Ancient history of uttarakhand

उत्तराखंड का इतिहास – प्रागैतिहासिक काल (History of Uttarakhand – Prehistoric times)

उत्तराखंड की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं पौराणिक महत्ता की भांति यहां का इतिहास भी मानव सभ्यताओं के विकास का साक्षी है। प्रागैतिहासिक काल से ही इस भू-भाग में मानवीय क्रियाकलापों के प्रमाण मिलते हैं। विभिन्न कालों के अनुक्रम में उत्तराखंड के इतिहास का अध्ययन तीन भागों में किया जाता है –

1. प्रागैतिहासिक काल स्रोत :- पाषाणयुगीन उपकरण व गुहालेख चित्र
2. आद्यएतिहासिक काल स्रोत :- पुरातात्विक प्रमाण व साहित्यिक प्रमाण
3. ऐतिहासिक स्रोत :-  मुद्राए, ताम्रपत्र, अभिलेख, शिलालेख 

प्रागैतिहासिक काल (Prehistoric Times)

प्रागैतिहासिक काल वह काल है जिसकी जानकारी पुरातात्विक स्त्रोतों, पुरातात्विक स्थलों जैसे पाषाण युगीन उपकरण गुफा शैल चित्र आदि से प्राप्त होती है। इस समय के इतिहास की जानकारी लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुई है। प्रागैतिहासिक काल को ‘प्रस्तर युग’ भी कहते हैं।

उत्तराखंड में प्रागेतिहासिक काल के साक्ष्य

पाषाणयुगीन उपकरण 

पाषाणयुगीन उपकरण वे उपकरण थे जिनका उपयोग मानव ने अपने विकास के विभिन्न चरणों में किया जैसे हस्त कुठार (Hand Axe), क्षुर (Choppers), खुरचनी (Scrapers), छेनी, आदि।
Stone Age Tools
उत्तराखंड में पाषाणयुगीन उपकरण अलकनन्दा नदी घाटी (डांग, स्वीत), कालसी नदी घाटी, रामगंगा घाटी आदि क्षेत्रों से प्राप्त हुए जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि पाषाणयुगीन मानव उत्तराखंड में भी निवास करते थे।

लेख व गुहा चित्र

उत्तराखंड के प्रमुख जिलों अल्मोड़ा, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ आदि में लेख व गुहा चित्र मिले है। 

अल्मोड़ा (Almora)

अल्मोड़ा जनपद के निम्नलिखित स्थानों से हमें प्रागैतिहासिक काल के बारे में जानकारी मिलती हैं – 

लाखू उडुयार (लाखू गुफा)

  • स्थान – अल्मोड़ा (सुयाल नदी के तट पर बसे दलबैंड, बाड़ेछीना गाँव में।)
  • खोज – 1968 ई०
  • खोजकर्ता – श्री यशवंत सिंह कठौर और एम.पी. जोशी 
  • उत्तराखंड में प्रागैतिहासिक शैलाश्रय चित्रों की पहली खोज थी।
  • लखुउडियार का हिन्दी में अर्थ हैं ‘लाखों गुफायें’ अर्थात इस जगह के पास कई अन्य गुफायें भी हैं।
  • विशेषताएं –
    • मानव आकृतियों का अकेला व समूह में नृत्य करते हुए।
    • विभिन्न पशु पक्षियों का चित्रण किया गया है।
    • चित्रों को रंगों से सजाया गया है।
    • इन शैलचित्रों में भीमबेटका-शैलचित्र के समान समरूपता देखी गयी है।

ल्वेथाप गाँव 

  • स्थान – अल्मोड़ा जिले में
  • विशेषताएं
    • शैल-चित्रों में मानव को हाथो में हाथ डालकर नृत्य करते तथा शिकार करते दर्शाया गया हैं।
    • यहाँ से लाल रंग से निर्मित चित्र प्राप्त हुए है।

पेटशाला

  • स्थान – अल्मोड़ा जिले में (पेटशाला व पुनाकोट गाँव के बीच स्थित कफ्फरकोट में)
  • खोज – 1989 ई०
  • खोजकर्ता – श्री यशोधर मठपाल  
  • विशेषताएं –
    • शैल-चित्रों में नृत्य करते हुए मानवों की आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं।
    • मानव आकृतियां रंग से रंगे है।

फलसीमा

  • स्थान – अल्मोड़ा के फलसीमा में
  • विशेषताएं –
    • मानव आकृतियों में योग व नृत्य करते हुए दिखाया गया हैं।

कसार देवी मंदिर 

  • स्थान – अल्मोड़ा से 8 किलोमीटर दूर कश्यप पहाड़ी की चोटी पर
  • विशेषताएं –
    • इस मंदिर से 14 मृतकों का सुंदर चित्रण प्राप्त हुआ है।

चमोली (Chamoli)

चमोली जनपद के निम्नलिखित स्थानों से हमें प्रागैतिहासिक काल के बारे में जानकारी मिलती हैं – 

