Rajasthan GK in Hindi - Page 6

राजस्थान के अब तक के मुख्यमंत्रियों की लिस्ट (List of Chief Ministers of Rajasthan till Date)

राजस्थान के अब तक के मुख्यमंत्री 

मुख्यमंत्री  कार्यकाल
हीरा लाल शास्त्री 07 अप्रेल 1949 से 05 जनवरी 1951
सी एस वेंकटाचारी 06 जनवरी 1951 से 25 अप्रेल 1951
जय नारायण व्यास 26 अप्रेल 1951 से 03 मार्च 1952
टीका राम पालीवाल 03 मार्च 1952 से 31 अक्टूबर 1952
जय नारायण व्यास 01 नवम्बर 1952 से 12 नवम्बर 1954
मोहन लाल सुखाडीया 13 नवम्बर 1954 से 11 अप्रेल 1957
मोहन लाल सुखाडीया  11 अप्रेल 1957 से 11 मार्च 1962
मोहन लाल सुखाडीया  12 मार्च 1962 से 13 मार्च 1967
राष्ट्रपति शासन (13 मार्च 1967 से 26 अप्रेल 1967 तक)
मोहन लाल सुखाडीया  26 अप्रेल 1967 से 09 जुलाई 1971
बरकतुल्लाह खान 09 जुलाई 1971 से 11 अगस्त 1973
हरी देव जोशी 11 अगस्त 1973 से 29 अप्रेल 1977
राष्ट्रपति शासन (29 अगस्त 1973 से 22 जून 1977 तक)
भैरों सिंह शेखावत 22 जून 1977 से 16 फरवरी 1980
राष्ट्रपति शासन (16 मार्च 1980 से 6 जून 1980 तक)
जगन्नाथ पहाड़ीया 06 जून 1980 से 13 जुलाई 1981
शिव चंद्र माथुर 14 जुलाई 1981 से 23 फरवरी 1985
हीरा लाल देवपुरा 23 फरवरी 1985 से 10 मार्च 1985
हरी देव जोशी 10 मार्च 1985 से 20 जनवरी 1988
शिव चंद्र माथुर  20 जनवरी 1988 से 04 दिसम्बर 1989
हरी देव जोशी  04 दिसम्बर 1989 से 04 मार्च 1990
भैरों सिंह शेखावत  04 मार्च 1990 से 15 दिसम्बर 1992
राष्ट्रपति शासन (15 दिसम्बर 1992 से 4 दिसम्बर 1993 तक)
भैरों सिंह शेखावत  04 दिसम्बर 1993 से 29 दिसम्बर 1998
अशोक गहलोत 01 दिसम्बर 1998 से 08 दिसम्बर 2003
वसुन्धरा राजे सिंधिया 08 दिसम्बर 2003 से 11 दिसम्बर 2008
अशोक गहलोत  12 दिसम्बर 2008 से 13 दिसम्बर 2013
वसुन्धरा राजे सिंधिया  13 दिसम्बर 2013 से 16 दिसम्बर 2018
अशोक गहलोत 17 दिसम्बर 2018 से अब तक 

 

Read Also :

 

राजस्थान कैबिनेट मंत्रियों की वर्तमान लिस्ट (Present List of Rajasthan Cabinet Ministers)

