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Indian Election System

आदर्श आचार संहिता और इसका विकास

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र के आधार हैं। इसमें मतदाताओं के बीच अपनी नीतियों तथा कार्यक्रमों को रखने के लिए सभी उम्मीदवारों तथा सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर और बराबरी का स्तर प्रदान किया जाता है। इस संदर्भ में आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) का उद्देश्य सभी राजनीतिक दलों के लिए बराबरी का समान स्तर उपलब्ध कराना प्रचारअभियान को निष्पक्ष तथा स्वस्थ्य रखना, दलों के बीच झगड़ों तथा विवादों को टालना है। इसका उद्देश्य केन्द्र या राज्यों की सत्ताधारी पार्टी आम चुनाव में अनुचित लाभ लेने से सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग रोकना है। आदर्श आचार संहिता लोकतंत्र के लिए भारतीय निर्वाचन प्रणाली का प्रमुख योगदान है।

आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)

किसी भी राज्य में चुनाव से पहले एक अधिसूचना जारी की जाती है। इसके बाद उस राज्य में ‘आदर्श आचार संहिता’ लागू हो जाती है और नतीजे आने तक जारी रहती है। 

क्या है आदर्श आचार संहिता?

मुक्त और निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में चुनावों को एक उत्सव जैसा माना जाता है और सभी सियासी दल तथा वोटर्स मिलकर इस उत्सव में हिस्सा लेते हैं। चुनावों की इस आपाधापी में मैदान में उतरे उम्मीदवार अपने पक्ष में हवा बनाने के लिये सभी तरह के हथकंडे आजमाते हैं। ऐसे माहौल में सभी उम्मीदवार और सभी राजनीतिक दल वोटर्स के बीच जाते हैं। ऐसे में अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को रखने के लिये सभी को बराबर का मौका देना एक बड़ी चुनौती बन जाता है, लेकिन आदर्श आचार संहिता इस चुनौती को कुछ हद तक कम करती है।

  • चुनाव की तारीख का ऐलान होते ही यह लागू हो जाती है और नतीजे आने तक जारी रहती है।
  • दरअसल ये वो दिशा-निर्देश हैं, जिन्हें सभी राजनीतिक पार्टियों को मानना होता है। इनका मकसद चुनाव प्रचार अभियान को निष्पक्ष एवं साफ-सुथरा बनाना और सत्ताधारी राजनीतिक दलों को गलत फायदा उठाने से रोकना है। साथ ही सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग रोकना भी आदर्श आचार संहिता के मकसदों में शामिल है।
  • आदर्श आचार संहिता को राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिये आचरण एवं व्यवहार का पैरामीटर माना जाता है।
  • दिलचस्प बात यह है कि आदर्श आचार संहिता किसी कानून के तहत नहीं बनी है। यह सभी राजनीतिक दलों की सहमति से बनी और विकसित हुई है।
  • सबसे पहले 1960 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता के तहत बताया गया कि क्या करें और क्या न करें।
  • 1962 के लोकसभा आम चुनाव में पहली बार चुनाव आयोग ने इस संहिता को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में वितरित किया। इसके बाद 1967 के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में पहली बार राज्य सरकारों से आग्रह किया गया कि वे राजनीतिक दलों से इसका अनुपालन करने को कहें और कमोबेश ऐसा हुआ भी। इसके बाद से लगभग सभी चुनावों में आदर्श आचार संहिता का पालन कमोबेश होता रहा है।
  • गौरतलब यह भी है कि चुनाव आयोग समय-समय पर आदर्श आचार संहिता को लेकर राजनीतिक दलों से चर्चा करता रहता है, ताकि इसमें सुधार की प्रक्रिया बराबर चलती रहे।

आदर्श आचार संहिता की आवश्यकता क्यों पड़ी?

एक ज़माना था, जब चुनावों के दौरान दीवारें पोस्टरों से पट जाया करती थीं। लाउडस्पीकर्स का कानफोडू शोर थमने का नाम ही नहीं लेता था। दबंग उम्मीदवार धन-बल के ज़ोर पर चुनाव जीतने के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते थे। चुनावी वैतरणी पार करने के लिये साम, दाम, दंड, भेद का सहारा खुलकर लिया जाता था। बूथ कैप्चरिंग करने और बैलट बॉक्स लूट लेने जैसी घटनाएँ भी आम थीं। सैकड़ों की संख्या में लोग चुनावी हिंसा के दौरान हताहत होते थे। तब चुनावों में शराब और रुपए बाँटने का खुला खेल चलता था। ऐसे हालातों में आदर्श आचार संहिता रामबाण तो नहीं, लेकिन आशा की किरण बनकर ज़रूर सामने आई।

