Indian Geography Notes in Hindi - Page 5

भूकंप (Earthquake)

भूकंप क्या है?

सामान्य शब्दों में धरातल का अचानक कांपने लगना या हिल उठना ही भूकंप (Earthquake) है। अधिकतर भूकंप हल्के से कंपन के रूप में आते हैं। लेकिन बड़े या विनाशकारी भूकंप प्रायः हल्के झटकों के साथ शुरू होते हैं और फिर झटकों की तीव्रता बढ़ती जाती है तथा उसके बाद झटकों की तीव्रता कम होती जाती है। झटकों की अवधि प्रायः कुछ सेकेंडों में ही होती है।

तीव्र भूकंप की आशंका वाले क्षेत्र

भारतीय मानक ब्यूरो ने भूकंप के विभिन्न तीव्रताओं वाले क्षेत्रों का मानचित्र बनाया है। इसका संशोधित संस्करण सन् 2002 में प्रकाशित किया गया था। भूकंपों की तीव्रता में भिन्नता के आधार पर संपूर्ण भारत को चार क्षेत्रों में बांटा गया है। प्रत्येक क्षेत्र की तीव्रता और भूकंप से होने वाली हानियों का विवरण नीचे दिया गया है।

Earthquake Zone in India
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क्षेत्र I (Zone I) – जहां को खतरा नहीं है।
क्षेत्र II (Zone II) –  जहां कम खतरा है।
क्षेत्र III (Zone III) – जहां औसत खतरा है।
क्षेत्र IV (Zone IV) – जहां अधिक खतरा है।
क्षेत्र V (Zone V) – जहां बहुत अधिक खतरा है।

दिल्ली और मुबंई अधिक खतरे वाले क्षेत्र सं. IV में स्थित हैं। संपूर्ण उत्तर-पूर्वी भारत, कच्छ, गुजरात, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर के कुछ भाग अत्यधिक खतरे वाले क्षेत्र संख्या-V में शामिल हैं। अब प्रायद्वीपीय पठार भी भूकंपों से अछूता नहीं रहा है। महाराष्ट्र राज्य के लाटूर (1993, रिक्टर पैमाने पर तीव्रता 6.4) तथा कोयना (1967, तीव्रता 6.5) के भूकंप इस बात के प्रमाण ।

भूकम्प का प्रभाव

  • संपत्ति की हानि – भूकंप आने से इमारते ध्वस्त हो जाते हैं। धरातल के नीचे बनी पाइपलाइनें और रेल की पटरियां टूट जाती हैं या बरबाद हो जाती हैं। नदियों पर बने बांध ढह जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप आई बाढ़ बहुत विनाशकारी होती है। दक्षिण भारत में आये 1967 के भूकम्प में कोयना बांध क्षतिग्रस्त हुआ था।
  • जनहानि – भूकंप के कुछ सेकेंड के झटके हजारों लोगों की जाने ले लेता है। भारत में सन 1988 और 26 जनवरी 2001 के मध्य आए पाँच बड़े भूकंप में लगभग 31000 लोग अकाल मौत के शिकार हुए।
  • नदियों का मार्ग परिवर्तन – भूकंप के प्रभाव से कभी-कभी नदियों के मार्ग अवरूद्ध हो जाते या मार्ग परिवर्तित हो जाते हैं।
  • सुनामी – भूकंप के कारण समुद्र में एक ऊंची तरंग उठती है। इसे ही जापान में सुनामी कहते हैं। यह कभी 20-25 मीटर तक ऊंची हो जाती है। यह सागर तट की बस्तियों को लील जाती है। जहाजों को डुबो देती है। 27 दिसम्बर 2004 को सुमात्रा, इन्डोनेशिया के निकट महासागर में जन्मे भूकंप से बनी सुनामी से दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के तटवर्ती क्षेत्रों में अरबों रूपयों की संपत्ति नष्ट हो गई। दो लाख से ज्यादा लोगों की मृत्यु हो गई।
  • कीचड़ के फव्वारे –  भीषण भूकंपों के कारण धरातल पर गरम पानी और कीचड़ के फव्वारे फूट पड़ते हैं। 1934 ई. के बिहार के भूकंप के समय धरातल में बनी दरारों से कीचड़ ऐसे निकल रही थी, मानों पिचकारी से जलधारा फूट रही हो। किसानों के हरे भरे खेत घुटनों-घुटनों तक कीचड़ में दब गए थे।
  • दरारें फूटना – सड़कों, रेलमार्गों और खेतों में कभी-कभी दरारें पड़ जाती हैं, जिससे वे बेकार हो जाते हैं। सैन फ्रांसिस्को (कैलेफोर्निया) के भूकंप के दौरान सैन एण्ड्रियास भ्रंश का निर्माण हुआ था।
  • अन्य प्रभाव – भूस्खलन और हिमस्खलन होने लगता है। ग्लेशियर के हिमखंड टूटकर तेजी से फिसलने लगते हैं।

 

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भारत में सूखा (Dry in India)

सूखे की त्रास्दी मानव को धीरे-धीरे पर विशाल स्तर पर प्रभावित करती है। यह एक अलग तरह का दर्द है, पर है बड़ा कष्ट कारक।

क्या है सूखा?

मौसम विज्ञानियों के शब्दों में काफी लंबे समय तक एक विस्तृत प्रदेश में वर्षण की कमी ही सूखा है।” सूखे के लिए अकाल और अनावृष्टि जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया जाता है।

सूखे का कारण

सूखे का एक मात्र कारण वर्षा की कमी है। लेकिन मानव ने प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करके अपने क्रिया कलापों से पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ दिया है। लोगों ने जलाशयों (तालाबों, झीलों, जोहड़ों) को पाट दिया है। वनस्पति का आवरण नष्ट कर दिया है। वनस्पति के कारण वर्षा का जल भूमि में रिसता रहता है। क्योंकि वनस्पति उसके प्रवाह को अवरूद्ध करती रहती है। मनुष्य ने लाखों की संख्या में नलकूप लगाकर भूमिगत जल के भंडारों को भी कम किया है।

सूखे के दुष्परिणाम

सूखे के कारण भोजन और पानी की कमी हो जाती है। भूखे-प्यासे लोग त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। भुखमरी, कुपोषण और महामारियों से अकाल मौतें होने लगती हैं। मजबूरन लोगों को अपना क्षेत्र छोड़ कर पलायन करना पड़ता है। पानी की कमी से फसलें सूख जाती हैं। मवेशी चारे-पानी के अभाव में मरने लगते हैं। खेती करने वाले लोगों का रोजगार छिन जाता है। भोजन, पानी, हरे चारे और रोजगार की तलाश में लोग गाँव के गाँव छोड़ कर बच्चों के साथ दूर-बहुत दूर की अनिश्चित यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं।

भारत के सूखा प्रवण क्षेत्र

सूखा प्रवण क्षेत्रों की एक प्रमुख पट्टी दक्षिणी राजस्थान और तमिलनाडु के बीच है। इस पट्टी में दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, मध्यवर्ती महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु है।

