जसुली देवी ‘शौक्याणी’ की जीवनी (Biography of Jasuli Devi ‘Shaukyani’) | TheExamPillar
Biography of Jasuli Devi ‘Shaukyani’

जसुली देवी ‘शौक्याणी’ की जीवनी (Biography of Jasuli Devi ‘Shaukyani’)

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Danveer Jasuli Devi ‘Shaukyani’
जसूली देवी ‘शौक्याणी’ (Jasuli Devi ‘Shaukyani’)
जन्म 1805
जन्म स्थान दांतू गाँव, दारमा घाटी (धारचुला, पिथौरागढ़)
पति का नाम  ठाकुर जम्बू सिंह दताल
मृत्यु  1895
अन्य नाम  जसुली शौक्याणी, जसुली लला, जसुली बुड़ी, उत्तराखंड की दानवीर महिला 

प्रारम्भिक जीवन 

जसुली देवी का जन्म उत्तराखंड के दारमा घाटी (धारचूला, पिथौरागढ़) के एक गाँव दांतू में 1805 में हुआ था। जसुली शौका समुदाय से संबंध रखती थी। बाल्यावस्था में ही उनकी शादी दारमा घाटी के ही व्यापारी ठाकुर जम्बू सिंह दताल से हो गयी। दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रंग या शौका समुदाय के लोगों का सदियों से तिब्बत के साथ व्यापार चलता रहता था। यही वजह थी कि उनकी गिनती पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में होती थी। शादी के कुछ वर्षों बाद उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम बछुवा था लेकिन वह बोलने में असमर्थ (गुँगा) था। इकलौता पुत्र बछुवा के जन्म के कुछ वर्ष बाद ही ठाकुर जम्बू सिंह दताल का निधन हो गया। अथाह धनसम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली अल्पायु में विधवा हो गयी। कुदरत का कहर यहीं पर नहीं थमा। उनके इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो गयी। जसुली विधवा होने के बाद निःसन्तान भी हो गयी।

जसूली देवी सौक्याणी की दानवीरता 

ठाकुर जम्बू सिंह दताल के श्राद्ध के एक दिन पूर्व जसूली देवी ने अपने नौकरों को बुलाकर आदेश दिया था कि दांतू गाँव से न्योला नदी (जो दुग्तू एवं दाँतू के बीच बहती है, पूर्वी धौलीगंगा की सहायक नदी) के किनारे तक रिंगाल (निगाल) की चटाई (मोट्टा या तेयता) बिछायी जाये और करीब 350 मीटर की दूरी तक गाँव से न्योला नदी के तट पर चटाई बिछायी गयी। उन दिनों धनी एवं सम्पन्न परिवार के लोग मृत्यु के बाद गंगा-दान करना पुण्य समझते थे। जब यह सब तैयारियां हो रही थी तब कुमाऊँ कमिश्नर हैनरी रैमजे का काफिला दारमा भ्रमण में था। उसी दौरान उन्हें यह विदित हुआ कि जसूली देवी सौक्याणी गंगा-दान करने की तैयारियां कर रही हैं। उन्होंने देखा की एक महिला सोने-चांदी के सिक्कों को नदी में बहा रही थी। यह देखकर अंग्रेज अधिकारियों ने जसुली देवी से विचार-विमर्श किया। विचार के दौरान अंग्रेज अधिकारियों ने गांव एवं जगह का नाम पूछा तो दुखित जसुली देवी ने गांव का नाम दारमा बताया। तभी से अंग्रेज अधिकारियों ने इस क्षेत्र का नाम परगना दारमा के रूप में जाना जो तदोपरान्त इस क्षेत्र का नाम परगना दारमा जाना जाता है। 

कमिश्नर रैमजे खुद दारमा घाटी गए और जसूली देवी के साथ विचार-विमर्श के बाद सुझाव दिये ताकि इस अपार धन-दौलत का सही उपयोग आम जनता की भलाई में हो सके। उन्होंने सुझाव दिये ताकि धन-दौलत को गंगा-दान करने के बजाय स्कूल, भवन, सड़क और धर्मशाला का निर्माण करवाये। जसुली ने कमिश्नर की बात मान ली। जसुली का असीम धन घोडों और भेड़-बकरियों में लाद कर अल्मोड़ा पहुंचाया गया। इसी धन से कमिश्नर रैमजे ने जसुली सौक्याण के नाम से 300 से अधिक धर्मशालाएं बनवाई। इन्हें बनवाने में लगभग 20 वर्ष लगे। इनमें सबसे प्रसिद्ध है – नारायण तेवाड़ी देवाल, अल्मोड़ा की धर्मशाला। इसके अतिरिक्त वीरभट्टी (नैनीताल), हल्द्वानी, रामनगर, कालाढूंगी, रांतीघाट, पिथौरागढ़, भराड़ी, बागेश्वर, सोमेश्वर, लोहाघाट, टनकपुर, ऐंचोली, थल, अस्कोट, बलुवाकोट, धारचूला, कनालीछीना, तवाघाट, खेला, पांगू आदि अनेक स्थानों पर धर्मशालाएं हैं जो उस महान विभूति की दानशीलता का स्मरण कराती हैं। उसके बाद जो धनराशि बच गई थी वह धनराशि अल्मोड़ा बैंक में जमा करवा दिया था। यह धनराशि अभी भी बैंक में जमा है। 

यह धर्मशालायें नेपाल-तिब्बत के व्यापारियों और तीर्थयात्रियों के लिए पुरे कुमाऊँ में बनवाई गयी थी। इन धर्मशालाओं में पीने के पानी व अन्य चीजों की अच्छी व्यवस्था होती थी। इन धर्मशालाओं का वर्णन 1870 में अल्मोड़ा के तत्कालीन कमिश्नर शेरिंग ने अपने यात्रा वृतांत में भी किया था। इन धर्मशालाओं के निर्माण के 250 साल तक इनका उपयोग होता रहा। उस समय मानसरोवर व अन्य तीर्थ स्थलों को जाने वाले यात्री, व्यापारी और आम यात्री इन धर्मशालाओं में आराम करने के लिए उपयोग करते थे। 1970 तक सभी दूर-दराज क्षेत्रों के सड़क से जुड़ जाने से इन धर्मशालाओं का उपयोग बंद हो गया। धीरे-धीरे इन धर्मशालाएं वक्त के साथ-साथ जीर्ण होती चली गयी। कुछ सड़कों के निर्माण मार्ग में आने की वजह से तोड़ दी गयी। 

रंग कल्याण समिति काफी समय से शासन से इन धर्मशालाओं को संरक्षित करने और पुरात्तव धरोहर घोषित करने की मांग करते आ रही है।

जसूली देवी का अंतिम समय 

दानवीर जसूली देवी सोक्याणी ने अपनी जिन्दगी के बाकी समय कुतिया दताल के साथ पति-पत्नी के रूप में जीवन यापन किया था। और कुतिया सिह दताल के इकलौते पुत्र सेन सिंह दताल को जसूली देवी सौक्याणी ने धर्मपुत्र/गोदनामा स्वीकार किया था। 1895 के आसपास दानवीर जसूली देवी सोक्याणी का निधन हो गया। 

 

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