उत्तराखंड की भौगोलिक संरचना

संरचनात्मक दृष्टि से देखें तो दक्षिण से उत्तर की ओर हिमालय समग्र रूप में सात पेटियों (तराई, भाभर, दून, शिवालिक, लघु हिमालय, बृहत हिमालय तथा ट्रांस हिमालय) में विभक्त है। यह पेटियाँ, भ्रंश या दरारों द्वारा एक-दूसरे से पृथक हैं, जो भूगर्भिक दृष्टि से अत्यंत दुर्बल तथा संवेदनशील हैं। स्थिति एवं विस्तार उत्तराखण्ड, 28°43′ से 31°27′ अक्षांशों व 77°34′ से 81°02′ पूर्वी देशांतरों के मध्य लगभग 53,483 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में विस्तृत है। इसके अंतर्गत गढ़वाल व कुमाऊँ मण्डल सम्मिलित हैं। गढ़वाल मण्डल में सात जिले हैं – हरिद्वार, देहरादून, टिहरी गढ़वाल, पौड़ी गढ़वाल, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चमोलीकुमाऊँ मण्डल में छः जिले हैं – नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत और ऊधम सिंह नगर

राज्य की पूर्वी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा नेपाल से उत्तर दक्षिण प्रवाहित काली नदी द्वारा तथा पश्चिमी सीमा हिमाचल प्रदेश से टौंस नदी द्वारा निर्धारित होती है। उत्तरी सीमा दक्षिण पूर्व में हुमला (नेपाल) से तथा उत्तर-पश्चिम में हिमाचल प्रदेश तथा तिब्बत की सीमा पर शिपकी दरें के समीप धौलधार तथा जैक्सर श्रेणी के मिलन स्थल तक लगभग 400 कि.मी. की लम्बाई में फैली उस विशाल श्रृंखला से बनती है, जो तिब्बत क्षेत्र से प्रवाहित सतलज का दक्षिणी पनढाल बनाती है। दक्षिणी सीमा पर तराई व भाभर की एक चौड़ी पट्टी इसको रुहेलखण्ड के मैदान (उत्तर प्रदेश) से पृथक करती है।

प्राकृतिक प्रदेश (Natural Region)

भूरचना, धरातलीय ऊँचाई एवं वर्षा की मात्रा में भिन्नता होने के कारण राज्य को पाँच प्राकृतिक प्रदेशों में विभाजित किया जा सकता है। हिमालयी भूगोल की वर्तमान विचारधारा के अनुसार हिमालय के पार के उत्तराखण्ड की ओर उन्मुख पनढाल भी प्राकृतिक प्रदेशों में सम्मिलित किए गए हैं।

UK Geo Map

1. ट्रांस हिमालय क्षेत्र (Trans Himalayan Region)

ट्रांस का अर्थ है दूसरी ओर ब्रिटिश सर्वेक्षकों ने हिमालय की रचना के गहन अध्ययन से ज्ञात किया था कि कहीं न कहीं उत्तरी सीमा पर पनढाल बनाती ऊँची शैलमालाओं के उस पार भी उत्तराखण्ड की प्राकृतिक सीमायें उत्तर तक पहुँची हैं। यह पनढाल हिमाचल प्रदेश के बुशहर तहसील में, कुमाऊँ के ऊँटाधुरा में तथा गढ़वाल के पैनखंडा में हिमालय के पार, उत्तराखण्ड व तिब्बत को पृथक करने वाली जैक्सर पर्वतश्रेणी के अंतर्गत हैं, जिनकी चौड़ाई 20-35 कि.मी. तथा समुन्द्रतल से ऊंचाई (2500-3500) मीटर है। इस क्षेत्र को भौगोलिक शब्दावली में टिबियान, तिब्बती भी कहा जाता है। इस भू-भाग में ऊँची-नीची घाटियों का विस्तार है। माना जाता है कि इस क्षेत्र की नदियाँ हिमालय के उत्थान से पूर्ववर्ती हैं। यहाँ बर्फ की परते इतनी पतली होती हैं कि उनमें सूर्य की रश्मियाँ आर-पार दिखाई देती हैं।

2. महाहिमालय : (हिमाद्रि-रेन्ज, ग्लेशियर तथा घाटियां) [Great Himalaya: (Himadri-Range, Glacier and Valleys)]

