Indian Constitution

आर्टिकल 30 क्या है? अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के अधिकार और चुनौतियां

सुप्रीम कोर्ट ने 57 साल पुराना फैसला पलटते हुए आर्टिकल 30 के अधिकारों की पुनः पुष्टि की है, जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार है। जानिए इस फैसले का अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) पर प्रभाव और आर्टिकल 30 का व्यापक अर्थ।

भूमिका: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय और उसका महत्व

8 नवंबर 2024 को, भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए अपने 57 साल पुराने निर्णय को पलट दिया। इस फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी भी कानून या कार्रवाई से शैक्षणिक संस्थानों को स्थापित करने या चलाने में भेदभाव नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह संविधान के आर्टिकल 30(1) का उल्लंघन होगा। यह निर्णय देश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा और शिक्षा के अधिकार को संरक्षित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) को अल्पसंख्यक संस्थान मानने के निर्णय को एक अलग बेंच के लिए छोड़ दिया है।

आर्टिकल 30 का परिचय और उद्देश्य

संविधान के आर्टिकल 30 का उद्देश्य अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उन्हें अपनी मर्जी से चलाने का अधिकार देना है। यह प्रावधान धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को भेदभाव से बचाने और शिक्षा के क्षेत्र में उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए बनाया गया था। आर्टिकल 30 के तहत अल्पसंख्यक समुदाय स्कूल, कॉलेज, या मदरसे जैसे संस्थान स्थापित कर सकते हैं और उनकी प्रबंधन प्रणाली पर उनका अधिकार होता है। अगर इस अधिकार में किसी तरह की बाधा उत्पन्न होती है, तो इसे संविधान के विरुद्ध माना जाता है।

AMU का इतिहास और विशेषता

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास 1875 में सर सैयद अहमद खान द्वारा अलीगढ़ में मदरसतुल उलूम की स्थापना से शुरू हुआ। उन्होंने मुसलमानों को इस्लामी सिद्धांतों के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा देने का उद्देश्य रखा। 7 जनवरी 1877 को, यह संस्थान ‘मदरसातुल उलूम मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज’ में परिवर्तित हुआ। इस कॉलेज का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना और भारतीयों को उनकी भाषा में पश्चिमी ज्ञान उपलब्ध कराना था।

1920 में, एमएओ कॉलेज को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) में बदल दिया गया। विश्वविद्यालय की स्थापना का उद्देश्य इस्लामिक और आधुनिक शिक्षा का सम्मिश्रण करना था। यह संस्थान सभी समुदायों के छात्रों के लिए खुला है और किसी भी प्रकार का भेदभाव शिक्षा के क्षेत्र में नहीं किया जाता।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और इसका महत्व

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय संविधान में दिए गए अधिकारों के प्रति एक महत्वपूर्ण पुनः पुष्टि है। कोर्ट ने माना कि अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उसे अपने धार्मिक तथा सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार चलाने का अधिकार होना चाहिए। अगर किसी कानून या सरकारी कार्रवाई से इन अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो यह संविधान के आर्टिकल 30 के खिलाफ होगा। इस निर्णय का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि किसी भी सरकारी हस्तक्षेप को केवल संस्थानों की स्वायत्तता पर प्रभाव डालने की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसका उद्देश्य संस्थानों के मूल अधिकारों की सुरक्षा भी होनी चाहिए।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर फैसले का प्रभाव

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने AMU के अल्पसंख्यक संस्थान होने या ना होने पर निर्णय नहीं दिया, लेकिन इस फैसले का सीधा प्रभाव इस पर पड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला एक अलग बेंच के लिए छोड़ दिया है जो यह निर्धारित करेगी कि क्या AMU वास्तव में एक अल्पसंख्यक संस्थान है। अगर AMU को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिलता है, तो यह आर्टिकल 30 के तहत अपने शिक्षा और प्रशासन के तरीके में अधिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है।

