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भारत में प्राकृतिक वनस्पति

पौधों की जातियों, जैसे पेड़ों, झाड़ियों, घासों, बेलों, लताओं आदि के समूह, जो किसी विशिष्ट पर्यावरण में एक दूसरे के साहचर्य में विकसित हो रहे हैं, को प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं। इसके विपरीत वन से तात्पर्य पेड़ों व झाड़ियों से युक्त एक विस्तृत भाग से है जिसका हमारे लिये आर्थिक महत्व है। इस प्रकार प्राकृतिक वनस्पति की तुलना में वन का अर्थ भिन्न है।

प्रमुख वनस्पति प्रकार

भारत में पायी जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति को सामान्यतया निम्न प्रकारों में बांटा जाता है :-

Natural Vegetation in India
Image Source – NCERT
  1. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय सदाहरित एवं अर्द्ध सदाहरित वनस्पति
  2. उष्णकटिबन्धीय आर्द्र पर्णपाती वनस्पति
  3. उष्णकटिबन्धीय शुष्क वनस्पति
  4. ज्वारीय वनस्पति तथा
  5. पर्वतीय वनस्पति

1. आर्द्र उष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वनस्पति (Tropical Wet Evergreen Vegetation)

ये उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन हैं जिन्हें उनकी विशेषताओं के आधार पर निम्न दो प्रकारों में बांटा जाता है :

I. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय सदाबहार वनस्पति (Humid tropical Evergreen Vegetation) :

  • यह उन प्रदेशों में पायी जाती है जहां वार्षिक वर्षा 300 से.मी. से अधिक तथा शुष्क ऋतु बहुत छोटी होती है।
  • पश्चिमी घाट के दक्षिणी भागों, केरल व कर्नाटक तथा अधिक आर्द्र उत्तर पूर्वी पहाड़ियों में इस प्रकार की वनस्पति पायी जाती है।
  • यह विषुवतीय वनस्पति से मिलती जुलती है। यह वनस्पति, अत्यधिक कटाई से नष्ट प्राय हो गई है। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें हैं –
    • ये वन घने हैं तथा लम्बे सदा हरित पेड़ों से युक्त हैं। पेड़ों की लम्बाई अक्सर 60 मीटर या इससे भी अधिक होती है।
    • प्रति इकाई क्षेत्र पर पौधों की जातियां इतनी अधिक हैं कि उनका वाणिज्यिक उपयोग नहीं हो पाता।
    • महोगनी, सिनकोना, बांस तथा ताड़, इन वनों में पाये जाने वाले खास पेड़ हैं। पेड़ों के नीचे झाड़ियों, बेलों, लताओं आदि का सघन मोटा जाल पाया जाता है। घास प्रायः अनुपस्थिति है।
    • इन पेड़ों की लकड़ी अधिक कठोर व भारी होती है। अतः इन्हें काटने व लाने ले जाने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है।

II. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय अर्द्ध सदाहरित वनस्पति (Wet Tropical Semi-Evergreen Vegetation):

  • यह आर्द्र सदाहरित वनस्पति तथा आर्द्र शीतोष्ण पर्णपाती वनस्पति के मध्यवर्ती भागों में पायी जाती है।
  • इस प्रकार की वनस्पति मेघालय पठार, सह्याद्रि एवं अण्डमान व निकोबार द्वीपों में मिलती है।
  • यह वनस्पति 250 से.मी. से 300 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों तक ही सीमित है। इनकी प्रमुख विशेषतायें हैं : –
    • यह वनस्पति आर्द्र सदाहरित वनों से कम घनी है।
    • इन वनों की लकड़ी दानेदार अच्छी किस्म की होती है।
    • रोजवुड, ऐनी तथा तेलसर सह्याद्रि के वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। चम्पा, जून तथा गुरजन, असम व मेघालय तथा आइरनवुड, एबोनी व लॉरेल अन्य प्रदेशों के प्रमुख वृक्ष हैं।
    • स्थानान्तरी कृषि एवं अत्यधिक शोषण से इन वनों का अत्यधिक हास हुआ है।

2. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वनस्पति (Wet Tropical Deciduous Vegetation)

