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वायुमंडल की संरचना (Structure of Atmosphere)

वायुमंडल में हवा की अनेक संकेद्री पर्ते हैं जो घनत्व और तापमान की दृष्टि से एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। हवा का घनत्व धरातल पर सर्वाधिक है और ऊपर की ओर तेजी से घटता जाता है। वायुमंडल को पांच मुख्य संस्तरों में बाँट सकते हैं –

Structure of Atmosphere

1. क्षोभमंडल (Troposphere)

  • वायुमंडल के सबसे निचली संस्तर का क्षोभ मंडल कहते हैं। यह पृथ्वी के धरातल से कुछ ही ऊँचाई पर स्थित है।
  • इसकी ऊँचाई ध्रुवों पर 8 किमी० तथा विषुवत रेखा पर 18 किमी० है।
  • ट्रोपोस्फीयर या विक्षोभ प्रदेश (Troposphere) नामक शब्द का प्रयोग तिज्रांस-डि-बोर ने सर्वप्रथम किया था
  • संवहनी तरंगों तथा विक्षुब्ध संवहन के कारण इस मंडल को कर्म से संवहनी मंडल और विक्षोभ मंडल भी कहते हैं
  • विषुवत रेखा पर क्षोभमंडल की ऊँचाई सर्वाधिक है क्योंकि तेज संवहनीय धाराएँ धरातल की ऊष्मा को अधिक ऊँचाई पर ले जाती है।
  • इस संस्तर पर ऊँचाई के साथ तापमान कम होता है। तापमान में गिरावट की दर एक डिग्री सेल्सियस प्रति 165 मी० है। इसे सामान्य ह्रास दर कहते हैं।
  • इस संस्तर में धूल के कणों और जलवाष्प की मात्रा अधिक होती है।
  • ग्रीष्म ऋतु में इस स्तर की ऊँचाई में वृद्धि और शीतऋतु में कमी पाई जाती है
  • मौसम की प्रायः सभी घटनाएँ कुहरा, बादल, ओला, तुषार, आँधी, तूफान, मेघ गर्जन, विद्युत प्रकाश आदि इसी भाग में घटित होती हैं।
  • क्षोभमंडल और समताप मंडल के मध्य डेढ़ किमी० मोटी परत को ट्रोपोयास कहते हैं। वास्तव में यह मंडल क्षोभ तथा समताप मंडल के बीच विभाजक होता है।

2. समतापमंडल (Stratosphere)

  • समताप मंडल क्षोभमंडल के ऊपर स्थित है।
  • ट्रोपोयास से इस सीमा तक ऊँचाई के साथ तापमान प्राय: समान रहता है। (20 किमी० तक) इसके ऊपर 50 किमी० की ऊँचाई तक तापमान क्रमश: बढ़ता है।
  • यहाँ सूर्य की पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करने वाली ओजोन गैस मौजूद होती है।
  • यहाँ संघनन से विशिष्ट प्रकार के “मुकताभ मेघ” की उत्पत्ति होती है और एवं गिरने वाले बूदों को Noctilucent कहते हैं
  • यह ओजोन मंडल 30-35 किमी० में पाया जाता है।
  • यह मंडल मौसमी हलचल से रहित होता है, इसलिए वायुयान चालकों के लिए उत्तम होता है।
  • इस मंडल की खोज सर्वप्रथम तिज्रांस-डि-बोर ने 1902 में की थी।

3. मध्यमंडल (Mesosphere)

  • 50 किमी० से 80 किमी० की ऊँचाई वाला भाग मध्य मंडल कहा जाता है।
  • उसमें ऊँचाई के साथ तापमान में ह्रास होता है।
  • 80 किमी० की ऊँचाई पर तापमान -80°C हो जाता है। इस तापमान की सीमा को “मेसोपास” कहते हैं। इसके ऊपर जाने पर पुनः तापमान में वृद्धि होती जाती है।

4. आयन मंडल (Ionosphere)

  • धरातल से 80-640 कि.मी. के बीच आयन मंडल का विस्तार है
  • यहाँ पर अत्यधिक तापमान के कारण अति न्यून दबाव होता है
  • पराबैगनी फोटोंस (UV photons) एवं उच्च वेगीय कणों के द्वारा लगातार प्रहार होने से गैसों का आयनन (Ionization) हो जाता है
  • आयनमंडल के पुनः तीन उपमंडल होते हैं –
    • D परत- यह आयनमंडल का सबसे निचला भाग होता है।
    • E परत- यह D-परत के ऊपर स्थित होता है।
    • F परत- सबसे ऊपरी भाग को F -परत कहते हैं।

    यदि आयन मंडल की स्थिति नहीं होती तो रेडियो तरंगें भूतल पर न आकर आकाश में असीमित ऊँचाईयों तक चली जाती। इसी मंडल में उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश (Aurora Borealis) तथा दक्षिणी ध्रुवीये प्रकाश (Aurora Australis) के दर्शन होते हैं।

5. बाह्य मंडल (Exosphere)

