उत्तराखंड के इतिहास में मुनि की रेती (Muni ki Reti) की एक खास भूमिका है। यही वह स्थान है जहां से परम्परागत रुप से चार धाम यात्रा शुरु होती थी। यह सदियों से गढ़वाल हिमालय की ऊंची चढ़ाईयों तथा चार धामों का प्रवेश द्वार था।
जब तीर्थ यात्रियों का दल मुनि की रेती से चलकर अगले ठहराव गरुड़ चट्टी (परम्परागत रुप से तीर्थ यात्रियों के ठहरने के स्थान को चट्टी कहा जाता था) पर पहुंचाते थे तभी यात्रा से वापस आने वाले लोगों को मुनि की रेती वापस आने की अनुमति दी जाती थी। बाद में सड़कों एवं पूलों के निर्माण के कारण मुनि की रेती से ध्यान हट गया।
प्राचीन शत्रुघ्न मंदिर, मुनि की रेती का एक पवित्र स्थान था, जहां से यात्रा वास्तव में शुरु होती थी। सम्पूर्ण भारत से आये भक्तगण इस मंदिर में सुरक्षित यात्रा के लिए प्रार्थना करते थे, गंगा में स्नान करने के बाद आध्यात्मिक शांति के लिए पैदल यात्रा शुरु करते थे। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर की स्थापना नौंवी शताब्दी में आदि शंकराचार्य के द्वारा की गई।
मुनि की रेती टिहरी रियासत का एक हिस्सा था तथा शत्रुघ्न मंदिर की देखभाल टिहरी के राजा करते थे। वास्तव में, वहां जहां आज लोक निर्माण विभाग का आवासीय क्वार्टर है पहले रानी का घाट था यहां पहले टिहरी की रानी तथा उनकी दासिया स्नान करने आती थीं। इससे थोड़ी दूर राजघराने के मृतकों के दाह-संस्कार का स्थान तथा फुलवाडी थे। दुर्भाग्य से उस स्थान पर अब कुछ भी पुराना मौजूद नहीं है।
इस शहर के एक बुजुर्ग लोगों के अनुसार “टिहरी के राजा लालची नहीं थे, उन्होंने बहुत सारी जमीन जैसे देहरादून तथा मसुरी अंग्रेजों को दे दी। उन्होंने ऋषिकेश में रेलवे निर्माण के लिए जमीन दी तथा ऋषिकेश के रावत ने ऋषिकेश तक रेल स्टेशन बनाने का खर्च दिया। राजा ने अगर थोड़ा और भी सोचा होता तो आसानी से रेल मार्ग मुनि की रेती तक पहूंच जाता।”
उन दिनों रेलवे स्टेशन से मुनि की रेती तक बैलगाड़ी से पहूंचा जाता था और जब तक कि चन्द्रभाग पुल का निर्माण रियासत सरकार द्वारा न कराया गया तब तक हाथी के पीठ पर बैठकर नदी पार किया जाता था। इसी मकसद के लिए राजा मुनि की रेती में एक हाथी रखते थे।
कैलाश आश्रम की स्थापना वर्ष 1880 में हुई और इस आश्रम के आस-पास धीरे-धीरे शहर का विकास हुआ जहां चाय की कुछ दूकानें थी, जो आध्यात्मिक ज्ञान सीखने आये लोगों के लिए बनी थी।
वर्ष 1932 में शिवानन्द आश्रम की स्थापना हुई जिनका इस शहर को योग एवं वेदान्त केन्द्र के रुप में विकास के लिए एक बड़ा योगदान है। इसका श्रेय इसके संस्थापक स्वामी शिवानन्द को जाता है जिन्होंने योग एवं वेदान्त को आसानी से समझने लायक बनाकर पश्चिम के देशों में प्रसिद्ध किया।
वर्ष 1986 में महर्षि महेश योगी ट्रांसेन्डेन्टल आश्रम (जो अभी मरम्मत के अभाव में गिर चुका है, तथा नोएडा में स्थानांतरित हो चुका है) में बीटल्स के आगमन ने भी मुनि की रेती को अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई।
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