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Kumaun ka itihas

कूर्मांचल केसरी बद्रीदत्त पाण्डे (Kuramanchal Kesari Badri Datt Pandey)

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जन्म — 15 फरवरी, 1882
मृत्यु — 13 फरवरी, 1965
जन्म स्थान — कनखल (हरिद्वार)
पिता — विनायकदत्त पाण्डे
पत्नी — अन्नपूर्णा देवी 

कूर्मांचलकेसरी बद्रीदत्त पाण्डे (Kuramanchal Kesari Badri Datt Pandey) 

कूर्मांचलकेसरी बद्रीदत्त पाण्डे (Kuramanchal Kesari Badri Datt Pandey) का जन्म 15 फरवरी, सन् 1882 ई० में भागीरथी के तट पर स्थित कनखल (हरिद्वार) में हुआ था। इनके पिताजी विनायकदत्त पाण्डे एक धार्मिक विचार के सात्विक पुरुष थे और कनखल में वैद्य थे। केवल सात वर्ष की ही अवस्था में बद्रीदत्त को माता-पिता के स्नेह से वंचित होना पड़ा, किन्तु बड़े भाई हरिदत्त ने इतने प्रेम से अपने छोटे भाई बद्रीदत्त का पालन-पोषण किया कि उन्हें अपने माता-पिता की मृत्यु से उत्पन्न दुःख का आभास भी नहीं होने पाया और 1896 ई० में ही सपरिवार अल्मोड़ा आ गये। 

प्रारम्भिक शिक्षा 

बद्रीदत्त पाण्डे (Badri Datt Pandey) ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा जिला स्कूल अल्मोड़ा में प्रारम्भ की। सन् 1896 ई० में स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा आये। किशोर बद्रीदत्त स्वामी विवेकानन्द के भाषण से अत्यधिक प्रभावित हुए। 

बद्रीदत्त जी को बचपन से ही भाषण देने व सुनने का अत्यधिक शौक था । उस समय उनके विद्यालय में डिबेटिग सोसायटी थी। बद्रीदत्त उसमें भाग लेते और उसके माध्यम से व्याख्यान देते थे ।

दुर्भाग्यवश इसी समय बद्रीदत्त के बड़े भाई श्री हरिदत्त पाण्डे की मृत्यु हो जाने के कारण बद्रीदत्त को पढ़ाई छोड़नी पड़ी और 1902 ई० में सरगूजा राज्य में (छोटा नागपुर में) महाराजा के अस्थाई व्यक्तिगत सचिव नियुक्त हुए। वहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार को देखकर एवं स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण बद्रीदत्त पुन: अल्मोड़ा आ गये व 1903 ई० में नैनीताल डाइमण्ड जुबली विद्यालय में अध्यापक नियुक्त हो गये। इसी वर्ष उनका विवाह अन्नपूर्णा देवी से हुआ, जो धीर, गम्भीर व धार्मिक स्वभाव की स्त्री थीं।

राजनैतिक जीवन 

सन् 1905 में बद्रीदत्त पाण्डे (Badri Datt Pandey) को देहरादून के मिलिट्री वर्कशॉप में अच्छी नौकरी मिल गयी और कुछ दिनों पश्चात् उनका स्थानान्तरण चकरौता हो गया। सन् 1908 में उन्होंने इस नौकरी से भी त्यागपत्र दे दिया तथा यहीं से उनका राजनैतिक जीवन प्रारम्भ हुआ।

सन् 1908 में बद्रीदत्त पाण्डे (Badri Datt Pandey) इलाहाबाद से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर’ के सहायक व्यवस्थापक एवं सहायक सम्पादक नियुक्त हुए। सन् 1910 ई० में वे इलाहाबाद छोड़कर देहरादून चले आये और देहरादून से प्रकाशित होने वाले ‘कॉस्मोपोलिटन’ अखबार में कार्य करने लगे व 1913 ई० तक इसी पत्रिका के सम्पादक रहे। 

सन् 1913 में बद्रीदत्त पाण्डे (Badri Datt Pandey) अल्मोड़ा आ गये और ‘अल्मोड़ा अखबार’ के सम्पादक नियुक्त हुए। उन्होंने अल्मोड़ा अखबार को राष्ट्रीय ढंग से प्रकाशित किया। ग्राहक संख्या पचास से बढ़कर पाँच सौ हो गयी। इस पत्र ने समाज में व्याप्त अनेक कठिनाइयों के विरुद्ध लेख लिखे। 