  • अब कहीं पर भी चुनाव होने पर आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है और इसका सबसे बड़ा मकसद चुनावों को पारदर्शी तरीके से संपन्न कराना होता है।
  • इसके अलावा समय से पहले विधानसभा का विघटन हो जाने पर भी आदर्श आचार संहिता में प्रावधान किये गए हैं। इनके तहत कामचलाऊ राज्य सरकार और केंद्र सरकार राज्य के संबंध में किसी नई योजना या परियोजना का ऐलान नहीं कर सकती है।
  • चुनाव आयोग को यह अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के एस.आर. बोम्मई मामले में दिये गए ऐतिहासिक फैसले से मिला है। 1994 में आए इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि कामचलाऊ सरकार को केवल रोज़ाना का काम करना चाहिये और कोई भी बड़ा नीतिगत निर्णय लेने से बचना चाहिये।

आदर्श आचार संहिता की विशेषता

भारत में होने वाले चुनावों में अपनी बात वोटर्स तक पहुँचाने के लिये चुनाव सभाओं, जुलूसों, भाषणों, नारेबाजी और पोस्टरों आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसी के मद्देनज़र आदर्श आचार संहिता के तहत क्या करें और क्या न करें की एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है, लेकिन हम बात उन्हीं मुद्दों पर करेंगे, जो आदर्श आचार संहिता को इतना अहम बना देते हैं।

  • वर्तमान में प्रचलित आदर्श आचार संहिता में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के सामान्य आचरण के लिये दिशा-निर्देश दिये गए हैं।
  • सबसे पहले तो आदर्श आचार संहिता लागू होते ही राज्य सरकारों और प्रशासन पर कई तरह के अंकुश लग जाते हैं।
  • सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक निर्वाचन आयोग के तहत आ जाते हैं।
  • आदर्श आचार संहिता में रूलिंग पार्टी के लिये कुछ खास गाइडलाइंस दी गई हैं। इनमें सरकारी मशीनरी और सुविधाओं का उपयोग चुनाव के लिये न करने और मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों द्वारा अनुदानों, नई योजनाओं आदि का ऐलान करने की मनाही है।
  • मंत्रियों तथा सरकारी पदों पर तैनात लोगों को सरकारी दौरे में चुनाव प्रचार करने की इजाजत भी नहीं होती।
  • सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर विज्ञापन जारी नहीं किये जा सकते हैं। इनके अलावा चुनाव प्रचार के दौरान किसी की प्राइवेट लाइफ का ज़िक्र करने और सांप्रदायिक भावनाएँ भड़काने वाली कोई अपील करने पर भी पाबंदी लगाई गई है।
  • यदि कोई सरकारी अधिकारी या पुलिस अधिकारी किसी राजनीतिक दल का पक्ष लेता है तो चुनाव आयोग को उसके खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है। इसके अलावा चुनाव सभाओं में अनुशासन और शिष्टाचार कायम रखने तथा जुलूस निकालने के लिये भी गाइडलाइंस बनाई गई हैं।
  • किसी उम्मीदवार या पार्टी को जुलूस निकालने या रैली और बैठक करने के लिये चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ती है और इसकी जानकारी निकटतम थाने में देनी होती है।
  • हैलीपैड, मीटिंग ग्राउंड, सरकारी बंगले, सरकारी गेस्ट हाउस जैसी सार्वजनिक जगहों पर कुछ उम्मीदवारों का कब्ज़ा नहीं होना चाहिये। इन्हें सभी उम्मीदवारों को समान रूप से मुहैया कराना चाहिये।

इन सारी कवायदों का मकसद सत्ता के गलत इस्तेमाल पर रोक लगाकर सभी उम्मीदवारों को बराबरी का मौका देना है।

आदर्श आचार संहिता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का नज़रिया

इस मुद्दे पर देश की आला अदालत भी अपनी मुहर लगा चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय इस बाबत 2001 में दिये गए अपने एक फैसले में कह चुका है कि चुनाव आयोग का नोटिफिकेशन जारी होने की तारीख से आदर्श आचार संहिता को लागू माना जाएगा।