राजस्थान के कैबिनेट मंत्री (Cabinet Minister of Rajasthan) 2020 – 21

क्र.सं. मंत्रीगण विभाग
1. श्री अशोक गहलोत‌, मुख्यमंत्री
1. वित्त विभाग,
2. आबकारी विभाग,
3. नियोजन विभाग,
4. नीति नियोजन विभाग,
5. कार्मिक विभाग,
6. सामान्य प्रशासन विभाग,
7. राज्य अन्वेषण ब्यूरो,
8. सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार विभाग,
9. गृह मंत्रालय एवं न्याय विभाग
केबिनेट मंत्री
1. श्री बुलाकी दास कल्ला
शिक्षा (प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा) विभाग,
संस्कृत शिक्षा विभाग,
कला, साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभाग,
पंचायती राज के अधीनस्थ प्राथमिक शिक्षा विभाग का स्वतंत्र प्रभार
2. श्री शान्ती कुमार धारीवाल
स्वायत्त शासन,
नगरीय विकास एवं आवासन विभाग,
विधि एवं विधिक कार्य विभाग और विधि परामर्शी कार्यालय,
संसदीय कार्य विभाग,
निर्वाचन विभाग
3. श्री हेमा राम चौधरी
वन विभाग,
पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग
4. श्री परसादी लाल 
चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग,
चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाएं (ESI),
आबकारी विभाग,
पंचायती राज के अधीनस्थ चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग का स्वतंत्र प्रभार
5. श्री लालचंद कटारिया
कृषि विभाग,
पशुपालन विभाग,
मत्स्य विभाग,
पंचायती राज के अधीनस्थ कृषि विभाग का स्वतंत्र प्रभार
6. श्री महेन्द्रजीत सिंह मालवीय
जल संसाधन विभाग,
इंदिरा गांधी नहर परियोजना विभाग,
जल संसाधन (आयोजना) विभाग
7. डॉ. महेश जोशी
जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग,
भू-जल विभाग
8. श्री रामलाल जाट
राजस्व विभाग
9. श्री प्रमोद भाया
खान एवं पैट्रोलियम विभाग,
गोपालन विभाग
10. श्री विश्वेन्द्र सिंह
पर्यटन विभाग,
नागरिक उड्डयन विभाग
11. श्री रमेश चन्द मीणा
ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज विभाग
12. श्री आंजना उदयलाल
सहकारिता विभाग
13. श्री प्रताप सिंह खाचरियावास
खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग,
उपभोक्ता मामले विभाग
14. श्री शाले मोहम्‍मद
अल्पसंख्यक मामलात विभाग,
वक्फ विभाग,
उपनिवेशन विभाग,
कृषि सिंचित क्षेत्र विकास एवं जल उपयोगिता विभाग
15. श्रीमती ममता भूपेश
महिला एवं बाल विकास विभाग,
बाल अधिकारिता विभाग,
आयोजना विभाग,
पंचायती राज के अधीनस्थ महिला एवं बाल विकास विभाग का स्वतंत्र प्रभार
16. श्री भजनलाल जाटव
सार्वजनिक निर्माण विभाग
17. श्री टीकाराम जूली
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग,
जेल विभाग,
पंचायती राज के अधीनस्थ सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग का स्वतंत्र प्रभार
18. श्री गोविन्द राम मेघवाल
आपदा प्रबंधन एवं सहायता विभाग,
प्रशासनिक सुधार और समन्वय विभाग,
सांख्यिकी विभाग,
नीति निर्धारण प्रकोष्ठ
19. श्रीमती शकुन्तला रावत 
उद्योग विभाग,
राजकीय उपक्रम विभाग,
देवस्थान विभाग

राजस्थान के राज्य मंत्री (State Minister of Rajasthan)