आर्टिकल 30 के महत्व की व्यापकता

संविधान में आर्टिकल 30 का समावेश, अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए शैक्षणिक संस्थानों के माध्यम से समाज में योगदान देने के लिए प्रेरित करता है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी भाषा, धर्म, और सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार शिक्षण संस्थानों की स्थापना और संचालन करने में किसी भी प्रकार का सरकारी हस्तक्षेप न झेलना पड़े। आर्टिकल 30 का एक व्यापक प्रभाव यह भी है कि यह देश में सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता की सुरक्षा करता है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत में अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। आर्टिकल 30 का प्रावधान अल्पसंख्यकों को न केवल शैक्षणिक स्वतंत्रता प्रदान करता है बल्कि उनके सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान की रक्षा भी करता है। इस निर्णय के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थानों पर अधिकार बनाए रखने का संवैधानिक अधिकार सुरक्षित रहे।

AMU के संदर्भ में, यह मामला अब एक नई बेंच द्वारा तय किया जाएगा, जो कि अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों और उनके प्रशासनिक स्वतंत्रता पर एक निर्णायक प्रभाव डाल सकता है।

 

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न्याय की देवी का नया चेहरा: एक गहन विश्लेषण

हाल के दिनों में भारत में कई औपनिवेशिक प्रतीकों और कानूनों में बदलाव किए गए हैं, जो देश की न्याय प्रणाली में आधुनिक सोच और संवेदनशीलता को प्रतिबिंबित करते हैं। इसी क्रम में, न्याय की देवी की प्रतिमा में भी महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं, जो भारतीय संविधान और न्यायपालिका की नई अवधारणा को दर्शाते हैं। इस लेख में हम न्याय की देवी की नई प्रतिमा के प्रतीकात्मक अर्थ और न्यायिक प्रणाली के मौलिक अधिकारों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

न्याय की देवी की नई प्रतिमा का परिचय

हाल ही में भारतीय सुप्रीम कोर्ट परिसर में स्थापित न्याय की देवी की नई प्रतिमा ने चर्चा बटोरी है। इस नई प्रतिमा में न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी नहीं है और बाएं हाथ में तलवार की जगह संविधान की प्रति है। इस परिवर्तन को व्यापक सोच और सकारात्मक दृष्टिकोण के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है। यह भारत की नई न्यायिक प्रणाली का नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जो संविधान को सर्वोपरि मानते हुए न्याय करता है।

प्रतीकात्मक बदलाव: क्यों हटाई गई पट्टी

न्याय की देवी की आंखों से पट्टी हटाने का अर्थ यह है कि अब न्याय अंधा नहीं है। पारंपरिक दृष्टिकोण के अनुसार, न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी इस बात का प्रतीक होती थी कि कानून सभी के लिए समान है और किसी भी व्यक्ति की ताकत, शक्ति या प्रभाव को न देखते हुए निष्पक्ष निर्णय लिया जाएगा। लेकिन आज की न्यायपालिका इस संकुचित दृष्टिकोण से आगे बढ़ चुकी है और समाज के व्यापक हितों के प्रति अधिक सचेत है। न्याय अब पूरी सटीकता और संवेदनशीलता के साथ सभी पक्षों को देखता और समझता है।

संविधान का हाथ में आना: एक प्रगतिशील सोच

न्याय की देवी के हाथ में तलवार की जगह संविधान की प्रति देना भारतीय न्याय प्रणाली के आधुनिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। यह इस बात का प्रतीक है कि भारतीय न्यायिक प्रणाली अब ‘राजा का कानून’ या ‘रूल ऑफ मेन’ के बजाय ‘रूल ऑफ लॉ’ का अनुसरण करती है। संसद कानून बनाती है और न्यायपालिका उसके अनुसार विवादों का निपटारा करती है। यह न्याय प्रणाली संविधान पर आधारित है, जो सभी भारतीयों के लिए समान है और सर्वमान्य है।

औपनिवेशिक अवधारणा से मुक्ति

न्याय की देवी की परंपरागत प्रतिमा, जिसमें आंखों पर पट्टी और हाथ में तलवार होती है, 17वीं-18वीं सदी की अवधारणा रही है। उस समय न्याय राजा द्वारा किया जाता था, जो सर्वोच्च माना जाता था। राजा का निर्णय अंतिम होता था और उसके खिलाफ कोई अपील नहीं होती थी। लेकिन आज का भारत लोकतांत्रिक देश है जहां कानून का राज है। न्याय की देवी की नई प्रतिमा आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की सोच को प्रदर्शित करती है।