Dry Area in India
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मानसूनी वर्षा की कमी और पर्यावरण ह्रास के कारण राजस्थान और गुजरात प्रायः सूखे की चपेट में रहते हैं। भारत के 593 जिलों में से 191 जिले भयंकर रूप से सूखा प्रवण है।

सूखे से निपटने के उपाय 

  • सूखे क्षेत्रों के अनुकूल कृषि पद्धति – शुष्क प्रदेशो में मोटे अनाज पैदा करके, गहरी जुताई करके मृदा की नमी को संजोकर, छोटे-छोटे बाधों के पीछे पानी रोककर, जोहड़ों में पानी एकत्र करके तथा फुहारा सिंचाई अपनाकर सूखे से एक सीमा तक निपटा जा सकता है।
  • सूखा सहन करने वाली फसलें बोकर – कपास, मूंग, बाजरा, गेहूं आदि सूखे को सहन करने वाली फसलें बोकर सूखे के प्रभाव को कुछ कम किया जा सकता  है।
  • वर्षा जल संग्रहण – वर्षा की एक-एक बूंद को संग्रहित करके सूखे से निपटा जा सकता है।
  • खेतों की ऊँची मेंड बनाकर, सीढ़ीदार खेत बनाकर और खेतों के किनारों पर पेड़ लगाकर वर्षा के पानी का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है।
  • सिंचाई की नहरों को पक्का करके पानी को संरक्षित किया जा सकता है।
  • टपकन विधि अपनाने से थोड़े पानी से अधिक क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है।  

सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम

यह कार्यक्रम 1973 में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के निम्नलिखित उद्देश्य हैं: –

  • फसलों, मवेशियों, भूमि की उत्पादकता, जल और मानव संसाधनों पर सूखे के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना। जिस तरह से गुजरात क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों के समन्वित विकास के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकियों का प्रयोग किया गया है, वैसा करके अन्य भागों में सूखे के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
  • वर्षा जल का विकास, संरक्षण और समुचित उपयोग करके लंबे समय तक पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखा जा सकता है।
  • संसाधनों के अभाव से ग्रस्त और सुविधाओं से वंचित समाज की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारना।

 

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भूस्खलन (Landslide)

16 एवं 17 जून 2013 को तेज वर्षा से प्रेरित भूस्खलन ने मंदाकिनी नदी एवं उसकी उपशाखाओं की धारा को रोककर, अल्पकालिक झील का निर्माण कर दिया बादल के फटने से आयी त्वरित बाढ़ ने बस्तियों एवं सडकों को बहा दिया और उत्तराखण्ड में विशेष कर केदारनाथ क्षेत्र में ऐसा विनाश किया

क्या होता है भूस्खलन?

पर्वतीय ढालों या नदी तटों पर छोटी शिलाओं, मिट्टी या मलबे का अचानक खिसकर नीचे आ जाना ही, भूस्खलन है। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन का सिलसिला निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इससे पर्वतों के जन-जीवन पर बुरे प्रभाव दिखाई पड़ने लगे हैं।

भूस्खलन प्रवण क्षेत्र

हिमालय, पश्चिमी घाट और नदी घाटियों में प्राय भूस्खलन होते रहते हैं। भूस्खलनों का प्रभाव जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम तथा सभी सात उत्तर पूर्वी राज्य भूस्खलन से ज्यादा ही त्रस्त है। दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल को भूस्खलन का प्रकोप झेलना पड़ता है।

Landslide Area in India
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भूस्खलन के कारण

  • भारी वर्षा – भारी वर्षा भूस्खलन का एक प्रमुख कारण है।
  • वन-नाशन – वनों का विनाश भूस्खलन का मुख्य कारण है। वृक्ष, झाड़ियाँ और घासपात मृदा कणों को बांधे रखते हैं। पेड़ों के कटने से पहाड़ी ढाल नंगे हो जाते हैं। ऐसे ढालों पर वर्षा का जल निर्बाध गति से बहता है। उसे सोखने के लिए वनस्पति का आवरण नहीं होता।
  • भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट –  हिमालयी क्षेत्र में प्रायः भूकंप आते रहते हैं। भूकंप के झटके पहाड़ों को हिला देते हैं और वे टूट कर नीचे की ओर खिसक जाते हैं। ज्वालामुखी विस्फोटों से भी पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन होते हैं।
  • सड़क निर्माण – विकास के लिए पहाड़ों में सड़कों का निर्माण चल रहा है। सड़क बनाते समय ढेर सारा मलबा हटाना पड़ता है। इस तरह चट्टानों की बनावट एवं उनके ढाल में बदलाव आता है। फलतः भूस्खलन तीव्र हो जाता है।
  • झूम कृषि – उत्तरपूर्वी भारत में झूम खेती के कारण भूस्खलनों की संख्या या आवृत्ति बढ़ी है।
  • भवन निर्माण – जनसंख्या वृद्धि तथा पर्यटन के लिए आवास की व्यवस्था हेतु पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक मकान और होटल बनाए जा रहे हैं। इनसे भी भूस्खलनों में वृद्धि होती है।

भूस्खलन के परिणाम

  • पर्यावरण का ह्रास  – भूस्खलनों से पर्वतों के पर्यावरण में ह्रास हो रहा है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य धीरे-धीरे घट रहा है।
  • जल स्रोत सूख रहे हैं।
  • नदियों में बाढ़ की वृद्धि हो रही है।
  • सड़क मार्ग अवरूद्ध हो रहा है।
  • अपार धन-जन की हानि हो रही है।

भूस्खलन रोकने तथा इसके दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय

  • वनरोपण – वृक्ष और झाड़ियाँ मृदा को बांधे रखने में सहायक होती है।
  • सड़कों के निर्माण में नई तकनीक – सड़क इस तरह बनायी जानी चाहिए ताकि कम से कम मलबा निकले।
  • खनिजों और पत्थरों के निकालने पर रोक लगाई जाए।
  • वनों का शोषण न करके वैज्ञानिक दोहन किया जाए।
  • ऋतुवत या वार्षिक फसलों के बदले स्थायी फसलें जैसे फलों के बाग लगाए जाएँ।
  • भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्रों में पृष्ठीय जल प्रवाह को नियन्त्रित करके जलरिसाव को कम किया जाए।
  • पहाड़ी ढालों पर मलबे को खिसकने से रोकने के लिए मजबूत दीवारें बनाई जाएं।
  • भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों का मानचित्रण किया जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों में निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जाए।

 

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भारत में बाढ़ (Flood in India)

मानसूनी वर्षा के प्रारंभ होते ही देश के 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में रहने वाले लोगों की चिंताएँ बढ़ने लगती हैं। पता नहीं कब नदी में उफान आ जाए और उनके गाढ़े पसीने की कमाई पानी में बह जाए। अन्य सभी विपदाओं की तुलना में बाढ़ से जान-माल को सबसे अधिक हानि होती है।

बाढ़ क्या है?