गवारख्या गुफा

  • स्थान – चमोली जनपद में (अलकनंदा नदी के किनारे डुग्री गाँव के पास स्थित।)
  • खोजकर्ता – श्री राकेश भट्ट, इसका अध्ययन डॉ. यशोधर मठपाल ने किया। 
  • विशेषताएं –
    • इस उड्यार में मानव, भेड़, बारहसिंगा आदि के रंगीन चित्र मिले हैं।
    • यहाँ प्राप्त शैल-चित्र लाखु गुफा के चित्रों (मानव, भेड़, बारहसिंगा, लोमड़ी) से अधिक चटकदार है।
    • डॉ. यशोधर मठपाल के अनुसार इन शिलाश्रयों में लगभग 41 आकृतियाँ है, जिनमें  30 मानवों की, 8 पशुओं की तथा 3 पुरुषों की है।
    • चित्रकला की दृष्टि से उत्तराखंड की सबसे सुंदर आकृतियां मानी जाती है।
    • चित्रों की मुख्य विशेषता मनुष्यों द्वारा पशुओं को हाँकते हुए और घेरते हुए दर्शाया गया है।

किमनी गाँव 

  • स्थान – चमोली जनपद के थराली विकासखंड में
  • विशेषताएं –
    • हथियार व पशुओं के शैल चित्र प्राप्त हुए हैं ।
    • हल्के सफेद रंग का प्रयोग किया गया है।

मलारी गाँव

  • स्थान – तिब्बत से सटा मलारी गांव चमोली में। 
  • खोजकर्ता – 2002 में गढ़वाल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा अध्ययन।
  • विशेषताएं –
    • हजारों वर्ष पुराने नर कंकाल मिट्टी के बर्तन जानवरों के अंग प्राप्त हुए।
    • 2 किलोग्राम का एक सोने का मुखावरण (Gold Mask) प्राप्त हुआ।
    • नर कंकाल और मिट्टी के बर्तन लगभग 2000 ई०पू० से लेकर 6 वीं शताब्दी ई०पू० तक के हो सकते है।
    • डॉ. शिव प्रसाद डबराल द्वारा गढ़वाल हिमालय के इस क्षेत्र में शवाधान खोजे गए है।
    • यहाँ से प्राप्त बर्तन पाकिस्तान की स्वात घाटी के शिल्प के समान है।
मलारी गांव में गढ़वाल विश्विद्यालय के खोजकर्ताओं ने दो बार सर्वेक्षण किया – 

  • गढ़वाल विश्विद्यालय के खोजकर्ताओं को मानव अस्थियों के साथ लोहित, काले एवं धूसर रंग के चित्रित मृदभांड प्राप्त हुए।
  • प्रथम सर्वेक्षण 1983 में आखेट के लिए प्रयुक्त लोह उपकरणों के साथ एक पशु का संपूर्ण कंकाल मिला जिसकी पहचान हिमालय जुबू से की गई व साथ ही कुत्ते भेड़ व बकरी की अस्थियां प्राप्त हुई।
  • द्वितीय सर्वेक्षण (2001-02) में नर कंकाल के साथ 5.2 किलो का स्वर्ण मुखौटा (मुखावरण), कांस्य कटोरा व मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए।

उत्तरकाशी (Uttarkashi)

हुडली

  • स्थान – उत्तरकाशी में
  • विशेषताएं –
    • यहां नीले रंग के शैल चित्र प्राप्त हुए।

पिथौरागढ़ (Pithoragarh)

बनकोट

  • स्थान – पिथौरागढ़ के बनकोट क्षेत्र से
  • विशेषताएं –
    • 8 ताम्र मानव आकृतियां मिली हैं।

चंपावत (Champawat) 

देवीधुरा की समाधियाँ 

  • स्थान – चंपावत जिले में
  • खोज – 1856 में हेनवुड द्वारा
  • विशेषता
    • बुर्जहोम कश्मीर के समान समाधियाँ।

 

 

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उत्तराखण्ड में पौरव-वर्मन राजंवश का इतिहास

पौरव-वर्मन राजंवश (Paurav Varman Dynasty)

कुणिन्दों के उपरांत उत्तराखण्ड (Uttarakhand) के इतिहास की जानकारी के लिए हमारे पास अधिक साक्ष्य नहीं हैं, हमें नहीं मालूम कि समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में वर्णित कर्त्तपुर का शासक कौन था। गुप्त और हर्ष के अभिलेखों में उत्तराखण्ड (Uttarakhand) से संबंधित केवल छिटपुट उल्लेख मिलते हैं।

चौथी सदी ईस्वी के उत्तरार्द्ध से सातवीं सदी ईस्वी तक के उत्तराखण्ड (Uttarakhand) के इतिहास पर कुछ प्रकाश पुरातात्विक उत्खननों से पड़ता है, इस संदर्भ में रणिहाट में के. पी. नौटियाल एवं साथियों द्वारा किया गया उत्खनन महत्वपूर्ण है, लेकिन इस काल की विस्तृत जानकारी हमें अल्मोड़ा जनपद के तालेश्वर नामक स्थान से प्राप्त दो ताम्रपत्र अभिलेखों से मिलती है।

चौथी सदी ईस्वी के उत्तरार्द्ध से सातवीं सदी ईस्वी तक के उत्तराखण्ड (Uttarakhand) के इतिहास की जानकारी के एकमात्र स्रोत द्विजवर्मन का वृषताप शासन और विष्णुवर्मन के ताम्रशासन को है, जैसा कि बताया गया है कि ये ताम्रपत्र अल्मोड़ा जनपद के तालेश्वर नामक स्थान से मिले हैं इसीलिए इन्है तालेश्वर ताम्रपत्र पुकारा गया है। इन ताम्रपत्रों से हमें न केवल इस काल में शासन करने वाले नये राजवंश एवं शासकों के नामों की जानकारी होती है वरन् ये ताम्रपत्र इस काल से संबंधित अनेकानेक सूचनाएं भी हमें उपलब्ध कराते हैं।