  • सामान्यतः 640 कि.मी. के ऊपर बाह्य मंडल का विस्तार पाया जाता है।
  • यहाँ पर हाइड्रोजन एवं हीलियम गैसों की प्रधानता है।
  • अद्यतन शोधों के अनुसार यहाँ नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हीलियम तथा हाइड्रोजन की अलग-अलग परतें भी होती हैं।
  • लेमन स्पिट्जर ने इस मंडल पर विशेष शोध किया है।

वायुमंडल का रासायनिक संगठन

रासायनिक दृष्टिकोण से वायुमंडल को दो भाग में विभक्त किया गया है –

  1. सममंडल (Homosphere) :- इसमें गैसों के अनुपात में परिवर्तन नहीं होता है। (90 किमी० ऊँचाई)
  2. विषममंडल (Hexosphere) :- इसमें ऑक्सीजन के अणु पाए जाते हैं। इसकी ऊँचाई 200 से 1100 किमी है।
  3. हीलियम परत :- इसमें हीलियम के अणु पाए जाते हैं तथा इसका विस्तार 1100 से 3500 किमी० के बीच है।
  4. हाइड्रोजन परत :- सामान्य तौर पर इसका विस्तार 10,000 किमी० तक माना जाता है। इसमें हाइड्रोजन के अणु पाए जाते हैं।
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वायुमंडल एवं उनके संघटन

वायुमंडल (Atmosphere)

पृथ्वी को चारों ओर से आवरण की तरह घेरे हुए हवा के विस्तृत भंडार को वायुमंडल (Atmosphere) कहते हैं।

  • इसमें मनुष्य एवं जानवर के लिए ऑक्सीजन एवं पेड़-पौधों के लिए कार्बनडाईआक्साइड जैसी जीवनदायी गैसें उपस्थित हैं।
  • सूर्य के खतरनाक विकिरण से यह पृथ्वी की रक्षा करता है।
  • वायुमंडल जलवाष्प का भंडार है जिससे धरातल पर वृद्धि होती है और स्थल तथा समुद्र पर वृद्धि के नियमित वितरण को भी यह नियंत्रित करता है।

वायुमंडल का संघटन (Composition of Atmosphere)

वायुमंडल अनेक गैसों का मिश्रण है जिसमें ठोस और तरल पदार्थों के कण असमान मात्रा में तैरते रहते हैं। शुद्ध शुष्क हवा में 78% नाइट्रोजन तथा 21% ऑक्सीजन होता है। ये दोनों मिलकर आयतन का 99% हैं। शेष 1% में ऑर्गन 0.93%, कार्बनडाईऑक्साइड 0. 03%,  हाइड्रोजन ओजोन इत्यादि गैसें हैं। जलवाष्प के अलावा धूलकण तथा अन्य अशुद्धियाँ भी असमान मात्रा में हवा में होती हैं।

वायुमंडल के संघटन के महत्वपूर्ण तत्व

संसार की जलवायु और मौसमी दशाओं के लिए जलवाष्प, धूलकण, कार्बनडाईऑक्साइड, ओजोन आदि अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।

जलवाष्प (Watervapour)

जलवायु के दृष्टिकोण से जलवाष्प सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। आयतन के हिसाब से यह गैस उष्णकटिबंध और ध्रुवीय क्षेत्रों में हवा के 1% से भी कम होती है। भूतल से 5 किमी० तक वायुमंडल वाले भाग में समस्त वाष्प का 90% भाग रहता है। ऊपर जाने पर वाष्प की मात्रा घटती जाती है। वाष्प के कारण ही सभी प्रकार के संघनन तथा वर्षण एवं उनके विभिन्न रूप (बादल, तुषार, जलवृष्टि, हिम, ओस आदि) का सृजन होता है। जलवाष्प सूर्य की किरणों के लिए पारदर्शक होता है, जिस कारण वह बिना रूकावट धरातल पर चली आती हैं, परन्तु पृथ्वी से विकीर्ण शक्ति के लिए अपेक्षाकृत कम पारदर्शक होने के कारण पृथ्वी को गर्म करने में सहायक होती है।

धूलकण (Dust)

गैस तथा वाष्प के अलावा वायुमंडल में कुछ ठोस कण भी पाए जाते हैं। इनमें धूलकण सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इनकी उपस्थिति के कारण वायुमंडल में अनेक घटनाएँ घटित होती हैं। सूर्य से आने वाली किरणों में प्रकीर्णन (Scattering) इन्हीं कणों के द्वारा होता है। जिस कारण आकाश का नीला रंग, सूर्योदय तथा सूर्यास्त एवं गोधुलि बेला के समय आकाश का रंग लाल नजर आता है। वर्षा, कुहरा, बादल आदि इन्हीं के प्रतिफल बनते हैं।

अन्य गैसे (Other Gasses)

हवा में कार्बनडाइ आक्साइड उसके कुल आयतन का 0.03% ही है, फिर भी यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह सूर्य से आने वाले विकिरण के लिए पारगम्य है। किन्तु पृथ्वी से बाहर आने वाली विकिरण के लिए अपारगम्य है। इस विकिरण के अंश का अवशोषण करके उसका कुछ अंश पुनः धरातल पर लौटा देती हैं अत: यह धरातल के समीप वाले हवा को गर्म रखती है। यह पृथ्वी की धरालत से 20 किमी० तक होती है।