क्र.सं. मंत्रीगण विभाग
1. श्री बृजेन्द्र ओला  परिवहन एवं सड़क सुरक्षा विभाग (स्वतन्त्र प्रभार)
2. श्री मुरारी लाल मीणा कृषि विपणन विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
सम्पदा विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
पर्यटन विभाग, नागरिक उड्डयन विभाग
3. श्री राजेन्द्र सिंह गुढ़ा सैनिक कल्याण विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
गृह रक्षा एवं नागरिक सुरक्षा विभाग,
ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज विभाग
4. श्रीमती ज़ाहिदा खान विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (स्वतन्त्र प्रभार);
मुद्रण एवं लेखन सामग्री विभाग (स्वतन्त्र प्रभार);
शिक्षा (प्राथमिक एवं माध्यमिक) विभाग;
कला, साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभाग
5. श्री अर्जुन सिंह बामनिया जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग,
भू-जल विभाग
6. श्री अशोक युवा मामले और खेल विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
कौशल विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
नियोजन एवं उद्यमिता विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग,
आपदा प्रबंधन एवं सहायता विभाग,
प्रशासनिक सुधार और समन्वय विभाग,
सांख्यिकी विभाग,
नीति निर्धारण प्रकोष्ठ
7. श्री भंवर सिंह भाटी ऊर्जा विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
जल संसाधन विभाग,
इंदिरा गांधी नहर परियोजना विभाग,
जल संसाधन (आयोजना) विभाग
8. श्री राजेंद्र सिंह यादव उच्च शिक्षा विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
आयोजना (जनशक्ति) विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
स्टेट मोटर गैराज विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
भाषा एवं पुस्तकालय विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
गृह और न्याय विभाग
9. श्री सुखराम विश्‍नोई श्रम विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
कारखाना एवं बॉयलर्स निरीक्षण विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
राजस्व विभाग
10. डॉ. सुभाष गर्ग तकनीकी शिक्षा विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
आयुर्वेद और भारतीय चिकित्सा विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
जन अभियोग निराकरण विभाग (स्वतन्त्र प्रभार),
अल्पसंख्यक मामलात विभाग,
वक्फ विभाग,
उपनिवेशन विभाग,
कृषि सिंचित क्षेत्र विकास एवं जल उपयोगिता विभाग

 

 

Read Also :

 

राजस्थान इतिहास के स्रोत – ताम्रपत्र, सिक्के, स्मारक एवं मूर्तियां

ताम्रपत्र (Copper Sheet)

इतिहास के निर्माण में तामपत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राय राजा या ठिकाने के सामन्तों द्वारा ताम्रपत्र दिये जाते थे। ईनाम, दान-पुण्य, जागीर आदि अनुदानों को ताम्रपत्रों पर खुदवाकर अनुदान-प्राप्तकर्ता को दे दिया जाता था जिसे वह अपने पास संभाल कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी रख सकता था। ताम्रपत्रों में पहले संगत भाषा का प्रयोग किया गया परन्तु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा। दानपत्र में राजा अथवा दानदाता का नाम, अनुदान पाने वाले का नाम, अनुदान देने का कारण, अनुदान में दी गई भूमि का विवरण, समय तथा अन्य जानकारी का उल्लेख किया जाता था। इसलिए दानपत्रों से हमें कई राजनीतिक घटनाओं, आर्थिक स्थिति, धार्मिक विश्वासों, जातिगत स्थिति आदि के बारे में उपयोगी जानकारी मिलती है।

कई बार दान पत्रों से विविध राजवंश के वंश क्रम को निर्धारित करने में सहायता मिलती है।

  • आहड के ताम्रपत्र (1206 ई.) में गुजरात के मूलराज से लेकर भीमदेव दवितीय तक सोलंकी राजाओं की वंशावली दी गई है। इससे यह भी पता चलता है कि भीमदेव के समय में मेवाड़ पर गुजरात का प्रभुत्व था।
  • खेरोदा के ताम्रपत्र (1437 ई.) से एकलिंगजी में महाराणा कुम्भा द्वारा दान दिये गये खेतों के आस-पास से गुजरने वाले मुख्य मार्गों, उस समय में प्रचलित मुद्रा धार्मिक स्थिति आदि की जानकारी मिलती है।
  • चौकली ताम्रपत्र (1483 ई.) से किसानों से वसूल की जाने वाली विविध लाग-बागों का पता चलता है ।
  • पुर के ताम्रपत्र (1535 ई.) से हाडी रानी कर्मावती द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिये गये भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है ।

सिक्के (Coins)

