जगद्गुरु शंकराचार्य (Jagadguru Shankaracharya) की जीवनी

जगद्गुरु शंकराचार्य (Jagadguru Shankaracharya) का जन्म केरल के एक छोटे गाँव कालड़ी में 788 ई० में हुआ था। कालड़ी विद्वानों की बस्ती थी। शंकराचार्य के पिता शिवगुरु बड़े विद्वान थे। उसकी माँ कामाक्षी भी बड़ी भली धार्मिक विचारों की महिला थी। शंकराचार्य के माँ-बाप भगवान शंकर के भक्त थे और इसलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रखा। 

शंकराचार्य देखने में जितना सुन्दर था बातचीत और व्यवहार में उतना ही सुशील, नेक, विनम्र। बचपन से ही वह बड़ा होनहार निकला। पढ़ने-लिखने में इतना तेज कि एक बार जो पढ़ लेता या सुन लेता, वह कंठाग्र हो जाता। छोटी उम्र में ही उसने अपनी मातृभाषा मलयालम पर तो अधिकार जमा ही लिया, संस्कृत भी उसकी जीभ पर जा बैठी। 

संन्यासी बनने की इच्छा 

शंकर अभी अबोध बालक ही था कि उसके पिता स्वर्ग सिधार गये। शंकर के दिल-दिमाग पर इसका बड़ा ही गहरा असर पड़ा। वह उदास रहने लगा। उसी बीच एक दिन उसकी भेंट एक संन्यासी से हो गयी। संन्यासी ने शंकर से पूछा ‘तुम कौन हो?’ शंकर ने बड़े सहज भाव से उत्तर दिया- ‘मुझे नहीं मालूम’ । संन्यासी शंकर की बातों से बड़ा खुश हुआ और उसकी बड़ी प्रशंसा की। शंकर भी संन्यासी से बड़ा प्रभावित हुआ और मन में संन्यासी बनने की इच्छा जागी। जब उसने अपने मन की बात अपनी विधवा माँ से कही तो माँ की आँखों में आँसू छलछला आये। भला कोई माँ अपने इकलौते बेटे को संन्यासी बनने देना कैसे स्वीकार कर सकती है। मातृभक्त शंकर बिना माँ की आज्ञा के कुछ कर भी नहीं सकता था। लेकिन उसके मन में संन्यासी बनने की बात गहरे जमी रही। एक दिन शंकर अपनी माँ के साथ नाव में बैठकर कहीं जा रहा था। नाव मझधार में थी, तभी जोरों का तूफान उठा। नाव डगमगाने लगी- अब डूबी, तब डूबी। शंकर ने कहा- माँ अगर तुम मुझे संन्यासी बनने देने पर राजी हो जाओ तो तूफान थम जायगा और तुम्हारे साथ तुम्हारा बेटा भी बच जायगा। (कहीं पर यह उल्लेख मिलता है कि शंकर स्नान करने के लिए नदी में गये थे और मगर ने उनका पैर पकड़ लिया था। माँ ने जब पुत्र को संन्यासी बनने की अनुमति दी, तभी मगर ने उनका पैर छोड़ा।)

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माँ की ममता पर विजय 

माँ को अपना मरना स्वीकार हो सकता है, पर बेटे का मरना कैसे स्वीकार होता? उसकी आँखें डबडबा आयीं। वह बोली- ‘तुम संन्यासी बन सकते हो। पर वचन दो कि वर्ष में एक बार मुझसे अवश्य मिल लिया करोगे।’ माँ ने कलेजा पत्थर किया पर वह मोम सा गल-गल कर आँखों की राह निकलता रहा। माँ ने बेटे को छाती से लगा लिया। बेटे ने माँ के पैर छू लिये। जब दोनों सचेत हुए तो तूफान टल चुका था। सारा वातावरण बिल्कुल शान्त था। शंकर सन्यासी बन गया। 