इस प्रदेश का अधिकांश भाग वर्षभर हिमाच्छादित रहता है। अतः यह क्षेत्र हिमाद्रि (बर्फ का घर) कहलाता है। 15 से 30 कि.मी. चौडी इस पेटी का औसत धरातल 4800 से 6000 मी. तक है। यहाँ नन्दादेवी (7817 मी.) सर्वोच्च शिखर है तथा कार्मट, बन्दरपुच्छ, केदारनाथ, गंगोत्री, चौखम्बा, दूनागिरी, त्रिशूल, नन्दाकोट, पंचाचूली आदि हिमाच्छादित शिखर हैं, जो 6000 मी. से अधिक ऊँचे हैं। यह प्रदेश प्राकृतिक वनस्पति की दृष्टि से महत्त्वहीन है। इस प्रदेश में फूलों की घाटी स्थित है। कुछ जगहों पर छोटे-छोटे घास के मैदान हैं, जिन्हें बुग्याल, पयांर तथा अल्पाइन पाश्च्र्स आदि नामों से जाना जाता है।

इस क्षेत्र में मिलम, केदारनाथ, गंगोत्री आदि विशाल हिमनद्, प्लीस्टोसीन युग में होने वाले हिमाच्छादन के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसी क्षेत्र में गंगोत्री व यमुनोत्री हिमनद, क्रमशः गंगा एवं यमुना नदियों के उद्गम स्थान हैं। संपूर्ण प्रदेश अत्यंत पथरीला व कटा-फटा है, जलवायु की दृष्टि से यह क्षेत्र सबसे अधिक ठंडा है। ऊँची चोटियाँ सदैव हिमाच्छादित रहती हैं। 3000 मी. से अधिक ऊँचाई वाले भागों में शीतकालीन तापक्रम हिमांक से कम रहता है। मौसम अनुकूल होने के कारण दक्षिणी भागों से लोगों का प्रवास मुख्यतः अप्रैल, मई व जून माह में होता है। इन दिनों निचले क्षेत्र से लोग आवश्यक सामग्री सहित प्रदेश के ग्रीष्मकालीन अधिवासों को आबाद कर देते हैं। जुलाई व अगस्त माह उच्च घाटियों में कृषि की दृष्टि से अनुकूल हैं।

ग्रीष्मकालीन ग्रामों में भेड़ व बकरियों के आने से चहल-पहल बढ़ जाती है। प्रायः 3000 से 4500 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों के अल्पाइन चरागाह पशुचारण के प्रमुख केंद्र बन जाते हैं, जहाँ भागीरथी व अलकनन्दा घाटी से जाड, मारछा व तोलछा तथा धौली, गोरी गंगा व काली नदी की घाटियों से भोटिया जनजाति के लोग अपने पशुओं को चराने आते हैं। इस प्रदेश में वर्षा अधिकांश रूप में ग्रीष्मऋतु में होती हैग्रीष्मकालीन मानसून हवायें पर्वतों को पार करके उत्तर की ओर नहीं जा सकती हैं, जिससे वृष्टि छायांकित क्षेत्र में स्थित घाटियाँ प्रायः शुष्क रहती हैं। 3000 मीटर की ऊँचाई वाले भागों में शीतोष्ण कटिबंधीय सदाबहार नुकीली पत्ती वाले वृक्षों, फर, सरों, चीड आदि के वन मिलते हैं। उसके ऊपर 3900 मी. तक कुछ घासें और झाडियाँ आदि मिलती हैं। इससे अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में वनस्पति का नितान्त अभाव है। आर्थिक दृष्टि के आधार पर भी यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है। कृषि कार्य केवल घाटियों में ग्रीष्मकाल के चार महीनों में ही केंद्रित होता है।

3. मध्य हिमालय (हिमंचल) [Middle Himalayas]