  • यह भारत की सबसे विस्तृत वनस्पति पेटी है।
  • इस प्रकार की वनस्पति 100 से.मी. से 200 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पायी जाती है।
  • इसमें सह्याद्रि, प्रायद्वीपीय पठार का उत्तरी पूर्वी भाग, शिवालिक में हिमालय पदीय पहाड़ियां, भाबर तथा तराई क्षेत्र शामिल हैं। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें है : –
    • पर्णपाती वनस्पति क्षेत्र में वृक्ष वर्ष में एक बार शुष्क ऋतु में अपनी पत्तियां गिरा देते हैं।
    • यह खासतौर पर मानसूनी वनस्पति है जिसमें वाणिज्यिक महत्व के पेड़ों की किस्में सदाहरित वनों से अधिक पायी जाती है।
    • सागवान, साल, चन्दन, शीशम, बेंत तथा बांस इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं।
    • लकड़ी के लिये पेड़ों की अन्धाधुंध कटाई से इन वनों का अत्यधिक विनाश हुआ है।

3. शुष्क उष्णकटिबन्धीय वनस्पति (Dry Tropical Vegetation)

इस प्रकार की वनस्पति को निम्न दो वर्गों में बांटा जाता है :

I.  शुष्क पर्णपाती (Dry Deciduous):

  • यह वनस्पति 70 से 100 सें.मी. वार्षिक वर्षा पाने वाले भागों में पायी जाती है।
  • इन प्रदेशों में उत्तर प्रदेश के कुछ भाग, उत्तरी व पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आँध्र प्रदेश, कनार्टक तथा तमिलनाडु के कुछ भाग सम्मिलित हैं।
  • इन क्षेत्रों में शुष्क ऋतु लम्बी होती है तथा वर्षा हल्की व चार महीनों तक सीमित होती है। इसकी प्रमुख विशेषतायें हैं –
    • पेड़ों के झुरमुटों के बीच विस्तृत घास भूमियां आम तौर से पायी जाती हैं। सागवान इस प्रकार की वनस्पति का प्रधान वृक्ष है।
    • पेड़ अपनी पत्तियां लम्बी शुष्क ऋतु में गिरा देते हैं।

II. शुष्क उष्णकटिबन्धीय कंटीली वनस्पति (Dry Tropical Thorny Vegetation):

  • यह 70 सें.मी. से कम वार्षिक वर्षा पाने वाले भागों में पायी जाती है।
  • इनमें भारत के उत्तरी व उत्तरी पश्चिमी भाग तथा सह्याद्रि के पवन विमुख ढाल शामिल हैं। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें हैं : –
    • यहां दूर-दूर तक फैले पेड़ों व झाड़ियों के झुरमुटों के बीच फैली निम्न किस्म की घास वाली विस्तृत भूमियां पायी जाती हैं।
    • बबूल, सेहुँड, कैक्टस आदि इस प्रकार की वनस्पति के सच्चे प्रतिनिधि वृक्ष हैं। जंगली खजूर, कंटीले प्रकार के अन्य वृक्ष व झाड़ियां जहां-तहां पायी जाती हैं।

4. ज्वारीय वनस्पति (Tidal Vegetation)

  • इस प्रकार की वनस्पति मुख्य रूप से गंगा, महानदी, गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के डेल्टा प्रदेशों में पाई जाती है, जहां ज्वार-भाटों व ऊंची समुद्री लहरों के कारण खारे जल की बाढ़े आती रहती हैं।
  • मैनग्रोव इस प्रकार की प्रतिनिधि वनस्पति है।
  • सुन्दरी ज्वारीय वनों का प्रमुख वृक्ष है। यह पश्चिमी बंगाल के डेल्टा के निचले भाग में बहुतायत से पाया जाता है। यही कारण है कि इन्हें सुन्दरवन कहते हैं।
  • यह अपनी कठोर व टिकाऊ लकड़ी के लिये जाना जाता है।

5. पर्वतीय वनस्पति (Mountain Vegetation)

उत्तरी तथा प्रायद्वीपीय पर्वतीय श्रेणियों के तापमान तथा अन्य मौसमी दशाओं में अन्तर होने के कारण इन दो पर्वत समूहों की प्राकृतिक वनस्पति में अन्तर पाया जाता है। अतः पर्वतीय वनस्पति को दो भागों प्रायद्वीपीय पठार की पर्वतीय वनस्पति तथा हिमालय श्रेणियों की पर्वतीय वनस्पति के रूप में बांटा जा सकता है।

