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Bhart Ka Bhugol

प्रमुख भू-स्थल – पर्वत

धरातल पर विद्यमान तीन विस्तृत स्थलरूप पर्वत, पठार और मैदान हैं जो भूपर्पटी के विरूपण का परिणाम हैं। इनमें से पर्वत सबसे रहस्यमयी रचना है। पर्वतों द्वारा पृथ्वी की सम्पूर्ण सतह का 27 प्रतिशत भाग घिरा हुआ है। पर्वत पृथ्वी की सतह के ऊपर उठे हुये वे भाग हैं, जो आसपास की भूमि से बहुत ऊँचे हैं। परन्तु धरातल के सभी ऊपर उठे हुये भाग पर्वत नहीं कहलाते। किसी भी स्थलरूप को पहचानने के लिये ऊँचाई और ढाल दोनों को सम्मिलित किया जाता है। इस नाते तिब्बत की ऊपर उठी हुई भूमि पर्वत नहीं कहलाती यद्यपि उसकी ऊँचाई समुद्र तल से 4500 मीटर है।

यह ध्यान रखने योग्य बात है कि एक पर्वत श्रेणी के बनने में लाखों वर्ष लगते हैं। इस लम्बी अवधि में आन्तरिक बल भूमि को ऊपर उठाने में व्यस्त रहते हैं तो इसके विपरीत बाह्य बल इस ऊपर उठी भूमि को काटने-छाँटने या अपरदित करने में जुटे रहते हैं। माउन्ट एवरेस्ट जैसे ऊँचे एक पर्वत शिखर का निर्माण तब ही हो पाता है जब आन्तरिक बलों का पर्वत निर्माणकारी या जमीन को ऊपर उठाने वाला कार्य बाह्य बलों के अपरदन कार्य की अपेक्षा अधिक द्रुत गति से होता है। अतः पर्वत धरातल के ऊपर उठे हुए वे भू–भाग हैं, जिनके ढाल तीव्र होते हैं और समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं। पर्वतों की समुद्र की सतह से सामान्य ऊँचाई हजार मीटर से अधिक मानी जाती है। स्थानीय उच्चावच लक्षणों में पर्वत ही एक ऐसा स्थलरूप है, जिसके उच्चतम और निम्नतम भागों के बीच सर्वाधिक अन्तर होता है।

पर्वतों का वर्गीकरण

निर्माण क्रिया के आधार पर पर्वतों को निम्न चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है।

  • वलित पर्वत,
  • खंड पर्वत,
  • ज्वालामुखी पर्वत और
  • अवशिष्ट पर्वत
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शैलों का आर्थिक महत्व

मनुष्य पृथ्वी तल पर विविध क्रियाकलाप लम्बे समय से कर रहा है। समय और तकनीकी विकास के साथ वह शैलों और खनिजों का विविध उपयोग करता रहा है। वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे ही मनुष्य की सुख-सुविधाओं के लिए शैलों और खनिजों की उपयोगिता बढ़ती गई । शैलों के महत्व के संबंध में संक्षिप्त जानकारी नीचे दी गई है।

1. मृदा – शैलों से प्राप्त होती है। मृदा से मानव के लिये भोजन मिलता है, इसके साथ ही विभिन्न कृषि उत्पादों से उद्योग-धंधों के लिए कच्चा माल भी प्राप्त होता है।

2. भवन निर्माणकारी सामग्री शैलों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्राप्त होती है। शैले ही सभी प्रकार के भवनों की सामग्री का एकमात्र स्रोत है। ग्रेनाइट, नीस, बलुआ पत्थर, संगमरमर और स्लेट आदि का मकान बनाने में भारी मात्रा में उपयोग होता है। ताजमहल सफेद संगमरमर से बना है। दिल्ली और आगरा का लाल किला लाल बलुआ पत्थर से बने हैं। भारत और विदेशों में भी स्लेट का उपयोग छतों के निर्माण में किया जाता है।

3. खनिजों के स्रोत खनिज आधुनिक सभ्यता की आधारशिला हैं। धात्विक खनिजों में मूल्यवान सोना, प्लॉटीनम, चांदी, तांबा से लेकर एल्यूमीनियम और लोहा मिलता है। ये धात्विक खनिज विभिन्न प्रकार की शैलों में पाये जाते हैं।

4. कच्चामाल कई शैलों और खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप में होता है। सीमेंट उद्योग तथा चूना भट्टियों में कई प्रकार की शैलों और खनिजों का उपयोग तैयार माल प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है। ग्रेफाइट का उपयोग सुरमा और पेंसिल निर्माण उद्योग में किया जाता है।

5. मूल्यवान पत्थर विभिन्न प्रकार की रूपान्तरित अथवा आग्नेय शैलों से प्राप्त होते हैं। हीरा बहुत ही मूल्यवान पत्थर है। उसका उपयोग जवाहरात बनाने में होता है। ये एक रूपान्तरित शैल है। इसी प्रकार दूसरे मूल्यवान पत्थर पन्ना, नीलम आदि भी विभिन्न प्रकार के शैलों से प्राप्त होते हैं।

6. ईंधन कोयला, पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस महत्वपूर्ण खनिज ईंधन हैं। परमाणु ऊर्जा भी ईंधन के रूप में हमें विभिन्न प्रकार की शैलों से मिलती है।

7. उवर्रक भी शैलों से प्राप्त किये जाते हैं। फास्फेट उर्वरक फास्फेराइट नामक खनिज से मिलता है। संसार के कुछ भागों में फास्फेराइट खनिज अधिक मात्रा में पाया जाता है।

 

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भूपर्पटी या क्रस्ट के पदार्थ

स्थलमंडल का सबसे ऊपर भाग भूपर्पटी कहलाता है। यह पृथ्वी का सबसे महत्वपूर्ण भाग है; क्योंकि इसकी ऊपरी सतह पर मानव रहते हैं। जिन पदार्थों से भूपर्पटी बनी है, उन्हें शैल कहते हैं। शैलें विभिन्न प्रकार की होती हैं।