वायुमंडल का दूसरा घटक ओजोन गैस है। यह एक छन्नी का काम करती है और सूर्य के पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित कर लेती है। यह मुख्यत: धरातल से 10 से 50 किमी० की ऊँचाई पर स्थित है।

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मैदान एवं उनका वर्गीकरण

मैदान (Plain)

धरातल पर पायी जाने वाली समस्त स्थलाकृतियों में मैदान (Plain) सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। अति मंद ढाल वाली लगभग सपाट या लहरिया निम्न भूमि को मैदान कहते हैं। मैदान धरातल के लगभग 55 प्रतिशत भाग पर फैले हुए हैं। संसार के अधिकांश मैदान नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से बने हैं। मैदानों की औसत ऊँचाई लगभग 200 मीटर होती है। नदियों के अलावा कुछ मैदानों का निर्माण वायु, ज्वालामुखी और हिमानी द्वारा भी होता है।

मैदानों का वर्गीकरण (Classification of Plains)

बनावट के आधार पर मैदानों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है –

  1. संरचनात्मक मैदान,
  2. अपरदन द्वारा बने मैदान,
  3. निक्षेपण द्वारा बने मैदान

1. संरचनात्मक मैदान (Structural Plain)

इन मैदानों का निर्माण मुख्यतः सागरीय तल अर्थात् महाद्वीपीय निमग्न तट के उत्थान के कारण होता है। ऐसे मैदान प्रायः सभी महाद्वीपों के किनारों पर मिलते हैं। मैक्सिको की खाड़ी के सहारे फैला संयुक्त राज्य अमेरिका का दक्षिणी पूर्वी मैदान इसका उदाहरण है। भूमि के नीचे धंसने के कारण भी संरचनात्मक मैदानों का निर्माण होता है। आस्ट्रेलिया के मध्यवर्ती मैदान का निर्माण इसी प्रकार हुआ है।

2. अपरदन द्वारा बने मैदान (Erosional Plain)

पृथ्वी के धरातल पर निरन्तर अपरदन की प्रक्रिया चलती रहती है, जिससे दीर्घकाल में पर्वत तथा पठार नदी, पवन और हिमानी जैसे कारकों द्वारा घिस कर मैदानों में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार बने मैदान पूर्णतः समतल नहीं होते। कठोर शैलों के टीले बीच-बीच में खड़े रहते हैं। उत्तरी कनाडा एवं पश्चिमी साइबेरिया का मैदान अपरदन द्वारा बने मैदान हैं। अपरदन द्वारा बने मैदानों को समप्राय भूमि/पेनीप्लेन भी कहते हैं।

3. निक्षेपण द्वारा बने मैदान (Depositional Plain)

ऐसे मैदानों का निर्माण नदी, हिमानी, पवन आदि तथा संतुलन के कारकों द्वारा ढोये अवसादों से झील या समुद्र जैसे गर्तों के भरने से होता है। जब मैदानों का निर्माण नदी द्वारा ढोये गये अवसादों के निक्षेपण से होता है तो उसे नदीकृत या जलोढ़ मैदान कहते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप का सिन्धु–गंगा का मैदान, उत्तरी चीन में हाँगहो का मैदान, इटली में पो नदी द्वारा बना लोम्बार्डी का मैदान और बाँग्लादेश का गंगा ब्रह्मपुत्र का डेल्टाई मैदान जलोढ़ मैदानों के विशिष्ट उदाहरण हैं।

जब मैदानों का निर्माण झील में अवसादों के निक्षेपण से होता है तो उसे सरोवरी या झील मैदान कहते हैं। कश्मीर और मणिपुर की घाटियाँ भारत में सरोवरी मैदानों के उदाहरण हैं। जब मैदान का निर्माण हिमानी द्वारा ढोये पदार्थों के निक्षेपण से होता है तो उसे हिमानी कृत या हिमोढ़ मैदान कहते हैं। कनाडा और उत्तरी-पश्चिमी यूरोप के मैदान हिमानी कृत मैदानों के उदाहरण हैं।

जब निक्षेपण का प्रमुख कारक पवन होती है तो लोयस मैदान बनते हैं। उत्तरी-पश्चिमी चीन के लोयस मैदान का निर्माण पवन द्वारा उड़ाकर लाये गए सूक्ष्म धूल कण के निक्षेपण से हुआ है।

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पठारों का महत्त्व

पठारों का महत्त्व (Importance of Plateaus)

लम्बे समय से लगातार अपरदन के कारण पठार के तल प्रायः असमतल हो गये हैं, जिसके कारण यहाँ, आवागमन के साधनों तथा जनसंख्या का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता। फिर भी पठार मानव के लिए बहुत उपयोगी हैं। पठारों ने मानव जीवन को निम्न प्रकार से प्रभावित किया है –

1. खनिजों के भण्डार

विश्व के अधिकांश खनिज पठारों से ही प्राप्त होते हैं, जिन खनिजों पर हमारे उद्योग कच्चे माल के लिए निर्भर हैं। पश्चिमी आस्ट्रेलिया के पठार में सोना, अफ्रीका के पठार में ताँबा, हीरा और सोना तथा भारत के पठार में कोयला, लोहा, मैंगनीज और अभ्रक के विशाल भंडार हैं।