I. प्रायद्वीपीय पठार की पर्वतीय वनस्पति (Mountainous Vegetation of Peninsular Plateau)

  • पठारी प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में नीलगिरि, अन्नामलाई व पालनी पहाड़ियां, पश्चिमीघाट में महाबलेश्वर, सतपुड़ा तथा मैकाल पहाड़ियां शामिल हैं। इस प्रदेश की वनस्पति की महत्वपूर्ण विशेषतायें हैं : –
    • अविकसित वनों या झाड़ियों के साथ खुली हुई विस्तृत घास भूमियां पायी जाती हैं।
    • 1500 मीटर से कम ऊंचाई पर पाये जाने वाले आर्द्र शीतोष्ण वन कम सघन है। अधिक ऊंचाई पर पाये जाने वाले वनों की सघनता ज्यादा है।
    • इन वनों में पेड़ों के नीचे वनस्पति का जाल पाया जाता है। जिनमें परपोषी, पौधे, काई व बारीक पत्तियों वाले पौधे प्रमुख हैं।
    • मैग्नोलिया, लॉरेल एवं एल्म सामान्य वृक्ष हैं।
    • सिनकोना तथा यूकेलिप्टस के वृक्ष विदेशों से लाकर लगाये गये हैं।

II. हिमालय श्रेणियों की पर्वतीय वनस्पति (Himalayan Ranges Mountain Vegetation)

  • हिमालय पर्वतीय प्रदेश में बढ़ती हुई ऊंचाईयों पर भिन्न प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इसे निम्न प्रकारों में बांटा जा सकता है : –
    • आर्द्र उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वन शिवालिक श्रेणियों के पदीय क्षेत्रों, भाबर तथा तराई क्षेत्रों में 1000 मीटर की ऊंचाई तक पाये जाते हैं। हम इन वनों के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं।
    • आर्द्र शीतोष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वन 1000 से 3000 मीटर की ऊंचाईयों के मध्यवर्ती क्षेत्रों में पाये जाते हैं। इन वनों की महत्वपूर्ण विशेषतायें निम्न हैं : –
      • ये घने वन लम्बे पेड़ों से युक्त हैं।
      • चेस्टनट तथा ओक पूर्वी हिमालय प्रदेश के प्रधान वृक्ष हैं; जबकि चीड़ और पाइन पश्चिमी हिमालय प्रदेश में प्रधानता से पाये जाने वाले वृक्ष हैं।
      • साल निम्न ऊंचाई वाले क्षेत्रों का महत्वपूर्ण वृक्ष है।
      • देवदार, सिलवर फर तथा स्पूस 2000 से 3000 मीटर के मध्यवर्ती भागों के प्रधान वृक्ष हैं। इन ऊंचाईयों पर पाये जाने वले वन कम ऊंचाई के वनों की तुलना में कम घने हैं।
      • स्थानीय व्यक्तियों के लिये इन वनों का आर्थिक महत्व अधिक है।
  • शुष्क शीतोष्ण वनस्पति इस पर्वतीय प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी ढालों पर पायी जाती है। यहां तापमान कम तथा वर्षा 70 से 100 सें.मी. होती है। इस वनस्पति की महत्वपूर्ण विशेषतायें हैं : –
    • यह वनस्पति भूमध्यसागरीय वनस्पति से मिलती जुलती हैं।
    • जंगली जैतून और बबूल कठोर व मोटी सवाना घास के साथ उगे प्रमुख वृक्ष है।
    • कहीं-कहीं ओक तथा देवदार के वृक्ष भी पाये जाते हैं।
  • अल्पाइन वनस्पति 3000 से 4000 मीटर की ऊंचाईयों के मध्य पायी जाती है। इन वनों की प्रमुख विशेषतायें हैं :
    • ये कम घने वन हैं।
    • सिल्वर फर, जुनी फर, बर्च, पाइन तथा राडॉनड्रान इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। ये सभी वृक्ष आकार में छोटे हैं।
    • अल्पाइन चारागाह इससे भी अधिक ऊंचाई वाले भागों में मिलते हैं।
    • हिम रेखा की ओर बढ़ने पर पेड़ों की ऊंचाई क्रमशः कम होती जाती है।
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चक्रवात (Cyclone)

चक्रवात (Cyclone) निम्न वायुदाब के केन्द्र होते हैं। इनमें केन्द्र से बाहर की ओर वायु दाब-बढ़ता जाता है। नतीजतन परिधि से केन्द्र की ओर पवन चलने लगती है। चक्रवात में पवनों की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूईयों के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उनके अनुरूप होती है।

स्थिति और भौतिक गुणों की दृष्टि से चक्रवात दो प्रकार के होते हैं।

  • शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात और
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात

मौसम विज्ञान की शब्दावली में शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात को अवदाब और उष्ण कटिबंधीय चक्रवात को केवल चक्रवात ही कहते हैं।

“चक्रवात अत्यंत निम्न वायुदाब का लगभग वृत्ताकार तूफानी केन्द्र हैं, जिसमें चक्करदार पवन प्रचंड वेग से चलती है तथा मूसलाधार वर्षा होती है।” वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण में चक्रवात महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक पूर्ण विकसित चक्रवात मात्र एक घंटे में 3 अरब 50 करोड़ टन कोष्ण आर्द्र वायु को निम्न अक्षांशों में स्थानान्तरित कर देता है।

