उत्तराखण्ड में गोरखा के शासन काल तक शराब का कोई प्रचार-प्रसार नहीं था। उत्तराखंड में कई जनजातियाँ में शराब परम्परागत रुप से जुड़ी होने के बावजूद भी शराब का प्रचलन बहुत कम था। उत्तराखण्ड में ब्रिटिश काल में 1880 के बाद सरकारी शराब की दुकानें खुलने के साथ ही यहां पर शराब का प्रचलन शुरु हुआ। 1882 में जब यह कहा जाने कि यहां पर शराब का प्रचलन बढ़ने लगा है तो तत्कालीन कमिश्नर रामजे ने लिखा था कि “ग्रामीण क्षेत्रों में शराब का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है और मुझे आशा है कि यह कभी नहीं होगा, मुख्य स्टेशनों के अलावा शराब की दुकानें अन्यत्र खुलने नहीं दी जायेंगी”।
अल्मोड़ा अखबार 2 जनवरी, 1893 ने लिखा “जो लोग शराब के लती हैं, वे तुरन्त ही अपना स्वास्थ्य व सम्पत्ति खोने लगते हैं, यहां तक कि वे चोरी, हत्या तथा अन्य अपराध भी करते हैं, सरकार को लानत है कि वह सिर्फ आबकारी रेवेन्यू की प्राप्ति के लिये इस तरह की स्थिति को शह दे रही है। यह सिफारिश की जाती है कि सभी नशीले पेय और दवाओं पर पूरी तरह रोक लगे।”
स्वतंत्रता संग्राम में देश के अन्य भागों की तरह यहां पर भी शराब के खिलाफ आन्दोलन चलते रहे, 1965 – 67 में सर्वोदय कार्यकर्ताओं द्वारा टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ तक शराब के विरोध में आन्दोलन चलाया, परिणाम स्वरुप कई शराब की भट्टियां बंद कर दी गईं।
1 अप्रैल, 1969 को सरकार ने उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ में शराबबंदी लागू कर दी। 1970 में टिहरी और पौड़ी गढ़वाल में भी शराबबंदी कर दी गई, पर 14 अप्रैल, 1971 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस शराबबंदी को अवैध घोषित कर दिया और उत्तर प्रदेश सरकार मे उच्च्तम न्यायालय में इसके विरुद्ध कुछ करने के बजाय या आबकारी कानून में यथोचित परिवर्तन करने के फौरन शराब के नये लाइसेंस जारी कर दिये। जनता ने इसका तुरन्त विरोध किया। सरला बहन जैसे लोग आगे आये और 20 नवम्बर, 1971 को टिहरी में विराट प्रदर्शन हुआ, गिरफ्तारियां हुई। अन्ततः सरकार ने झुक कर अप्रैल, 1972 से पहाड के पांच जिलों में फिर से शराबबंदी कर दी।
कच्ची शराब कुटीर उद्योग के रुप में फैल चुकी है, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, चमोली आदि जनपदों में भोटियाँ जनजातियों के अधिकांश लोगों ने तिब्बत से व्यापार बन्द होने के बाद कच्ची शराब के धन्धे को अपना मुख्य व्यवसाय बना लिया था। इस धन्धे को बखूबी चलने देने के लिये वे पुलिस व आबकारी वालों की इच्छानुसार पैसा खिलाते थे। कच्ची के धन्धे को नेपाल से भारत में आकर जंगलों, बगीचों आदि में काम करने वाले नेपाली मजदूर भी खूब चलाते थे।
1978 में जनता पार्टी का शासन होने पर उत्तर प्रदेश ने आठों पर्वतीय जनपदों में पूर्ण मद्यनिषेध लागू कर दिया था, पर सरकारी तंत्र में शराब बंदी के प्रति कोई आस्था न होने के परिणामस्वरुप शराब बंदी के स्थान पर पहाड़ के गांवों में सुरा, लिक्विड आदि मादक द्रव्य फैल गये और पहाड़ की बर्बादी का एक नया व्यापार शुरु हो गया।
जनवरी 1984 में “जागर” की सांस्कृतिक टोली ने भवाली से लेकर श्रीनगर तक पदयात्रा की और सुरा-शराब का षडयंत्र जनता को समझाया। 1 फरवरी, 1984 को चौखुटिया में जनता ने आबकारी निरीक्षक को अपनी जीप में शराब ले जाते पकड़ा और इसके खिलाफ जनता का सुरा-शराब के पीछे इतने दिनों का गुस्सा एक साथ फूट पड़ा। एक आंदोलन की शुरुआत हुई, 2 फरवरी, 1984 को ग्राम सभा बसभीड़ा में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने एक जनसभा में इस आंदोलन की प्रत्यक्ष घोषणा कर दी। फरवरी के अंत में चौखुटिया में हुये प्रदर्शनों में 5 से 20 हजार जनता ने हिस्सेदारी की।
इसके बाद आंदोलन असाधारण तेजी से समूचे पहाड़ में फैला, जगह-जगह जनता ने सुरा-शराब के अड्डों पर छापा मारा या सड़को-पुलों पर जगह-जगह गाड़ी रोक कर करोड़ों रुपयों की सुरा-शराब पकड़वाई। इस जहरीले व्यापार में लिप्त लोगों का मुंह काला किया गया, प्रदर्शन, नुक्कड़ नाटक, सभायें होती रहीं। महिलाओं ने निडर होकर घर से बाहर निकलना शुरु किया। पहाड़ के ताजा इतिहास में शायद पहली बार किसी आंदोलन में महिलाओं को इतना समर्थन मिला, क्योंकि सुरा-शराब से सबसे ज्यादा महिलायें प्रभावित हो रहीं थीं।
इस बीच पर्यटन की आड़ लेकर सुरा-शराब लाबी ने नैनीताल में आंदोलन का अप्रत्यक्ष रुप से विरोध शुरु करवा दिया। लेकिन इसके विरोध में 17 जून, 1984 को मूसलाधार वर्षा के बीच उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के आह्वान पर एक ऐतिहासिक प्रदर्शन नैनीताल में हुआ, जिसमें ढोल-नगाड़ों, निशाणों के साथ पहाड़ के कोने-कोने से आये हजारों लोगों ने भागीदारी दी।
उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी इन दिनों, सुरा, बायोटानिक जैसे 10 प्रतिशत से अधिक नशीले द्रव्यों के खिलाफ लाखों लोगों के हस्ताक्षर लेकर सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है और साथ ही जहां-जहां सम्भव हो, नगरों में, देहात में, मेलों में, लोक शिक्षण का कार्यक्रम भी चला रही है।
उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी इस आंदोलन को सिर्फ सुरा-शराब के खिलाफ लड़ाई बनाकर नहीं रखना चाहती, इनके मुख्य नारे इस प्रकार थे : –
‘शराब आन्दोलन’ के घोष वाक्य –
“शराब नहीं रोजगार दो”,
“कमाने वाला खायेगा-लूटने वाला जायेगा”,
“फौज-पुलिस-संसद-सरकार, इनका पेशा अत्याचार”
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