जनता के मौलिक अधिकार और सरकारी जवाबदेही

संविधान के अंतर्गत सभी भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। इन अधिकारों का संरक्षण सरकार का दायित्व है। यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो उसे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में न्याय पाने का अधिकार है। जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से भी जनता सामूहिक हित के मामलों में न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकती है। यह सुनिश्चित करता है कि कानून नागरिकों की भलाई के प्रति सजग है और सभी के अधिकार सुरक्षित हैं।

जनहित याचिका का महत्व

भारत में जनहित याचिका का सिद्धांत न्यायपालिका को एक विशेष अधिकार प्रदान करता है, जिसके तहत वह व्यापक समाजहित से जुड़े मामलों में स्वतः संज्ञान ले सकती है। यह न्यायपालिका की व्यापक दृष्टि का प्रतीक है, जिसमें जनता के अधिकारों और समाज के व्यापक हितों को ध्यान में रखा जाता है। ऐसे कई मामले हैं जिनमें सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया और न्याय प्रदान किया।

व्यापक दृष्टिकोण और संवेदनशीलता

आज की न्यायपालिका की जिम्मेदारी सिर्फ दो पक्षों के बीच विवाद सुलझाने तक सीमित नहीं है। अब न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार सुरक्षित रहे और यदि सरकारी तंत्र के कारण उसमें कोई बाधा आती है, तो उसे दूर किया जाए। यह एक व्यापक और संवेदनशील दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है, जो संविधान के अनुसार कार्य करता है और समाज के हितों को प्राथमिकता देता है।

संविधान की सर्वोच्चता

भारत का संविधान हमारे देश की न्यायिक और राजनीतिक प्रणाली का आधार है। न्याय की देवी की नई प्रतिमा, जिसमें तलवार के स्थान पर संविधान है, इस तथ्य को दोहराती है कि भारत में कानून का शासन है और संविधान सर्वोच्च है। संसद द्वारा ब्रिटिश कालीन कानूनों जैसे IPC, CRPC, और Indian Evidence Act को हटाकर नए भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लागू करना भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

निष्कर्ष

न्याय की देवी की नई प्रतिमा भारत की आधुनिक न्याय प्रणाली की प्रगतिशील सोच को दर्शाती है। इसमें कानून के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया गया है, जो संविधान की सर्वोच्चता को मान्यता देता है। मौजूदा समय में कानून सिर्फ शक्ति संतुलन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा साधन बन चुका है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। न्याय की देवी की आंखों से पट्टी हटाना और तलवार के बदले संविधान को उनके हाथ में देना भारत के न्यायिक और संवैधानिक प्रणाली के विकास को एक नए स्तर पर ले जाता है।

इस प्रतीकात्मक बदलाव के माध्यम से भारतीय न्यायपालिका अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों को अधिक मजबूती से पूरा करने के लिए संकल्पबद्ध है। यह बदलाव सिर्फ एक प्रतिमा का परिवर्तन नहीं, बल्कि संविधान के प्रति निष्ठा और नागरिकों के प्रति जवाबदेही का परिचायक है। भारतीय न्याय प्रणाली अब न सिर्फ निष्पक्ष है, बल्कि अधिक सजग और संवेदनशील भी है।

 

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भारतीय चुनाव प्रणाली (Indian Election System)

17वें लोकसभा चुनाव की तारीख का ऐलान हो गया हैं। यह चुनाव 11 अप्रैल से 19 मई तक 7 चरणों में होंगे और 23 मई को नतीजे आएंगे। इसके साथ ही आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम में भी विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही कराया जायेगा।

चुनाव किसी भी लोकतंत्र के लिए एक सर्वाधिक सशक्त तत्व है तथा जब-तक चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से होते रहते हैं, तब-तक राष्ट्र में ईमानदार जन-प्रतिनिधित्व कायम रहता है। विश्व के सबसे बड़े एवं सर्वाधिक लोकप्रिय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली वाला देश भारत इस बात पर गर्व कर सकता है कि केन्द्र एवं राज्यों में यदि विगत 70 वर्षों में शान्तिपूर्ण तरीके से सत्ता का हस्तान्तरण हुआ है, तो इसका श्रेय मुख्य रूप से भारत की निष्पक्ष निर्वाचन प्रणाली को जाना चाहिए।