अपने वचन के अनुसार शंकर हर साल अपनी माँ से मिलने आता। संन्यासी अपने गाँव आये, यह बात गाँव वालों को बुरी लगी। लेकिन वह तो माँ को दिये वचन का पालन कर रहा था। गाँव वालों ने माँ-बेटे का बहिष्कार किया पर दोनों अपनी जगह डटे रहे। 

अकेले माँ का अंतिम संस्कार 

माँ बूढ़ी हो चली थी। बुढ़ापे में उसे देखने वाला कोई न था। वह जोरों से बीमार पड़ी, अंतिम साँसें गिनने लगी। उसकी अंतिम इच्छा थी कि उसका शंकर मरते समय उसके सामने होता। जाने कैसे शंकर आ धमका। माँ ने उसके सामने बड़े शान्त भाव से अन्तिम साँस ली। गाँव का एक भी आदमी दाह संस्कार में शंकर का हाथ बटाने नहीं आया। अकेले क्या करता बेचारा शंकर? लेकिन संन्यासी शंकर ने हिम्मत नहीं हारी। उसने माँ के शव के चार टुकड़े किये, उन्हें बारी-बारी श्मशान घाट ले गया और दाह संस्कार किया। आज भी उस शंकर की जाति के नम्बूदरी ब्राह्मण किसी भी शव को सिन्दूर से चार टुकड़ों में बाँटकर दाह-कर्म करते हैं। 

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शास्त्रार्थ 

संन्यासी बनने के बाद शंकर अच्छे गुरु की खोज में बहुत दिनों तक भटकता रहा। एक दिन उसे एक अच्छे गुरु मिले। गुरु का नाम था आचार्य गोविन्द। आचार्य गोविन्द के आश्रम में रहकर शंकर ने काफी ज्ञान अर्जित किया। फिर वह शास्त्रार्थ के लिए देश की यात्रा पर निकल पड़ा। उसने बड़े-बड़े पंडितों को परास्त किया, वह ऐसे-ऐसे अकाट्य तर्क देता कि विद्वानों की बोलती बंद हो जाती। इस प्रकार विजय प्राप्त करते हुए वह बिहार आया। महिसी के बड़े विद्वान मंडन मिश्र से उसका शास्त्रार्थ हुआ। उस शास्त्रार्थ की निर्णायिका थी मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती। उसने अपने पति को पराजित घोषित किया लेकिन स्वयं शास्त्रार्थ के लिए सामने आयी। शंकर हार गया वह फिर अध्ययन के लिए निकल पड़ा। अध्ययन कर लौटा तो उसने भारती को परास्त किया। सारे देश में उसकी विजय की पताका फहराती रही। शंकर को जगद्गुरू शंकराचार्य की उपाधि से सम्मानित किया गया। 

चार मठों की स्थापना 

जगत गुरु शंकराचार्य ने सारे देश में घूम-घूमकर अपने प्रत का प्रचार किया। उन्होंने जोशी मठ (बद्रीनाथ), पुरी (जगत्राथपुरी), शृंगेरी (रामेश्वर के निकट) और द्वारका चार बड़े मठ (धाम) स्थापित किये और सारे देश में सौ से भी अधिक छोटे मठ बनवाये। बड़े मठों के मठाधीश आज भी जगद्गुरु शंकराचार्य के नाम से जाने जाते हैं और हिंदुओं के धर्म गुरु समझे जाते हैं। 

आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने कई ग्रंथ लिखे। संस्कृत में रचित इनकी प्रार्थनाएँ इतनी सरल, सरस और सुगम हैं कि लोगों की जुबान पर आसानी से उतर जाती हैं और लोग उनका पाठ करते हैं।

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केवल बत्तीस वर्षों की छोटी उम्र में ही उस महान दार्शनिक और धर्म नेता का केदारनाथ में देहान्त हो गया। आज भी उनके जन्म दिन को उनके जन्म स्थान कालड़ी में धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ दूर-दूर से लोग उनके प्रति श्रद्धा के फूल चढ़ाने आते हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य के प्रति हम भी श्रद्धा के फूल चढ़ाते हैं।

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