सन् 1918 में ‘अल्मोड़ा अखबार’ के बन्द हो जाने पर विजयदशमी के दिन ‘शक्ति साप्ताहिक’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया। बद्रीदत्त पाण्डे 1918 ई० से 1926 ई० तक इस पत्र के सम्पादक रहे। इस पत्र के माध्यम से देश प्रेम, अंग्रेजों के अत्याचारों का वर्णन, समाज में व्याप्त बुराइयों पर कुठाराघात एवं राजभक्तों पर कटाक्ष किये जाते थे।

उदाहरण के लिए बद्रीदत्त का शक्ति में प्रकाशित एक लेख का अंश इस प्रकार है –

“गेहूँ व धान की फसलें पानी बिना सूखती है; पर रायबहादुरी की फसलें हर साल तरक्की पर हैं !”

ब्रिटिश काल में कुमाऊँ एवं ब्रिटिश गढ़वाल में कुली उतार, कुली बेगार, कुली बर्दायश नामक कुप्रथाएँ व्याप्त थीं, जिन्हें यहाँ सामाजिक कलंक कहा जाता था । बद्रीदत्त पाण्डे ने इस कलंक को समाप्त करने में सर्वाधिक कार्य किया। 

कुली उतार, कुली बेगार व कुली बर्दायश में सहयोग 

सन 1916 ई० में ‘कुमाऊँ-परिषद्’ की स्थापना हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य कुमाऊँ के तीनों जिलों (अल्मोड़ा, नैनीताल, ब्रिटिशगढ़वाल) में राजनैतिक, सामाजिक तथा शिक्षा सम्बन्धी प्रश्नों को हल करना था। सन् 1918 में इस परिषद् का अधिवेशन तारादत्त गैरोला की अध्यक्षता में हल्द्वानी में हुआ, जिसमें यह प्रस्ताव रखा गया कि सरकार को नोटिस दिया जाय कि वह दो वर्ष में इन कुप्रथाओं को समाप्त कर दे। प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया। इसके तुरन्त पश्चात् बद्रीदत्त पाण्डे (Badri Datt Pandey) कुमाऊँ में व्याप्त इस प्रथा से महात्मा गान्धी को अवगत कराने के लिए कलकत्ता गये।

जब दो वर्ष की अवधि में सरकार ने इस ओर कोई ध्यान न दिया, तो कुमाऊँ परिषद् का ऐतिहासिक अधिवेशन सन् 1920 ई० में काशीपुर में हुआ। इस अधिवेशन में कुली उतार, कुली बेगार व कुली बर्दायश न देने का प्रस्ताव पास हुआ और इन प्रथाओं की समाप्ति हेतु जनवरी, 1921 में बागेश्वर के मकरसंक्रान्ति के मेले में लोगों को आने को कहा गया।

इस अधिवेशन में पाण्डे जी ने एक महत्वपूर्ण भाषण दिया, जिसका मुख्य अंश निम्न प्रकार है-

“कुमाऊँ नौकरशाही का दृढ़ दुर्ग है। यहाँ नौकरशाही ने सबको कुली बना रखा है। सबसे पहले हमें कुमाऊँ के माथे से कुली कलंक को हटाना है, तभी हमारा देश आगे बढ़ सकता है।”

जनवरी, 1921 ई० को मकर-संक्रान्ति के दिन बद्रीदत्त पाण्डे, हरगोविन्द पन्त और चिरंजीलाल के नेतृत्व में एक विशाल जनसमूह बागेश्वर में एकत्रित हुआ। डिप्टी कमिश्नर डायबिल इक्कीस अंग्रेज व पचास भारतीय पुलिस के जवानों के साथ वहाँ जा पहुँचा।

कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के शब्दों में  

“यह दृश्य संसार के जन-आन्दोलन का एक अनुपम दृश्य था। सरयू के किनारे कोई चालीस हजार आदमी, जिनके चेहरे नये जीवन के तेज से प्रदीप्त थे, रजिस्टरों को हाथ में झण्डों की तरह ऊँचा उठाये खड़े थे और महात्मा गान्धी की जय बोल रहे थे। दूसरे किनारे पर अंग्रेज अधिकारी ने आतंक के भूत को अन्तिम साँस देने का प्रयत्न किया और सिपाहियों को निशाना साधने का आदेश दिया। अब सरयू के एक तट पर मौत थी और दूसरे पर जिन्दगी। दोनों में धैर्य-साहस का मैच था और बीच में सरयू अपनी लहरों के रूप में हिलोरें लेकर एक चंचल रेफ्री की तरह दोनों का निरीक्षण कर रही थी।”

यह एक सफल आन्दोलन सिद्ध हुआ, जिसके परिणामस्वरूप कुमाऊँ एवं ब्रिटिश गढ़वाल से उपयुक्त कुप्रथाओं का अन्त हो गया। आन्दोलन की सफलता पर महात्मा गान्धी ने “यंग इण्डिया” में लिखा – “The effect was complete-a bloodless revolution.” आन्दोलन के उत्साहपूर्ण एवं सफल नेतृत्व के लिए बद्रीदत्त पाण्डे को ‘कूर्मांचलकेसरी’ की पदवी से विभूषित और दो स्वर्ण पदकों से पुरस्कृत किया गया, जिन्हें उन्होंने 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के समय देश के सुरक्षा कोष में दे दिया। 

उपर्युक्त आन्दोलन में पाण्डे जी के वीरतापूर्ण नेतृत्व के विषय में बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा है –

“यदि पं० बद्रीदत्त जी ने केवल उस प्रथा (कुली उतार) को बन्द कराने का ही कार्य अपने जीवन में किया होता, तो भी वे चिरस्थायी कीर्ति के भागी होते, पर उनका सम्पूर्ण जीवन ही अनाचारों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ था।”

कुमाऊँ के समाज में सर्वाधिक घृणित बुराई नायक जाति में वेश्यावृत्ति की प्रथा थी। इस जाति के लोग अपनी बालिकाओं से वेश्यावृत्ति करवाते थे। ‘सेवा-समिति’ ने नायक सुधार कार्य प्रारम्भ किया, जिसमें बद्रीदत्त को संयोजक बनाया गया। बद्रीदत्त ने समाज में व्याप्त इस कुप्रथा की समाप्ति का बीड़ा उठाया, फलस्वरूप थोड़े ही दिनों में नायक प्रथा समूल नष्ट हो गई।

कारावास

बद्रीदत्त भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के सक्रिय नेता होने के कारण पाँच बार जेल गये; सर्वप्रथम 1921 में पकड़े गये और बरेली जेल में भेज दिये गये। दूसरी बार जून 1930 में पकड़े गये और एक वर्ष छह माह की सज़ा हुई। 10 जून, 1932 में तीसरी बार पकड़े गये और एक वर्ष की कैद हुई। सन् 1940 में छः माह व सन् 1942 में दो वर्ष की कैद हुई। 

कुमाऊँ में महात्मा गांधी का आगम 

सन् 1926 में महात्मा गांधी कुमाऊँ में आये। बद्रीदत्त उनके साथ बागेश्वर गये। वहाँ आयोजित सभा में बद्रीदत्त पाण्डे ने एक अत्यन्त हृदयस्पर्शी भाषण दिया, जिसका मुख्य अंश इस प्रकार है – “इसी डाकबंगले से नौकरशाही प्रजा के ऊपर अन्याय करती थी। आज अन्याय की जगह न्याय के देवता यहाँ पधारे हैं। इसमें आज स्वराज्य की मुहर लग गयी है।” 