  • इस फैसले के बाद आदर्श आचार संहिता के लागू होने की तारीख से जुड़ा विवाद हमेशा के लिये समाप्त हो गया।
  • अब चुनाव अधिसूचना जारी होने के तुरंत बाद जहाँ चुनाव होने हैं, वहाँ आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है।
  • यह सभी उम्मीदवारों, राजनीतिक दलों तथा संबंधित राज्य सरकारों पर तो लागू होती ही है, साथ ही संबंधित राज्य के लिये केंद्र सरकार पर भी लागू होती है।

आदर्श आचार संहिता के लिये अपनाई जा रही एडवांस तकनीकें

जब डिजिटलीकरण और हाई-टेक होने का दौर चल रहा हो तो भला चुनाव आयोग क्यों पीछे रहता। आदर्श आचार संहिता को और यूज़र-फ्रेंडली बनाने के लिये कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने ‘cVIGIL’ एप लॉन्च किया। तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिज़ोरम और राजस्थान के हालिया विधानसभा चुनावों में इसका इस्तेमाल हो रहा है।

  • cVIGIL के ज़रिये चुनाव वाले राज्यों में कोई भी व्यक्ति आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की रिपोर्ट कर सकता है। इसके लिये उल्लंघन के दृश्य वाली केवल एक फोटो या अधिकतम दो मिनट की अवधि का वीडियो रिकॉर्ड करके अपलोड करना होता है।
  • उल्लंघन कहाँ हुआ है, इसकी जानकारी GPS के ज़रिये ऑटोमेटिकली संबंधित अधिकारियों को मिल जाती है।
  • शिकायतकर्त्ता की पहचान गोपनीय रखते हुए रिपोर्ट के लिये यूनीक आईडी दी जाती है। यदि शिकायत सही पाई जाती है तो एक निश्चित समय के भीतर कार्रवाई की जाती है।

यह तो बात हुई इस एप के फायदों की, लेकिन हम सब यह भी जानते हैं कि नफे के साथ नुकसान भी जुड़ा होता है। इसी के मद्देनज़र इस एप के गलत इस्तेमाल को रोकने के भी इंतज़ाम किये गए हैं।

  • यह एप केवल आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के बारे में काम करता है। तस्वीर लेने या वीडियो बनाने के बाद यूज़र्स को रिपोर्ट करने के लिये केवल पाँच मिनट का समय मिलता है और इसमें पहले से ली गई फोटोज़ या वीडियो अपलोड नहीं किये जा सकते।
  • हाई-टेक होने की दौड़ में cVIGIL एप के अलावा चुनाव आयोग ने और कई एडवांस तकनीकों को भी अपनाया है। इनमें नेशनल कंप्लेंट सर्विस, इंटीग्रेटेड कॉन्टैक्ट सेंटर, सुविधा, सुगम, इलेक्शन मॉनिटरिंग डैशबोर्ड और वन वे इलेक्ट्रॉनिकली ट्रांसमिटेड पोस्टल बैलट आदि शामिल हैं।
  • चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता तथा अन्य उपायों के ज़रिये चुनावों को निष्पक्ष और साफ-सुथरा बनाने के प्रयास लगातार करता रहता है और इसके लिये उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा भी गया है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भारत जैसे बड़े देश में चुनावों को केवल आदर्श आचार संहिता के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जा सकता है।

आगे की राह

वैसे देखा जाए तो आदर्श आचार संहिता में सब कुछ चमकीला ही दिखाई देता है, लेकिन यह देखने में आया है कि इसके लागू हो जाने के बाद डेढ़-दो महीने तक सरकारी कामकाज लगभग ठप पड़ जाते हैं।

  • बार-बार होने वाले चुनावों के कारण प्रशासन तो प्रभावित होता ही है, भारी मात्रा में पैसे की भी बर्बादी होती है।
  • हमारे देश में सालभर कहीं-न-कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। इसलिये 1999 में विधि आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में देशभर में एक साथ चुनाव करने की सिफारिश की थी। अभी कुछ समय पहले भी विधि आयोग देशभर में एक साथ चुनाव कराए जाने को लेकर ड्राफ्ट पेश कर चुका है।
  • इसके अलावा, भारत के उपराष्ट्रपति भी कह चुके हैं कि सभी राजनीतिक दल आपसी सहमति बनाकर अपने मेंबर्स के लिये एक आदर्श आचार संहिता तैयार करें, जिस पर विधानमंडल और संसद के भीतर एवं बाहर अमल होना चाहिये।
  • लेकिन यह भी सच है कि चुनावों के दौरान लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने की कोशिश सरकार किसी-न-किसी तरीके से ज़रूर करती है। यदि चुनाव आयोग कड़ी निगाह न रखे तो वह इस कोशिश में कामयाब भी हो जाती है।
  • ऐसे में आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होने पर चुनाव आयोग के पास कार्रवाई करने के अधिकार भी होते हैं। इसके लिये चुनाव आयोग FIR दर्ज करा सकता है या उम्मीदवारी पर रोक तक लगा सकता है।
  • दरअसल, आदर्श आचार संहिता चुनाव सुधारों से जुड़ा एक अहम् मुद्दा है, जिससे और बहुत से चुनाव सुधारों का रास्ता खुलता है। देखा जाए तो हर चुनाव के साथ हमारी डेमोक्रेसी में और निखार आता जा रहा है, लेकिन लोकतंत्र के इस उत्सव को सफल बनाने में चुनाव आयोग की कोशिशों के साथ देश के नागरिकों की भी यह जवाबदेही है कि इसे सफल बनाएँ।