राजस्थान के इतिहास लेखन में सिक्कों (मुद्राओं) से बड़ी सहायता मिलती है। ये सोने, चांदी, तांबे या मिश्रित धातुओं के होते थे। सिक्के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं भौतिक जीवन पर उल्लेखनीय प्रकाश डालते हैं। इनके प्राप्ति स्थलों से काफी सीमा तक राज्यों के विस्तार का ज्ञान होता है। सिक्कों के ढेर राजस्थान में काफी मात्रा में विभिन्न स्थानों पर मिले हैं।

  • 1871 ई. में कार्लायल को नगर (उणियारा) से लगभग 6000 मालव सिक्के मिले थे जिससे वहां मालवों के आधिपत्य तथा उनकी समृद्धि का पता चलता है ।
  • रैढ़ (टोंक) की खुदाई से वहाँ 3075 चांदी के पंचमार्क सिक्के मिले ये सिक्के भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं । इन पर विशेष प्रकार का चिह्न अंकित हैं और कोई लेप नहीं है। ये सिक्के मौर्य काल के थे।
  • 1948 ई. में बयाना में 1921 गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के मिले थे। तत्कालीन राजपूताना की रियासतों के सिक्कों के विषय पर केब ने 1893 में ‘द करेंसीज आफ दि हिन्दू स्टेट्स ऑफ राजपूताना’ नामक पुस्तक लिखी, जो आज भी अवितीय मानी जाती है।
  • 10-11वीं शताब्दी में प्रचलित सिक्कों पर गधे के समान आकृति का अंकन मिलता है, इसलिए इन्हें गधिया सिक्के कहा जाता है। इस प्रकार के सिक्के राजस्थान के कई हिस्सों से प्राप्त होते हैं।
  • मेवाड़ में कुम्भा के काल में सोने, चाँदी व ताँबे के गोल व चौकोर सिक्के प्रचलित थे।
  • महाराणा अमरसिंह के समय में मुगलों के संधि हो जाने के बाद यहाँ मुगलिया सिक्कों का चलन शुरू हो गया मुगल शासकों के साथ अधिक मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के कारण जयपुर के कछवाह शासकों को अपने राज्य में टकसाल खोलने की स्वीकृति अन्य राज्यों से पहले मिल गई थी। यहाँ के सिक्कों को ‘झाडशाही’ कहा जाता था।
  • बीकानेर में ‘आलमशाही’ नामक मुगलिया सिक्कों का काफी प्रचलन हुआ।
  • ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के बाद कलदार रुपये का प्रचलन हुआ और धीरे-धीरे राजपूत राज्यों में ढलने वाले सिक्कों का प्रचलन बन्द हो गया।

स्मारक एवं मूर्तियां (Monuments and Statues) (दुर्ग, मंदिर, स्तूप तथा स्तम्भ)

राजस्थान में अनेक स्थलों से प्राप्त भवन, दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तम्भ आदि स्तूप तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन दुर्ग एवं भवन राजस्थान में स्थान-स्थान पर देखे जा सकते हैं। चित्तौड़, जालौर, गागरोन, रणथम्भौर, आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, कुम्भलगढ, अचलगढ़ आदि दुर्ग इतिहास के बोलते साक्ष्य हैं। दुर्गों में बने महल, मन्दिर, जलाशय आदि तत्कालीन समाज एवं धर्म की जानकारी देते हैं।

राजस्थान के प्रसिद्ध मन्दिर यथा देलवाडा एवं रणकपुर के जैन मन्दिर आमेर का जगत शिरोमणि मंदिर, नागदा का सास-बहू का मंदिर, उदयपुर का जगदीश मंदिर, ओसियां का सच्चिमाता एवं जैन मंदिर, झालरापाटन का सूर्य मंदिर आदि उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त किराडू, बाडोली, पुष्कर आदि स्थानों के मंदिर भी इतिहास के अध्ययन के लिए उपयोगी है। ये मंदिर धर्म एवं कला के अध्ययन के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। मूर्तियों के गहन अध्ययन से तत्कालीन वेशभूषा, श्रृंगार के तौर-तरीकों, आभूषणों, विविध वाद्य यंत्रों, नृत्य की मुद्राओं आदि का बोध होता है। राजस्थान में स्थापत्य एवं तक्षणकला के लिए चित्तौड़ दुर्ग स्थित कीर्ति स्तम्भ एक श्रेष्ठ उदाहरण है। आमेर का जगत शिरोमणि का मंदिर, मुगल-राजपूत समन्वय की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