पौरव-वर्मन राजंवश (Paurav Varman Dynasty)

उत्तराखण्ड (Uttarakhand) में प्राप्त ताम्रपत्र अभिलेखों में सर्वाधिक प्राचीन ताम्रपत्र अभिलेख होने का श्रेय तालेश्वर ताम्रपत्रों द्विजवर्मन का वृषताप शासन और विष्णुवर्मन के ताम्रशासन को ही है, ये दोनों ताम्रपत्र अल्मोड़ा जनपद के तालेश्वर नामक स्थान से जारी किये गये हैं, तालेश्वर से प्राप्त दोनों ताम्रपत्रों में एक-एक अण्डाकर मुद्रा जुड़ी है। मुद्रा में एक पसरा हुआ वृषभ, उसके नीचे चार-पंक्तियों का मुद्रा–लेख (जिसमें राजाओं के नाम तथा वंशावली उत्कीर्ण है), वृषभ के सामने एक मछली या कछुआ और नीचे संभवतः एक गरूढ़ है, वृषभ के पीछे एक अन्य प्रतीक है, जिसे पहचाना नहीं जा सका है, इन सभी प्रतीकों एवं मुद्रा–लेख के ऊपर एक नाग का फण प्रदर्शित है मुद्राओं में संस्कृत भाषा और गुप्त ब्राह्मी लिपि में अग्रांकित लेख उत्कीर्ण है,
यथा –

विष्णुवर्मा प्रपा (पौ) त्रस्य पो (पौ) त्रस्य वृषवर्मण (:)
श्रग्निवर्म सुतस्येह शासन (°) द्विजवर्णण (: )
………………… नुग्रहार्थाय साधु संरक्षणाय च
सोमवंशोभवो राजा जयत्यमितविक्रम (:)” …………’

गुप्ते के अनुसार इन मुद्राओं में उत्कीर्ण अनेक प्रतीक चिह्नों और मुद्रा लेख को एक सीधी रेखा द्वारा पृथक किया गया है। मुद्राओं में प्रयुक्त लिपि-चिह्नों की अनेक विशेषताऐं गुप्त लिपि से साम्यता रखती हैं, लेकिन ताम्रपत्रों के लिपि-चिह्न पर्याप्त बाद के हैं।

मुद्रा–लेख के वर्ण–विन्यास का अध्ययन करते हुए गुप्ते ने इस लिपि की अनेक विशेषताएँ गुप्त-लिपि के समान बतलायी हैं, और इन्हीं विशेषताओं के आधार पर मुद्राओं की तिथि चौथी सदी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में निश्चित की सरकार तालेश्वर ताम्रपत्रों की लिपि को छठी सदी ईस्वी की ब्राह्मी लिपि से समीकृत करते हैं।

वंशक्रम (Lineage)

जहाँ तक पौरव-वर्मन शासकों (Paurav Varman Dynasty) के वंशक्रम का सम्बन्ध है ताम्रपत्रों में जुड़ी मुद्राओं से निम्नलिखित वंशक्रम की जानकारी होती है।

विष्णुवर्मन ⇒  वृषवर्मन ⇒ श्री अग्निवर्मन II

द्विजवर्मन ताम्रपत्रों के पाठ से पता चलता है कि ये क्रमशः द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन द्वारा जारी किये गये हैं । इन ताम्रपत्रों और उनमें जुड़ी मुद्राओं के सम्मिलित पाठ से अग्रांकित वंशक्रम निश्चित किया जा सकता है –

अग्निवर्मन ⇒ द्युतिवर्मन ⇒ विष्णुवर्मन

इन मुद्राओं और ताम्रपत्रों के आधार पर के.पी. नौटियाल ने अग्रांकित वंशक्रम सुझाया है –

विष्णुवर्मन ⇒ वृषवर्मन ⇒ अग्निवर्मन II ⇒ द्विजवर्मन ⇒ विष्णुवर्मन

तालेश्वर ताम्रपत्रों में जुड़ी मुद्राओं (एक द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र में और दूसरी उसके पुत्र विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र) में अंकित पाठ के आधार पर के.के. थपलियाल ने पौरव-वर्मन शासकों के (Paurav Varman Dynasty) अग्रांकित वंशक्रम की जानकारी दी है,

विष्णुवर्मन ⇒ वृषवर्मन ⇒ अग्निवर्मन ⇒ द्विजवर्मन

गुप्ते के अनुसार ताम्रपत्रों में दिया गया वंशक्रम, मुद्राओं में अंकित वंशक्रम से थोड़ा भिन्न है। मुद्राओं में यह विष्णुवर्मन से प्रारंभ होता है। जबकि ताम्रपत्रों में यह अग्निवर्मन से प्रारंभ किया गया है, ताम्रपत्रों में इनके प्रदानकर्ता का नाम द्युतिवर्मन मिलता है जबकि मुद्राओं में यह द्विजवर्मन की भाँति पढ़ा जाता है।