 

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भारतीय चुनाव प्रणाली (Indian Election System)

17वें लोकसभा चुनाव की तारीख का ऐलान हो गया हैं। यह चुनाव 11 अप्रैल से 19 मई तक 7 चरणों में होंगे और 23 मई को नतीजे आएंगे। इसके साथ ही आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम में भी विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही कराया जायेगा।

चुनाव किसी भी लोकतंत्र के लिए एक सर्वाधिक सशक्त तत्व है तथा जब-तक चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से होते रहते हैं, तब-तक राष्ट्र में ईमानदार जन-प्रतिनिधित्व कायम रहता है। विश्व के सबसे बड़े एवं सर्वाधिक लोकप्रिय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली वाला देश भारत इस बात पर गर्व कर सकता है कि केन्द्र एवं राज्यों में यदि विगत 70 वर्षों में शान्तिपूर्ण तरीके से सत्ता का हस्तान्तरण हुआ है, तो इसका श्रेय मुख्य रूप से भारत की निष्पक्ष निर्वाचन प्रणाली को जाना चाहिए।

भारतीय चुनाव प्रणाली (Indian Election System)

लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव बहुमत अथवा ‘फर्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट (First Past the Post)’ निर्वाचन प्रणाली का प्रयोग कर कराए जाते हैं। देश को विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा जाता है, जिन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं। विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं, तथा चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र प्रत्याशियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। चुनाव के दौरान विभिन्न राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी खड़े करते हैं और अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए, अपनी पसंद के एक प्रत्याशी के लिए प्रत्येक व्यक्ति एक वोट डाल सकता है। प्रत्याशी जो अधिकतम मत संख्या प्राप्त कर लेता है, चुनाव जीत जाता है और निर्वाचित हो जाता है। इसलिए चुनाव ही वह साधन है जिसके द्वारा लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं।

कौन मतदान कर सकता है? (Who Can Vote?)

जबकि मतदाता के लिए कोई निर्धारित अधिकतम आयु-सीमा नहीं है, परन्तु भारतीय संविधान के मूल प्रावधानों के अनुसार, 21 वर्ष आयु से ऊपर के सभी भारतीय नागरिक चुनावों के समय वोट देने के हकदार हैं। वर्ष 1988 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री, राजीव गाँधी द्वारा कराये गए 61वें संविधान संशोधन द्वारा नागरिकों की निम्नतम मतदान आयु घटाकर 18 वर्ष कर दी गई जो 28 मार्च 1989 से प्रभावी हो गई। इसके अतिरिक्त किसी भी निर्वाचन-क्षेत्र में एक मतदाता के रूप में पंजीकृत किए जाने के लिए कोई व्यक्ति, अनावास के आधार पर, अथवा उसके अस्वस्थ होने पर, अथवा उसे अपराध या भ्रष्टाचार या अवैध व्यवसाय के आधार पर कानून के तहत अयोग्य घोषित न किया गया हो।

चुनाव कौन लड़ सकता है? (Who Can Fight for Elections?)