 

Read Also :

 

राजस्थान के शिलालेख (Inscriptions of Rajasthan)

शिलालेख (Inscriptions)

पुरातात्विक स्रोतों (Archaeological Sources) के अन्तर्गत अन्य महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख (Record) हैं। इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है। ये साधारणत पाषाण पट्टिकाओं, स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं। इनमें वंशवली, तिथियाँ, विजय, दान, उपाधियाँ, शासकीय नियम, उपनियम, सामाजिक नियमावली अथवा आचार संहिता, विशेष घटना आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है। इनके द्वारा सामन्तों, रानियों, मन्त्रियों एवं अन्य गणमान्य नागरिकों द्वारा किये गये निर्माण कार्य, वीर पुरूषों का योगदान, सतियों की महिमा आदि जानकारी मिलती है।

इनकी सहायता से संस्कृतियों के विकास क्रम को समझने में भी सहायता मिलती है। प्रारम्भिक शिलालेखों की भाषा संस्कृत है, जबकि मध्यकालीन शिलालेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू राजस्थानी आदि है। जिन शिलालेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे ‘प्रशस्ति’ भी कहते हैं। शिलालेखों में वर्णित घटनाओं के आधार पर हमें तिथिक्रम निर्धारित करने में सहायता मिलती है। बहुत से शिलालेख राजस्थान के विभिन्न शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल सम्राटों के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं। शिलालेखों की जानकारी सामान्यत विश्वसनीय होती है परन्तु यदा कदा उनमें अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी पाया जाता है।

संस्कृत शिलालेख (Sanskrit Inscriptions)

घोसुण्डी शिलालेख (Inscriptions of Ghosundi) (द्वतीय शताब्दी ईसा पूर्व) –  यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। यह लेख घीसुण्डी गाँव (नगरी, चित्तौड) से प्राप्त हुआ था। इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है।

मानमोरी अभिलेख (Monomery Record) (713 ई.) – यह लेख चित्तौड़ के पास मानसरोवर झील के तट से कर्नल टॉड को मिला था। चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति एवं मोरी वंश के इतिहास के लिए यह अभिलेख उपयोगी है। इस लेख से यह भी जात होता है कि धार्मिक भावना से अनुप्राणित होकर मानसरोवर झील का निर्माण करवाया गया था ।

सारणेश्वर प्रशस्ति (Saraneshwar Prashasti) (953 ई.) – यह उदयपुर के श्मशान के सारणेश्वर नामक शिवालय पर स्थित इस प्रशस्ति से बराह मन्दिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है। गोपीनाथ शर्मा की मान्यता है कि मूलत यह प्रशस्ति उदयपुर के आहड़ गाँव के किसी वराह मन्दिर में लगी होगी। बाद में इसे वहाँ से हटाकर वर्तमान सारणेश्वर मन्दिर के निर्माण के समय में सभा मण्डप के छबने के काम में ले ली हो ।

बिजौलिया अभिलेख (Bijoulaia Record) (1170 ई.) – यह लेख बिजौलिया कस्बे के पार्श्वनाथ मन्दिर परिसर की एक बड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण है। लेख संस्कृत भाषा में है और इसमें 93 पद्य हैं। यह अभिलेख चौहानों का इतिहास जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है। इस अभिलेख में उल्लिखित ‘विप्रः श्रीवत्सगोत्रेभूत् के आधार पर डॉ. दशरथ शर्मा ने चौहनों का वत्सगोत्र का ब्रहामण कहा है। इस अभिलेख से तत्कालीन कृषि धर्म तथा शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है।