ऐसे भूमि क्षेत्र में वर्षा या किन्हीं अन्य जल स्रोतों के जल का भर जाना जिसमें सामान्यतः पानी नहीं भरता है, बाढ़ कहलाता है। दूसरे शब्दों में नदी के तटों को तोड़कर या उनके ऊपर से होकर जल का चारों ओर फैल जाना ही बाढ़ है।

बाढ़ के कारण

भारत में बाढ़ आने के निम्नलिखित कारण हैं: –

  • भारी वर्षा – नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में होने वाली भारी वर्षा के कारण अतिरिक्त जल तेज प्रवाह के साथ बहता है जिससे बाढ़ आती है।
  • नदियों में अवसादों का जमा होना – नदियों की धारा क्षेत्र में अवसादों के जमा होने से वे छिछली हो जाती हैं। ऐसी नदियों की जल प्रवाह की क्षमता घट जाती है। भारी वर्षा का पानी किनारों के ऊपर से बहने लगता है।
  • वनों का विनाश – वनस्पति वर्षा जल को बहने से रोककर भूमि में रिसने को बाध्य करती है। वनस्पति के विनाश से भूमि नंगी हो जाती है और वर्षा का पानी बेरोक-टोक तेज गति से नदियों में पहुंच कर बाढ़ का कारण बनता है।
  • चक्रवात – चक्रवातों के कारण उठी ऊंची-ऊंची लहरें समुद्री जल को तटवर्ती । क्षेत्रों में फैला देती है। अक्तूबर 1999 के चक्रवात के कारण आई बाढ़ ने उड़ीसा में भारी तबाही मचाई थी।
  • अपवाह तंत्र से छेड़छाड़ – बिना सोचे-समझे सड़कों, रेलमार्गों, नहरों आदि के निर्माण से प्राकृतिक अपवाह तंत्र अवरुद्ध होकर बाढ़ का कारण बनता है।
  • नदियों का मार्ग परिवर्तन – नदियों के मोड़ और उनके मार्ग परिवर्तन से भी बाढ़ आती है।
  • सुनामी (भूकंपीय ऊंची समुद्री लहर) –  तटवर्ती क्षेत्रों को दूर-दूर तक जल मग्न कर देती है।

बाढ़ से हानि

नदियों में आई बाढ़ की मार मनुष्य और पशुओं दोनों को झेलनी पड़ती है। बाढ़ से लोग बेघर हो जाते हैं। मकान ढह जाते हैं। उद्योग धन्धे चौपट हो जाते हैं। फसलें पानी में डूब जाती हैं। बेजुबान पालतू पशु और वन्य जीव मर जाते हैं। तटवर्ती क्षेत्रों में मछुआरों की नावें, जाल आदि नष्ट हो जाते हैं। मलेरिया, दस्त जैसी बीमारियां फैल जाती हैं। पेय जल प्रदूषित हो जाता है तथा कभी-कभी उसकी भारी कमी हो जाती है। खाद्यान्न नष्ट हो जाते हैं और बाहर से आपूर्ति कठिन हो जाती है।

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 

देश का लगभग 4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र बाढ़ प्रवण है, जो देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग आठवां भाग है। सबसे अधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्र सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र की द्रोणियों में ही है। राज्यों की दृष्टि से बाढ़ प्रवण राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम हैं। इनके बाद हरियाणा, पंजाब और आंध्रप्रदेश का स्थान है। अब तो राजस्थान और गुजरात में भी बाढ़ आती है। कर्नाटक और महाराष्ट्र भी बाढ़ से अछूते नहीं हैं।

Flooding Area in India
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बाढ़ रोकने के उपाय

  • संग्रहण जलाशय – नदियों के मार्गों में संग्रहण जलाशयों के निर्माण से अतिरिक्त पानी को उनमें रोका जा सकता है लेकिन अब तक किए गए उपाय कारगर सिद्ध नहीं हुए हैं। दामोदर नदी की बाढ़ रोकने के लिए बनाए गए बाध उसकी बाढ़ों को नहीं रोक पाए हैं।
  • तटबंध – नदियों के किनारों पर तटबंध बनाकर पाश्र्ववर्ती क्षेत्रों में फैलने वाले बाढ़ के पानी को रोका जा सकता है। दिल्ली में यमुना पर बने तटबंधों का निर्माण बाढ़ रोकने में कारगर सिद्ध हुआ है।
  • वृक्षारोपण – नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में यदि वृक्षारोपण किया जाए तो बाढ़ के प्रकोपों को काफी कम किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक अपवाह तंत्र की पुनस्र्थापना – सड़कों, नहरों, रेलमार्गों आदि के निर्माण से अवरूद्ध प्राकृतिक अपवाह तंत्र को पुनः चालू करने से भी बाढ़े रोकी जा सकती हैं।
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भारतीय नदियों का अपवाह तंत्र

अपवाह तंत्र से तात्पर्य किसी क्षेत्र की जल प्रवाह प्रणाली से है अर्थात् किसी क्षेत्र के जल को कौन-सी नदियां बहाकर ले जाती हैं। नदी अपना जल किस दिशा में बहाकर समुद्र में मिलाती है, यह कई कारकों पर निर्भर करता है जैसे — भूतल का ढाल, भौतिक संरचना, जल प्रवाह की मात्रा तथा जल का वेग। भारत में भूमि के जल को बहाकर ले जाने वाली छोटी-बड़ी अनेक नदियां हैं। भारत के अपवाह तंत्र को दो भागों में विभाजित करके उसका अध्ययन किया जा सकता है-उत्तरी भारत का अपवाह तंत्र तथा दक्षिणी भारत का अपवाह तंत्र।

Drainag System of Indian Rivers

उत्तरी भारत के नदियों का अपवाह तंत्र

उत्तरी भारत के अपवाह तंत्र में हिमालय का बड़ा महत्व है; क्योंकि उत्तर भारत की नदियों का उद्गम हिमालय और उसके पार से है। ये नदियां दक्षिण भारत की नदियों से भिन्न हैं, क्योंकि ये तेज गति से अपनी घाटियों को गहरा कर रही हैं। अपरदन से प्राप्त मिट्टी आदि को बहाकर ले जाती हैं और मैदानी भाग में जल प्रवाह की गति मंद पड़ने पर मैदानों और समुद्रों में जमा कर देती हैं।

  • उत्तरी विशाल मैदान का निर्माण इन्हीं नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से हुआ है।
  • हिमालय से निकलने वाली कुछ नदियां हिमालय से भी पहले विद्यमान थीं। जैसे-जैसे हिमालय की पर्वत श्रेणियां ऊपर उठती गईं, ये नदियां अपनी घाटियों को गहरा और गहरा काटती रहीं। इसके परिणामस्वरूप इन नदियों ने हिमालय की श्रेणियों में बहुत गहरी घाटियां या महाखड्ड बना लिए हैं।
  • बुंजी (जम्मू-कश्मीर) के पास सिंधु नदी का महाखड्ड 5200 मीटर गहरा है। सतलुज और ब्रह्मपुत्र नदियों ने भी ऐसे ही महाखड्ड बनाए हैं।
  • उत्तरी भारत के अपवाह तंत्र के तीन भाग हैं – सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र का अपवाह तंत्र।
  • सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, व्यास और सतलुज सिंधु नदी तंत्र की प्रमुख नदियां हैं।
  • गंगा नदी तंत्र में रामगंगा, घाघरा, गोमती, गंडक, कोसी, अपनी दक्षिणी सहायक नदियों सहित यमुना, सोन और दामोदर नदियों का प्रमुख स्थान है।
  • ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र में दिबांग, लोहित, तिस्ता, और मेघना प्रमुख नदियां हैं।
  • दिबांग और लोहित अरूणाचल प्रदेश में, तिस्ता सिक्किम, प. बंगाल में और मेघना बांग्लादेश के उत्तर पूर्व में बहती है।