यह क्षेत्र महाहिमालय के दक्षिण में समुन्द्रतल से 3000-4800 मीटर की ऊंचाई पर विस्तृत है, जो 70 से 120 कि.मी. के विस्तार के साथ औसतन 75 कि.मी. चौडा है। आंशिक हिमाच्छादन के कारण इस भाग को हिमंचल-(बर्फ का अंचल) कहते है। इस क्षेत्र में अल्मोड़ा, गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल तथा नैनीताल का उत्तरी भाग सम्मिलित है। इस भाग की पर्वत श्रेणियाँ पूर्व से पश्चिम, मुख्य श्रेणी के समानांतर फैली की इस क्षेत्र की मिट्टी व अन्य कायों के लिए बाहुल्य है। वृक्षों काल हुई हैं। इस भाग में अनेक नदी घाटियाँ हैं तथा नैनीताल जिले में 25 कि.मी. लंबी व 4 कि.मी. चौड़ी पेटी में अनेक ताल स्थित हैं, जिनमें प्रमुख हैं-नैनीताल, नौकुचियाताल सातताल, खुरपाताल, सूखाताल, सड़ियाताल एवं भीमताल।

शीतऋतु में इस क्षेत्र में पर्वतीय श्रृंखलायें बहुधा हिमाच्छादित रहती हैं, वर्षा में ग्रीष्मकालीन मानसून द्वारा यहाँ पर भारी वर्षा होती है। वार्षिक वर्षा की मात्रा 160-200 से.मी. के मध्य रहती है। ग्रीष्मकालीन मौसम शीतल व सुहावना होता है। वनीय संसाधनों, आर्थिक क्रियाकलापों तथा मानव निवास की दृष्टि से यह क्षेत्र सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में वनों का अधिक विस्तार है। इस कारण इनका बड़े पैमाने पर दोहन एवं उपयोग किया जाता है। इस क्षेत्र में शीतोष्ण कटिबंधीय सदाबहार सघन वन मिलते हैं। संपूर्ण क्षेत्र के 45-60 प्रतिशत भाग वनाच्छादित हैं। यहाँ बाँज, खरसों बुराँस, चीड़, फर, देवदार व सरों आदि वृक्षों का बाहुल्य है। वृक्षों की लकड़ी मुलायम होती है जो काष्ठ उद्योग व अन्य कार्यों के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।

इस क्षेत्र की मिट्टी पथरीली, हल्की व कम उपजाऊ है, फिर भी 3000 मीटर तक की ऊंचाई पर उपजाऊ मिट्टी वाली नदियों की घाटियों में तथा पर्वतीय ढालों पर सीढ़ीदार खेतों का निर्माण कर कृषि की जाती है। इन क्षेत्रों में ढाल, मिट्टी की किस्म. जल की प्राप्ति आदि अनुकूल दशाओं के आधार पर खरीफ (ग्रीष्म) तथा रबी (शीत) की फसलें बोई जाती हैं। उच्च घाटियों के सामान्य ढालों पर सीढ़ीदार खेतों तथा घाटियों में उत्तम कोटि का धान उत्पन्न किया जाता है।

4. शिवालिक तथा दून (Shivalik and Doon)

यह प्रदेश मध्य हिमालय के दक्षिण में है। इसको बाह्य हिमालय के नाम से भी जाना जाता है। इस क्षेत्र का विस्तार 1200-3000 मी. तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों, अल्मोड़ा, पौड़ी गढ़वाल व चम्पावत जनपदों के दक्षिणी भाग, मध्यवर्ती नैनीताल तथा देहरादून जिलों में है। शिवालिक श्रेणियों को हिमालय की पाद प्रदेश श्रेणियाँ कहते हैं। शिवालिक एवं लघु हिमालय श्रेणियों के मध्य लम्बाकार घाटियाँ पाई जाती हैं, जिन्हें दून कहा जाता है। दून घाटियाँ प्रायः 24 से 32 किमी. चौड़ी तथा 350 से 750 मी. ऊँची हैं, जिनमें देहरादून अत्यंत विकसित एवं महत्त्वपूर्ण है। अन्य दून घाटियाँ हैं- पछुवादून, पूर्वीदून, चंडीदून, कोटादून, हर-की-दून, पाटलीदून, चौखमदून, कोटरीदून आदि। मुख्य दून घाटी 75 कि.मी. लम्बी तथा 25 कि.मी. चौड़ी है। यहाँ आसन और सुसवा नदियाँ लघु हिमालय के दक्षिणी ढालों से बृहद् मात्रा में अवसाद लाकर निक्षेपित करती हैं।

