कुमाऊँ और गढ़वाल के नामों की उत्पत्ति का इतिहास | TheExamPillar
Origin of Kumaon and Garhwal names

कुमाऊँ और गढ़वाल नामों की उत्पत्ति

कुमाऊँ और गढ़वाल के नामों की उत्पत्ति का इतिहास

कुमाऊँ शब्द की उत्पत्ति

कुमाऊँ शब्द की उत्पत्ति में यह किंवदन्ति प्रचलित है कि पिथौरागढ़ जिले की चम्पावत तहसील में ‘कानदेव’ नामक पहाड़ी पर भगवान ने कूर्म का रूप धारण कर तीन सहस्त्र वर्ष तक तपस्या की। हाहा, हूहू देवतागण तथा नारदादि मुनीश्वरों ने उनकी प्रशस्ति गाई। लगातार तीन सहस्त्र वर्षों तक एक ही स्थान पर खड़े रहने के कारण कूर्म भगवान के चरणों के चिन्ह पत्थर में अंकित हो गये जो अभी तक विद्यमान हैं। तब से इस पर्वत का नाम कूर्माचल हो गया- कूर्म+अचल (कूर्म जहाँ पर अचल हो गये थे)।

कूर्माचल का प्राकृत रूप बिगड़ते-बिगड़ते कुमू बन गया तथा यही शब्द बाद में कुमाऊँ में परिवर्तित हो गया। सर्वप्रथम यह नाम केवल चम्पावत तथा उसके समीपवर्ती गांवों को दिया गया किन्तु जब यहाँ चन्दों के राज्य की स्थापना हुई एवं उसका विस्तार हुआ तो कूर्माचल उस समग्र प्रदेश का नाम हो गया जो इस समय अल्मोड़ा, नैनीताल एवं पिथौरागढ़ में शामिल है। तत्कालीन मुस्लिम लोग चन्दों के राज्य को कुमायूं कहते थे और यही शब्द आजकल कुमाऊँ के रूप में प्रचलित है।

यद्यपि पुराणों में वर्णित कूर्म अवतार के कारण इस अंचल का नाम कुमाऊँ पड़ा या कूर्मांचल कहा गया किन्तु अर्वाचीन शिलालेखों, ताम्रपत्रों तथा प्राचीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि कूर्माचल या कुमाऊँ दोनों शब्द बहुत बाद के हैं। सम्राट समुद्रगुप्त के प्रयाग-स्थित प्रशस्ति लेख में इस प्रान्त को (कार्तिकेयपुर) कहा गया है। तालेश्वर में उपलब्ध पाँचवीं तथा छठी शताब्दी के ताम्रपत्रों में ‘कार्तिकेयपुर’ तथा ‘ब्रह्मपुर’ दोनों नामों का उल्लेख हुआ है। प्रसिद्ध पाण्डुकेश्वर वाले ताम्रपत्रों में केवल ‘कार्तिकेयपुर’ शब्द आया है। किन्तु चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसे ‘ब्रह्मपुर’ शब्द से सम्बोधित किया है।

डॉ. ए. बी. एल. अवस्थी ने अपनी पुस्तक “स्टडीज इन स्कन्द पुराण भाग-1” में लिखा है कि गढ़वाल एवं कुमाऊँ को ही सम्मिलित रूप से ‘ब्रह्मपुर’ पुकारा जाता था।

गढ़वाल शब्द की उत्पत्ति

‘गढ़वाल’ शब्द परमारों की देन है। चौदहवीं शताब्दी में परमार वंश के ही एक ‘दैदीप्तमान’ नक्षत्र राजा अजयपाल ने 52 छोटे-छोटे गढ़ों में विभक्त इस अंचल को एक सूत्र में पिरो दिया और स्वयं उस राज्य का एकछत्र स्वामी अर्थात ‘गढ़वाला’ बना जिसका राज्य कहलाया गढ़वाल। डॉ. शिवप्रसाद डबराल कहते हैं। कि ‘गढ़वाल’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम इस स्थल के प्रसिद्ध चित्रकार श्री मोलाराम (सन् 1815) ने किया। श्री मुकन्दीलाल सन् 1743 से सन् 1833 तक श्री मोलाराम का काल मानते हैं, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ‘गढ़वाल’ शब्द का उदय श्री मोलाराम से पूर्व हो चुका था, क्योंकि हिन्दी जगत के विख्यात कवि भूषण ने राजा फतेहशाह की प्रशस्ति में जो यशोगान किया था उसमें ‘गढ़वार’ शब्द स्पष्ट रूप से प्रयुक्त किया गया है –

“लोक ध्रुव लोक हूं ते ऊपर रहेगो भारी,
भानु ते प्रमानि को निधान आनि आनेगो।
सरिता सरिस सुर सरितै करैगो साहि,
हरि तै अधिक अधिपति ताहि मानैगो।।
अरध परारध लौ गिनती गनैगो गुनि,
बद ले प्रमाण सो प्रमान कछु जानैगो।
सुयश ते भली मुख भूषण भनैगो बाढि,
गढ़वार राज्य पर राज जो बखानैगो।।”

इसके अतिरिक्त ठा. शूरवीर सिंह, पुराना दरबार, टिहरी संग्रह में एक ताम्रपत्र संवत 1757 अर्थात 1700 ई0 का इस प्रकार है, जिसमें गढ़वाल शब्द का प्रयोग किया गया है।

 

Read More …. 

Leave a Reply

Your email address will not be published.

error: Content is protected !!