दक्षिण भारत का अपवाह तंत्र

  • दक्षिण भारत क्षेत्र की सभी नदियां अपने आधार तल पर पहुंच गई हैं और अपनी घाटी को लंबवत् काटने की उनकी क्षमता लगभग समाप्त हो गई है।
  • ये नदियां धीरे-धीरे अपने किनारों को काट रही है, जिससे इनकी घाटियां चौड़ी होती जा रही हैं, इसी के परिणामस्वरूप इनके निचले भागों में बाढ़ का पानी बहुत बड़े क्षेत्र में भर जाता है। ऐसा विश्वास है कि हिमालय के निर्माण के समय झटके लगने के कारण दक्षिण भारत का ढाल पूर्व की ओर हो गया था।
  • नर्मदा और तापी को छोड़कर शेष सभी बड़ी नदियां पूर्व की ओर बहती हैं।
  • नर्मदा और तापी नदियां भ्रंश घाटियों से होकर गुजरती हैं।
  • महानदी, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार, पालार, कावेरी और वेगाई दक्षिणी भारत के अपवाह तंत्र की प्रमुख नदियां हैं।

दक्षिणी प्रायद्वीप के उत्तरी भाग का ढाल उत्तर की ओर है। अतः विंध्याचल-पर्वत से निकलकर कुछ नदियां उत्तर की ओर बहती हुई यमुना और गंगा में मिल जाती हैं। इनमें चंबल, सिन्ध, बेतवा, केन और सोन नदियां मुख्य हैं।

हिमालयी और प्रायद्वीपीय भारत की नदियों में अन्तर

हिमालयी नदियां प्रायद्वीपीय नदियां
अधिकतर नदियां सदानीरा हैं। कुछ नदियां सदानीरा हैं।
उनमें वर्षभर जल बना रहता है, क्योंकि शुष्क ऋतु में हिमाद्रि में फैली हिमानियों का जल पिघल–पिघल कर नदियों में बहता रहता है। प्रायद्वीपीय भारत की नदियों में जल कम ज्यादा होता रहता है। वर्षा ऋतु में खूब पानी होता है, जबकि लंबी शुष्क ऋतु में बहुत कम पानी रहता है। कहीं-कहीं तो वे सूख भी जाती है।

 

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भारत में ऋतु चक्र

सबसे अधिक महत्वपूर्ण लक्षण है। ये परिवर्तनशील मानसून पवनें वर्ष के दौरान ऋतु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी हैं। भारत में जलवायु के अनुसार वर्ष को निम्न चार ऋतुओं में बांटा जाता है :

  1. शीत ऋतु – दिसम्बर से फरवरी
  2. ग्रीष्म ऋतु – मार्च से मई दक्षिणी भारत में तथा मार्च से जून उत्तरी भारत में
  3. आगे बढ़ते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु (वर्षा ऋतु) – जून से सितम्बर
  4. पीछे हटते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु (शरद ऋतु) – अक्टूबर और नवम्बर

शीत ऋतु (Winter Season)

Winter Season
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  • उत्तरी भारत में यह ऋतु प्रायः नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में प्रारम्भ हो जाती है।
  • देश के अधिकतर भागों में जनवरी व फरवरी सबसे अधिक ठन्डे महीने होते हैं, क्योंकि सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर वृत पर लम्बवत् चमकता है।
  • इन महीनों में उत्तर के मैदानों व पर्वतीय प्रदेशों में दैनिक औसत तापमान 21° C से कम रहते हैं।
  • कभी-कभी रात का तापमान हिमांक से नीचे चला जाता है, इससे पाला पड़ता है।
  • उत्तर से दक्षिण की ओर जाने पर तापमान में क्रमिक वृद्धि होती है।
  • निम्न तापमान के कारण उच्च वायुदाब क्षेत्र विकसित हो जाता है। इस उच्चदाब के कारण उत्तरी-पूर्वी अपतट (स्थलीय) पवनें चलती हैं।
  • उत्तरी मैदानों में उच्चावच के कारण इन पवनों की दिशा पछुआ होती है।
  • ये स्थलीय पवनें ठन्डी व शुष्क होती हैं। अतः शीत ऋतु में देश के अधिकांश भागों में वर्षा नहीं करती।
  • यही पवनें बंगाल की खाड़ी से आर्द्रता ग्रहण करके जब कारोमण्डल तट पर पहुंचती है तो वर्षा करती हैं।
  • इस ऋतु का एक अन्य लक्षण अवदावों का एक के बाद एक आगमन है। इन अवदावों को ‘पश्चिमी विक्षोभ’ कहते हैं, क्योंकि ये भूमध्य सागरीय प्रदेश में विकसित होते हैं।
  • ये अवदाब पश्चिमी जेट वायुधारा के साथ चलते हैं।
  • ईराक व पाकिस्तान के ऊपर से होते हुये एक लम्बी दूरी तय करके भारत में ये मध्य दिसम्बर के आस-पास पहुंचते हैं। इनके आने से तापमान में वृद्धि होती है तथा उत्तरी मैदानों में हल्की वर्षा होती है।

ग्रीष्म ऋतु (Summer Season)

Summer Season
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  • सूर्य के उत्तरायण होने पर उत्तर के मैदानों में तापमान बढ़ने लगता है। इसके परिणामस्वरूप बसंत ऋतु का आगमन होता है जो शीघ्र ही ग्रीष्म ऋतु का रूप ले लेती है।
  • ग्रीष्म ऋतु जून के अन्त तक रहती है।
  • इस ऋतु में तापमान उत्तर की ओर बढ़ता है तथा उत्तर के मैदानों के अधिकांश भागों में कई माह में लगभग 45° C हो जाता है।
  • दोपहर के बाद धूल भरी आंधियों और लू का चलना ग्रीष्म ऋतु के विशिष्ट लक्षण हैं। लू गर्म और शुष्क पवनें हैं।
  • लू मई व जून के महीनों में उत्तरी मैदानों में चलती हैं।
  • इस ऋतु में पवनों की दिशा परिवर्तनशील होती है।
  • सम्पूर्ण देश में मौसमी दशायें सामान्यतया गर्म व शुष्क होती हैं।
  • केरल, पश्चिम बंगाल और असम में हल्की वर्षा होती है।
  • केरल में मानसून से पूर्व की इस वर्षा को ‘आम्र वृष्टि’ के नाम से जाना जाता है।
  • पश्चिम बंगाल और असम में इसे ‘काल वैसाखी’ कहते हैं।

आगे बढ़ते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु (वर्षा ऋतु) [Rainy Season]