  • शैलें ग्रेनाइट की तरह कठोर, चीका मिट्टी की तरह मुलायम अथवा बजरी के समान बिखरी होती है।
  • शैलें विभिन्न रंग, भार और कठोरता लिए होती है।
  • शैलें खनिजों से बनी हैं। वे एक या एक से अधिक खनिजों का मिश्रण हैं।
  • दूसरी ओर खनिज एक या एक से अधिक तत्वों के निश्चित अनुपात में मिलने से बने हैं।
  • खनिजों में एक निश्चित रासायनिक संगठन होता है।
  • भूपर्पटी 2000 से भी अधिक खनिजों से बनी है, परन्तु इनमें से केवल 6 खनिजों की अधिकता है। इन्हीं का पृथ्वी की ऊपरी परत के निर्माण में विशेष योग है। इन 6 खनिजों के नाम – फेल्सपार, क्वार्ट्ज, पाइराक्सीन, एम्फीबोल, अभ्रक और ओलीबीन हैं।

ग्रेनाइट एक कठोर शैल है। इसके निर्माणकारी खनिज क्वार्टज, फेल्सपार और अभ्रक हैं। इन खनिजों के अनुपात में भिन्नता होने से ग्रेनाइट के रंग और उसकी कठोरता में अन्तर आ जाता है। जिन खनिजों में धात्विक अंश होता है, उन्हें धात्त्विक खनिज कहते हैं। हैमेटाइट एक प्रमुख लौह-अयस्क है। यह धात्विक खनिज है। अयस्क धात्विक खनिज होते हैं, जिनसे धातुओं का निकालना लाभकारी होता है। शैलों का निर्माण खनिजों से हुआ है। इनका मानव जीवन में बहुत अधिक महत्व है।

शैलों के प्रकार

शैलें अपने गुण, कणों के आकार और उनके बनने की प्रक्रिया के आधार पर विभिन्न प्रकार की होती हैं। निर्माण क्रिया की दृष्टि से शैलों के तीन वर्ग हैं :-

  1. आग्नेय शैल (Igneous Rock),
  2. अवसादी शैल (Sedimentary Rock),
  3. रूपांतरित या कायांतरित शैल (Metamorphic Rock)
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भूगर्भ का तापमान, दबाव तथा घनत्व

भूगर्भ का तापमान (Temperature of the Underground)

  • गहरी खानों और गहरे कूपों से जानकारी मिलती है कि पृथ्वी के भीतर गहराई बढ़ने के साथ तापमान बढ़ता है।
  • यह बात ज्वालामुखी के उद्गारों में पृथ्वी के अन्दर से निकले अत्यन्त गर्म लावा से भी सिद्ध होती है कि भूगर्भ की ओर तापमान बढ़ता जाता है।
  • विभिन्न प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि भूगर्भ में धरातल से केन्द्र की ओर तापमान बढ़ने की दर एक समान नहीं है।
  • प्रारम्भ में तापमान बढ़ने की औसत दर प्रत्येक 32 मीटर की गइराई पर 1° C है।
  • तापमान की इस स्थिर वृद्धि के आधार पर 10 किलोमीटर की गहराई में तापमान धरातल की अपेक्षा 3000 से अधिक होना चाहिये और 40 किलोमीटर की गहराई में इसे 1200° C होना चाहिये ।
  • तापमान की इस वृद्धि दर के अनुसार भूगर्भ के सभी पदार्थ पिघली हुई अवस्था में होने चाहिये। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है।
  • चट्टानें जितनी अधिक गहराई में होंगी उनके पिघलने का तापमान-बिन्दु उतना ही ऊँचा होगा। इसका कारण यह है कि भूगर्भ में नीचे दबी शैलों पर ऊपर की शैलों का इतना अधिक दाब होता है जिससे उनके पिघलने का तापमान–बिन्दु धरातल की तुलना में बहुत अधिक हो जाता है।
  • भूकम्प की तरंगों के व्यवहार से भी यह बात सिद्ध होती है। उनसे इस बात की भी पुष्टि होती है कि भूगर्भ में तापमान के बदलने के साथ पदार्थों की संरचना में भी परिवर्तन आता है।
  • भूगर्भ के ऊपरी 100 किलोमीटर में तापमान के बढ़ने की दर 120° C प्रति किलोमीटर है, अगले 300 किलोमीटर में यह वृद्धि दर 20° C प्रति किलोमीटर है और इसके बाद यह वृद्धि दर केवल 10° C प्रति किलोमीटर रह जाती है।
  • धरातल के नीचे तापमान के बढ़ने की दर पृथ्वी के केन्द्र की ओर घटती जाती है। इस गणना के अनुसार पृथ्वी के केन्द्र का तापमान लगभग 4000° से 5000° C के बीच है।
  • भूगर्भ में इतना ऊँचा तापमान उच्च दाब के फलस्वरूप हुई रासायनिक प्रक्रियाओं और रेडियोधर्मी तत्वों के विखंडन के कारण ही संभव है।

भूगर्भ का दबाव (Pressure of the Underground)

  • भूगर्भ में ऊपरी परतों के बहुत अधिक भार के कारण पृथ्वी के सतह से केन्द्र की ओर जाने पर दबाव भी निरन्तर बढ़ता जाता है।
  • पृथ्वी के केन्द्र पर अत्यधिक दबाव है। यह दबाव समुद्र तल पर वायुमंडल के दाब से 30-40 लाख गुना अधिक है।
  • केन्द्र पर उच्च तापमान होने के कारण यहां पाये जाने वाले पदार्थों को द्रव रूप में होना स्वाभाविक है, परन्तु इस ऊपरी भारी दबाव के कारण यह द्रव रूप ठोस का आचरण करता है।