2. जल विद्युत उत्पादन – पठारों के ढालों पर नदियाँ जल प्रपात बनाती हैं, यह जल प्राप्त जल विद्युत उत्पादन के आदर्श स्थल है।

3. ठन्डी जलवायु – उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पठारों के ऊँचे भाग ठण्डी जलवायु के कारण यूरोपवासियो को आकर्षित करते रहे, जहाँ रहकर उन्होंने अर्थव्यवस्था का विकास किया। उदाहरणार्थ दक्षिण और पूर्व अफ्रीका।

4. पशु-चारण के लिए उपयोगी – पठारी भाग पशुचारण के लिए बहुत उपयोगी हैं। ये भेड़, बकरियों के पालन के लिए बहुत उपयोगी है। भेड़, बकरियों से वस्त्रों के लिए ऊन तथा भोजन के लिए दूध और माँस की प्राप्ति होती है। लावा से बने पठार उपजाऊ हैं। अतः उन पर अन्य पठारों की अपेक्षा कृषि का अधिक विकास हुआ है।

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पठार व उनका का वर्गीकरण

पठार (Plateau)

पठार (Plateau) पृथ्वी की सतह का लगभग 18 प्रतिशत भाग घेरे हुये हैं। पठार एक बहुत विस्तृत ऊँचा भू–भाग है, जिसका सबसे ऊपर का भाग पर्वत के विपरीत लम्बा-चौड़ा और लगभग समतल होता है। पठारी क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ पठार पर प्रायः गहरी घाटियाँ और महाखड़ड बनाती हैं। इस प्रकार पठार का मौलिक समतल रूप कटा-फटा या ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। फिर भी पठार आसपास के क्षेत्र या समुद्र तल से काफी ऊँचा होता है। पठार की ऊँचाई समुद्रतल से 600 मीटर ऊपर मानी जाती है। परन्तु तिब्बत और बोलिविया जैसे पठार समुद्र तल से 3600 मीटर से भी अधिक ऊँचे हैं।

पठारों का वर्गीकरण (Classification of Plateaus)

भौगोलिक स्थिति एवं संरचना के आधार पर पठारों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

  • अन्तरा पर्वतीय पठार
  • गिरिपद पठार,
  • महाद्वीपीय पठार

अन्तरा-पर्वतीय पठार (Inter-Mountain Plateau)

Inter-Mountain Plateau

चारों ओर से ऊँची पर्वत श्रेणियों से पूरी तरह या आंशिक रूप से घिरे भू–भाग को अन्तरा पर्वतीय पठार कहते हैं। उर्ध्वाधर हलचलें लगभग क्षैतिज संस्तरों वाली शैलों के बहुत बड़े भूभाग को समुद्रतल से हजारों मीटर ऊँचा उठा देती है। संसार के अधिकांश ऊँचे पठार इसी श्रेणी में आते हैं। इनकी औसत ऊँचाई 3000 मीटर है। तिब्बत का विस्तृत एवं 4500 मीटर ऊँचा उठार ऐसा ही एक उदाहरण है। यह वलित पर्वत जैसे हिमालय, काराकोरम, क्यूनलुन, तियनशान से दो ओर से घिरा हुआ है। कोलोरेडो दूसरा चिर परिचित उदाहरण है जो एक किलोमीटर से अधिक ऊँचा है, जिसे नदियों ने ग्रॉड केनियन तथा अन्य महाखड्डों को काटकर बना दिया है। मेक्सिको, बोलीविया, ईरान और हंगरी इसी प्रकार के पठार के अन्य उदाहरण है।

गिरिपद (पीडमान्ट) पठार (Mountain Plateau)

Mountain Plateau

पर्वत के पदों में स्थित अथवा पर्वतमाला से जुड़े हुए पठारों को जिनके दूसरी ओर मैदान या समुद्र हों, गिरिपद पठार कहते हैं। इन पठारों का क्षेत्रफल प्रायः कम होता है। इन पठारों का निर्माण कठोर शैलों से होता है। भारत में मालवा पठार, दक्षिण अमेरिका में पैटेगोनिया का पठार जिसके एक ओर अटलांटिक महासागर है और संयुक्त राज्य अमेरिका में एप्लेशियन पर्वत और अटलांटिक तटीय मैदान के बीच एप्लेशियन पठार इसके उदाहरण हैं। ये किसी समय बहुत ऊँचे थे परन्तु अब अपरदन के बहुत से कारकों द्वारा घिस दिए गए हैं। इसी कारणवश इन्हें अपरदन के पठार भी कहा जाता है।

महाद्वीपीय पठार (Continental Plateau)