Rainy Season
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  • भारत के अधिकांश भागों में वर्षा इस ऋतु में होती है। यह दक्षिण पश्चिम मानसून जो केरल तट पर जून के पहले सप्ताह में पहुंचता है, के आगमन से प्रारम्भ होती है।
  • ये पवनें भारत के अधिकांश भागों में मध्य जुलाई तक पहुंच जाती है।
  • यह ऋतु सितम्बर माह तक रहती है।
  • आर्द्रता से लदी इन गर्म पवनों से मौसमी दशाएं पूर्णतः बदल जाती है।
  • इन पवनों के आने से अचानक वर्षा होने लगती है, जिससे तापमान काफी कम हो जाता है।
  • तापमान में यह गिरावट 5° से 10° C तक होती है।
  • अचानक होने वाली इस वर्षा को ‘मानसून का टूटना या फटना’ कहते हैं।
  • यह उत्तरी मैदानों तथा हिन्द महासागर पर वायु दाब की दशाओं पर निर्भर करता है।
  • भारत की प्रायद्वीपीय आकृति इन दक्षिण-पश्चिमी मानूसनों को दो शाखाओं में विभाजित करती है – अरब सागर की शाखा तथा बंगाल की खाड़ी की शाखा।

1. दक्षिण पश्चिम मानसून की अरब सागर की शाखा

  • भारत के पश्चिमी घाट से अवरोध पाकर पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढलानों पर भारी वर्षा करती है।
  • पश्चिमी घाट को पार करने के बाद ये पवनें पूर्वी ढलानों पर कम वर्षा करती हैं, क्योंकि उतरते हुये, उनके तापमान में वृद्धि होने लगती है। इसलिये इस क्षेत्र को ‘वृष्टिछाया क्षेत्र’ कहते हैं।
  • दक्षिण पश्चिम मानसून पवनें सौराष्ट्र व कच्छ के तट से आगे बढ़ती हुई राजस्थान के ऊपर से गुजरती है और आगे चल कर खाड़ी की बंगाल की शाखा से मिल जाती है।

2. बंगाल की खाड़ी की शाखा

  • पूर्वी हिमालय श्रेणियों से अवरोध पाकर दो उपशाखाओं में विभाजित हो जाती है।
  • एक शाखा पूर्व व उत्तर पूर्व दिशा की ओर बढ़ती है तथा यह ब्रह्मपुत्र घाटी व भारत की उत्तर पूर्वी पहाड़ियों में भारी वर्षा करती हैं।
  • दूसरी शाखा उत्तर पश्चिम की ओर गंगा घाटी व हिमालय की श्रेणियों के साथ-साथ आगे बढ़ती हुई दूर-दराज के क्षेत्र में पश्चिम की ओर भारी वर्षा करती है।

पीछे हटते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु (शरद ऋतु) [Autumn Season]

  • दक्षिण पश्चिम मानसून पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों व उत्तरी पश्चिमी भारत से सितम्बर के पहले सप्ताह से पीछे हटने लगते हैं, जहाँ वे सबसे अन्त में पहुँचते हैं।
  • इन पवनों के पीछे हटने का मुख्य कारण भारत के उत्तर पश्चिमी भाग के निम्न दाब क्षेत्र का कमजोर होना है।
  • सूर्य का विषुवत वृत्त की ओर आभासी गति तथा विस्तृत वर्षा का कारण तापमान के नीचे गिरने के साथ वायुदाब धीरे-धीरे उच्चा होने लगता है।
  • वायुमण्डलीय दाब के ढांचे में परिवर्तन के कारण दक्षिण पश्चिम मानसून पीछे हटता है।
  • भारत के उत्तर पश्चिमी भाग के निम्न दाब का क्षेत्र अक्टूबर के अंत तक बंगाल की खाड़ी के मध्य स्थानान्तरित हो जाता है। इन अस्थायी दशाओं के कारण बंगाल की खाड़ी में अत्यंत तीव्र चक्रवातीय तूफान पैदा होते हैं।
  • ये चक्रवातीय तूफान भारत के पूर्वी तट के साथ-साथ तटीय प्रदेशों में भारी वर्षा करते हैं।
  • तमिलनाडु तट अपनी वर्षा का अधिकांश भाग अक्टूबर व नवम्बर या मानसून के पीछे हटने की ऋतु में प्राप्त करता है।

 

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भारत के विशाल पठार

उत्तरी विशाल मैदान के दक्षिण में भारतीय विशाल पठार फैला है। यह हमारे देश का सबसे बड़ा भौतिक विभाग है। इसका क्षेत्रफल लगभग 16 लाख वर्ग किलोमीटर है। अर्थात् देश का लगभग आधा भाग पठारी प्रदेश है। यह प्राचीन चट्टानों से बना पठारी प्रदेश है। इस प्रदेश में छोटे बड़े अनेक पठार, पर्वत श्रृंखलाएं और नदी घाटियां हैं। भारतीय विशाल पठार की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर अरावली पहाड़ियां हैं। बुंदेलखंड का पठार, कैमूर तथा राजमहल की पहाड़ियां, इसकी उत्तरी तथा उत्तर-पूर्वी सीमा निर्धारित करती हैं। पश्चिमी घाट, सह्याद्रि तथा पूर्वी घाट, विशाल पठार की क्रमशः पश्चिमी और पूर्वी सीमाएं बनाते हैं। इस पठार का अधिकांश धरातल 400 मीटर से अधिक ऊँचा है। इस पठार का सबसे ऊँचा स्थान अनाईमुदी शिखर (2695 मी.) है। इस पठार का सामान्य ढाल पश्चिम से पूर्व की ओर है।

विशाल पठार अत्यन्त प्राचीन भूखंड है। यह भाग प्राचीन गोंडवानालैंड का हिस्सा रहा है। यह भाग प्राचीन काल से सदैव समुद्रतल से ऊपर रहा है। इसी से इसका बड़े पैमाने पर अनाच्छादन हुआ है। ये पर्वत बहुत कठोर शैलों के बने हैं। इन पर अनाच्छादन की शक्तियों का प्रभाव कम पड़ा है-जबकि इनके आस पास की भूमि की शैल अपरदित होकर बह गई है।

प्राचीन होने के कारण विशाल पठार की नदियों ने अपना आधार तल लगभग प्राप्त कर लिया है। वे चौड़ी तथा उथली घाटियों में बहती हैं। भारतीय विशाल पठार की विशेष रूप से इसके दक्षिणी भाग की रचना कायान्तरित और आग्नेय शैलों से हुई है। नर्मदा नदी ने इस विशाल पठार को दो भागों में विभाजित कर दिया है। नर्मदा नदी के उत्तरी भाग को मध्यवर्ती उच्च भूमि कहते हैं, तथा दक्षिणी भाग को प्रायद्वीपीय पठार कहते हैं। इस भाग का अधिक प्रचलित नाम दक्कन का पठार है।