भूगर्भ का घनत्व (Density of the Underground)

  • पृथ्वी के केन्द्र की ओर निरन्तर दबाव के बढ़ने और भारी पदार्थों के होने के कारण उसकी परतों का घनत्व भी बढ़ता जाता है।
  • अतः सबसे गहरे भागों में अत्यधिक घनत्व वाले पदार्थों का होना स्वाभाविक है।
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पृथ्वी का आन्तरिक भाग या भूगर्भ

पृथ्वी के आन्तरिक भाग को प्रत्यक्ष रूप से देखना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह बहुत बड़ा गोला है और इसके भूगर्भीय पदार्थों की बनावट गहराई बढ़ने के साथ बदलती जाती है। मनुष्य ने खनन् एवम् वेधन क्रियाओं द्वारा इसके कुछ ही किलोमीटर तक के आन्तरिक भाग को प्रत्यक्ष रूप से देखा है। गहराई के साथ तापमान में तेजी से वृद्धि के कारण अधिक गहराइयों तक खनन और वेधन कार्य करना संभव नहीं है। भूगर्भ में इतना अधिक ऊँचा तापमान है कि वह वेधन में प्रयोग किए जाने वाले किसी भी प्रकार के यंत्र को पिघला सकता है। अतः वेधन कार्य कम गहराइयों तक ही सीमित है। इसलिए पृथ्वी के गर्भ के विषय में प्रत्यक्ष जानकारी के मिलने में कई कठिनाइयाँ आती हैं। पृथ्वी के विशाल आकार और गइराई के साथ बढ़ते तापमान ने भूगर्भ की प्रत्यक्ष जानकारी की सीमाएँ निश्चित कर दी हैं।

Structure of the earth
Image Source – NCERT

भूगर्भ की संरचना

  • पृथ्वी की सबसे अधिक गहराई वाली परत को क्रोड कहते हैं। यह सबसे अधिक घनत्व वाली परत है। इसका घनत्व 11.0 से भी अधिक है। यह लोहा और निकिल धातुओं से बनी है। इसीलिये क्रोड़ को निफे (निकिल+फेरम, लोहा) कहते हैं।
  • क्रोड को पुनः दो परतों में बाँट सकते हैं।
    • इसकी भीतरी परत ठोस है।
    • दूसरी परत अर्द्ध तरल है।
  • जो परत क्रोड को घेरे हुए है, उसे मैंटल कहते हैं। यह परत मुख्यतः सिलीका और मैगनीशियम से बनी है। इसलिए इस परत को सीमा (सिलीका+मैगनीशियम) भी कहते हैं। इसका घनत्व 3.1 से 5.1 तक है।
  • मैंटल पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत से घिरा है। इसे रथलमण्डल कहते हैं, जिसका घनत्व 2.75 से 2.90 है।
  • स्थलमण्डल के प्रमुख निर्माणकारी तत्व सिलीका (C) एल्यूमीनियम (Al) हैं। इसलिए इस परत की स्याल (सिलीका + एल्यूमीनियम) भी कहते हैं।
  • स्थलमण्डल के ऊपरी भाग को भूपर्पटी कहते हैं।
  • पृथ्वी के आन्तरिक भाग की तीन प्रमुख संकेन्द्रीय परते हैं – क्रोड, मैंटल और स्थलमंडल ।
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भारत में प्राकृतिक वनस्पति

पौधों की जातियों, जैसे पेड़ों, झाड़ियों, घासों, बेलों, लताओं आदि के समूह, जो किसी विशिष्ट पर्यावरण में एक दूसरे के साहचर्य में विकसित हो रहे हैं, को प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं। इसके विपरीत वन से तात्पर्य पेड़ों व झाड़ियों से युक्त एक विस्तृत भाग से है जिसका हमारे लिये आर्थिक महत्व है। इस प्रकार प्राकृतिक वनस्पति की तुलना में वन का अर्थ भिन्न है।

प्रमुख वनस्पति प्रकार

भारत में पायी जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति को सामान्यतया निम्न प्रकारों में बांटा जाता है :-

Natural Vegetation in India
Image Source – NCERT
  1. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय सदाहरित एवं अर्द्ध सदाहरित वनस्पति
  2. उष्णकटिबन्धीय आर्द्र पर्णपाती वनस्पति
  3. उष्णकटिबन्धीय शुष्क वनस्पति
  4. ज्वारीय वनस्पति तथा
  5. पर्वतीय वनस्पति

1. आर्द्र उष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वनस्पति (Tropical Wet Evergreen Vegetation)

ये उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन हैं जिन्हें उनकी विशेषताओं के आधार पर निम्न दो प्रकारों में बांटा जाता है :

I. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय सदाबहार वनस्पति (Humid tropical Evergreen Vegetation) :

  • यह उन प्रदेशों में पायी जाती है जहां वार्षिक वर्षा 300 से.मी. से अधिक तथा शुष्क ऋतु बहुत छोटी होती है।
  • पश्चिमी घाट के दक्षिणी भागों, केरल व कर्नाटक तथा अधिक आर्द्र उत्तर पूर्वी पहाड़ियों में इस प्रकार की वनस्पति पायी जाती है।
  • यह विषुवतीय वनस्पति से मिलती जुलती है। यह वनस्पति, अत्यधिक कटाई से नष्ट प्राय हो गई है। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें हैं –
    • ये वन घने हैं तथा लम्बे सदा हरित पेड़ों से युक्त हैं। पेड़ों की लम्बाई अक्सर 60 मीटर या इससे भी अधिक होती है।
    • प्रति इकाई क्षेत्र पर पौधों की जातियां इतनी अधिक हैं कि उनका वाणिज्यिक उपयोग नहीं हो पाता।
    • महोगनी, सिनकोना, बांस तथा ताड़, इन वनों में पाये जाने वाले खास पेड़ हैं। पेड़ों के नीचे झाड़ियों, बेलों, लताओं आदि का सघन मोटा जाल पाया जाता है। घास प्रायः अनुपस्थिति है।
    • इन पेड़ों की लकड़ी अधिक कठोर व भारी होती है। अतः इन्हें काटने व लाने ले जाने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है।

II. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय अर्द्ध सदाहरित वनस्पति (Wet Tropical Semi-Evergreen Vegetation):

  • यह आर्द्र सदाहरित वनस्पति तथा आर्द्र शीतोष्ण पर्णपाती वनस्पति के मध्यवर्ती भागों में पायी जाती है।
  • इस प्रकार की वनस्पति मेघालय पठार, सह्याद्रि एवं अण्डमान व निकोबार द्वीपों में मिलती है।
  • यह वनस्पति 250 से.मी. से 300 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों तक ही सीमित है। इनकी प्रमुख विशेषतायें हैं : –
    • यह वनस्पति आर्द्र सदाहरित वनों से कम घनी है।
    • इन वनों की लकड़ी दानेदार अच्छी किस्म की होती है।
    • रोजवुड, ऐनी तथा तेलसर सह्याद्रि के वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। चम्पा, जून तथा गुरजन, असम व मेघालय तथा आइरनवुड, एबोनी व लॉरेल अन्य प्रदेशों के प्रमुख वृक्ष हैं।
    • स्थानान्तरी कृषि एवं अत्यधिक शोषण से इन वनों का अत्यधिक हास हुआ है।

2. आर्द्र उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वनस्पति (Wet Tropical Deciduous Vegetation)

  • यह भारत की सबसे विस्तृत वनस्पति पेटी है।
  • इस प्रकार की वनस्पति 100 से.मी. से 200 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पायी जाती है।
  • इसमें सह्याद्रि, प्रायद्वीपीय पठार का उत्तरी पूर्वी भाग, शिवालिक में हिमालय पदीय पहाड़ियां, भाबर तथा तराई क्षेत्र शामिल हैं। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें है : –
    • पर्णपाती वनस्पति क्षेत्र में वृक्ष वर्ष में एक बार शुष्क ऋतु में अपनी पत्तियां गिरा देते हैं।
    • यह खासतौर पर मानसूनी वनस्पति है जिसमें वाणिज्यिक महत्व के पेड़ों की किस्में सदाहरित वनों से अधिक पायी जाती है।
    • सागवान, साल, चन्दन, शीशम, बेंत तथा बांस इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं।
    • लकड़ी के लिये पेड़ों की अन्धाधुंध कटाई से इन वनों का अत्यधिक विनाश हुआ है।

3. शुष्क उष्णकटिबन्धीय वनस्पति (Dry Tropical Vegetation)

इस प्रकार की वनस्पति को निम्न दो वर्गों में बांटा जाता है :

I.  शुष्क पर्णपाती (Dry Deciduous):

  • यह वनस्पति 70 से 100 सें.मी. वार्षिक वर्षा पाने वाले भागों में पायी जाती है।
  • इन प्रदेशों में उत्तर प्रदेश के कुछ भाग, उत्तरी व पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आँध्र प्रदेश, कनार्टक तथा तमिलनाडु के कुछ भाग सम्मिलित हैं।
  • इन क्षेत्रों में शुष्क ऋतु लम्बी होती है तथा वर्षा हल्की व चार महीनों तक सीमित होती है। इसकी प्रमुख विशेषतायें हैं –
    • पेड़ों के झुरमुटों के बीच विस्तृत घास भूमियां आम तौर से पायी जाती हैं। सागवान इस प्रकार की वनस्पति का प्रधान वृक्ष है।
    • पेड़ अपनी पत्तियां लम्बी शुष्क ऋतु में गिरा देते हैं।

II. शुष्क उष्णकटिबन्धीय कंटीली वनस्पति (Dry Tropical Thorny Vegetation):

  • यह 70 सें.मी. से कम वार्षिक वर्षा पाने वाले भागों में पायी जाती है।
  • इनमें भारत के उत्तरी व उत्तरी पश्चिमी भाग तथा सह्याद्रि के पवन विमुख ढाल शामिल हैं। इस प्रकार की वनस्पति की प्रमुख विशेषतायें हैं : –
    • यहां दूर-दूर तक फैले पेड़ों व झाड़ियों के झुरमुटों के बीच फैली निम्न किस्म की घास वाली विस्तृत भूमियां पायी जाती हैं।
    • बबूल, सेहुँड, कैक्टस आदि इस प्रकार की वनस्पति के सच्चे प्रतिनिधि वृक्ष हैं। जंगली खजूर, कंटीले प्रकार के अन्य वृक्ष व झाड़ियां जहां-तहां पायी जाती हैं।

4. ज्वारीय वनस्पति (Tidal Vegetation)

  • इस प्रकार की वनस्पति मुख्य रूप से गंगा, महानदी, गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के डेल्टा प्रदेशों में पाई जाती है, जहां ज्वार-भाटों व ऊंची समुद्री लहरों के कारण खारे जल की बाढ़े आती रहती हैं।
  • मैनग्रोव इस प्रकार की प्रतिनिधि वनस्पति है।
  • सुन्दरी ज्वारीय वनों का प्रमुख वृक्ष है। यह पश्चिमी बंगाल के डेल्टा के निचले भाग में बहुतायत से पाया जाता है। यही कारण है कि इन्हें सुन्दरवन कहते हैं।
  • यह अपनी कठोर व टिकाऊ लकड़ी के लिये जाना जाता है।

5. पर्वतीय वनस्पति (Mountain Vegetation)