अभिलेखों में पौरव-वर्मन शासकों (Paurav Varman Dynasty) के राज्य का नाम ‘पर्वताकर राज्य’ बतलाया गया है, जो स्पष्टतः उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों का ही परिचायक प्रतीत होता है। इस राज्य की राजधानी ताम्रपत्रों में ब्रह्मपुर बतलायी गयी है जिसे ‘इन्द्र की नगरी’ और ‘नगरों में श्रेष्ठ’ के रूप में उल्लिखित किया गया है। तालेश्वर ताम्रपत्र इसी नगर से जारी किये गये हैं।

इस ब्रह्मपुर की अवस्थिति के विषय में विद्वानों में अनेक मत हैं। ब्रह्मपुर का उल्लेख वारामिहिर , मार्कण्डेय पुराण एवं चीनी–यात्री व्हेनसांग के यात्रा-वृतान्त में भी मिलता है। कनिंघम, व्हेनसांग के विवरण को आधार मानकर मो-ती-पु-लो (मतिपुर) को मण्डावर (बिजनौर) से समीकृत करते हैं। मो-ती-पु-लो से ब्रह्मपुर की दूरी व्हेनसांग ने उत्तर दिशा में 300ली अथवा 50मील बतलायी है, इस विवरण के आधार पर कनिंघम ने ब्रह्मपुर को रामगंगा तटीय बैराट पट्टन लखनपुर माना है तथा बताया है कि व्हेनसांग ने इसे भ्रमवश उत्तर-पूर्व की जगह उत्तर दिशा में लिख दिया। गुप्ते ने भी कनिंघम के इस मत का समर्थन किया है। फ्युहरर ने ब्रह्मपुर को गढ़वाल स्थित पाण्डुवाला से समीकृत किया है।

गूज ने पौरव वंश का सम्बन्ध शूलिक वंश से जोड़ते हुए उनके राज्य ब्रह्मपुर का विस्तार कुमाऊँ से लेकर चम्बा (हिमांचल) तक माना है। और तालेश्वर (जनपद अल्मोड़ा) को ब्रह्मपुर की राजधानी बतलाया है पॉवेल प्राइस ब्रह्मपुर की स्थिति कत्यूर घाटी में ही मानते हैं।

नौटियाल एवं सहयोगियों ने इसे रणिहाट से समीकृत किया है। उपरोक्त मतों में से पॉवेल प्राइस का मत अधिक तार्किक प्रतीत होता है, क्योंकि द्विजवर्मन के वृषताप-शासन की 20वीं पंक्ति में ब्रह्मपुर जनपद के अन्तर्गत कार्तिकेयपुर ग्राम का उल्लेख आता है, इससे ब्रह्मपुर की स्थिति कत्यूर घाटी में ही निश्चित होती है। पौरव-वर्मनों  (Paurav Varman)से पूर्व भी कत्यूर घाटी क्षेत्र राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है, गुप्तों के काल में इसका उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशास्ति में आता है और इससे पूर्व की कुणिन्द काल की अनेक मुद्राएँ भी इस क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। पौरव-वर्मनों (Paurav Varman) के उपरान्त भी कत्यूरी शासकों ने इस क्षेत्र को महत्वपूर्ण समझ कर अपनी राजधानी यहाँ स्थापित की थी। इस क्षेत्र के महत्व और द्विजवर्मन के वृषताप शासन के उल्लेख के आधार पर ब्रह्मपुर की स्थिति कत्यूर घाटी में ही मानी जानी चाहिए।

अनेक अर्थों में प्रयुक्त मिलता है, उत्तराखण्ड से प्राप्त विभिन्न प्राचीन अभिलेखों में भी इसका प्रयोग अनेक तरह से हुआ है, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह पद शासकीय शक्ति का प्रतीक था और इससे विभिन्न शासकों की राजनैतिक स्थिति का पता चलता है।

पौरव-वर्मन शासन की प्रकृति (Nature of Paurav-Varman Rule)

तालेश्वर अभिलेखों के आधार पर पौरव-वर्मन शासन (Paurav Varman Dynasty) की प्रकृति जानने का प्रसास भी किया गया है। के.पी. नौटियाल तालेश्वर पत्रों का विश्लेषण करते हुये पौरव-वर्मन शासन (Paurav Varman Dynasty) का प्रेरणा स्रोत गुप्त शासन का बतलाते हैं। नौटियाल के विश्लेषण का आधार मुख्यतः तालेश्वर पत्रों में आये कुछ ऐसे पदाधिकारियों का उल्लेख है जो गुप्तकालीन अभिलेखों में भी मिलते हैं, वस्तुतः गुप्तोत्तर काल में उत्तर भारत में स्थापित होने वाले अनेक राज्यों द्वारा जारी अभिलेखों में इन पदाधिकारियों का उल्लेख मिल जाता है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इन सभी राज्यों ने अपने शासन प्रबन्ध में गुप्त-शासन से प्रेरणा ली थी वरन् आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार इन राज्यों ने विभिन्न पदों का सृजन किया था। इस प्रकार के प्रभाव की व्याख्या एम. पी.जोशी, ‘पीअर पौलिटी इण्टरॅक्शन’ के आधार पर करते हुए बताते हैं कि- प्रत्येक प्रभुत्व सम्पन्न राजनैतिक संगठन अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाये रखने के लिए समानान्तर राजनीतिक क्रिया-कलाप करते रहते हैं और संगठन/संस्था बनाते रहते हैं।भारतीय इतिहास के विभिन्न चरणों में विभिन्न राज्यों द्वारा बनाये गये संगठन इसी आधार पर मिलते हैं। अतः उत्तराखण्ड के इतिहास के विभिन्न चरणों में विभिन्न राज्यों द्वारा इसी प्रकार के समानान्तर संगठन बनाने की कल्पना की जा सकती है और माना जा सकता है। कि चाहे पौरव-वर्मन (Paurav Varman)राज्य हो अथवा कत्यूरी राज्य, सांस्कृतिक परिवर्तन इस प्रकार ‘पीअर-पौलिटी संवाद के जरिये भी हो सकता है।