धरातल के एक बहुत बड़े भाग के ऊपर उठने या बड़े भू–भाग पर लावा की परतों के काफी ऊँचाई तक जाने से महाद्वीपीय पठारो का निर्माण होता है। महाराष्ट्र का लावा पठार, उत्तर-पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका में स्नेक नदी पठार, इस प्रकार के पठारों के उदाहरण हैं। इनको निक्षेपण के पठार भी कहते हैं। महाद्वीपीय पठार अपने आस-पास के क्षेत्रों तथा समुद्र तल से स्पष्ट ऊँचे उठे दिखते हैं। इस प्रकार के पठारों का विस्तार सबसे अधिक है। भारत का विशाल पठार, ब्राजील का पठार, अरब का पठार, स्पेन, ग्रीनलैण्ड और अंटार्कटिका के पठार, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया के पठार महाद्वीपीय पठारों के उदाहरण हैं।

 

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पर्वतों का आर्थिक महत्व

पर्वतों का आर्थिक महत्व (Economic importance of mountains)

पर्वत हमारे लिए निम्न प्रकार से उपयोगी हैं –

1. संसाधनों के भण्डार – पर्वत प्राकृतिक सम्पदा के भंडार हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की अप्लेशियन पर्वतमाला कोयले और चूना पत्थर के लिए प्रसिद्ध है। पर्वतों पर उगने वाले कई प्रकार के वनों में हमें विभिन्न उद्योगों के लिए इमारती लकड़ी, लाख, गोंद, जड़ी बूटियाँ तथा कागज उद्योगों के लिए लकड़ी प्राप्त होती हैं। पर्वतीय ढलानों पर चाय तथा फलों की कृषि का विकास हुआ है।

2. जल विद्युत उत्पादन – पर्वतीय प्रदेशों में बहने वाली नदियों के जल प्रपातों द्वारा जल विद्युत उत्पन्न की जाती है। कोयले की कमी वाले पर्वतीय देशों जैसे-जापान, इटली और स्विटजरलैण्ड में जल विद्युत का बहुत महत्व है।

3. जल के असीम भंडार – ऊँचे हिमाच्छादित या भारी वर्षा वाले पर्वतों से निकलने वाली सदा वाहिनी नदियाँ जल के भंडार हैं। उनसे नहरें निकाल कर खेतों की सिंचाई की जाती है, जिससे विभिन्न फसलों का अधिक उत्पादन होता है। उपजाऊ मैदानों के निर्माण में सहायक ऊँचे पर्वतों से निकलने वाली नदियाँ कटाव द्वारा मिट्टी बहाकर निचली घाटियों में जमा करती हैं, जिससे उपजाऊ मैदानों का निर्माण होता है। उत्तरी भारत का विशाल मैदान गंगा, सतलुज और ब्रह्मपुत्र नदियों की ही देन है।

4. राजनीतिक सीमायें – पर्वत दो देशों के बीच राजनीतिक सीमायें बनाते हैं तथा कुछ हद तक आपसी आक्रमण से बचाते हैं। हिमालय पर्वतमाला भारत और चीन के बीच राजनीतिक सीमा बनाये हुए हैं।

5. जलवायु पर प्रभाव – पर्वतों पर नीचे तापमान पाये जाते हैं। पर्वत दो प्रदेशों के बीच जलवायु विभाजक का कार्य करते हैं। उदाहरण के लिये हिमालय पर्वतमाला मध्य एशिया से आने वाली अति शीत पवनों को भारत में आने से रोकती है। वह दक्षिण-पश्चिम मानसून पवनों को भी रोककर उन्हें दक्षिणी ढलानों पर वर्षा करने को बाध्य करती है।

6. पर्यटन केन्द्र – प्राकृतिक सौन्दर्य के केन्द्र तथा स्वास्थ्यवर्धक स्थान होने के कारण बहुत से पर्वतीय स्थल पर्यटन केन्द्रों के रूप में विकसित हो जाते हैं। ऐसे स्थानों पर पर्यटन एवं होटल व्यवसाय विकसित हो जाते हैं। भारत के शिमला, नैनीताल, मसूरी तथा श्रीनगर पर्वतीय नगरों के उदाहरण हैं। ये सारी दुनिया के सैलानियों को आकर्षित करते हैं।

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पर्वतों का वर्गीकरण

पर्वतों का वर्गीकरण (Classification of Mountains)

निर्माण क्रिया के आधार पर पर्वतों को निम्न चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है।

  • वलित पर्वत,
  • खंड पर्वत,
  • ज्वालामुखी पर्वत और
  • अवशिष्ट पर्वत

वलित पर्वत (Fold mountains)

पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों के कारण परतदार शैलों में वलन पड़ते हैं। वलित परतदार शैलों के ऊपर उठने के परिणामस्वरूप बनी पर्वत श्रेणियों को वलित पर्वत कहते हैं। वलित परतदार शैलों पर लाखों वर्षों तक आन्तरिक क्षैतिज संपीडन-बल लगे रहते हैं तो वे मुड़ जाती हैं और उनमें उद्वलन तथा नतवलन पड़ जाते हैं। कालान्तर में ये अपनतियों और अभिनतियों के रूप में विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार की हलचलें समय-समय पर होती रहती हैं और जब वलित शैलें बहुत ऊँचाई प्राप्त कर लेती हैं तो वलित पर्वतों का जन्म होता है।

