मौलिक अधिकार
भाग – 3 (अनुच्छेद 12 – 35)
राज्य : इसके अंतर्गत भारत सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधानमण्डल तथा भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी आते हैं। (अनुच्छेद 12)
- मौलिक अधिकार, संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के अधिकार-पत्र (Bill of Rights) से लिया गया है।
मौलिक अधिकारों में संशोधन
भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा विभिन्न मामलों में निर्णय तथा संसद द्वारा किए गए संशाधनों का परिणाम यह है कि :
- मूल अधिकारों का संशोधन किया जा सकता है।
- प्रत्येक ऐसे संशोधन में न्यायालय यह विचार करेगा कि क्या मूल अधिकारों के संशोधन से संविधान के किसी आधारिक लक्षण (Basic Feature) का निराकरण या विनाश तो नहीं हो रहा है और यदि ऐसा होता है, तो संशाधन उस विस्तार तक शून्य रहेगा।
- उच्चतम न्यायालय द्वारा आधारिक लक्षण की काई सूची जारी नहीं की गई है, लेकिन उसके कई निर्णयों से कुछ मूल ढाँचे (Basic Structure) के बारे में पता चलता है जैसे- संविधान की सर्वोच्चता, संसदीय प्रणाली, न्यायिक पुनर्विलोकन, पंथ निरपेक्ष, शक्तियों का पृथक्करण आदि।
मौलिक अधिकारी की स्थिति
- पहला संविधान संशोधन (1951) : इसमें अनुच्छेद 31 द्वारा प्रत्याभूत संपत्ति के अधिकार को सीमित किया गया।
- शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) : इस मामले में यह प्रश्न उठाया गया क्या संसद मौलिक अधिकारों का संशोधन कर सकती है? इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 में निहित प्रक्रिया के अनुसार संविधान संशोधन, विधि के अंतर्गत नहीं आता, अत: संसद संविधान में संशोधन कर सकता है।
- गोलकनाथ बनाम पंजाव राज्य (1967) : इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मौलिक अधिकार को संविधान में सर्वोपरि स्थिति प्रदान की गई है। इसलिए संसद अनुच्छेद 368 द्वारा मौलिक अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती है।
- 24वाँ संविधान संशोधन, (1971) : यह अधिनियम गोलकनाथ के मामले में उत्पन्न स्थिति के संदर्भ में पारित हुआ। अनुच्छेद 13 एवं 368 में संशोधन करके संविधान में संशोधन करने के संसद के अधिकारों के बारे में सभी प्रकार के संदेहों को दूर किया गया अर्थात् संसद को संविधान के किसी भी उपबंध को (जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं) संशोधित करने का अधिकार होगा।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) : सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान के आधारिक लक्षणों से छेड़छाड़ नहीं कर सकती है। इस निर्णय में संसद ने संविधान के मूल ढाँचे की अवधारणा को स्पष्ट किया था।
- 42वाँ संविधान संशोधन, (1976) : इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 368 में खण्ड (4) एवं (5) जोड़कर यह व्यवस्था की गई कि इस प्रकार से किए गए संशोधन को किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है।
- मिनर्वामिल्स बनाम भारत संघ (1980) : इस मामले में अनुच्छेद 368 खण्ड (4) को असंवैधानिक घोषित किया गया, क्योंकि वह न्यायिक पुनर्विलोकन का विनाश करने के उद्देश्य से बना था। न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान का एक आधारभूत लक्षण है।
मूल अधिकारों का वर्गीकरण
संविधान में मूल अधिकारों को छह शीषों में विभाजित किया गया है। (मूल संविधान में सात शीर्ष थे- संपत्ति के अधिकार को 44वें संविधान संशोधन 1979 द्वारा हटा दिया गया था।)
मूल अधिकार
- समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- संविधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
समता का अधिकार (Right to Equality)
- विधि के समक्ष समता (अनुच्छेद 14) : इसके अनुसार राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
- धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म के आधार पर विभेद का प्रतिषेध (अनुच्छेद 15): इसके अनुसार राज्य किसी धर्म, वंश, जाति, लिंग तथा जन्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव नहीं करेगा। किसी नागरिक को उपरोक्त आधार पर किसी भी स्थान घर जाने से रोका नहीं जाएगा, लेकिन राज्य स्त्रियों एवं बच्चों के लिए विशेष उपबंध कर सकता है।
- लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता (अनुच्छेद 16) : राज्य के अधीन नियोजन में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी।
- अनुच्छेद 16 (3) के तहत् राज्य किसी विशेष पद हेतु नियोजन में किसी क्षेत्र विशेष में अधिवास की अर्हता के रूप में घोषित कर सकता है।
- अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार पिछड़े वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण का उपबंध किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 16 (5) के अनुसार धार्मिक संस्था या संप्रदाय के किसी पद को उसी संप्रदाय के व्यक्तियों के लिए आरक्षित किया जा सकता है।
- अस्पृश्यता का अंत (अनुच्छेद 17) : यह अनुच्छेद अस्पृश्यता का अंत करता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध करता है। अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए संसद द्वारा अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 पारित किया गया। 1976 में इसमें मूलभूत परिवर्तन किया गया और इसको नया नाम नागरिक अधिकार (संरक्षण) अधिनियम रखा गया।