प्रमुख नगर (Major City)

तालेश्वर अभिलेखों में पुर, पुरी- प्रत्यययुक्त स्थलों का उल्लेख मिलता है। संभवतः ये स्थल पौरव-वर्मन (Paurav Varman) काल के प्रमुख नगर रहे होगें। ‘पुर’ पद एक प्राचीन संस्कृत शब्द है जो नगर का बोध कराता है। वेदों में नगर शब्द का उल्लेख नही है लेकिन यहाँ निःसन्देह पुरों का उल्लेख मिलता है जो कभी-कभी बड़े आकार के होते थे तथा कभी-कभी पत्थर के बने (अश्ममयी) और लोहे (आयसी) होते थे। सौ दिवारों से सुसज्जित (शतभुजी) पुर भी होते थे। आर्यों के विस्तार के समय शत्रुओं के पुरों को नष्ट करने के कारण ही वेदों में इन्द्र को पुरन्दर कहा गया है। तैत्तरीय आरण्यक में ‘पुर’ शब्द केवल दस्युओं के सन्दर्भ में किया गया मिलता है। प्राचीन भारत में पुर शब्द उस क्षेत्र के लिए प्रयुक्त किया गया मिलता है, जो वृहत खाई से घिरा कम से कम एक कोस के घेरे में फैला और बड़े-बड़े भवनों से युक्त हो। पुर और पुरी को समानार्थी माना जाता है। तालेश्वर ताम्रपत्रों में आये प्रमुख ‘पुर’, ‘पुरी’ प्रत्यययुक्त स्थानों का वर्णन अधोलिखित है –

ब्रह्मपुर (Brahmapur)

तालेश्वर ताम्रपत्र ब्रह्मपुर से ही निर्गत किये हैं। इसकी स्थिति के सम्बन्ध में इस अध्याय के प्रारम्भ में विस्तार से स्पष्ट किया गया है।

कार्तिकेयपुर (Kartikipur)

तालेश्वर पत्रों में कार्तिकेयपुर की सूचना मिलना महत्वपूर्ण है, क्योंकि अनुश्रुतियों के अनुसार कार्तिकेयपुर की स्थापना एक पुराने शहर ‘करवीरपुर’ के अवशेषों के ऊपर की गई थी। यह कार्तिकेयपुर आगे चलकर कत्यूरी शासकों की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध हुआ था। प्रतीत होता है कि पौरव-वर्मनों (Paurav Varman) के काल में ही कार्तिकेयपुर की स्थापना और विकास प्रारंभ हुआ तथा कत्यूरियों के आगमन के समय यह इतना विकसित हो गया था कि इसने कत्यूरियों का ध्यान आकृष्ट किया और राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।

त्रयम्बपुर (Tryambpur)

तालेश्वर द्विजवर्मन के वृषताप शासन पत्र में त्रयम्बपुर का उल्लेख इस प्रकार आता है- “व्र (ब्र)ह्मपुरे कार्तिकेयपुरग्रामकस्समज्जाव्यस्ता च भूस्त्रयम्बपुरे …..”। इससे प्रतीत होता है कि त्रयम्बपुर की स्थिति कार्तिकेयपुर ग्राम के समीप ही थी। कार्तिकेयपुर ग्राम कत्यूर घाटी स्थित वर्तमान बैजनाथ ग्राम या इसके समीपवर्ती कोई और ग्राम रहा होगा जो आगे चलकर विशाल राजधानी नगर के रूप में विकसित हुआ था। इस आधार पर प्रतीत होता है कि त्रयम्बपुर भी बैजनाथ घाटी का कोई ग्राम रहा होगा।

दीपपुरी (Dipapuri)

इस नगरी का उल्लेख भी द्विजवर्मन के वृषताप शासन पत्र की 21 वीं पंक्ति में आया है यथा- “वि (बि) ल्वकेजयभटपल्लिका बचाकरण ग्रामों दीपपुर्या ….” अभिलेख में इसे बचाकरण ग्राम और क्रोडशूर्त्य ग्राम के मध्य स्थित बतलाया गया है, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह संभवतः बागेश्वर तहसील में स्थित कोई नगर रहा होगा।