चीरवे का शिलालेख (Inscriptions of Chirve) (1273 ई.) – यह चीरवा (उदयपुर) गाँव के एक मन्दिर से प्राप्त संस्कृत में 51 श्लोकों के इस शिलालेख से मेवाड के प्रारम्भिक गुहिल वंशीय शासकों, चीरवा गाँव की स्थिति, विष्णु मन्दिर की स्थापना शिव मन्दिर के लिए भू-अनुदान आदि का ज्ञान होता है । इस लेख द्वारा हमें प्रशस्तिकार रत्नप्रभसूरि, लेखक पार्श्वचन्द्र तथा शिल्पी देलहण का बोध होता है जो उस युग के साहित्यकारों तथा कलाकारों की परम्परा में थे।

रणकपुर प्रशस्ति (Ranakpur Prashasti) (1439 ई.) – यह रणकपुर के जैन चौमुख मंदिर से लगे इस प्रशस्ति में मेवाड के शासक बापा से कुम्भा तक वंशावली है। इसमें महाराणा कुम्भा की विजयी का वर्णन है । इस लेख में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है। स्थानीय भाषा में आज भी नाणा शब्द मुद्रा के लिए प्रयुक्त होता है । इस प्रशस्ति में मन्दिर के सूत्रधार दीपा का उल्लेख है।

कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति (Kirti Column Prashasti) (1460 ई.) – यह प्रशस्ति कई शिलाओं पर खुदी हुई थी और संभवत कीर्ति स्तम्भ की अन्तिम मंजिल की ताकों पर लगाई गई थी। किंतु अब केवल दो शिलाएँ ही उपलब्ध हैं। वर्तमान में 1 से 28 तथा 162 से 187 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इनमें बापा, हम्मीर, कुम्भा आदि शासकों का वर्णन विस्तार से मिलता है। इससे हमें कुम्भा द्वारा विरचित ग्रंथों का ज्ञान होता है जिनमें चण्डीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि मुख्य हैं। कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को हटाना प्रशस्ति 179 वे श्लोक में वर्णित है। इस प्रशस्ति के रचयिता अत्रि और महेष थे

रायसिंह की प्रशस्ति (Prashasti of Raisingh) (1594 ई.) – यह कृबीकानेर दुर्ग के द्वार के एक पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति बीकानेर नरेश रायसिंह के समय की है। इस प्रशस्ति में बीकानेर के संस्थापक राव बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का जिक्र है। इस प्रशस्ति से रायसिंह की मुगलों की सेवा के अन्तर्गत प्राप्त उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। इसमें उसकी काबुल, सिन्ध, कच्छ पर विजयों का वर्णन किया गया है। इस प्रशस्ति से गढ़ निर्माण के कार्य के सम्पादन का ज्ञान होता है।

आमेर का लेख (Articles of Amer) (1612 ई.) – यह कृआमेर के कछवाह वंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख महत्वपूर्ण है । इसमें कछवाह शासकों को रघुवंशीतलक कहा गया है। इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवन्तदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवन्तदास का पुत्र बताया गया है । मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का उल्लेख है। लेख संस्कृत एवं नागरी लिपि में है

जगन्नाथराय का शिलालेख (Inscription of Jagannathrai) (1652 ई.) – यह उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर के सभा मण्डप के प्रवेश हार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है। यह शिलालेख मेवाड़ के इतिहास के लिए उपयोगी है। इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है। इसमें हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्यों का वर्णन आदि किया गया है । इसका रचयिता तैलंग ब्राह्मण कृष्णभट्ट तथा मन्दिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुन्द था ।