कब-कब आते हैं चक्रवात

चक्रवात एक ऐसी परिघटना है जो वर्ष के कुछ महीनों तक ही सीमित रहती है। भारत में अधिकतर चक्रवात मानसून के बाद अक्टूबर – दिसंबर या मानसून से पहले अप्रैल – मई में आते हैं। सामान्यतः चक्रवात की जीवन अवधि 7 से 14 दिनों की होती है।

Cyclone in India
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चक्रवातों का संचलन

चक्रवात में बाहर के उच्च वायुदाब से केन्द्र के निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर पवन बड़े वेग से चलती हैं। इनके साथ-साथ ही चक्रवात का पूरा का पूरा तंत्र ही (बंगाल की खाड़ी में) पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर 15 से 30 कि.मी. प्रति घंटे की गति से आगे बढ़ता है।

चक्रवात की श्रेणियां

चक्रवातों को हवा की गति और क्षति के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।

श्रेणी 1 – प्रति घंटे 90 से 125 किलोमीटर के बीच हवा की गति, घरों और पेड़ों को कुछ ध्यान देने योग्य नुकसान।
श्रेणी 2 – प्रति घंटे 125 और 164 किलोमीटर के बीच हवा की गति, घरों को नुकसान और फसलों और पेड़ों को अत्यधिक नुकसान ।
श्रेणी 3 – प्रति घंटे 165 से 224 किलोमीटर प्रति घंटा के बीच हवा की गति, घरों के लिए संरचनात्मक क्षति, फसलों को व्यापक क्षति और ऊँचे पेड़ों, ऊँचे वाहनों और इमारतों का विनाश।
श्रेणी 4 – प्रति घंटे 225 और 279 किलोमीटर के बीच हवा की गति, बिजली की विफलता और शहरों और गाँवों को बहुत नुकसान।
श्रेणी 5 – प्रति घंटे 280 किलोमीटर से अधिक की हवा की गति, व्यापक क्षति।

कहाँ-कहाँ आते हैं भारत में चक्रवात

भारत में सबसे अधिक चक्रवात पूर्वी तट पर आते हैं। चक्रवात के संकट की आशंका वाले राज्य हैं- पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु। पश्चिमी तट अरब सागर में बने चक्रवातों से प्रभावित होता है। चक्रवात से उत्पन्न विपदा को सबसे अधिक झेलने वाला पश्चिमी तट का राज्य गुजरात है। महाराष्ट्र के तटीय और कुछ अंदरूनी क्षेत्र भी चक्रवात के प्रकोप की चपेट में आते हैं। संसार किसी भी सागर की तुलना में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में सबसे अधिक चक्रवात आते है।

चक्रवातों द्वारा महाविनाश

चक्रवात जिधर से गुजरते हैं, वहां महाविनाश करके निकलते हैं। चक्रवातों के प्रचंड वेग से काफी जन-धन की हानि होती हैं। मूसलाधार वर्षा बाढ़ का कारण बन जाती है। बाढ़ का पानी चारों ओर तबाही मचा देता है। चक्रवात के वेग से सागर में उत्ताल तरंगें उठती हैं। चक्रवाती वर्षा से उत्प्रेरित भूस्खलन और भी अधिक विनाशकारी सिद्ध होते हैं।

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भूस्खलन (Landslide)

16 एवं 17 जून 2013 को तेज वर्षा से प्रेरित भूस्खलन ने मंदाकिनी नदी एवं उसकी उपशाखाओं की धारा को रोककर, अल्पकालिक झील का निर्माण कर दिया बादल के फटने से आयी त्वरित बाढ़ ने बस्तियों एवं सडकों को बहा दिया और उत्तराखण्ड में विशेष कर केदारनाथ क्षेत्र में ऐसा विनाश किया

क्या होता है भूस्खलन?