लोकसभा, विधानसभा, राज्यसभा और विधान परिषद् हेतु चुनाव लड़ने के लिए कौन सुयोग्य है। सभी प्रतिस्पर्धी प्रत्याशियों को यदि लोकसभा चुनाव लड़ना हो तो 25,000 रुपये और यदि विधानसभा चुनाव लड़ना हो तो 10,000 रुपये जमा कराने होते हैं। इसको प्रत्याशियों की प्रतिभूति राशि माना जाता है। यह प्रतिभूति राशि उन सभी प्रत्याशियों को लौटा दी जाती है जो उस निर्वाचन क्षेत्र में डाले गए कुछ वैध मतों की संख्या के एक-बटा-छह से अधिक मत प्राप्त करते हैं। अन्य सभी प्रत्याशी अपनी प्रतिभूति राशि हार जाते है।

नोट: आरक्षित वर्ग के लिए यह रकम आधी हो जाती है।

इसके अतिरिक्त, नामांकन उस निर्वाचन क्षेत्र से जिससे प्रत्याशी, यदि – वह किसी पंजीकृत राजनीतिक दल द्वारा प्रायोजित किया जा रहा हो; चुनाव लड़ना चाहता है, कम से कम एक पंजीकृत मतदाता द्वारा समर्थित हो, और यदि वह प्रत्याशी स्वतंत्र प्रत्याशी हो तो कम से कम दस पंजीकृत मतदाताओं द्वारा समर्थित हो।

भारतीय चुनाव प्रणाली की कमजोरियाँ (Vulnerabilities of the Indian Electoral System)

भारत के विशाल भौगोलिक आकार तथा भारत की सामाजिक आर्थिक राजनीतिक धार्मिक सांस्कृतिक विविधताओं के सन्दर्भ में चुनाव प्रणाली में समय-समय पर किए गए सुधारों से यह उत्तरोत्तर सुदृढ हुई है, लेकिन इसमें आज भी अनेक कमजोरियों दृष्टिगोचर होती हैं। सामान्यतया भारत की निर्वाचन प्रणाली निम्नलिखित कमजोरियों से ग्रसित है –

  • कम मतदान प्रतिशत के साथ विधायिका में ईमानदार और वास्तविक प्रतिनिधित्व की अभाव – मतदान का औसत 55-65 प्रतिशत के बीच रहता है। इसका अर्थ है कि 45-35 प्रतिशत जनता की राष्ट्रीय राजनीति और नीतियों के निर्धारण में कोई भूमिका ही नहीं है।
  • राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों पर से उठता विश्वास – भारत के राजनीतिज्ञों पर से आम आदमी को विश्वास उठ गया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफास (Association for Democratic Rifaas) तथा नेशनल इलेक्शन वाच (National Election Watch) द्वारा सन् 2014 और उसके बाद के निर्वाचनों में विजयी सांसदों/विधायकों की सम्पत्तियों तथा उनके विरुद्ध न्यायालयों में लम्बित आपराधिक मामलों का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है उसके अनुसार 543 सांसदों में से 34 प्रतिशत (184) के विरुद्ध न्यायालयों में आपराधिक वाद लम्बित है।
    • 76 सांसद हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण एवं चोरी जैसे गम्भीर अपराधों में आरोपी हैं।
    • राज्य विधान सभाओं के 4032 विधायकों में से 1258 विधायकों (31%) के विरुद्ध आपराधिक वाद लम्बित हैं।
    • 564 विधायक (14%) हत्या, अपहरण, आगजनी, बलात्कार चोरी जैसे गम्भीर मामलों में अभियुक्त है।
  • राजनीति का अपराधीकरण तथा अपराधियों का राजनीतिकरण – भारतीय राजनीति का विदूपयुक्त चेहरा यह बताता है, कि अपराधियों के चुनाव न लड़ने पर कोई रोक न होने के कारण हत्या, अपहरण, आगजनी, सार्वजनिक धन के दुरुपयोग, बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में संलिप्त लोग भी केवल इस आधार पर चुनाव लड़ने और जीतने में सफल हो जाते हैं कि मामला न्यायालय में लम्बित है। न्याय-प्रणाली की विडम्बना यह है कि निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक की न्यायिक प्रक्रिया में 20 से 30 वर्ष तक का समय लग जाता है।
  • सर्वाधिक खर्चीली चुनाव प्रणाली – भारत की निर्वाचन प्रणाली को सर्वाधिक खर्चीला माना जाता है लोक सभा का चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को अनुमानित 5 करोड़ से 50 करोड़ तक का खर्चा उठाना पड़ता है।

स्पष्ट है कि उम्मीदवारों द्वारा चुनाव लड़ने पर बहुत बड़ी धनराशि खर्च की जाती हैं और यह सारा का सारा धन काला धन होता है।

  • राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चन्दे में अपारदर्शिता – यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि भारत के औद्योगिक घराने सभी बड़े राजनीतिक दलों को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए का चन्दा देते हैं, एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफाम्स (ADR) के एक विश्लेषण के अनुसार राजनीतिक दलों को ज्ञात स्रोतों से प्राप्त होने वाले चन्दे का 87 प्रतिशत उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों से आता है। इसका सीधा सा निष्कर्ष है कि राजनीतिज्ञों एवं व्यावसायिक जगत् के कर्ताधर्ताओं के बीच गहरी साँठगाँठ है।