राजप्रशस्ति (Raj Prashasti) (1676 ई.) – यह उदयपुर सम्भाग के राजनगर में राजसमुद्र की नौचौकी नामक बांध पर सीढ़ियों के पास वाली ताको पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण ‘राजप्रशस्ति महाकाव्य’ देश का सबसे बड़ा शिलालेख है। इसकी रचना बांध तैयार होने के समय रायसिंह के कल में हुई। इसका रचनाकार रणछोड़ भट्ट था। यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है, परन्तु अन्त में कुछ पंक्तियों हिन्दी भाषा में है। इसमें तालाब के काम के लिए नियुक्त निरीक्षकों एवं मुख्य शिल्पियों के नाम है। इसमे तिथियों तथा एतिहासिक घटनाओं का सटीक वर्णन है। इसमें वर्णित मेवाड़ के प्रारम्भिक में उल्लिखित है की राजसमुद्र के बांध बनवाने के कार्य का प्रारम्भ दुष्काल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था। इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि राजसमुद्र तालाब की प्रतिष्ठा के अवसर पर 46,000 ब्राह्मण तथा अन्य लोग आये थेतालाब बनवाने में महाराणा ने 1,05,07,608 रुपये व्यय किये थे। यह प्रशस्ति 17वीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है।

फारसी शिलालेख (Persian Inscriptions)

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् फारसी भाषा के लेख भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ये लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, सरायों, तालाबों की घाटों, पत्थरों आदि पर उत्कीर्ण करके लगाये गये थे। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के निर्माण में इन लेखों से महत्वपूर्ण सहायता मिलती है। इनके माध्यम से हम राजपूत शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल शासकों के मध्य लड़े गये युद्धों, राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर समय-समय पर होने वाले मुस्लिम आक्रमणों, राजनीतिक सम्बन्धों आदि का मूल्यांकन कर सकते हैं। इस प्रकार के लेख सांभर, नागौर, मेड़ता, जालौर, सांचोर, जयपुर, अलवर, टोंक, कोटा आदि क्षेत्रों में अधिक पाये गये हैं ।

  • फारसी भाषा में लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढाई दिन के झौंपडे के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है
  • यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में संस्कृत पाठशाला तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया गया।
  • चित्तौड़ की गैबी पीर की दरगाह से 1325 ई. का फारसी लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया था।
  • जालौर और नागौर से जो फारसी लेख में मिले हैं, उनसे इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक मुस्लिम प्रभुत्व की जानकारी मिलती है।
  • पुष्कर के जहाँगीर महल के लेख (1615 ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है।
Read Also :

 

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोत

पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources)

पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री का राजस्थान के इतिहास (History of Rajasthans) के निर्माण में एक बड़ा स्थान है। इसके अन्तर्गत खोजों और उत्खनन से मिलने वाली ऐतिहासिक सामग्री है। गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है, “यह ठीक है कि ऐसी सामग्री का राजनीतिक इतिहास से सहज और सीधा सम्बन्ध नहीं है, परन्तु इमारतें भवन, किले, राजप्रसाद, घर, बस्तियाँ, भग्नावशेष मुद्राएँ, उत्कीर्ण लेख, मूर्तियाँ, स्मारक आदि से हम ऐतिहासिक काल क्रम का निर्धारण तथा वास्तु और शिल्प-शैलियों का वर्गीकरण कर सकते हैं।”

प्रागैतिहासिक काल से मध्यकाल के अनेक भग्नावशेष तत्कालीन अवस्था का चित्र हमारे सम्मुख उपस्थित करते हैं। इसी प्रकार सिक्के, शिलालेख एवं दान-पत्र भी अपने समय की ऐतिहासिक घटनाओं एवं स्थिति के साक्षी है। पुरातात्विक सामग्री का अध्ययन हम निम्न भागों में कर सकते हैं।

उत्खनित पुरावशेष (Excavated Antiquity)

इतिहास लेखन को नए आधार पर खड़ा करने हेतु इतिहासकारों का ध्यान लम्बे समय से राजस्थान के पुरातत्व की ओर है। प्राक् ऐतिहासिक एवं ऐतिहासिक राजस्थान के इतिहास को जानने के लिए पुरातात्विक साक्ष्य राजस्थान में बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं। पुरातात्विक स्रोतों में उत्खनित पुरावशेष, मृद्भाण्ड, औजार एवं उपकरण, शैलचित्र, शिलालेख, सिक्के, स्मारक (दुर्ग, मन्दिर, स्तूप, स्तम्भ), मूर्तियाँ आदि प्रमुख हैं। राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य सर्वप्रथम (1871 ई.) प्रारम्भ करने का श्रेय ए.सी.एल. कार्लाइल को जाता है।