शिवालिक श्रेणियों का क्रम नदियों द्वारा स्थान-स्थान पर विच्छिन्न कर दिया गया है। हरिद्वार में गंगा नदी तथा विकासनगर (देहरादून) के पश्चिम में यमुना नदी द्वारा शिवालिक श्रृंखला-क्रम का विच्छेदन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। वहीं से मैदानी भाग आरम्भ हो जाते हैं।

शिवालिक तथा दून क्षेत्र की जलवायु अपेक्षाकृत गर्म व आर्द्र है। यहाँ ग्रीष्मकालीन तापमान 29 – 33 सेंटीग्रेड तथा शीतऋतु का तापमान 4 – 7  सेंटीग्रेड रहता है। वार्षिक वर्षा की मात्रा सामान्यतः 200-250 से.मी. रहती है।

इस प्रदेश के उत्तरी ढाल सघन वनों से ढके हैं। यहाँ के वन आर्थिक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। निचले भागों में शीशम, सेमल, आँवला, बाँस तथा साल व सागौन के वृक्ष एवं अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पहाडियों के ढालों पर चीड, देवदार, ओक व वर्च के वृक्ष मिलते हैं। यहाँ वनों पर आधारित कागज बनाने, लकड़ी, स्लीपर तथा फर्नीचर निर्माण उद्योगों का विकास हुआ है।

खनिज पदार्थों की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। देहरादून जनपद के कई क्षेत्रों से लाखों टन चूना पत्थर प्राप्त होता है। देहरादून इस क्षेत्र का सबसे बड़ा नगर है। उत्तरी रेलमार्ग पर्वतीय क्षेत्र में यहीं समाप्त होता है। यहाँ से कुछ ही दूर मसूरी एक रमणीक स्थल है। नैसर्गिक दृश्यों तथा स्वास्थ्य के लिए अनुकूल जलवायु होने के कारण प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक ग्रीष्मकाल में यहाँ आते हैं।

5. तराई-भाभर (Terai-Bhavar)

यह प्रदेश बहिर्हिमालय अथवा शिवालिक श्रेणियों एवं गंगा के समतल मैदान के मध्य तंग पट्टी के रूप में फैला हुआ हैं जिसकी धरातलीय ऊँचाई 1200 मीटर तक है। धरातलीय दशाओं के आधार पर इस प्रदेश को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –
1. भाभर एवं
2. तराई।

  • भाभर : कंकरीली एवं पथरीली मिट्टी द्वारा निर्मित यह क्षेत्र पर्वतीय तलहटी में 35 से 40 कि.मी. चौड़ी तंग पट्टी के आकार में तराई के उत्तरी भाग में मिलता है। इस क्षेत्र की चौड़ाई पश्चिमी भाग में पूर्वी भाग की अपेक्षा अधिक है। भाभर क्षेत्र में नदियों एवं स्रोतों का जल, धरातल के ऊपर न बहकर अदृश्य होकर नीचे बहता रहता है। जलधारायें नीचे ही नीचे बहती हुई तराई प्रदेश में ऊपर आकर प्रकट हो जाती हैं। राज्य का भाभर क्षेत्र नैनीताल तथा गढ़वाल जिलों में पाया जाता है।
  • तराई : तराई समतल, नम एवं दलदली मैदान है, जो भाभर के समानान्तर तंग पट्टी के रूप में विस्तृत है। जलधारायें तराई प्रदेश में आकर धरातलीय भाग में फैल जाती हैं। इसमें वर्षा अधिक होती है तथा संपूर्ण क्षेत्र में दलदल पाये जाते हैं। मैदानी भागों से उत्तराखण्ड के पर्वतीय भाग में प्रवेश हेतु स्थान, घाटे या द्वार कहलाते हैं। कुछ घाटे / द्वार इस प्रकार हैं-हरिद्वार, कोटद्वार, द्वारकोट (ठाकुरद्वारा), चौकीघाट, चिलकिया (ढिकुली), चोरगलिया (हल्द्वानी), बमौरी (काठगोदाम), ब्रह्मदेव (टनकपुर), तिमली तथा मोहन्डपास (देहरादून)। सभी घाटे या द्वार, शिवालिक, दून एवं तराई-भाभर क्षेत्रों में स्थित हैं।

 

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