“कुमाऊँ का इतिहास” की रचना  

जब बद्रीदत्त पाण्डे (Badri Datt Pandey) जी कारावास में यातनाएँ झेल रहे थे तो उन्हें तार मिला कि उनका पुत्र तारकनाथ, जो प्रयाग में बी० एस-सी० में पढ़ता था, जन्माष्टमी के दिन गंगा में डूब गया है और उसके दुःख में उसकी बहिन जयन्ती ने बम्बई में आत्मदाह कर लिया है, पर पाण्डे जी ने अपनी अदम्य सहनशक्ति से इस घोर विपत्ति का सामना किया। दुःख को भुलाने के लिए उन्होंने ‘कुमाऊँ का इतिहास (Kumaun ka Itihas)’ नामक पुस्तक की रचना प्रारम्भ कर दी। यद्यपि वर्तमान समय में कुछ लोग इस महत्वपूर्ण कृति की आलोचना करते हैं, तथापि यह ग्रन्थ कुमाऊँ के इतिहास पर शोधकार्य कर रहे शोधकर्ताओं के लिए आधारभूत एवं प्रेरणा-स्रोत तथा जनसाधारण के लिए कुमाऊँ का इतिहास जानने का प्रमुख साधन है। यह ग्रन्थ जिस दुःखदायी स्थिति में लिखा गया है और उत्तराखण्ड के शोधकर्ताओं के लिए जिस मात्रा में वरदान सिद्ध हो रहा है, उस पर विचार कर यह अपने आप में एक महान् उपलब्धि है।

वृद्धावस्था 

बद्रीदत्त पाण्डे (Badri Datt Pandey) अपनी वृद्धावस्था में भी स्वावलम्बी रहे और उनकी स्मरण शक्ति तीव्र बनी रही। पाण्डे जी के त्यागपूर्ण तथा तपस्यामय जीवन में उनकी धर्मपत्नी अन्नपूर्णा देवी का प्रमुख हाथ था। उन्होंने अपने पति के साथ अनेक आर्थिक व मानसिक कष्ट झेले व सफलतापूर्वक उनका सामना किया। 13 फरवरी, 1965 को इस महान् स्वतन्त्रता सेनानी का स्वर्गवास हो गया। 

बद्रीदत्त पाण्डे एक महान क्रान्तिकारी, स्वतन्त्रता-संग्राम के वीर योद्धा, सुलझे हुए उच्च कोटि के पत्रकार, निर्भीक लोक-सभा सदस्य, महान् समाज सुधारक, निश्छल और निष्कपट व्यक्ति थे। बद्रीदत्त पाण्डे के प्रभाव से साधारण लोग भी काँग्रेस के सिपाही बन गये। उनका सम्मान अखिल भारतीय नेता भी करते थे। किसी के आगे उन्होंने झुकना नहीं सीखा था। उन्होंने कुमाऊँ-गढ़वाल के अनेक दौरे कर वहाँ राष्ट्रीय चेतना की ज्योति जलाई। बद्रीदत्त केवल एक महान् नेता ही नहीं, बल्कि एक सशक्त लेखक, स्पष्ट वक्ता व कुशल पत्रकार भी थे। उन्होंने देश के लिए हमेशा कष्ट झेले, सामाजिक व राजनीतिक क्रान्ति की। कुली-उतार, बेगार एवं बर्दायश तथा नायक प्रथा, जो कुमाऊँ के समाज को कलंकित कर रहे थे, पाण्डे जी ने उन्हें समाप्त करवाया। कहा जाता है कि पं० गोविन्दबल्लभ पन्त पाण्डे जी को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे और उनके उग्र राष्ट्रीय विचारों को देखकर अंग्रेज उन्हें राजनैतिक जानवर कहते थे।

 

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कुमाऊँ और गढ़वाल नामों की उत्पत्ति

कुमाऊँ और गढ़वाल के नामों की उत्पत्ति का इतिहास

कुमाऊँ शब्द की उत्पत्ति

कुमाऊँ शब्द की उत्पत्ति में यह किंवदन्ति प्रचलित है कि पिथौरागढ़ जिले की चम्पावत तहसील में ‘कानदेव’ नामक पहाड़ी पर भगवान ने कूर्म का रूप धारण कर तीन सहस्त्र वर्ष तक तपस्या की। हाहा, हूहू देवतागण तथा नारदादि मुनीश्वरों ने उनकी प्रशस्ति गाई। लगातार तीन सहस्त्र वर्षों तक एक ही स्थान पर खड़े रहने के कारण कूर्म भगवान के चरणों के चिन्ह पत्थर में अंकित हो गये जो अभी तक विद्यमान हैं। तब से इस पर्वत का नाम कूर्माचल हो गया- कूर्म+अचल (कूर्म जहाँ पर अचल हो गये थे)।