पुरातत्ववेत्ताओं की बागौर कालीबंगा, नगरी, बैराठ, आहड, गिलुण्ड, तिलवाडा, गणेश्वर रंगमहल, रेढ़ सांभर, मण्डोर डीडवाना सुनारी, नोह, जोधपुरा बालाथल आदि के उत्खनन कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन स्थानों से प्राप्त सामग्री के आधार पर राजस्थान की कई नवीन संस्मृतियों का ज्ञान होता है।

राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला में तथा चम्बल नदी की घाटी में ऐसे शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं, जिनसे प्रागैतिहासिक काल के मानव द्वारा प्रयोग में लाये गये पाषाण उपकरण, अस्थि अवशेष एवं अन्य पुरा सामग्री प्राप्त हुई है।

शिलालेख (Inscription)

  • संस्कृत शिलालेख
  • फारसी शिलालेख

 

राजस्थान के इतिहास के प्रामाणिक स्रोत

प्रारम्भ से ही भारतीय इतिहास में राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब हम स्रोतों को आधार बनाकर राजस्थान के इतिहास की चर्चा करते हैं तो यह ऊपरी पायदान पर दिखाई देता है। किसी भी काल का इतिहास लेखन हम प्रामाणिक स्रोतों के बिना नहीं कर सकते हैं। राजस्थान के सन्दर्भ में इतिहास लेखन हेतु पुरातात्विक, साहित्यिक और पुरालेखीय सामग्री के रूप में सभी प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं। ये स्रोत हमारे वर्तमान ज्ञान के आधार पर राजस्थान का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करते हैं कि किस तरह मानव ने राजस्थान में कालीबंगा, आहड़, गिलुंड, गणेश्वर इत्यादि स्थलों पर सभ्यताएं विकसित की।

स्वतन्त्रता से पूर्व राजस्थान का विशाल प्रदेश अनेक छोटी-बड़ी रियासतों में विभाजित था। इन सभी रियासतों का इतिहास अलग-अलग था और यह इतिहास सामान्यतः उस राज्य के संस्थापक तथा उसके घराने से ही प्रारम्भ होता था और उसमें राजनैतिक घटनाओं तथा युद्धों के विवरणों का ही अधिक महत्व था।

आधुनिक काल में सबसे पहले जेम्स टॉड ने समूचे राजस्थान का इतिहास लिखा और एक नई दिशा प्रदान की। तदन्तर कविराजा श्यामलदास गौरीशंकर हीराचन्द ओझा जैसे मनुष्यों ने राजस्थान के इतिहास में विविध आयाम जोड़कर पूर्णता प्रदान करने की कोशिश की। टॉड ने 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक में आधुनिक पद्धति से राजस्थान के इतिहास लेखन की एक अद्वितीय पहल की । टॉड का इतिहास ‘एनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ दोषपूर्ण होते हुए भी आज राजस्थान के सन्दर्भ में ‘मील का पत्थर’ है। इसमें उसके द्वारा संग्रहित अभिलेखों, सिक्कों, बहियों, खातों आदि के आधार पर लिखा मेवाड, मारबाड, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, बूंदी ब कोटा का इतिहास है।

राजस्थान के इतिहास के प्रामाणिक स्रोत इस प्रकार हैं – 

  • पुरातात्विक स्रोत
  • उत्खनित पुरावशेष
  • शिलालेख
  • संस्कृत शिलालेख
  • फारसी शिलालेख
  • ताम्रपत्र
  • सिक्के
  • स्मारक एवं मूर्तियों
  • चित्रकला
  • साहित्यिक स्रोत

 

1 4 5 6
error: Content is protected !!