भारतीय चुनाव प्रणाली (Indian Election System)

लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव बहुमत अथवा ‘फर्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट (First Past the Post)’ निर्वाचन प्रणाली का प्रयोग कर कराए जाते हैं। देश को विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा जाता है, जिन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं। विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं, तथा चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र प्रत्याशियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। चुनाव के दौरान विभिन्न राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी खड़े करते हैं और अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए, अपनी पसंद के एक प्रत्याशी के लिए प्रत्येक व्यक्ति एक वोट डाल सकता है। प्रत्याशी जो अधिकतम मत संख्या प्राप्त कर लेता है, चुनाव जीत जाता है और निर्वाचित हो जाता है। इसलिए चुनाव ही वह साधन है जिसके द्वारा लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं।

कौन मतदान कर सकता है? (Who Can Vote?)

जबकि मतदाता के लिए कोई निर्धारित अधिकतम आयु-सीमा नहीं है, परन्तु भारतीय संविधान के मूल प्रावधानों के अनुसार, 21 वर्ष आयु से ऊपर के सभी भारतीय नागरिक चुनावों के समय वोट देने के हकदार हैं। वर्ष 1988 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री, राजीव गाँधी द्वारा कराये गए 61वें संविधान संशोधन द्वारा नागरिकों की निम्नतम मतदान आयु घटाकर 18 वर्ष कर दी गई जो 28 मार्च 1989 से प्रभावी हो गई। इसके अतिरिक्त किसी भी निर्वाचन-क्षेत्र में एक मतदाता के रूप में पंजीकृत किए जाने के लिए कोई व्यक्ति, अनावास के आधार पर, अथवा उसके अस्वस्थ होने पर, अथवा उसे अपराध या भ्रष्टाचार या अवैध व्यवसाय के आधार पर कानून के तहत अयोग्य घोषित न किया गया हो।

चुनाव कौन लड़ सकता है? (Who Can Fight for Elections?)

लोकसभा, विधानसभा, राज्यसभा और विधान परिषद् हेतु चुनाव लड़ने के लिए कौन सुयोग्य है। सभी प्रतिस्पर्धी प्रत्याशियों को यदि लोकसभा चुनाव लड़ना हो तो 25,000 रुपये और यदि विधानसभा चुनाव लड़ना हो तो 10,000 रुपये जमा कराने होते हैं। इसको प्रत्याशियों की प्रतिभूति राशि माना जाता है। यह प्रतिभूति राशि उन सभी प्रत्याशियों को लौटा दी जाती है जो उस निर्वाचन क्षेत्र में डाले गए कुछ वैध मतों की संख्या के एक-बटा-छह से अधिक मत प्राप्त करते हैं। अन्य सभी प्रत्याशी अपनी प्रतिभूति राशि हार जाते है।

नोट: आरक्षित वर्ग के लिए यह रकम आधी हो जाती है।

इसके अतिरिक्त, नामांकन उस निर्वाचन क्षेत्र से जिससे प्रत्याशी, यदि – वह किसी पंजीकृत राजनीतिक दल द्वारा प्रायोजित किया जा रहा हो; चुनाव लड़ना चाहता है, कम से कम एक पंजीकृत मतदाता द्वारा समर्थित हो, और यदि वह प्रत्याशी स्वतंत्र प्रत्याशी हो तो कम से कम दस पंजीकृत मतदाताओं द्वारा समर्थित हो।

भारतीय चुनाव प्रणाली की कमजोरियाँ (Vulnerabilities of the Indian Electoral System)

भारत के विशाल भौगोलिक आकार तथा भारत की सामाजिक आर्थिक राजनीतिक धार्मिक सांस्कृतिक विविधताओं के सन्दर्भ में चुनाव प्रणाली में समय-समय पर किए गए सुधारों से यह उत्तरोत्तर सुदृढ हुई है, लेकिन इसमें आज भी अनेक कमजोरियों दृष्टिगोचर होती हैं। सामान्यतया भारत की निर्वाचन प्रणाली निम्नलिखित कमजोरियों से ग्रसित है –