Plateau of india

1. मध्यवर्ती उच्चभूमि

  • नर्मदा नदी के उत्तर तथा उत्तरी विशाल मैदान के दक्षिण में फैली है।
  • इसके पश्चिमी भाग में अरावली है। अरावली गुजरात से राजस्थान होकर दिल्ली तक उत्तर-पूर्वी दिशा में 700 कि.मी. की दूरी में फैली हैं।
  • दिल्ली के निकट इनकी समुद्रतल से ऊँचाई 400 मीटर तथा दक्षिण में 1500 मीटर तक है।
  • गुरु शिखर (1722 मी.) अरावली का सर्वोच्च शिखर है।
  • गुजरात और राजस्थान की सीमा पर स्थित माउण्ट आबू एक सुन्दर पर्वतीय नगर है।
  • अरावली के पूर्व की भूमि बहुत ऊबड़-खाबड है।
  • मध्यवर्ती उच्च भूमि का एक भाग मालवा के पठार के नाम से जाना जाता हैं, यह भाग अरावली के दक्षिण पूर्व तथा विध्यांचल श्रेणी के उत्तर में विस्तृत है।
  • चंबल और बेतवा नदियाँ इस क्षेत्र का जल बहाकर यमुना में ले जाती हैं।
  • मध्यवर्ती भूमि का वह भाग, जो मालवा पठार के पूर्व में फैला हुआ है, बुंदेलखण्ड के पठार के नाम से विख्यात है।
  • बुंदेलखण्ड के पूर्व में बघेलखण्ड का पठार तथा इसके और पूर्व में छोटानागपुर का पठार है।
  • मध्यवर्ती भूमि के दक्षिणतम भाग में विंध्याचल और उत्तर पूर्व में महादेव, कैमूर तथा मैकाल की पहाड़ियां हैं।
  • नर्मदा घाटी की ओर विध्यांचल श्रेणी के एकदम खड़े कगार हैं।

विध्यांचल और सतपुड़ा के मध्य नर्मदा घाटी है। इसी घाटी में नर्मदा नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हुई, अरब सागर में मिल जाती है। विंध्याचल और सतपुड़ा श्रेणियों के बीच के भू–भाग के नीचे की ओर धंसने से इस घाटी का निर्माण हुआ है।

2. प्रायद्वीपीय पठार (दक्कन का पठार)

  • यह भारतीय विशाल पठार का सबसे बड़ा भू-आकृतिक विभाग है।
  • इस पठार की आकृति त्रिभुज के समान है।
  • इसकी एक भुजा कन्याकुमारी से राजमहल पहाड़ियों को जोड़ने वाली रेखा है, जो पूर्वी घाट से होकर गुजरती है।
  • दूसरी भुजा सतपुड़ा श्रेणी, महादेव पहाड़ियाँ, मैकाल श्रेणी और राजमहल की पहाड़ियाँ हैं।
  • तीसरी भुजा सह्याद्रि श्रेणी (पश्चिमी घाट) है।
  • प्रायद्वीपीय पठार का कुल क्षेत्रफल लगभग 7 लाख वर्ग किलोमीटर है तथा ऊँचाई 500 मी. से 1000 मी. तक है।

पश्चिमी घाट

  • प्रायद्वीपीय पठार के पश्चिम में सह्याद्रि श्रेणी है।
  • अरब सागर के तट के साथ फैले खड़े ढाल वाले सह्याद्रि विस्मयकारी हैं।
  • पश्चिम में स्थित होने के कारण इसका एक नाम पश्चिमी घाट भी है। घाट शब्द का एक अर्थ पहाड़ है।
  • सह्याद्रि की औसत ऊँचाई उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ती जाती है।
  • केरल में स्थित अनाईमुदी शिखर (2695 मी.) दक्षिण भारत का सर्वोच्च पर्वत शिखर है।
  • अनाईमुदी; अनामलाई श्रेणी, कामम पहाड़ियों और पलनी पहाड़ियों का मिलन बिन्दु है।
  • पलनी पहाड़ियों में कोडैकानल एक सुरम्य पर्वतीय नगर है।

पूर्वी घाट

  • प्रायद्वीपीय पठार के पूर्वी भाग में फैले हैं।
  • इन्हें पूर्वाद्रि श्रेणी के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह श्रेणी तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर स्थित नीलगिरि पर सह्याद्रि (पश्चिमी घाट) से मिल जाती है।
  • नीलगिरि में उदगमंडलम (ऊटी) नगर दक्षिण भारत का प्रसिद्ध पर्वतीय नगर है। यह नगर तमिलनाडु में स्थित है।
  • स्वतंत्रता से पूर्व यह मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर का ग्रीष्मकालीन निवास स्थान हुआ करता था।
  • सह्याद्रि श्रेणी की भांति यह अविच्छिन्न (निरंतर) नहीं है।
  • महानदी, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार और कावेरी नदियों ने इसे कई स्थानों पर खण्डित किया है।

सह्याद्रि और पूर्वाद्रि (पूर्वी घाट) के बीच के पठारी भाग को कई स्थानीय नामों से जाना जाता है। आंध्र प्रदेश में फैला तेलंगाना का पठार प्रायद्वीपीय पठार का ही एक भाग है। प्रायद्वीपीय पठार के उत्तर-पूर्वी भाग को बघेल खंड और छोटा नागपुर के पठार के नाम से जाना जाता है। छोटा नागपुर के पठार में बहने वाली दामोदर नदी की घाटी में हमारे देश की प्रसिद्ध कोयला पट्टी है। यहाँ और भी बहुत से खनिज पाए जाते हैं।

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भारत के उत्तरी विशाल मैदान

यह मैदान हिमालय के दक्षिण में तथा भारतीय विशाल पठार के उत्तर में पश्चिम से पूर्व तक विस्तृत है। यह मैदान पश्चिम में राजस्थान के शुष्क और अर्ध शुष्क भागों से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी तक फैला है। इस मैदान का क्षेत्रफल 7 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक है। यह मैदान बहुत उपजाऊ है। देश की कुल जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग इसी मैदान के असंख्य गाँवों और अनेक बड़े नगरों में रहता है।

यह मैदान उत्तर में हिमालय और दक्षिण में भारतीय विशाल पठार से बहाकर लाई गई मिट्टी से बना है। लाखों वर्षों से प्रति वर्ष पर्वतीय क्षेत्रों से मिट्टी ला कर इस मैदान में जमा करती रहती हैं। अतः इस मैदान में मिट्टी की परतें बहुत गहराई तक पाई जाती हैं। कहीं-कहीं तो इनकी गहराई 2000 से 3000 मीटर तक है।

  • समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई लगभग 200 मीटर है।
  • समुद्र की ओर मंद ढाल होने के कारण इस मैदान में नदियाँ बहुत ही धीमी गति से बहती हैं।
  • वाराणसी से गंगा के मुहाने तक ढाल केवल 10 से.मी. प्रति किलोमीटर है।
  • अंबाला के आस-पास की भूमि अपेक्षाकृत ऊँची हैं। अतः यह भाग पूर्व में गंगा और पश्चिम में सतलुज नदी-घाटियों के बीच जल विभाजक का काम करता है।
  • इस जल विभाजक के पूर्व की ओर की नदियाँ बंगाल की खाड़ी में तथा पश्चिम की ओर की नदियाँ अरब सागर में मिलती हैं।