उत्तरी तथा प्रायद्वीपीय पर्वतीय श्रेणियों के तापमान तथा अन्य मौसमी दशाओं में अन्तर होने के कारण इन दो पर्वत समूहों की प्राकृतिक वनस्पति में अन्तर पाया जाता है। अतः पर्वतीय वनस्पति को दो भागों प्रायद्वीपीय पठार की पर्वतीय वनस्पति तथा हिमालय श्रेणियों की पर्वतीय वनस्पति के रूप में बांटा जा सकता है।

I. प्रायद्वीपीय पठार की पर्वतीय वनस्पति (Mountainous Vegetation of Peninsular Plateau)

  • पठारी प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में नीलगिरि, अन्नामलाई व पालनी पहाड़ियां, पश्चिमीघाट में महाबलेश्वर, सतपुड़ा तथा मैकाल पहाड़ियां शामिल हैं। इस प्रदेश की वनस्पति की महत्वपूर्ण विशेषतायें हैं : –
    • अविकसित वनों या झाड़ियों के साथ खुली हुई विस्तृत घास भूमियां पायी जाती हैं।
    • 1500 मीटर से कम ऊंचाई पर पाये जाने वाले आर्द्र शीतोष्ण वन कम सघन है। अधिक ऊंचाई पर पाये जाने वाले वनों की सघनता ज्यादा है।
    • इन वनों में पेड़ों के नीचे वनस्पति का जाल पाया जाता है। जिनमें परपोषी, पौधे, काई व बारीक पत्तियों वाले पौधे प्रमुख हैं।
    • मैग्नोलिया, लॉरेल एवं एल्म सामान्य वृक्ष हैं।
    • सिनकोना तथा यूकेलिप्टस के वृक्ष विदेशों से लाकर लगाये गये हैं।

II. हिमालय श्रेणियों की पर्वतीय वनस्पति (Himalayan Ranges Mountain Vegetation)

  • हिमालय पर्वतीय प्रदेश में बढ़ती हुई ऊंचाईयों पर भिन्न प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इसे निम्न प्रकारों में बांटा जा सकता है : –
    • आर्द्र उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वन शिवालिक श्रेणियों के पदीय क्षेत्रों, भाबर तथा तराई क्षेत्रों में 1000 मीटर की ऊंचाई तक पाये जाते हैं। हम इन वनों के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं।
    • आर्द्र शीतोष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वन 1000 से 3000 मीटर की ऊंचाईयों के मध्यवर्ती क्षेत्रों में पाये जाते हैं। इन वनों की महत्वपूर्ण विशेषतायें निम्न हैं : –
      • ये घने वन लम्बे पेड़ों से युक्त हैं।
      • चेस्टनट तथा ओक पूर्वी हिमालय प्रदेश के प्रधान वृक्ष हैं; जबकि चीड़ और पाइन पश्चिमी हिमालय प्रदेश में प्रधानता से पाये जाने वाले वृक्ष हैं।
      • साल निम्न ऊंचाई वाले क्षेत्रों का महत्वपूर्ण वृक्ष है।
      • देवदार, सिलवर फर तथा स्पूस 2000 से 3000 मीटर के मध्यवर्ती भागों के प्रधान वृक्ष हैं। इन ऊंचाईयों पर पाये जाने वले वन कम ऊंचाई के वनों की तुलना में कम घने हैं।
      • स्थानीय व्यक्तियों के लिये इन वनों का आर्थिक महत्व अधिक है।
  • शुष्क शीतोष्ण वनस्पति इस पर्वतीय प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी ढालों पर पायी जाती है। यहां तापमान कम तथा वर्षा 70 से 100 सें.मी. होती है। इस वनस्पति की महत्वपूर्ण विशेषतायें हैं : –
    • यह वनस्पति भूमध्यसागरीय वनस्पति से मिलती जुलती हैं।
    • जंगली जैतून और बबूल कठोर व मोटी सवाना घास के साथ उगे प्रमुख वृक्ष है।
    • कहीं-कहीं ओक तथा देवदार के वृक्ष भी पाये जाते हैं।
  • अल्पाइन वनस्पति 3000 से 4000 मीटर की ऊंचाईयों के मध्य पायी जाती है। इन वनों की प्रमुख विशेषतायें हैं :
    • ये कम घने वन हैं।
    • सिल्वर फर, जुनी फर, बर्च, पाइन तथा राडॉनड्रान इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। ये सभी वृक्ष आकार में छोटे हैं।
    • अल्पाइन चारागाह इससे भी अधिक ऊंचाई वाले भागों में मिलते हैं।
    • हिम रेखा की ओर बढ़ने पर पेड़ों की ऊंचाई क्रमशः कम होती जाती है।
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मृदा संसाधन (Soil Resource)

असंगठित पदार्थों से बनी पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत को मृदा या मिट्टी (Soil) कहते हैं। यह अनेक प्रकार के खनिजों, पौधों और जीव-जन्तुओं के अवशेषों से बनी है। यह जलवायु, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और भूमि की ऊँचाई के बीच लगातार परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप विकसित हुई है। इनमें से प्रत्येक घटक क्षेत्र विशेष के अनुरूप बदलता रहता है। अतः मृदाओं में भी एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच भिन्नता पाई जाती है। मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि यह पेड़-पौधों का आश्रय स्थल होने के साथ उन्हें पोषक तत्व प्रदान करने का मुख्य स्रोत है। 

मृदाओं के प्रमुख प्रकार (Major Types of Soils)

भारत की मृदाओं को निम्नलिखित छ: प्रकारों में बाँटा जाता है : –

Types of Soils
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1. जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil)

