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है।

चीरवे का शिलालेख (Inscriptions of Chirve) (1273 ई.) – यह चीरवा (उदयपुर) गाँव के एक मन्दिर से प्राप्त संस्कृत में 51 श्लोकों के इस शिलालेख से मेवाड के प्रारम्भिक गुहिल वंशीय शासकों, चीरवा गाँव की स्थिति, विष्णु मन्दिर की स्थापना शिव मन्दिर के लिए भू-अनुदान आदि का ज्ञान होता है । इस लेख द्वारा हमें प्रशस्तिकार रत्नप्रभसूरि, लेखक पार्श्वचन्द्र तथा शिल्पी देलहण का बोध होता है जो उस युग के साहित्यकारों तथा कलाकारों की परम्परा में थे।

रणकपुर प्रशस्ति (Ranakpur Prashasti) (1439 ई.) – यह रणकपुर के जैन चौमुख मंदिर से लगे इस प्रशस्ति में मेवाड के शासक बापा से कुम्भा तक वंशावली है। इसमें महाराणा कुम्भा की विजयी का वर्णन है । इस लेख में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है। स्थानीय भाषा में आज भी नाणा शब्द मुद्रा के लिए प्रयुक्त होता है । इस प्रशस्ति में मन्दिर के सूत्रधार दीपा का उल्लेख है।

कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति (Kirti Column Prashasti) (1460 ई.) – यह प्रशस्ति कई शिलाओं पर खुदी हुई थी और संभवत कीर्ति स्तम्भ की अन्तिम मंजिल की ताकों पर लगाई गई थी। किंतु अब केवल दो शिलाएँ ही उपलब्ध हैं। वर्तमान में 1 से 28 तथा 162 से 187 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इनमें बापा, हम्मीर, कुम्भा आदि शासकों का वर्णन विस्तार से मिलता है। इससे हमें कुम्भा द्वारा विरचित ग्रंथों का ज्ञान होता है जिनमें चण्डीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि मुख्य हैं। कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को हटाना प्रशस्ति 179 वे श्लोक में वर्णित है। इस प्रशस्ति के रचयिता अत्रि और महेष थे

रायसिंह की प्रशस्ति (Prashasti of Raisingh) (1594 ई.) – यह कृबीकानेर दुर्ग के द्वार के एक पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति बीकानेर नरेश रायसिंह के समय की है। इस प्रशस्ति में बीकानेर के संस्थापक राव बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का जिक्र है। इस प्रशस्ति से रायसिंह की मुगलों की सेवा के अन्तर्गत प्राप्त उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। इसमें उसकी काबुल, सिन्ध, कच्छ पर विजयों का वर्णन किया गया है। इस प्रशस्ति से गढ़ निर्माण के कार्य के सम्पादन का ज्ञान होता है।

आमेर का लेख (Articles of Amer) (1612 ई.) – यह कृआमेर के कछवाह वंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख महत्वपूर्ण है । इसमें कछवाह शासकों को रघुवंशीतलक कहा गया है। इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवन्तदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवन्तदास का पुत्र बताया गया है । मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का उल्लेख है। लेख संस्कृत एवं नागरी लिपि में है

जगन्नाथराय का शिलालेख (Inscription of Jagannathrai) (1652 ई.) – यह उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर के सभा मण्डप के प्रवेश हार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है। यह शिलालेख मेवाड़ के इतिहास के लिए उपयोगी है। इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है। इसमें हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्यों का वर्णन आदि किया गया है । इसका रचयिता तैलंग ब्राह्मण कृष्णभट्ट तथा मन्दिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुन्द था ।

राजप्रशस्ति (Raj Prashasti) (1676 ई.) – यह उदयपुर सम्भाग के राजनगर में राजसमुद्र की नौचौकी नामक बांध पर सीढ़ियों के पास वाली ताको पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण ‘राजप्रशस्ति महाकाव्य’ देश का सबसे बड़ा शिलालेख है। इसकी रचना बांध तैयार होने के समय रायसिंह के कल में हुई। इसका रचनाकार रणछोड़ भट्ट था। यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है, परन्तु अन्त में कुछ पंक्तियों हिन्दी भाषा में है। इसमें तालाब के काम के लिए नियुक्त निरीक्षकों एवं मुख्य शिल्पियों के नाम है। इसमे तिथियों तथा एतिहासिक घटनाओं का सटीक वर्णन है। इसमें वर्णित मेवाड़ के प्रारम्भिक में उल्लिखित है की राजसमुद्र के बांध बनवाने के कार्य का प्रारम्भ दुष्काल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था। इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि राजसमुद्र तालाब की प्रतिष्ठा के अवसर पर 46,000 ब्राह्मण तथा अन्य लोग आये थेतालाब बनवाने में महाराणा ने 1,05,07,608 रुपये व्यय किये थे। यह प्रशस्ति 17वीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है।

फारसी शिलालेख (Persian Inscriptions)

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् फारसी भाषा के लेख भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ये लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, सरायों, तालाबों की घाटों, पत्थरों आदि पर उत्कीर्ण करके लगाये गये थे। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के निर्माण में इन लेखों से महत्वपूर्ण सहायता मिलती है। इनके माध्यम से हम राजपूत शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल शासकों के मध्य लड़े गये युद्धों, राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर समय-समय पर होने वाले मुस्लिम आक्रमणों, राजनीतिक सम्बन्धों आदि का मूल्यांकन कर सकते हैं। इस प्रकार के लेख सांभर, नागौर, मेड़ता, जालौर, सांचोर, जयपुर, अलवर, टोंक, कोटा आदि क्षेत्रों में अधिक पाये गये हैं ।

  • फारसी भाषा में लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढाई दिन के झौंपडे के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है
  • यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में संस्कृत पाठशाला तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया गया।
  • चित्तौड़ की गैबी पीर की दरगाह से 1325 ई. का फारसी लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया था।
  • जालौर और नागौर से जो फारसी लेख में मिले हैं, उनसे इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक मुस्लिम प्रभुत्व की जानकारी मिलती है।
  • पुष्कर के जहाँगीर महल के लेख (1615 ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है।
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