मैदान के अपेक्षाकृत ऊँचे भाग को ‘बॉगर’ कहते हैं। इस भाग में नदियों की बाढ़ का पानी कभी नहीं पहुँचता। इसके विपरीत ‘खादर’ मैदान का अपेक्षाकृत नीचा भाग है, जहाँ बाढ़ का पानी हर साल पहुँचता रहता है।

  • पंजाब में खादर को ‘बेट’ कहते हैं।
  • पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में शिवालिक पर्वत श्रेणी के साथ-साथ 10-15 कि. मी. चौड़ी मैदानी पट्टी को ‘भाबर’ कहते हैं। यह पट्टी कंकरीली बलुई मिट्टी से बनी है।
  • ग्रीष्म ऋतु में छोटे-छोटे नदी-नाले इस पट्टी में भूमिगत हो जाते हैं और इस पट्टी को पार करके इनका जल धरातल पर पुनः आ जाता है। यह जल भाबर के साथ-साथ फैली 15-30 कि.मी. चौड़ी ‘तराई’ नाम की पट्टी में जमा हो जाता है। इससे यहाँ दलदली क्षेत्र बन गया है। तराई का अधिकांश क्षेत्र कृषि योग्य बना लिया गया है।

Indias Northern Plains

उत्तरी विशाल मैदान को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है – 

  1. पश्चिमी मैदान
  2. उत्तरी मध्य मैदान
  3. पूर्वी मैदान
  4. ब्रह्मपुत्र का मैदान

1. पश्चिमी मैदान

  • राजस्थान का मरुस्थल तथा अरावली पर्वत श्रेणी का पश्चिमी बांगर क्षेत्र सम्मिलित हैं।
  • मरुस्थल का कुछ भाग चट्टानी तथा कुछ भाग रेतीला है।
  • प्राचीन काल में यहाँ सरस्वती और दृषद्वती नाम की सदानीरा नदियाँ बहती थीं।
  • उत्तरी मैदान के इस भाग में बीकानेर का उपजाऊ क्षेत्र भी है।
  • पश्चिमी मैदान से लूनी नदी कच्छ के रन में जाकर विलीन हो जाती हैं।
  • सांभर नाम की खारे पानी की प्रसिद्ध झील इस क्षेत्र में है।

2. उत्तरी मध्य मैदान

  • पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फैला है।
  • इस मैदान का पंजाब और हरियाणा में फैला भाग, सतलुज, रावी, और व्यास नदियों के द्वारा लाई गई मिट्टी से बना है।
  • यह भाग बहुत उपजाऊ है।
  • इस मैदान का उत्तर प्रदेश में फैला भाग गंगा, यमुना, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक नदियों के द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी से बना है।
  • मैदान का यह भाग भी बहुत उपजाऊ है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पालना रहा है।

3. पूर्वी मैदान

  • गंगा की मध्य और निचली घाटी में फैला है।
  • इस मैदान का विस्तार बिहार और पश्चिम बंगाल के राज्यों में है।
  • बिहार राज्य में गंगा नदी इस मैदान के बीच से होकर बहती है।
  • उत्तर की ओर से घाघरा, गंडक और कोसी तथा दक्षिण की ओर से सोन इसी मैदान में गंगा में मिलती हैं।
  • पश्चिम बंगाल राज्य में जो मैदानी भाग है, उसका विस्तार हिमालय के पाद प्रदेश से लेकर बंगाल की खाड़ी तक है। यहां यह मैदान कुछ अधिक चौड़ा हो गया है। इसका दक्षिणी भाग डेल्टा क्षेत्र है। इस डेल्टा क्षेत्र में गंगा अनेक वितरिकाओं में बंट जाती है।
  • हुगली गंगा की वितरिका का सबसे अच्छा उदाहरण है। यह मैदानी भाग भी बहुत उपजाऊ है।

4. ब्रह्मपुत्र का मैदान

  • भारतीय विशाल मैदान का उत्तर पूर्वी भाग असम में विस्तृत है।
  • यह मैदान ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी से बना है।
  • ब्रह्मपुत्र की धारा में बना माजुली (1250 वर्ग कि.मी.) द्वीप संसार का सबसे बड़ा नदी द्वीप है।
  • यह मैदानी भाग भी बहुत उपजाऊ है।
  • यह मैदानी भाग तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा है।
  • गंगा और ब्रह्मपुत्र तथा उनकी सहायक नदियों के द्वारा संयुक्त रूप से बनाए गए मैदान और डेल्टा प्रदेश में बांगलादेश स्थित हैं।
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भारत के उत्तरी विशाल पर्वत

भारत की उत्तर सीमा पर स्थित कश्मीर की उत्तरी पर्वत श्रृंखलाएँ तथा पठार, खास हिमालय पर्वत और अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, असम, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और मेघालय की पहाड़ियाँ सम्मिलित हैं। इन सभी को तीन वर्गों में रखा जा सकता है।
(i) हिमालय पर्वत
(ii) हिमालय पार की पर्वत श्रेणियाँ
(iii) पूर्वाचल या पूर्वी पहाड़ियाँ

Landforms-of-India

1. हिमालय पर्वत

हिमालय संसार की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला है। यह पर्वत भारत की उत्तरी सीमा पर पश्चिम से पूर्व की ओर एक चाप की आकृति में 2500 किलोमीटर की दूरी में फैला है। जम्मू-कश्मीर में सिंधु नदी के महाखड्ड से लेकर अरुणाचल प्रदेश में ब्रह्मपुत्र के महाखड्ड तक हिमालय का विस्तार है।

इसकी चौड़ाई पूर्व में 150 किलोमीटर से लेकर पश्चिम में 400 किलोमीटर तक है। हिमालय लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। इसकी तीन प्रमुख पर्वत श्रेणियाँ हैं। इन पर्वत श्रेणियों के बीच-बीच में गहरी घाटियाँ और विस्तृत पठार है। हिमालय के ढाल भारत की ओर तीव्र तथा तिब्बत की ओर मंद हैं।

हिमालय पर्वत पश्चिम बंगाल के मैदानी भाग से एकदम ऊपर उठे हुए दिखाई पड़ते हैं। यही कारण है कि इसके दो सर्वोच्च शिखर, एवरेस्ट (नेपाल में) और काँचनजंगा, मैदानी भाग से ज्यादा दूरी पर नहीं है। इसके विपरीत हिमालय का पश्चिमी भाग मैदानी क्षेत्र से धीरे-धीरे ऊपर उठा है। इसी कारण यहाँ ऊँची चोटियों और मैदानों के बीच कई श्रेणियाँ मिलती हैं। इसीलिए इस भाग की ऊँची चोटियाँ जैसे नंगा पर्वत, नंदा देवी, बद्रीनाथ आदि मैदानी भाग से काफी दूर हैं।

हिमालय में तीन समान्तर पर्वत श्रेणियाँ स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं। ये पर्वत श्रेणियाँ है—
(i) हिमाद्रि,
(ii) हिमाचल,
(ii) शिवालिक

(i) हिमाद्रि (सर्वोच्च हिमालय)