  • जलोढ़ मृदाएँ भारत के सतलुज, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के विस्तृत घाटी क्षेत्रों और दक्षिणी प्रायद्वीप के सीमावर्ती भागों में पाई जाती हैं।
  • भारत की सबसे उपजाऊ भूमि के 6.4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में जलोढ़ मृदाएँ फैली हुई हैं।
  • जलोढ़ मृदाओं का गठन बलुई-दोमट से मृत्तिका-दोमट तक होता है। इसमें पोटाश की अधिकता होती है, लेकिन नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी होती है।
  • सामान्यतया ये मृदाएँ धुंधले से लालामी भूरे रंग तक की होती हैं। इन मृदाओं का निर्माण हिमालय पर्वत और विशाल भारतीय पठार से निकलने वाली नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद और बालू के लगातार जमाव से हुआ है।
  • अत्यधिक उत्पादक होने के नाते इन मृदाओं को दो उप-विभागों में बाँटा गया है:
    • नवीन जलोढ़क (खादर) और
    • प्राचीन जलोढ़क (बांगर)।
  • दोनों प्रकार की मृदाएँ संरचना, रासायनिक संघटन, जलविकास क्षमता एवं उर्वरता में एक दूसरे से भिन्न हैं।
  • नवीन जलोढ़क हल्का भुरभुरा दोमट है। जिसमें बालू और मृत्तिका का मिश्रण पाया जाता है। यह मृदा नदियों की घाटियों, बाढ़ मैदानों और डेल्टा प्रदेशों में पाई जाती है।
  • प्राचीन जलोढ़क दोआबा (दो नदियों के बीच की ऊँची भूमि) क्षेत्र में पाया जाता है। मृत्तिका का अनुपात अधिक होने के कारण यह मृदा चिपचिपी है और जलनिकास कमजोर है।
  • इन दोनों प्रकार की मृदाओं में लगभग सभी प्रकार की फसलें पैदा की जाती हैं।

2. काली मृदा (रेगड़ मृदा) [Black Soil (Ragd Soil)]

  • काली मृदा दक्कन के लावा प्रदेश में पाई जाती है।
  • यह मृदा महाराष्ट्र के बहुत बड़े भाग, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में पाई जाती है।
  • इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी के बेसाल्ट लावा के विघटन के परिणामस्वरूप हुआ है। इस मृदा का रंग सामान्यतया काला है जो इसमें उपस्थित अलुमीनियम और लोहे के यौगिकों के कारण है।
  • इस मृदा का स्थानीय नाम रेगड़ मिट्टी है और यह लगभग 6.4 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर फैली है।
  • यह सामान्यतया गहरी मृत्तिका (चिकनी मिट्टी) से बनी है और यह अपारगम्य है या इसकी पारगम्यता बहुत कम है।
  • मृदा की गहराई भिन्न-भिन्न स्थानों में अलग-अलग है। निम्न भूमियों में इस मृदा की गहराई अधिक है जबकि उच्चभूमियों में यह कम है।
  • इस मृदा की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि शुष्क ऋतु में भी यह मृदा अपने में नमी बनाये रखती है।
  • ग्रीष्म ऋतु में इसमें से नमी निकलने से मृदा में चौड़ी-चौड़ी दरारें पड़ जाती है और जल से संतृप्त होने पर यह फूल जाती है और चिपचिपी हो जाती है, इस प्रकार मृदा पर्याप्त गहराई तक हवा से युक्त और आक्सीकृत होती है जो इसकी उर्वरता बनाये रखने में मदद देते हैं।
  • मृदा की इस प्रकार लगातार उर्वरता बनी रहने के कारण यह कम वर्षा के क्षेत्रों में भी बिना सिंचाई के कपास की खेती करने के लिये अनुकूल है।
  • कपास के अतिरिक्त यह मृदा गन्ना, गेहूँ, प्याज और फलों की खेती करने के लिये अनुकूल है।

3. लाल मृदा (Red Soil)

  • प्रायद्वीपीय पठार के बहुत बड़े भाग पर लाल मृदा पाई जाती हैं, इसमें तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, दक्षिण-पूर्व महाराष्ट्र, आँध्र प्रदेश, उड़ीसा, छोटानागपुर पठार और मेघालय पठार के भाग सम्मिलित हैं।
  • यह मृदा ग्रेनाइट और नींस जैसी रवेदार चट्टानों पर विकसित हुई है और यह कृषि भूमि के 7.2 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र पर फैली है।
  • इस मृदा में लोहे के यौगिकों की अधिकता के कारण इसका रंग लाल है, परन्तु इसमें जैव पदार्थों की कमी है।
  • यह मृदा सामान्यतया कम उपजाऊ है और काली मृदा अथवा जलोढ़ मृदा की तुलना में लाल मृदा का कृषि के लिये कम महत्त्व है।
  • इसकी उत्पादकता सिंचाई और उर्वरकों के प्रयोग द्वारा बढ़ाई जा सकती है।
  • यह मृदा चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू और फलों की पैदावार के लिये उपयुक्त है।

4. लैटराइट मृदा (Laterite Soil)

  • लैटराइट मृदा कर्नाटक, तमिलनाडू, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, असम और मेघालय के ऊँचे एवं भारी वर्षा वाले भूभागों में पाई जाती है।
  • इस मृदा का विस्तार 1.3 करोड़ हैक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल पर है।
  • इस मृदा का निर्माण उष्ण एवं आर्द्र जलवायु दशाओं में होता है।
  • लैटराइट मृदा विशेषतया ऋतुवत भारी वर्षा वाले ऊँचे सपाट अपरदित सतहों पर पाई जाती है।
  • इस मृदा का पृष्ठ गिट्टीदार होता है। जो आर्द्र और शुष्क अवधियों के प्रत्यावर्तन के परिणामस्वरूप बनता है।
  • अपक्षय के कारण लैटराइट मृदा अत्यन्त कठोर हो जाती है, इस प्रकार लैटराइट मृदा की प्रमुख विशेषतायें है:
    • जनक शैल का पूर्णतया रासायनिक विघटन,
    • सिलिका का सम्पूर्ण निक्षालन,
    • अलुमीनियम और लोहे के ऑक्साइडों द्वारा मिला लाल-भूरा रंग और ह्यूमस की कमी।
  • इस मृदा में पैदा की जाने वाले सामान्य फसलें चावल, ज्वार-बाजरा और गन्ना निम्न भूमियों में और रबर, कहवा तथा चाय जैसी रोपण फसलें उच्च भूमियों में है।