कूर्माचल का प्राकृत रूप बिगड़ते-बिगड़ते कुमू बन गया तथा यही शब्द बाद में कुमाऊँ में परिवर्तित हो गया। सर्वप्रथम यह नाम केवल चम्पावत तथा उसके समीपवर्ती गांवों को दिया गया किन्तु जब यहाँ चन्दों के राज्य की स्थापना हुई एवं उसका विस्तार हुआ तो कूर्माचल उस समग्र प्रदेश का नाम हो गया जो इस समय अल्मोड़ा, नैनीताल एवं पिथौरागढ़ में शामिल है। तत्कालीन मुस्लिम लोग चन्दों के राज्य को कुमायूं कहते थे और यही शब्द आजकल कुमाऊँ के रूप में प्रचलित है।

यद्यपि पुराणों में वर्णित कूर्म अवतार के कारण इस अंचल का नाम कुमाऊँ पड़ा या कूर्मांचल कहा गया किन्तु अर्वाचीन शिलालेखों, ताम्रपत्रों तथा प्राचीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि कूर्माचल या कुमाऊँ दोनों शब्द बहुत बाद के हैं। सम्राट समुद्रगुप्त के प्रयाग-स्थित प्रशस्ति लेख में इस प्रान्त को (कार्तिकेयपुर) कहा गया है। तालेश्वर में उपलब्ध पाँचवीं तथा छठी शताब्दी के ताम्रपत्रों में ‘कार्तिकेयपुर’ तथा ‘ब्रह्मपुर’ दोनों नामों का उल्लेख हुआ है। प्रसिद्ध पाण्डुकेश्वर वाले ताम्रपत्रों में केवल ‘कार्तिकेयपुर’ शब्द आया है। किन्तु चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसे ‘ब्रह्मपुर’ शब्द से सम्बोधित किया है।

डॉ. ए. बी. एल. अवस्थी ने अपनी पुस्तक “स्टडीज इन स्कन्द पुराण भाग-1” में लिखा है कि गढ़वाल एवं कुमाऊँ को ही सम्मिलित रूप से ‘ब्रह्मपुर’ पुकारा जाता था।

गढ़वाल शब्द की उत्पत्ति

‘गढ़वाल’ शब्द परमारों की देन है। चौदहवीं शताब्दी में परमार वंश के ही एक ‘दैदीप्तमान’ नक्षत्र राजा अजयपाल ने 52 छोटे-छोटे गढ़ों में विभक्त इस अंचल को एक सूत्र में पिरो दिया और स्वयं उस राज्य का एकछत्र स्वामी अर्थात ‘गढ़वाला’ बना जिसका राज्य कहलाया गढ़वाल। डॉ. शिवप्रसाद डबराल कहते हैं। कि ‘गढ़वाल’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम इस स्थल के प्रसिद्ध चित्रकार श्री मोलाराम (सन् 1815) ने किया। श्री मुकन्दीलाल सन् 1743 से सन् 1833 तक श्री मोलाराम का काल मानते हैं, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ‘गढ़वाल’ शब्द का उदय श्री मोलाराम से पूर्व हो चुका था, क्योंकि हिन्दी जगत के विख्यात कवि भूषण ने राजा फतेहशाह की प्रशस्ति में जो यशोगान किया था उसमें ‘गढ़वार’ शब्द स्पष्ट रूप से प्रयुक्त किया गया है –

“लोक ध्रुव लोक हूं ते ऊपर रहेगो भारी,
भानु ते प्रमानि को निधान आनि आनेगो।
सरिता सरिस सुर सरितै करैगो साहि,
हरि तै अधिक अधिपति ताहि मानैगो।।
अरध परारध लौ गिनती गनैगो गुनि,
बद ले प्रमाण सो प्रमान कछु जानैगो।
सुयश ते भली मुख भूषण भनैगो बाढि,
गढ़वार राज्य पर राज जो बखानैगो।।”

इसके अतिरिक्त ठा. शूरवीर सिंह, पुराना दरबार, टिहरी संग्रह में एक ताम्रपत्र संवत 1757 अर्थात 1700 ई0 का इस प्रकार है, जिसमें गढ़वाल शब्द का प्रयोग किया गया है।

 

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