Fold mountains

एशिया के हिमालय, यूरोप के आल्प्स, उत्तर अमरीका के रॉकी और दक्षिण अमरीका के एंडीज संसार के प्रमुख वलित पर्वत हैं। इन पर्वतों का निर्माण अत्यन्त आधुनिक पर्वत निर्माणकारी युग में हुआ है, अतः ये सभी नवीन वलित पर्वतों के नाम से जाने जाते हैं। इनमें से कुछ पर्वत श्रेणियाँ जैसे। हिमालय पर्वत अब भी ऊपर उठ रहे हैं।

भ्रंश या खंड पर्वत (Block Mountains)

खंड पर्वत का निर्माण भी पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों के कारण होता है। जब परतदार शैलों पर तनाव-बल लगते हैं तो उनमें दरार या भ्रंश पड़ जाते हैं। जब लगभग दो समान्तर भ्रंशों के बीच की भूमि आसपास की भूमि की तुलना में काफी ऊपर उठ जाती है तो उस ऊपर उठी भूमि को खंड पर्वत या भ्रंशोत्थ पर्वत या भ्रंश-खंड पर्वत कहते हैं।

Block Mountains

खंड पर्वत का निर्माण उस परिस्थिति में भी होता है, जब दोनों भ्रंशों के बाहर की भूमि नीचे बैठ जाती है। और भ्रंशों के बीच की भूमि उठी रह जाती है। खंड पर्वत को होर्ट भी कहते हैं। खण्ड पर्वत में शैलों की परतें वलित अथवा समतल में से कोई भी हो सकती हैं।  फ्राँस के वासजेज, जर्मनी के ब्लैक फारेस्ट और उत्तरी अमरीका के सियेरानेवादा, खंड पर्वतों के विशिष्ट उदाहरण हैं।

ज्वालामुखी पर्वत (Volcano Mountains)

पर्वत जिनका निर्माण दो भ्रंशों के बीच की भूमि के ऊपर उठने अथवा भ्रंशों के बाहर की भूमि के बैठने के कारण होता है, इन्हें खंड अथवा भ्रंश-खंड पर्वत कहते हैं। ज्वालामुखी पर्वतः हमने पिछले पाठ में पढ़ा है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग या भूगर्भ बहुत गर्म है। भूगर्भ के गहरे भागों में अत्याधिक तापमान के कारण ठोस शैलें द्रव-मैग्मा में बदल जाती हैं। जब यह पिघला शैल-पदार्थ ज्वालामुखी के उद्गार में भूगर्भ से धरातल पर आता है तो वह मुख के चारों ओर इकट्ठा हो जाता है और जमकर शंकु का रूप धारण कर सकता है। ज्वालामुखी के प्रत्येक उद्गार के साथ इस शंकु की ऊँचाई बढ़ती जाती है और इस प्रकार वह पर्वत का रूप ले लेता है। पर्वत, जो ज्वालामुखी से निकले पदार्थों के जमा होने से बने हैं उन्हें ज्वालामुखी पर्वत या संग्रहित पर्वत कहते हैं।

Volcano Mountains

हवाई द्वीपों का मोनालुआ; म्यानमार (बर्मा) का माउन्ट पोपा, इटली का विसूवियस, इक्वेडोर का कोटोपैक्सी तथा जापान का फ्यूजीयामा ज्वालामुखी पर्वतों के उदाहरण हैं।

अवशिष्ट पर्वत (Residual Mountain or Reliet Mountains)

अपक्षय तथा अपरदन के विभिन्न कारक – नदियाँ, पवन, हिमानी आदि धरातल पर निरन्तर कार्य करते रहते हैं। वे भूपर्पटी की ऊपरी सतह को कमजोर करने के साथ उसे काटते-छाँटते रहते हैं। जैसे ही धरातल पर किसी-पर्वत श्रेणी का उद्भव होता है तो क्रमण के कारक अपरदन द्वारा उसे नीचा करना शुरू कर देते हैं। अपरदन कार्य शैलों की बनावट पर बहुत निर्भर करता है।

Residual Mountain or Reliet Mountains

हजारों वर्षों के बाद मुलायम शैलें कट कर बह जाती हैं तथा कठोर शैलों से बने भूभाग उच्च भूखण्डों के रूप में ही खड़े रहते हैं। इन्हें ही अवशिष्ट पर्वत कहते हैं। भारत की नीलगिरि, पारसनाथ तथा राजमहल की पहाड़ियाँ अवशिष्ट पर्वतों के उदाहरण हैं।

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प्रमुख भू-स्थल – पर्वत

धरातल पर विद्यमान तीन विस्तृत स्थलरूप पर्वत, पठार और मैदान हैं जो भूपर्पटी के विरूपण का परिणाम हैं। इनमें से पर्वत सबसे रहस्यमयी रचना है। पर्वतों द्वारा पृथ्वी की सम्पूर्ण सतह का 27 प्रतिशत भाग घिरा हुआ है। पर्वत पृथ्वी की सतह के ऊपर उठे हुये वे भाग हैं, जो आसपास की भूमि से बहुत ऊँचे हैं। परन्तु धरातल के सभी ऊपर उठे हुये भाग पर्वत नहीं कहलाते। किसी भी स्थलरूप को पहचानने के लिये ऊँचाई और ढाल दोनों को सम्मिलित किया जाता है। इस नाते तिब्बत की ऊपर उठी हुई भूमि पर्वत नहीं कहलाती यद्यपि उसकी ऊँचाई समुद्र तल से 4500 मीटर है।