5. मरूस्थलीय मृदा (Desert Soil)

  • मरूस्थलीय मृदाएं पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चिमी हरियाणा और दक्षिणी पंजाब में पाई जाती है।
  • इन क्षेत्रों में इस मृदा के पाये जाने का सीधा संबन्ध वहाँ पर विद्यमान मरुस्थलों एवं अर्ध-मरुस्थलों की दशाओं का होना तथा छः महीनों तक पानी की अनुपलब्धता है।
  • जैव पदार्थों की कमी सहित बलुई एवं पथरीली मृदा, ह्यूमस का कम होना, वर्षा का कभी-कभी होना, आर्द्रता की कमी और लम्बी शुष्क ऋतु मरुस्थलीय मृदा की विशेषतायें हैं।
  • इस मृदा के क्षेत्र में पौधे एक दूसरे से बहुत दूरी पर मिलते हैं।
  • मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा हैं।
  • सामान्यतया इस मृदा में कृषि के लिये आधारभूत आवश्यकताओं की कमी है। परन्तु जब पानी उपलब्ध होता है तो इससे विविध प्रकार की फसलें जैसे कपास, चावल, गेहूं आदि उर्वरकों की उपयुक्त मात्रा देकर पैदा की जा सकती है।

6. पर्वतीय मृदा (Mountain Soil)

  • पर्वतीय मृदाएँ जटिल है और इनमें अत्यधिक विविधता मिलती है।
  • यह नदी द्रोणियों और निम्न ढलानों पर जलोढ़ मृदा के रूप में पायी जाती है।
  • ऊँचे भागों पर अपरिपक्व मृदा या पथरीली है।
  • पर्वतीय भागों में भू आकृतिक, भूवैज्ञानिक, वानस्पतिक एवं जलवायु दशाओं की विविधता तथा जटिलता के कारण यहाँ एक ही तरह की मृदा के बड़े-बड़े क्षेत्र नहीं मिलते ।
  • इस मृदा के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाई जाती है, जैसे चावल नदी घाटियों में, फलों के बाग ढलानों पर और आलू लगभग सभी क्षेत्रों में पैदा किया जाता है।
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भूकंप (Earthquake)

भूकंप क्या है?

सामान्य शब्दों में धरातल का अचानक कांपने लगना या हिल उठना ही भूकंप (Earthquake) है। अधिकतर भूकंप हल्के से कंपन के रूप में आते हैं। लेकिन बड़े या विनाशकारी भूकंप प्रायः हल्के झटकों के साथ शुरू होते हैं और फिर झटकों की तीव्रता बढ़ती जाती है तथा उसके बाद झटकों की तीव्रता कम होती जाती है। झटकों की अवधि प्रायः कुछ सेकेंडों में ही होती है।

तीव्र भूकंप की आशंका वाले क्षेत्र

भारतीय मानक ब्यूरो ने भूकंप के विभिन्न तीव्रताओं वाले क्षेत्रों का मानचित्र बनाया है। इसका संशोधित संस्करण सन् 2002 में प्रकाशित किया गया था। भूकंपों की तीव्रता में भिन्नता के आधार पर संपूर्ण भारत को चार क्षेत्रों में बांटा गया है। प्रत्येक क्षेत्र की तीव्रता और भूकंप से होने वाली हानियों का विवरण नीचे दिया गया है।

Earthquake Zone in India
Image Source – NCERT

क्षेत्र I (Zone I) – जहां को खतरा नहीं है।
क्षेत्र II (Zone II) –  जहां कम खतरा है।
क्षेत्र III (Zone III) – जहां औसत खतरा है।
क्षेत्र IV (Zone IV) – जहां अधिक खतरा है।
क्षेत्र V (Zone V) – जहां बहुत अधिक खतरा है।

दिल्ली और मुबंई अधिक खतरे वाले क्षेत्र सं. IV में स्थित हैं। संपूर्ण उत्तर-पूर्वी भारत, कच्छ, गुजरात, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर के कुछ भाग अत्यधिक खतरे वाले क्षेत्र संख्या-V में शामिल हैं। अब प्रायद्वीपीय पठार भी भूकंपों से अछूता नहीं रहा है। महाराष्ट्र राज्य के लाटूर (1993, रिक्टर पैमाने पर तीव्रता 6.4) तथा कोयना (1967, तीव्रता 6.5) के भूकंप इस बात के प्रमाण ।