Source –

  • Gupte,Y.R. (1915-16) : Two Taleswarr Copper Plates, Epigraphia Indica, XIII: 109-21.
  • Joshi, M.P. (1990) : Uttaranchal (Kumaon-Garhwal) Himalaya: An Essay in Historical Anthropology. Shree Almora Book Depot, Almora.
  • Thaplyal, K.K. (1972) : Studies in Ancient Indian Seals, Akhila Bhartiya Sanskrit Parishad, Lucknow.
  • कठोच, यशवन्त सिंह ( 1981) : ‘मध्यहिमालय का पुरातत्त्व’ रोहिताश्व प्रिंट्स, लखनऊ
  • डबराल, शिवप्रसाद (1965) : ‘उत्तराखण्ड का इतिहास’, बीरगाथा प्रकाशन, दोगड्डा
  • रतूड़ी, हरिकृष्ण (1980) : गढ़वाल का इतिहास’, द्वितीय संस्करण, भागीरथी प्रकाशन, टिहरी गढ़वाल।

पंवार वंश (Paurav Dynasty)

 

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उत्तराखण्ड में कुणिन्द राजवंश का इतिहास

कुणिन्द राजवंश का इतिहास (History of Kunind Dynasty)

उत्तराखण्ड के विभिन्न भागों से कुणिन्दों (Kunind Dynasty) द्वारा जारी सिक्के मिलते हैं । इस दृष्टि से अल्मोड़ा जनपद का विशेष स्थान है, यहाँ से न केवल कुणिन्दों के अन्य भांति के सिक्के प्रकाश में आये हैं, वरन् विद्वानों ने कुणिन्द–सिक्कों के एक विशेष प्रकार को “अल्मोड़ा भांति के सिक्के” नाम से भी अभिहित किया है । कुणिन्दों का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से मिलता है, लगभग 6वीं सदी ईस्वी पूर्व के प्रारंभ में रहने वाले पाणिनी ने भी कुणिन्दों का वर्णन किया है, अन्य साहित्यिक साक्ष्यों-महाभारत ; टॉलेमी , महामयूरी ; वायु-पुराण ; ब्रह्माण्ड पुराण ; तथा वारामिहिर में भी कुणिन्दों का उल्लेख मिलता है । उपरोक्त तथ्यों से पता चलता है कि मध्य हिमालय के इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही कुणिन्द विद्यमान थे ।

उन्होंने कब एक राज्य का रूप धारण किया, इस सन्दर्भ में रैप्सन का मानना है कि, मोर्यों और शुंगों के पतन से उत्पन्न परिस्थितियों में उत्तर-पश्चिम भारत में अनेक स्वतंत्र देशी एवं विदेशी सत्ताओं की स्थापना हुई थी, मौर्यों से पूर्व सिकन्दर के काल में भी यह क्षेत्र- आधुनिक पंजाब, हरियाणा, हिमांचल, दिल्ली, राजस्थान के भाग तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश प्रमुखतः सैन्य जातियों या आयुधजीवी संघ द्वारा शासित थे । इन जातीय राज्यों में- कुलूट, औदुम्बर, कुणिन्द, यौधेय, राजन्य, अर्जुनायन तथा प्रकट गणराज्यों का उल्लेख मिलता है । उपरोक्त गणराज्यों में से- कुलूट, औदुम्बर तथा कुणिन्द गणराज्यों को कौटिल्य ने ‘राज्य शब्दिन संघ’ या राजा की उपाधि को स्वीकार करने वाले गणराज्य माना है ।

मुद्राशास्त्रीय प्रमाणों से भी हिमालय के इस भू-भाग में कुणिन्दों की उपस्थिति के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं । कनिंघम के समय तक जो मुद्राएँ मिली थीं, उनके आधार पर कनिंघम ने यह निष्कर्ष निकाला था कि कुणिन्दों का वर्चस्व यमुना और सतलज नदियों के मध्य शिवालिक पहाड़ियों की एक संकीर्ण पट्टी तक सीमित था,लेकिन कुणिन्दों से सम्बन्धित बाद की खोजों ने, न केवल कुणिन्दों के इतिहास में नवीन प्रकाश डाला है, वरन् उत्तराखण्ड को उनके प्रमुख केन्द्र के रूप में भी उद्घाटित किया है ।

प्रतीत होता है कि, पाणिनी के काल से ही कुणिन्द पंजाब, हरियाणा और उत्तराखण्ड के पहाड़ी भू–भागों में छोटे-छोटे समूहों के रूप में विद्यमान थे । कालान्तर में उन्होंने शक्ति अर्जित की और अमोघभूति के नेतृत्व में लगभग द्वितीय सदी ईस्वी पूर्व के अन्त तक एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना कर ली । अमोघभूति एक शासक का नाम था अथवा यह झुणिन्दों की एक पदवीं थी इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । जायसवाल ने ‘अमोघभूति’ को व्यक्ति विशेष न मानकर एक राजकीय पदवी माना है और इसका अर्थ- ‘कभी न समाप्त होने वाला वैभव’ – बतलाया है लेकिन अधिकांश विद्वान अमोघभूमि को एक शासक का नाम मानते हैं और यह मत प्रतिपादित करते हैं कि इण्डो-ग्रीक शासकों के पतन के पश्चात् अमोघभूति ने शक्ति अर्जित की और अपने सिक्के जारी किये ।

उत्तराखण्ड का प्राचीन इतिहास (Ancient history of Uttarakhand)

उत्तराखंड का ऐतिहासिक काल
(Historical period of Uttarakhand) 