यह ध्यान रखने योग्य बात है कि एक पर्वत श्रेणी के बनने में लाखों वर्ष लगते हैं। इस लम्बी अवधि में आन्तरिक बल भूमि को ऊपर उठाने में व्यस्त रहते हैं तो इसके विपरीत बाह्य बल इस ऊपर उठी भूमि को काटने-छाँटने या अपरदित करने में जुटे रहते हैं। माउन्ट एवरेस्ट जैसे ऊँचे एक पर्वत शिखर का निर्माण तब ही हो पाता है जब आन्तरिक बलों का पर्वत निर्माणकारी या जमीन को ऊपर उठाने वाला कार्य बाह्य बलों के अपरदन कार्य की अपेक्षा अधिक द्रुत गति से होता है। अतः पर्वत धरातल के ऊपर उठे हुए वे भू–भाग हैं, जिनके ढाल तीव्र होते हैं और समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं। पर्वतों की समुद्र की सतह से सामान्य ऊँचाई हजार मीटर से अधिक मानी जाती है। स्थानीय उच्चावच लक्षणों में पर्वत ही एक ऐसा स्थलरूप है, जिसके उच्चतम और निम्नतम भागों के बीच सर्वाधिक अन्तर होता है।

पर्वतों का वर्गीकरण

निर्माण क्रिया के आधार पर पर्वतों को निम्न चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है।

  • वलित पर्वत,
  • खंड पर्वत,
  • ज्वालामुखी पर्वत और
  • अवशिष्ट पर्वत
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मृदा और इसका निर्माण

मृदा, जैव तथा अजैव पदार्थों की एक परिवर्तनशील और विकासशील पतली परत है, जो भूपृष्ठ को ढके हुए है। यह वानस्पतिक आवरण को बनाए रखने में मदद देती है। इसमें विभिन्न परतें होती हैं, जो मूल शैल में भौतिक, रासायनिक और जैविक अपक्षय की प्रक्रियाओं द्वारा बनती हैं। मृदा निर्माण के कारक मृदा निर्माण को नियन्त्रित करने वाले पाँच कारकों में मूल शैल, उच्चावच, समय, जलवायु तथा जैविक तत्व शामिल हैं। पहले तीन कारकों को निष्क्रिय कारक तथा अन्तिम दो कारकों को क्रियाशील कारक कहते हैं। आधारी शैल तथा तलवायु मृदा निर्माण के दो महत्वपूर्ण कारक हैं, क्योंकि ये अन्य कारकों को प्रभावित करते हैं।

मृदा निर्माण के कारक (Due to Soil Construction)

Due to Soil Construction

1. मूल शैल

मृदा अपने नीचे स्थित विभिन्न खनिजों से युक्त शैल या मूल शैल पदार्थों से निर्मित होती है। मूल शैल छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाती है, तथा भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाओं द्वारा अपघटित हो जाती है। इससे मृदा के अजैव खनिज कणों का निर्माण होता है। मूल शैल मृदा निर्माण में लगने वाले समय, उसके रासायनिक संघटन, रंग, गठन, बनावट खनिज अंश तथा उर्वरता को भी प्रभावित करती

2. उच्चावच

किसी क्षेत्र की स्थलाकृति मूल शैल पदार्थों के अपरदन की मात्रा तथा वहां बहने वाले जल की गति को प्रभावित करती हैं। इस प्रकार मृदा निर्माण में सहायक प्रक्रियाएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उच्चावच से प्रभावित होती हैं। तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में जल तेजी से बहता है। इसके विपरीत मन्द ढालों पर जल की गति धीमी होती है। इसलिए तीव्र ढालों वाले क्षेत्रों की भूमि में पानी का रिसाव कम होता है, जिससे मृदा निर्माण की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तीव्र ढालों पर अपरदन अधिक तेजी से होता है। इससे मृदा निर्माण में बाधा पड़ती है। यही कारण है कि पर्वतीय क्षेत्रों में पतली परत वाली कम उपजाऊ मृदा का निर्माणा होता है। मैदानी क्षेत्रों में पूर्ण विकसित उपजाऊ मृदा का निर्माण होता है।

3. समय

मृदा का निर्माण बहुत धीरे-धीरे होता है। पूर्ण रूप से विकसित मृदा का निर्माण तभी होता है; जब भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाएँ बहुत लंबे समय तक कार्य करती हैं।

4. जलवायु

मृदा निर्माण की प्रक्रिया में जलवायु सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक है। जलवायु न केवल समय की लंबी अवधि में मूल शैल पदार्थों के कारण मृदा में उत्पन्न अन्तरों को कम करती है; अपितु मृदा में होने वाली जैविक प्रक्रियाओं को भी प्रभावित करती है। इस कारण एक प्रकार की जलवायु वाले प्रदेशों में दो विभिन्न प्रकार के मूल शैल पदार्थों के द्वारा एक ही प्रकार की मृदा का निर्माण होता है।