  • कम मतदान प्रतिशत के साथ विधायिका में ईमानदार और वास्तविक प्रतिनिधित्व की अभाव – मतदान का औसत 55-65 प्रतिशत के बीच रहता है। इसका अर्थ है कि 45-35 प्रतिशत जनता की राष्ट्रीय राजनीति और नीतियों के निर्धारण में कोई भूमिका ही नहीं है।
  • राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों पर से उठता विश्वास – भारत के राजनीतिज्ञों पर से आम आदमी को विश्वास उठ गया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफास (Association for Democratic Rifaas) तथा नेशनल इलेक्शन वाच (National Election Watch) द्वारा सन् 2014 और उसके बाद के निर्वाचनों में विजयी सांसदों/विधायकों की सम्पत्तियों तथा उनके विरुद्ध न्यायालयों में लम्बित आपराधिक मामलों का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है उसके अनुसार 543 सांसदों में से 34 प्रतिशत (184) के विरुद्ध न्यायालयों में आपराधिक वाद लम्बित है।
    • 76 सांसद हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण एवं चोरी जैसे गम्भीर अपराधों में आरोपी हैं।
    • राज्य विधान सभाओं के 4032 विधायकों में से 1258 विधायकों (31%) के विरुद्ध आपराधिक वाद लम्बित हैं।
    • 564 विधायक (14%) हत्या, अपहरण, आगजनी, बलात्कार चोरी जैसे गम्भीर मामलों में अभियुक्त है।
  • राजनीति का अपराधीकरण तथा अपराधियों का राजनीतिकरण – भारतीय राजनीति का विदूपयुक्त चेहरा यह बताता है, कि अपराधियों के चुनाव न लड़ने पर कोई रोक न होने के कारण हत्या, अपहरण, आगजनी, सार्वजनिक धन के दुरुपयोग, बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में संलिप्त लोग भी केवल इस आधार पर चुनाव लड़ने और जीतने में सफल हो जाते हैं कि मामला न्यायालय में लम्बित है। न्याय-प्रणाली की विडम्बना यह है कि निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक की न्यायिक प्रक्रिया में 20 से 30 वर्ष तक का समय लग जाता है।
  • सर्वाधिक खर्चीली चुनाव प्रणाली – भारत की निर्वाचन प्रणाली को सर्वाधिक खर्चीला माना जाता है लोक सभा का चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को अनुमानित 5 करोड़ से 50 करोड़ तक का खर्चा उठाना पड़ता है।

स्पष्ट है कि उम्मीदवारों द्वारा चुनाव लड़ने पर बहुत बड़ी धनराशि खर्च की जाती हैं और यह सारा का सारा धन काला धन होता है।

  • राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चन्दे में अपारदर्शिता – यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि भारत के औद्योगिक घराने सभी बड़े राजनीतिक दलों को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए का चन्दा देते हैं, एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफाम्स (ADR) के एक विश्लेषण के अनुसार राजनीतिक दलों को ज्ञात स्रोतों से प्राप्त होने वाले चन्दे का 87 प्रतिशत उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों से आता है। इसका सीधा सा निष्कर्ष है कि राजनीतिज्ञों एवं व्यावसायिक जगत् के कर्ताधर्ताओं के बीच गहरी साँठगाँठ है।

कानूनन भारत के राजनीतिक दल विदेशी कम्पनियों से चन्दा नहीं ले सकते। अब एनडीए सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम 2010 को संशोधित करके राजनीतिक दलों द्वारा विदेशी कम्पनियों से चन्दा लेने को वैधता प्रदान कर दी है। इतना ही नहीं अब राजनीतिक दलों द्वारा 5 अगस्त, 1976 के बाद विदेशी कम्पनियों से लिए गए चन्दों की जाँच भी नहीं की जा सकेगी 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक फैसले से राजनीतिक दल विदेशी कम्पनियों से लिए गए चन्दे के मामलों में जाँच के घेरे में थे।