उत्तराखण्ड में ऐसे अनेक पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र प्रागैतिहासिक काल से ही मानवीय गतिविधियों से सम्बद्ध रहा है। उत्तराखण्ड के इतिहास को दो चरणों प्राग ऐतिहासिक काल एवं ऐतिहासिक काल में विभाजित किया गया है। पुरातत्व की दृष्टि से मानव इतिहास का प्राचीनतम चरण पाषाण युग है।

इतिहासकार ‘डा. मदन मोहन जोशी’ के अनुसार इसे तीन चरणों – निम्न पुरा पाषाण युग (Low Paleolithic Age), मध्य पुरापाषाण युग (Middle Paleolithic Age) और उच्च पुरापाषाण युग (Upper Paleolithic Edge) में विभाजित किया गया है।

निम्न पुरा पाषाण युग के उपकरणों की उत्तराखण्ड में कालसी के निकट यमुना नदी के कगार पर, श्रीनगर के समीप अलकनन्दा के कगार पर, एवं पश्चिमी राम गंगा घाटी, जनपद अल्मोड़ा तथा खुटानी नाला, जनपद नैनीताल में खोज डा. के. पी. नौटियाल एवं डा. यशोधर मठपाल ने की है। गढ़वाल में ही श्रीनगर के समीप डा. के. पी. नौटियाल ने मध्य पुरापाषाण युग के उपकरण मिलने का दावा किया है। हालांकि उच्च पुरापाषाण युग के उपकरण मिलने की सूचना किसी पुराविद ने अभी तक सबूतों के साथ उत्तराखण्ड में नहीं दी है, यद्यपि हिमालय में अन्यत्र इनकी मिलने की सूचना है।

डा. मदन मोहन जोशी का मत है कि उत्तराखण्ड में प्राचीन मानव की गतिविधियों के प्रमाण यहाँ स्थित शैलाश्रयों में अंकित पाषाण युगीन चित्रण से भी प्राप्त होते हैं। ये शिलाश्रय उत्तराखण्ड के दो जनपदों- अल्मोड़ा तथा चमोली में प्राप्त हुए हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार ‘डा. यशवन्त सिंह कटोच’ के अनुसार सन् 1968 में अल्मोड़ा जनपद के सुयाल नदी के दायें तट पर स्थित लखु उड्यार के शैलाश्रय (Painted Rock Shelters) उत्तराखण्ड में प्रागैतिहासिक शैलाश्रय चित्रों की पहली खोज थी। डा. एम. पी. जोशी की इस महत्वपूर्ण खोज के उपरान्त अल्मोड़ा जनपद में ही फड़कानौली, फलसीमा, ल्वेथाप, पेटशाल, कालामाटी एवं मल्ला पैनाली में भी शिलाश्रय मिले हैं। ये सभी शिलाश्रय, कालामाटी-डीनापानी पर्वत श्रृंखला की पूर्व दिशा में लगभग 15 किमी0 की परिधि में केन्द्रित हैं। गढ़वाल हिमालय में भी दो शैलाश्रयों की खोज हुई है। चमोली जनपद में प्रथम ग्वरख्या-उड्यार, अलकनन्दा घाटी में और द्वितीय पिण्डर घाटी के किमनी ग्राम में। अब तक अल्मोड़ा जनपद में एक दर्जन से अधिक शिलाश्रय प्रकाश में आ चुके हैं।

लखु उड्यार (Lakhu Cave)

सुयाल नदी के पूर्वी तट पर, लखु उड्यार उत्तराखण्ड का सर्वोत्तम व सुलभतम शिलाश्रय है। यह अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मोटर मार्ग में अल्मोड़ा से लगभग 16 किमी की दूरी पर स्थित है, नागफनी के आकार का यह भव्य शिलाश्रय मोटर मार्ग से ही दिखाई देता है। धूप और वर्षा के कारण फर्श के समीपवर्ती चित्र काफी धुंधले हो चुके हैं। चित्र सफेद, गेरू, गुलाबी और काले रंगों से बने हैं। मुख्य विषय सामूहिक नृत्य का है; एक नर्तक मंडली में कुछ वर्षों पूर्व 34 आदमी गिने जा सकते थे जबकि दूसरे में 28। उत्तर की ओर 6 मनुष्यों को एक जानवर का पीछा करते दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त दैनिक जीवन के दृश्य, जानवर और अलंकारिक आलेखन के यहाँ रेखाओं एवं बिन्दुओं से बने ज्यामितीय चित्रण भी मिले हैं।

लखु उडियार से लगभग आधा कि.मी. पहले फड़का नौली चुंगी घर के आस पास तीन शिलाश्रय है। जिनमें चित्रअवशेष विद्यमान हैं। प्रथम शिलाश्रय की छत नागराज के फन की भांति बाहर निकली है और इसकी दीवार पर आकृतियों के 20 संयोजन विद्यमान है जो सारे के सारे धुंधले हो चुके हैं। दूसरे शिलाश्रय में 10 स्थानों पर चित्रण के प्रमाण हैं। तीसरा शिलाश्रय सड़क के नीचे और सुयाल के तट पर स्थित है। यह आवास के लिए उत्तम स्थान रहा होगा। फड़का नौली के शिलाश्रय 1985 में तथा पेटशाल के 1989 में डा. यशोधर मठपाल ने खोजे थे। लखुउडियार से दो कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में पेटशाल गाँव के ऊपर दो चित्रमय शिलाश्रय हैं। जिनको स्थानीय पत्थर निकालने वालों ने क्षतिग्रस्त कर दिया है। इनमें पश्चिम दिशा वाला शिलाश्रय 8 मीटर गहरा तथा 6 मीटर ऊँचा है। इसकी छत 4 मीटर तक बाहर निकली है। पेटशाल की दूसरी गुफा जो 50 मीटर पूर्व में है, इसकी गहराई 3.10 मीटर तथा ऊँचाई 4 मीटर और छत की लम्बाई 2 मीटर है।