कानूनन भारत के राजनीतिक दल विदेशी कम्पनियों से चन्दा नहीं ले सकते। अब एनडीए सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम 2010 को संशोधित करके राजनीतिक दलों द्वारा विदेशी कम्पनियों से चन्दा लेने को वैधता प्रदान कर दी है। इतना ही नहीं अब राजनीतिक दलों द्वारा 5 अगस्त, 1976 के बाद विदेशी कम्पनियों से लिए गए चन्दों की जाँच भी नहीं की जा सकेगी 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक फैसले से राजनीतिक दल विदेशी कम्पनियों से लिए गए चन्दे के मामलों में जाँच के घेरे में थे।

कालेधन के रूप में लिए गए चन्दे का तो कोई भी राजनीतिक दल लेखा-जोखा ही नहीं रखता यही कि लगभग सभी राजनीतिक दल स्वयं को सूचना पाने का अधिकार अधिनियम 2005 के दायरे में आने का विरोध कर रहे थे, केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने एक निर्णय में सभी 6 राष्ट्रीय राजनीतिक दलों काग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सीपीआई एम, सीपीआई तथा बहुजन समाज पार्टी को सूचना पाने का अधिकार अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत आछादित होने का निर्णय 3 जून, 2013 को सुनाया था। इस निर्णय के विरुद्ध सभी राजनीतिक दल एक मंच पर आ गए और केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने सूचना पाने का अधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन लाने सम्वन्धी विधेयक का अनुमोदन कर दिया।

  • मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने की हेरा-फेरी – राज्यों में सत्तारूढ राजनीतिक दल की शह पर जिला निर्वाचन अधिकारी के स्तर पर मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर हेरा फेरी की जाती है विरोधी राजनीतिज्ञों के समर्थक मतदाताओं के नाम सूची से काट दिए जाते हैं, जबकि सत्ता-दल के समर्थकों के नाम एक से अधिक मतदाता सूचियों में जोड दिए जाते हैं ।
  • सभी उम्मीदवारों को नकारने का मुद्दा –  समाजसेवी अन्ना हजारे और उनके समर्थक एक स्वर से यह माँग करते रहे हैं, कि मतदाताओं को यह अधिकार होना चाहिए कि वे चुनाव में खडे एक को छोड़कर सभी को नापसंद करने के स्थान पर कोई भी पसन्द नहीं का भी विकल्प चुन सकें सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर भारत निवचिन आयोग ने अक्टूबर-दिसम्बर 2013 में सम्पन्न मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली तथा मिजोरम के चुनाव में उपर्युक्त में से कोई नहीं (None of the Above – NOTA) का विकल्प इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नोटा बटन के रूप में रखा और आश्चर्य जनक रूप से देश के पिछड़े राज्यों में से एक छत्तीसगढ़ राज्य के अनेक मतदाताओं ने नोटा विकल्प को चुना और हाल ही मे संपन्न हुए विधानसभा के चुनाव में भी इसका अच्छा खासा असर देखा गया
  • निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार (Right to Reciall) – समाजसेवी अन्ना हजारे और उनके समर्थकों की यह भी माँग है कि मतदाताओं को यह भी अधिकार होना चाहिए कि वे यदि अपने निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधि की गतिविधियों से सन्तुष्ट न हों, तो उसकी सदस्यता समाप्त कराने अर्थात् उसे वापस बुला सकें, प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के सिद्धान्त का प्रतिपादन लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने किया था।
  • गैर-गम्भीर सांसदों/विधायकों की बढ़ती संख्या – जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी भागीदारी के सिद्धान्त पर लोक सभा और विधान सभा में ऐसे सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, जो विधायी कार्यों, आर्थिक सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति गम्भीर नहीं हैं। इस कटु वास्तविकता का अनुमान सदन की कार्यवाहियों के दौरान सदस्यों की लगातार घटती संख्या से लगाया जा सकता है। सरकार बचाने या गिराने जैसे मुद्दों पर सदन में मतदान होने के समय उपस्थित रहने के लिए मुख्य सचेतक द्वारा लिखित आदेश की बाध्यता से ही सदस्य सदन में उपस्थित रहते हैं वह भी केवल हों या न का बटन दबाने के लिए या सदन में हल्ला गुल्ला करने के लिए।

 

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