कालेधन के रूप में लिए गए चन्दे का तो कोई भी राजनीतिक दल लेखा-जोखा ही नहीं रखता यही कि लगभग सभी राजनीतिक दल स्वयं को सूचना पाने का अधिकार अधिनियम 2005 के दायरे में आने का विरोध कर रहे थे, केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने एक निर्णय में सभी 6 राष्ट्रीय राजनीतिक दलों काग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सीपीआई एम, सीपीआई तथा बहुजन समाज पार्टी को सूचना पाने का अधिकार अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत आछादित होने का निर्णय 3 जून, 2013 को सुनाया था। इस निर्णय के विरुद्ध सभी राजनीतिक दल एक मंच पर आ गए और केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने सूचना पाने का अधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन लाने सम्वन्धी विधेयक का अनुमोदन कर दिया।

  • मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने की हेरा-फेरी – राज्यों में सत्तारूढ राजनीतिक दल की शह पर जिला निर्वाचन अधिकारी के स्तर पर मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर हेरा फेरी की जाती है विरोधी राजनीतिज्ञों के समर्थक मतदाताओं के नाम सूची से काट दिए जाते हैं, जबकि सत्ता-दल के समर्थकों के नाम एक से अधिक मतदाता सूचियों में जोड दिए जाते हैं ।
  • सभी उम्मीदवारों को नकारने का मुद्दा –  समाजसेवी अन्ना हजारे और उनके समर्थक एक स्वर से यह माँग करते रहे हैं, कि मतदाताओं को यह अधिकार होना चाहिए कि वे चुनाव में खडे एक को छोड़कर सभी को नापसंद करने के स्थान पर कोई भी पसन्द नहीं का भी विकल्प चुन सकें सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर भारत निवचिन आयोग ने अक्टूबर-दिसम्बर 2013 में सम्पन्न मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली तथा मिजोरम के चुनाव में उपर्युक्त में से कोई नहीं (None of the Above – NOTA) का विकल्प इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नोटा बटन के रूप में रखा और आश्चर्य जनक रूप से देश के पिछड़े राज्यों में से एक छत्तीसगढ़ राज्य के अनेक मतदाताओं ने नोटा विकल्प को चुना और हाल ही मे संपन्न हुए विधानसभा के चुनाव में भी इसका अच्छा खासा असर देखा गया
  • निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार (Right to Reciall) – समाजसेवी अन्ना हजारे और उनके समर्थकों की यह भी माँग है कि मतदाताओं को यह भी अधिकार होना चाहिए कि वे यदि अपने निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधि की गतिविधियों से सन्तुष्ट न हों, तो उसकी सदस्यता समाप्त कराने अर्थात् उसे वापस बुला सकें, प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के सिद्धान्त का प्रतिपादन लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने किया था।
  • गैर-गम्भीर सांसदों/विधायकों की बढ़ती संख्या – जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी भागीदारी के सिद्धान्त पर लोक सभा और विधान सभा में ऐसे सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, जो विधायी कार्यों, आर्थिक सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति गम्भीर नहीं हैं। इस कटु वास्तविकता का अनुमान सदन की कार्यवाहियों के दौरान सदस्यों की लगातार घटती संख्या से लगाया जा सकता है। सरकार बचाने या गिराने जैसे मुद्दों पर सदन में मतदान होने के समय उपस्थित रहने के लिए मुख्य सचेतक द्वारा लिखित आदेश की बाध्यता से ही सदस्य सदन में उपस्थित रहते हैं वह भी केवल हों या न का बटन दबाने के लिए या सदन में हल्ला गुल्ला करने के लिए।

 

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भारतीय संविधान का विकास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

16वीं शताब्दी के अंत में लंदन के कुछ व्यापरियों ने भारत से व्यापार करने के लिए लंदन कंपनी की स्थापना की। 1600 ई. के अंतिम महीनों में लंदन कंपनी को भारत में व्यापार करने का अधिकार पत्र मिला। इस कंपनी ने ईस्ट इण्डिया कंपनी के नाम से भारत में व्यापार करना शुरू किया। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद केन्द्रीय प्रशासन के शक्तिहीन होने के साथ-साथ ईस्ट इण्डिया कंपनी ने यहाँ के आंतरिक राजनीतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया। 1757 में प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला को पराजित कर कंपनी ने बंगाल पर आधिपत्य जमाया। 1764 में बक्सर के युद्ध में कंपनी ने जीत हासिल की।