अल्मोड़ा से लगभग 8 कि0मी0 उत्तर-पूर्व और फलसीमा गाँव से 2 कि0मी0 दक्षिण-पूर्व में दो चट्टानें विद्यमान हैं। पहली चट्टान पर चित्रण योग्य फलक नहीं हैं। जबकि दूसरी चट्टान में चित्र आंके गए हैं। चट्टान का निचला भाग क्षतिग्रस्त है। समीप ही दो चट्टानों पर 2 कप मार्क है।। अल्मोड़ा नगर से ही 8 कि0मी0 उत्तर में कसार देवी पहाड़ी पर भी कई शिलाश्रय हैं।

अल्मोड़ा बिनसर मोटर मार्ग में दीना पानी से 3 कि0मी0 दूरी में ल्वेथाप नामक स्थान है जहाँ 3 शिलाश्रयों में प्राचीन चित्र हैं। यहाँ लाल रंग के निर्मित चित्र हैं, जिसके कारण यह नाम पड़ा होगा। यहाँ से दूर पूर्वी क्षितिज में लखु–उडियार का दृश्य अत्यधिक मनोरम है जिसके आधार पर डा0 यशोधर मठपाल का मानना है कि कल्पना की जा सकती है कि लखु–उडियार और ल्वेथाप के निवासी कभी आपस में सम्पर्क बनाए होंगे।

ग्वारख्या उड्यार (Gvaarakhya Cave)

गढ़वाल स्थित ग्वारख्या उड्यार चमोली जिले के डुंग्री नामक गाँव में स्थित है। डा. मठपाल के अनुसार गोरखा काल में नैपाली सैनिकों के एक दल ने गाँवों को लूट कर माल छिपाया था तथा अन्य दलों के परिचय हेतु चट्टानों पर चित्रों के रूप में लिखावट की थी। इस लोक विश्वास पर चित्रित शिलापट का नाम ग्वारख्या उड्यार पड़ा। परन्तु यहाँ न तो उड्यार (गुफा) जैसी कोई चीज है न ही खजाने छिपाने का स्थान। यहाँ पीले रंग की धारीदार चट्टान पर गुलाबी व लाल रंग से चित्र अंकित किए गए हैं जो संप्रति काफी धुंधले हो चुके हैं। डा. यशोधर मठपाल के अनुसार इन शिलाश्रयों में लगभग 41 आकृतियाँ हैं जिनमें 30 मानवों की, 8 पशुओं की तथा 3 पुरुषों की हैं। चित्रकला की दृष्टि से ये उत्तराखण्ड की सम्भवतः सबसे सुन्दर कृतियाँ हैं। यहाँ मनुष्य को त्रिशूल आकार से अंकित किया गया है। जब कि बकरीनुमा जानवरों के छाया चित्र काफी प्राकृतिक हैं। मुख्य विषय पशुओं को हाँका देकर घेरना है। ग्वारख्या उड्यार को यद्यपि स्थानीय लोग अरसे से जानते थे परन्तु पुराविदों हेतु इसको राकेश भट्ट ने उजागर किया।

चमोली जनपद में ही कर्णप्रयाग-ग्वालदम मोटर मार्ग पर एक छोटा सा गाँव है किमनी जिसके पास ही श्वेत रंग से चित्रित एक शिलाश्रय है। यहाँ पशुओं आदि की आकृतियाँ अत्यन्त धूमिल अवस्था में विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरकाशी के पुरौला कस्बे से 5 कि.मी. दक्षिण में यमुना घाटी में, बांयी ओर सड़क से लगभग 20 मीटर की गहराई पर काले रंग का एक आलेख है जो लगभग मिट चुका है। डा. मठपाल का मानना है कि यह लगभग 2100 से 1400 वर्ष पुराना है तथा शंख लिपि जो अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है, में लिखा है।

उत्तराखंड के कुछ प्रमुख गुफाएँ 

  • वशिष्ठ गुफा – टिहरी गढ़वाल
  • हनुमान गुफा – लंगासू, गिरसा चमोली
  • राम गुफा – बद्रीनाथ के समीप 
  • भरत गुफा – लंगासू, गिरसा चमोली
  • व्यास गुफा – बद्रीनाथ के समीप 
  • गौरखनाथ गुफा – श्रीनगर 
  • गणेश गुफा – बद्रीनाथ के समीप 
  • शंकर गुफा – देवप्रयाग
  • स्कन्द गुफा – बद्रीनाथ के समीप 
  • पांडुखोली गुफा – दूनागिरी (अल्मोड़ा)
  • भीम गुफा – केदारनाथ के समीप
  • सुमेरु गुफा – गंगोलीहाट (पिथौरागढ़)
  • ब्रह्मा गुफा – केदारनाथ के समीप
  • स्वधर्म गुफा – पिथौरागढ़
  • गलछिया गुफा – मालपा (पिथौरागढ़)

 

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