यह हिमालय की सबसे उत्तरी तथा सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला है। हिमालय की यही एक पर्वत श्रेणी ऐसी है, जो पश्चिम से पूर्व तक अपनी निरन्तरता बनाए रखती है। इस श्रेणी की क्रोड ग्रेनाइट शैलों से बनी है, जिसके आस-पास कायान्तरित और अवसादी शैलें भी मिलती हैं।

  • इस श्रेणी के पश्चिमी छोर पर – नंगापर्वत शिखर (8126 मी.)
  • पूर्वी छोर पर – नामचावरवा शिखर (7756 मी.) है।
  • समुद्र तल से औसत ऊँचाई – लगभग 6100 मी. है।

इस क्षेत्र में 100 से अधिक पर्वत शिखर 6100 मी. से अधिक ऊँचे हैं। संसार की सबसे ऊँची पर्वत चोटी एवरेस्ट (8848 मी.) इसी पर्वत श्रेणी में स्थित है। काँचनहुँगा (8598 मी.) मकालू, धौलागिरि तथा अन्नपूर्णा आदि हिमाद्रि की अन्य चोटियाँ है जिनकी ऊँचाई आठ हजार मीटर से अधिक है। काँचनहुँगा भारत में हिमालय का सर्वोच्च शिखर है।

(ii) हिमाचल (लघु) हिमालय

यह पर्वत श्रेणी हिमाद्रि के दक्षिण में स्थित है। यह पर्वत श्रेणी 60 से 80 किलोमीटर तक चौड़ी तथा 1000 से 4500 मीटर तक ऊँची है। इसके कुछ शिखर 5000 मीटर से भी अधिक ऊँचे हैं। यह श्रेणी बहुत ही ऊबड़-खाबड़ है। इसमें संपीडन के द्वारा बड़े पैमाने पर शैलों का कायान्तरण हुआ है। अतः इस श्रेणी की रचना कायान्तरित शैलों द्वारा हुई है। इस श्रेणी के पूर्वी भाग के मन्द ढाल घने वनों से ढके हैं। अन्यत्र इस श्रेणी के दक्षिणाभिमुख ढाल बहुत ही तीव्र और वनस्पति विहीन हैं। उत्तराभिमुख ढालों पर सघन वनस्पति पाई जाती है।

कश्मीर में इस श्रेणी को पीर पंजाल तथा हिमाचल प्रदेश में धौलाधार के स्थानीय नामों से जाना जाता है। कश्मीर की सुरम्य घाटी, पीर पंजाल और हिमाद्रि श्रेणी के बीच विस्तृत है। हिमाचल पर्वत श्रेणी में ही कांगड़ा और कुल्लू की प्रसिद्ध घाटियाँ है।

हिमाचल पर्वत श्रेणियों पर ही प्रमुख पर्वतीय नगर बसे हैं। शिमला, नैनीताल, मसूरी, अल्मोड़ा और दार्जिलिंग ऐसे ही कुछ प्रसिद्ध पर्वतीय नगर हैं। नैनीताल के आस-पास अनेक सुंदर झीलें हैं।

(iii) शिवालिक (बाह्य हिमालय)

हिमालय की सबसे दक्षिण की श्रेणी शिवालिक के नाम से विख्यात है। हिमालय की हिमाद्रि और हिमाचल पर्वत श्रेणियाँ शिवालिक से पहले बन चुकी थीं। हिमाद्रि और हिमाचल श्रेणियों से निकलने वाली नदियां कंकड़-पत्थर, बालू और मिट्टी भारी मात्रा में बहाकर लाती थीं और इन्हें तेजी से सिकुड़ते टेथिस सागर में जमा कर देती थी। कालांतर में हुई हलचलों से कंकड़-पत्थर और बालू के अवसादों में मोड़ पड़ गए और इस प्रकार शिवालिक श्रेणी का निर्माण हुआ। ये सबसे कम संघटित श्रेणियाँ हैं। हिमाद्रि और हिमाचल पर्वत श्रेणियों की तुलना में शिवालिक श्रेणियां कम ऊँची हैं। इनकी औसत ऊँचाई 600 मीटर है। हिमाचल और शिवालिक श्रेणियों के बीच फैली चौरस घाटियों को ‘दून’ के नाम से जाना जाता है। देहरादून की घाटी इसका उदाहरण है।

2. हिमालय पार की पर्वत श्रेणियाँ

जम्मू-कश्मीर राज्य में हिमाद्रि के उत्तर में कुछ पर्वत श्रेणियां फैली हैं। इनमें जाकर पर्वत श्रेणी हिमाद्रि के समानान्तर विस्तृत है। जास्कर के उत्तर में लद्दाख पर्वत श्रेणी है। इन दोनों पर्वत श्रेणियों के बीच सिन्धु नदी दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती है। अनेक विद्वान जास्कर और लद्दाख श्रेणियों को वृहत हिमालय के ही अंग मानते हैं और उन्हें कश्मीर हिमालय में सम्मिलित करते हैं। लद्दाख पर्वत श्रेणी के उत्तर में कराकोरम पर्वत श्रेणी है। संस्कृत साहित्य में काराकोरम का नाम कृष्णगिरि है। इस पर्वत श्रेणी का एक पर्वत शिखर के (8611 मी.) एवरेस्ट शिखर के बाद संसार का दूसरा सबसे ऊँचा शिखर है।

जम्मू-कश्मीर राज्य के ऊत्तर-पूर्वी भाग में लद्दाख का पठार है। यह पठार हमारे देश का बहुत ऊँचा, शुष्क, और दुर्गम क्षेत्र है।

3. पूर्वाचल

ब्रह्मपुत्र महाखड्ड के पार भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में फैली पहाड़ियों का सम्मिलित नाम पूर्वाचल है। इन पहाड़ियों की औसत ऊँचाई समुद्रतल से 500 से 3000 मी. तक है। ये पहाड़ियाँ दक्षिणी-अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय और त्रिपुरा में स्थित हैं। मिश्मी, पटकाई बुम, नागा, मणिपुर और मिजो (लुशाई) तथा त्रिपुरा इस क्षेत्र की प्रमुख पहाड़ियाँ हैं। मेघालय का पठार उत्तर-पूर्वी पहाड़ियों का ही एक भाग है। इस पठार में गारो, खासी और जयन्तिया पहाड़ियाँ हैं। सरंचनात्मक दृष्टि से यह प्रायद्वीपीय भारत का ही भाग माना जाता है।

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भारत की भू-आकृति

भारत भौतिक विविधताओं का देश है। यहाँ लगभग सभी प्रकार की स्थलाकृतियाँ पाई जाती हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत के कुल क्षेत्रफल के 29.3% भाग पर पर्वत, 27.7% भाग पर पठार तथा 43% भाग पर मैदान फैले हुए हैं।

Landforms-of-India
Image Source – NCERT

भू-आकृतिक दृष्टि से भारत को चार विभागों में बाँटा जा सकता है –

  1. उत्तरी विशाल पर्वत,
  2. उत्तरी विशाल मैदान,
  3. विशाल पठार,
  4. तटवर्ती मैदान और द्वीप समूह
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