भारत में कंपनी के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव पर संसदीय नियंत्रण के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा समय-समय पर अधिनियम पारित किए गए। इन अधिनियमों ने भारतीय संविधान के निर्माण के लिए एक आधार तैयार किया।

1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट (Regulating Act 1773)

  • तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड नॉर्थ द्वारा गोपनीय समिति की रिपोर्ट पर 1773 में ब्रिटिश संसद द्वारा यह एक्ट पारित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य कंपनी में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं कुशासन से दूर करना था।
  • मद्रास एवं बंबई प्रेसीडेंसियों को कलकत्ता प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया गया। कलकत्ता प्रेसीडेंसी के प्रमुख को गवर्नर की जगह गवर्नर जनरल कहा जाने लगा।
  • गवर्नर जनरल और उनकी परिषद् इंग्लैण्ड स्थित निदेशक बोर्ड के प्रति उत्तरदायी थी।
  • इस एक्ट में एक उच्चतम न्यायालय के गठन का प्रावधान था, जिसके तहत 1774 में कलकत्ता में चार सदस्यीय उच्चतम न्यायालय गठित किया गया।
  • बंगाल प्रेसीडेंसी का पहला गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स था तथा उसकी परिषद के चार सदस्य थे –
    (i) फिलीप फ्रांसीस
    (ii) मानसन
    (iii) बारवैल
    (iv) क्लेवेरिंग।
  • एक्ट के तहत स्थापित भारत के पहले उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश सर एलीजाह इम्पे थे।

1784 का पिट्स इण्डिया एक्ट (Pitts India Act 1784)

  • पिट्स इण्डिया एक्ट ने कंपनी के व्यापारिक एवं राजनीतिक कार्यकलापों को एक-दूसरे से अलग कर दिया।
  • कंपनी के वाणिज्य संबंधी विषयों को छोड़कर सभी सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधी मामलों को एक नियंत्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया।

1793 का चार्टर एक्ट (Charter Act 1793)

  • इस एक्ट के द्वारा कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया।
  • एक्ट के तहत बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अधिकारियों को वेतन भारतीय कोष से मिलने लगा।

1813 का चार्टर एक्ट (Charter Act 1813)

  • इस एक्ट के अंतर्गत कंपनी के भारतीय व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया, किन्तु चीन से व्यापार और चाय के व्यापार का एकाधिकार बना रहा।
  • इस एक्ट के तहत एक लाख रुपए प्रतिवर्ष विद्वान भारतीयों को प्रोत्साहन तथा साहित्य के सुधार तथा पुनरुत्थान के लिए रखा गया।
  • ईस्ट इण्डिया कंपनी को अगले 20 वर्ष के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार प्रदान किया गया।

1833 का चार्टर एक्ट (Charter Act 1833)

  • भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान संविधान निर्माण के प्रथम धुंधले संकेत इस एक्ट में मिलते हैं।
  • इस एक्ट से कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। उसे भविष्य में केवल राजनीतिक कार्य ही करने थे।
  • इस एक्ट के द्वारा भारतीय प्रशासन का केन्द्रीयकरण किया गया। बंगाल का गवर्नर अब भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया।
  • लार्ड विलियम बैंटिक भारत के पहले गवर्नर जनरल बने।
  • विधायी कार्य के लिए परिषद् का विस्तार किया गया, जिसमें पहले तीन सदस्यों के अतिरिक्त एक विधि सदस्य जोड़ दिया गया।
  • इस एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल की सरकार भारत सरकार और उसकी परिषद् भारत परिषद् कहलाने लगी।
  • भारतीय कानूनों को लिपिबद्ध तथा सुधारने के उद्देश्य से एक विधि आयोग का गठन किया गया।

1853 का चार्टर एक्ट (Charter Act 1853)

  • 1853 का एक्ट अंतिम चार्टर एक्ट था।
  • बंगाल के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल नियुक्ति किया गया।
  • विधायी परिषद् और कार्यकारी परिषद् को अलग किया गया।
  • इसी एक्ट द्वारा सर्वप्रथम सम्पूर्ण भारत के लिए एक विधानमण्डल की स्थापना की गई
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