पर्वतीय ढालों या नदी तटों पर छोटी शिलाओं, मिट्टी या मलबे का अचानक खिसकर नीचे आ जाना ही, भूस्खलन है। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन का सिलसिला निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इससे पर्वतों के जन-जीवन पर बुरे प्रभाव दिखाई पड़ने लगे हैं।

भूस्खलन प्रवण क्षेत्र

हिमालय, पश्चिमी घाट और नदी घाटियों में प्राय भूस्खलन होते रहते हैं। भूस्खलनों का प्रभाव जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम तथा सभी सात उत्तर पूर्वी राज्य भूस्खलन से ज्यादा ही त्रस्त है। दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल को भूस्खलन का प्रकोप झेलना पड़ता है।

Landslide Area in India
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भूस्खलन के कारण

  • भारी वर्षा – भारी वर्षा भूस्खलन का एक प्रमुख कारण है।
  • वन-नाशन – वनों का विनाश भूस्खलन का मुख्य कारण है। वृक्ष, झाड़ियाँ और घासपात मृदा कणों को बांधे रखते हैं। पेड़ों के कटने से पहाड़ी ढाल नंगे हो जाते हैं। ऐसे ढालों पर वर्षा का जल निर्बाध गति से बहता है। उसे सोखने के लिए वनस्पति का आवरण नहीं होता।
  • भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट –  हिमालयी क्षेत्र में प्रायः भूकंप आते रहते हैं। भूकंप के झटके पहाड़ों को हिला देते हैं और वे टूट कर नीचे की ओर खिसक जाते हैं। ज्वालामुखी विस्फोटों से भी पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन होते हैं।
  • सड़क निर्माण – विकास के लिए पहाड़ों में सड़कों का निर्माण चल रहा है। सड़क बनाते समय ढेर सारा मलबा हटाना पड़ता है। इस तरह चट्टानों की बनावट एवं उनके ढाल में बदलाव आता है। फलतः भूस्खलन तीव्र हो जाता है।
  • झूम कृषि – उत्तरपूर्वी भारत में झूम खेती के कारण भूस्खलनों की संख्या या आवृत्ति बढ़ी है।
  • भवन निर्माण – जनसंख्या वृद्धि तथा पर्यटन के लिए आवास की व्यवस्था हेतु पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक मकान और होटल बनाए जा रहे हैं। इनसे भी भूस्खलनों में वृद्धि होती है।

भूस्खलन के परिणाम

  • पर्यावरण का ह्रास  – भूस्खलनों से पर्वतों के पर्यावरण में ह्रास हो रहा है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य धीरे-धीरे घट रहा है।
  • जल स्रोत सूख रहे हैं।
  • नदियों में बाढ़ की वृद्धि हो रही है।
  • सड़क मार्ग अवरूद्ध हो रहा है।
  • अपार धन-जन की हानि हो रही है।

भूस्खलन रोकने तथा इसके दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय

  • वनरोपण – वृक्ष और झाड़ियाँ मृदा को बांधे रखने में सहायक होती है।
  • सड़कों के निर्माण में नई तकनीक – सड़क इस तरह बनायी जानी चाहिए ताकि कम से कम मलबा निकले।
  • खनिजों और पत्थरों के निकालने पर रोक लगाई जाए।
  • वनों का शोषण न करके वैज्ञानिक दोहन किया जाए।
  • ऋतुवत या वार्षिक फसलों के बदले स्थायी फसलें जैसे फलों के बाग लगाए जाएँ।
  • भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्रों में पृष्ठीय जल प्रवाह को नियन्त्रित करके जलरिसाव को कम किया जाए।
  • पहाड़ी ढालों पर मलबे को खिसकने से रोकने के लिए मजबूत दीवारें बनाई जाएं।
  • भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों का मानचित्रण किया जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों में निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जाए।

 

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प्राकृतिक विपदाएँ (Natural calamities)

मनुष्य अनन्त काल से प्राकृतिक विपदाओं की मार झेलता रहा है। अनेक विपदाएँ ऐसी हैं जिनका वह प्रतिकार करने में असमर्थ हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे संसार में औसतन एक लाख से अधिक लोग प्राकृतिक विपदाओं से मर जाते हैं और 20,000 करोड़ रुपयों की संपत्ति नष्ट हो जाती है।

संसार के सबसे अधिक प्राकृतिक विपदा प्रवण देशों में भारत का स्थान दूसरा है। पहले स्थान पर चीन है। अतः विपदाओं के कारण, परिणाम एवं इसके रोकथाम के उपाय के बारे में आम नागरिकों में जागरूकता पैदा करना आवश्यक है। इससे व्यक्ति एवं समाज अच्छी तरह से निपट सकता है।

कुछ प्राकृतिक विपदा इस प्रकार है –

भारत में विपदाएँ

विभिन्न प्रकार की विपदाओं के कारण भारत को ‘विपदा प्रवण राष्ट्र’ कहा जाता है। इसके कारण है –

  • 55% से ज्यादा भू-भाग भूकम्प की आशंका से ग्रस्त है,
  • 12% भूभाग बाढ़ प्रवण है,
  • 8% भाग चक्रवातों से प्रभावित है, और
  • 70% कृषि भूमि सूखा प्रवण है।
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