उदाहरण के लिए राजस्थान की शुष्क मरुस्थलीय जलवायु में बलुआ पत्थर और ग्रेनाइट से एक ही प्रकार की बलुई मृदा का निर्माण हुआ है। इसके विपरीत दो भिन्न जलवायु प्रदेशों में एक ही प्रकार के मूल शैल पदार्थों से दो भिन्न प्रकार की मृदाओं का विकास होता है। उदाहरण के लिए रवेदार ग्रेनाइट शैल पदार्थों से मानसूनी जलवायु प्रदेशों में जहाँ लेटेराइट मृदा का निर्माण हुआ है, वहीं उपार्दै प्रदेशों में लेटेराइट से भिन्न मृदाओं का निर्माण हुआ है।

5. वनस्पति तथा जीव

मूल शैल पदार्थों पर विकसित मृदा की गुणवत्ता में वहाँ के पेड़-पौधे तथा जीवजन्तुओं की सक्रिय भूमिका होती हैं। मृत पेड़-पौधों तथा जीवजन्तुओं से मृदा का जैविक अंश बनता है। अपघटन व जैविक प्रक्रियाओं के सहयोग से जैव पदार्थ ह्यूमस के रूप में बदल जाते हैं। ह्यूमस से ही मृदा उपजाऊ बनती है। इसके द्वारा मृदा की जल धारण करने की क्षमता में वृद्धि होती है। मृदा इसी जैविक पदार्थ के द्वारा वनस्पति का पोषण करती है। इसके बदले में वनस्पति का आवरण मृदा की ऊपरी उपजाऊ परत की अपरदन से रक्षा करती है। वनस्पति का आवरण वर्षा के जल को बहने से रोकता है और उसे मृदा की निचली परतों में रिसने के लिए मजबूर करता है। इस आवरण से मृदा की नमी का वाष्पीकरण भी कम होता है। इस प्रकार उपजाऊ और विकसित मृदा बनने में सहायता मिलती है।

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शैलों का आर्थिक महत्व

मनुष्य पृथ्वी तल पर विविध क्रियाकलाप लम्बे समय से कर रहा है। समय और तकनीकी विकास के साथ वह शैलों और खनिजों का विविध उपयोग करता रहा है। वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे ही मनुष्य की सुख-सुविधाओं के लिए शैलों और खनिजों की उपयोगिता बढ़ती गई । शैलों के महत्व के संबंध में संक्षिप्त जानकारी नीचे दी गई है।

1. मृदा – शैलों से प्राप्त होती है। मृदा से मानव के लिये भोजन मिलता है, इसके साथ ही विभिन्न कृषि उत्पादों से उद्योग-धंधों के लिए कच्चा माल भी प्राप्त होता है।

2. भवन निर्माणकारी सामग्री शैलों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्राप्त होती है। शैले ही सभी प्रकार के भवनों की सामग्री का एकमात्र स्रोत है। ग्रेनाइट, नीस, बलुआ पत्थर, संगमरमर और स्लेट आदि का मकान बनाने में भारी मात्रा में उपयोग होता है। ताजमहल सफेद संगमरमर से बना है। दिल्ली और आगरा का लाल किला लाल बलुआ पत्थर से बने हैं। भारत और विदेशों में भी स्लेट का उपयोग छतों के निर्माण में किया जाता है।

3. खनिजों के स्रोत खनिज आधुनिक सभ्यता की आधारशिला हैं। धात्विक खनिजों में मूल्यवान सोना, प्लॉटीनम, चांदी, तांबा से लेकर एल्यूमीनियम और लोहा मिलता है। ये धात्विक खनिज विभिन्न प्रकार की शैलों में पाये जाते हैं।

4. कच्चामाल कई शैलों और खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप में होता है। सीमेंट उद्योग तथा चूना भट्टियों में कई प्रकार की शैलों और खनिजों का उपयोग तैयार माल प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है। ग्रेफाइट का उपयोग सुरमा और पेंसिल निर्माण उद्योग में किया जाता है।

5. मूल्यवान पत्थर विभिन्न प्रकार की रूपान्तरित अथवा आग्नेय शैलों से प्राप्त होते हैं। हीरा बहुत ही मूल्यवान पत्थर है। उसका उपयोग जवाहरात बनाने में होता है। ये एक रूपान्तरित शैल है। इसी प्रकार दूसरे मूल्यवान पत्थर पन्ना, नीलम आदि भी विभिन्न प्रकार के शैलों से प्राप्त होते हैं।

6. ईंधन कोयला, पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस महत्वपूर्ण खनिज ईंधन हैं। परमाणु ऊर्जा भी ईंधन के रूप में हमें विभिन्न प्रकार की शैलों से मिलती है।

7. उवर्रक भी शैलों से प्राप्त किये जाते हैं। फास्फेट उर्वरक फास्फेराइट नामक खनिज से मिलता है। संसार के कुछ भागों में फास्फेराइट खनिज अधिक मात्रा में पाया जाता है।

 

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