भूकम्प का प्रभाव

  • संपत्ति की हानि – भूकंप आने से इमारते ध्वस्त हो जाते हैं। धरातल के नीचे बनी पाइपलाइनें और रेल की पटरियां टूट जाती हैं या बरबाद हो जाती हैं। नदियों पर बने बांध ढह जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप आई बाढ़ बहुत विनाशकारी होती है। दक्षिण भारत में आये 1967 के भूकम्प में कोयना बांध क्षतिग्रस्त हुआ था।
  • जनहानि – भूकंप के कुछ सेकेंड के झटके हजारों लोगों की जाने ले लेता है। भारत में सन 1988 और 26 जनवरी 2001 के मध्य आए पाँच बड़े भूकंप में लगभग 31000 लोग अकाल मौत के शिकार हुए।
  • नदियों का मार्ग परिवर्तन – भूकंप के प्रभाव से कभी-कभी नदियों के मार्ग अवरूद्ध हो जाते या मार्ग परिवर्तित हो जाते हैं।
  • सुनामी – भूकंप के कारण समुद्र में एक ऊंची तरंग उठती है। इसे ही जापान में सुनामी कहते हैं। यह कभी 20-25 मीटर तक ऊंची हो जाती है। यह सागर तट की बस्तियों को लील जाती है। जहाजों को डुबो देती है। 27 दिसम्बर 2004 को सुमात्रा, इन्डोनेशिया के निकट महासागर में जन्मे भूकंप से बनी सुनामी से दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के तटवर्ती क्षेत्रों में अरबों रूपयों की संपत्ति नष्ट हो गई। दो लाख से ज्यादा लोगों की मृत्यु हो गई।
  • कीचड़ के फव्वारे –  भीषण भूकंपों के कारण धरातल पर गरम पानी और कीचड़ के फव्वारे फूट पड़ते हैं। 1934 ई. के बिहार के भूकंप के समय धरातल में बनी दरारों से कीचड़ ऐसे निकल रही थी, मानों पिचकारी से जलधारा फूट रही हो। किसानों के हरे भरे खेत घुटनों-घुटनों तक कीचड़ में दब गए थे।
  • दरारें फूटना – सड़कों, रेलमार्गों और खेतों में कभी-कभी दरारें पड़ जाती हैं, जिससे वे बेकार हो जाते हैं। सैन फ्रांसिस्को (कैलेफोर्निया) के भूकंप के दौरान सैन एण्ड्रियास भ्रंश का निर्माण हुआ था।
  • अन्य प्रभाव – भूस्खलन और हिमस्खलन होने लगता है। ग्लेशियर के हिमखंड टूटकर तेजी से फिसलने लगते हैं।

 

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भारत में सूखा (Dry in India)

सूखे की त्रास्दी मानव को धीरे-धीरे पर विशाल स्तर पर प्रभावित करती है। यह एक अलग तरह का दर्द है, पर है बड़ा कष्ट कारक।

क्या है सूखा?

मौसम विज्ञानियों के शब्दों में काफी लंबे समय तक एक विस्तृत प्रदेश में वर्षण की कमी ही सूखा है।” सूखे के लिए अकाल और अनावृष्टि जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया जाता है।

सूखे का कारण

सूखे का एक मात्र कारण वर्षा की कमी है। लेकिन मानव ने प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करके अपने क्रिया कलापों से पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ दिया है। लोगों ने जलाशयों (तालाबों, झीलों, जोहड़ों) को पाट दिया है। वनस्पति का आवरण नष्ट कर दिया है। वनस्पति के कारण वर्षा का जल भूमि में रिसता रहता है। क्योंकि वनस्पति उसके प्रवाह को अवरूद्ध करती रहती है। मनुष्य ने लाखों की संख्या में नलकूप लगाकर भूमिगत जल के भंडारों को भी कम किया है।

सूखे के दुष्परिणाम

सूखे के कारण भोजन और पानी की कमी हो जाती है। भूखे-प्यासे लोग त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। भुखमरी, कुपोषण और महामारियों से अकाल मौतें होने लगती हैं। मजबूरन लोगों को अपना क्षेत्र छोड़ कर पलायन करना पड़ता है। पानी की कमी से फसलें सूख जाती हैं। मवेशी चारे-पानी के अभाव में मरने लगते हैं। खेती करने वाले लोगों का रोजगार छिन जाता है। भोजन, पानी, हरे चारे और रोजगार की तलाश में लोग गाँव के गाँव छोड़ कर बच्चों के साथ दूर-बहुत दूर की अनिश्चित यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं।

भारत के सूखा प्रवण क्षेत्र

सूखा प्रवण क्षेत्रों की एक प्रमुख पट्टी दक्षिणी राजस्थान और तमिलनाडु के बीच है। इस पट्टी में दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, मध्यवर्ती महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु है।

Dry Area in India
Image Source – NCERT

मानसूनी वर्षा की कमी और पर्यावरण ह्रास के कारण राजस्थान और गुजरात प्रायः सूखे की चपेट में रहते हैं। भारत के 593 जिलों में से 191 जिले भयंकर रूप से सूखा प्रवण है।

सूखे से निपटने के उपाय 

  • सूखे क्षेत्रों के अनुकूल कृषि पद्धति – शुष्क प्रदेशो में मोटे अनाज पैदा करके, गहरी जुताई करके मृदा की नमी को संजोकर, छोटे-छोटे बाधों के पीछे पानी रोककर, जोहड़ों में पानी एकत्र करके तथा फुहारा सिंचाई अपनाकर सूखे से एक सीमा तक निपटा जा सकता है।
  • सूखा सहन करने वाली फसलें बोकर – कपास, मूंग, बाजरा, गेहूं आदि सूखे को सहन करने वाली फसलें बोकर सूखे के प्रभाव को कुछ कम किया जा सकता  है।
  • वर्षा जल संग्रहण – वर्षा की एक-एक बूंद को संग्रहित करके सूखे से निपटा जा सकता है।
  • खेतों की ऊँची मेंड बनाकर, सीढ़ीदार खेत बनाकर और खेतों के किनारों पर पेड़ लगाकर वर्षा के पानी का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है।
  • सिंचाई की नहरों को पक्का करके पानी को संरक्षित किया जा सकता है।
  • टपकन विधि अपनाने से थोड़े पानी से अधिक क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है।  

सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम

यह कार्यक्रम 1973 में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के निम्नलिखित उद्देश्य हैं: –

  • फसलों, मवेशियों, भूमि की उत्पादकता, जल और मानव संसाधनों पर सूखे के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना। जिस तरह से गुजरात क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों के समन्वित विकास के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकियों का प्रयोग किया गया है, वैसा करके अन्य भागों में सूखे के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
  • वर्षा जल का विकास, संरक्षण और समुचित उपयोग करके लंबे समय तक पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखा जा सकता है।
  • संसाधनों के अभाव से ग्रस्त और सुविधाओं से वंचित समाज की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारना।

 

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