- उपाधियों का अंत (अनुच्छेद 18) : अनुच्छेद 18 उपाधियों का अंत करता है। इस संबंध में निम्न प्रावधान हैं –
- सेना या विद्या संबंधी सम्मान के अलावा राज्य और काई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
- भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
- यदि कोई विदेशी राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करता है, तो वह राष्ट्रपति की सहमति के बिना, किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
- राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं कर सकता।
स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom)
- वाक-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण (अनुच्छेद 19) : इस अनुच्छेद के दो भाग है। पहला भाग है। खण्ड (1) जिसमें अधिकारों की घोषणा है। दूसरे भाग में (खण्ड (2) से (6)) वे मर्यादाएँ दी गई हैं, जो अधिकारों पर लगाई जा सकता है:
- अनुच्छेद 19 में छह प्रकार की स्वतंत्रताओं का उल्लेख किया गया है –
- वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
- शांतिपूर्वक एवं निरायुध सम्मेलन का अधिकार
- समुदाय अथवा बनाने की स्वतंत्रता।
- भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का अधिकार
- कोई भी वृत्ति, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार
- कोई भी वृत्ति, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार
- अनुच्छेद 19 में मूलतः 7 अधिकार थे, किन्तु संपत्ति को खरीदने, अधिग्रहण करने या बेच देने का अधिकार [(19 (1)च] को 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा समाप्त कर दिया गया।
- प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत माना जाता है, इसका अलग से उल्लेख नहीं है।
- अपपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण (अनुच्छेद 20) : इस अनुच्छेद के तीन खण्ड हैं। प्रत्येक खण्ड अपपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण प्रदान करता है।
- कोई पूर्व पद प्रभाव कानून : कोई व्यक्ति तब तक अपराधी नहीं माना जाएगा, जब तक कि उसने प्रवृत्त विधि का उल्लंघन नहीं किया है।
- दोहरी क्षति नहीं : कोई भी व्यक्ति एक ही अपराध के लिए दो बार दण्डित नहीं किया जाएगा।
- स्त्र अभिशंसन नहीं : किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 21): किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने मेनका गाँधी बनाम भारत संघ, 1978 मामले में यह कहा कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं देहिक स्वतंत्रता से वंचित किए जाने संबंधी प्रक्रिया उचित, ऋजु एवं युक्ति संगत होनी चाहिए।
- ज्ञान कौर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 1996 मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है।
शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21 क) : 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार बनाया गया। इसके अनुसार राज्य 6 वर्ष की आयु से 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा।
- कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण (अनुच्छेद 22) : अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं- पहला भाग साधारण कानूनी मामले से, जबकि दूसरा भाग निवारक हिरासत के मामलों से संबंधित है :
(i) इस अनुच्छेद के अनुसार जब कोई व्यक्ति साधारण कानून के तहत गिरफ्तार किया जाता है, तो
- उसे गिरफ्तार करने के आधार एवं कारणों से परिचित कराया जाना चाहिए, जिनके आधार पर उसे गिरफ्तार किया गया है।
- उसे अपनी रुचि के विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा।
- उसे गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर निकटतम न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।
यह संरक्षण विदेशी शत्रु एवं निवारक निरोध के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति को प्राप्त नहीं होगा।
(ii) अनुच्छेद 22 का दूसरा भाग निवारक निरोध से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख करता है। यह उन व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है, जिन्हें दण्ड विषयक कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है। यह सुरक्षा नागरिक एवं विदेशी दोनों को उपलब्ध है।
इसमें शामिल है –
- निवारक निरोध के अंतर्गत किसी व्यक्ति को तीन माह से अधिक के लिए निरुद्ध नहीं किया जाएगा, लेकिन यदि संबंधित व्यक्ति को तीन माह से अधिक अवधि तक रखना आवश्यक है, तो इसके लिए सलाहकार बोर्ड की संस्तुति अनिवार्य होगी।
- सलाहकार बोर्ड का गठन उच्च न्यायालय के वर्तमान अथवा भूतपूर्व न्यायाधीश अथवा समकक्ष योग्यता रखने वाले व्यक्तियों से मिलकर होगा। इस बोर्ड द्वारा इस आशय की संस्तुति देने के बाद ही गिरफ्तारी की अवधि तीन माह से अधिक अवधि के लिए बढ़ाई जाएगी।
संसद द्वारा बनाए गए निवारक निरोध कानून
- निवारक निरोध अधिनियम, 1950
- आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA), 1971
- विदेशी मुद्रा संरक्षण एवं तस्करी निवारण अधिनियम (COFEPOSA), 1974
- आतंकवादी एवं विध्वंसकारी क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (TADA), 1985 : इसे 1985 में समाप्त कर दिया गया।
- आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA), 2002: इसे 2004 में निरस्त कर दिया गया।
शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation)
- मानव के दुर्व्यापार और बलातश्रम का प्रतिषध (अनुच्छेद 23): यह अनुच्छेद मानव दुर्व्यापार, बलात श्रम (बेगार) और इसी प्रकार के अन्य जलातश्रम पर रोक लगाता है, लेकिन राज्य सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित कर सकता है।
- कारखानों आदि मैं बालकों के नियोजन का प्रतिषेध (अनुच्छेद 24) : 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को किसी कारखाने, खान अथवा अन्य संकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion)
संविधान की उद्देशिका में कहा गया है कि हमारा गणराज्य अन्य बातों के साथ-साथ पंथनिरपेक्ष है। (42वें संशोधन द्वारा उद्देशिका में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया)। संविधान में पंथनिरपेक्षता की अवधारणा धर्मविहीन राज्य की अवधारणा नहीं है। इसका अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है, सभी धर्मों को समान आदर तथा संरक्षण प्राप्त है, धर्म के आधार पर किसी के साथ विभेद नहीं किया जाएगा और प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की पूर्ण तथा समान स्वतंत्रता प्राप्त है। अनुच्छेद 25 से 28 में सभी व्यक्तियों को धर्म के सभी पक्षों में स्वतंत्रता के अधिकार के उपबंधों का वर्णन है।
- अंत:करण की ओर धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25)
- धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 26) : अनुच्छेद 25 और 26 द्वारा दिए गए अधिकार असीम नहीं है। एक तो वे लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए दिए गए हैं। दूसरे राज्य विधि बनाकर आर्थिक, वित्तीय या राजनीतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप को विनियमित कर सकता है।
- किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता (अनुच्छेद 27)
- कुछ शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता (अनुच्छेद 28)
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Rights)
- अल्पसंख्यक- वर्गों के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29):
- भारत के नागरिकों को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा।
- राज्य द्वारा पोषित अथवा राज्य निधि से सहायता पाने वाले किसी किसी शिक्षण संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।
- शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार (अनुच्छेद 30): यह अनुच्छेद धर्म और भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार देता है।
- अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाएं तीन प्रकार की होती है
- राज्य से आर्थिक सहायता व मान्यता प्राप्त करने वाले संस्थान।
- ऐसे संस्थान जो राज्य से मान्यता लेते हैं, किन्तु आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं करते हैं।
- ऐसे संस्थान जो राज्य से मान्यता एवं सहायता दोनों ही नहीं लेते हैं।
संविधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)
अनुच्छेद 32 में दिए गए संवैधानिक इपचारों के अधिकार के द्वारा मौलिक अधिकारों को उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय बनाया गया है।
रिट (Wit) : उच्चतम न्यायालय किसी भी मूल अधिकार के संबंध में निर्देश या आदेश या रिट जारी कर सकता है। संविधान में पाँच प्रकार के रिट का उल्लेख है
- बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Compus): इसके द्वारा न्यायालय किसी गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत करने का आदेश देता है। इस रिट के लिए आवेदन पीड़ित व्यक्ति की ओर से कोई भी कर सकता है। यह रिट किसी भी राज्य या व्यक्ति के खिलाफ जारी किया जा सकता है।
- परमादेश (Mandamus): यह रिट तब जारी किया जाता है, जब न्यायालय को यह लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी, न्यायालय अथवा निगम अपने दायित्वों का पालन नहीं कर रहा है और किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है। इसके लिए आवेदन पीड़ित व्यक्ति द्वारा दिया जाता है।
- प्रतिषेध (Prohibition) : इसे किसी उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को अपने न्यायक्षेत्र से उच्च न्यायिक कार्यों को करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है।
- उत्प्रेषण (Certiorali) : यह एक निवारक एवं सहायक रिट है, जो उच्चतम या उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के अधिकारीिर्य के विरुद्ध जारी किया जाता है, जो अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन कर रहा हो।
- अधिकार पृच्छा (Qu0-Warranto) : इसे न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक कार्यालय के अवैध अनाधिकार ग्रहण करने को रोकने के लिए जारी किया जाता है।
अनुच्छेद 32 और 226 : अनुच्छेद 32 के द्वारा उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी कर सकता है और उसे नकार नहीं सकता, लेकिन अनुच्छेद 226 के तहत उपचार उच्च न्यायालयके विवेकानुसार है, इसलिए वह अपने रिट न्यायक्षेत्र को नकार भी सकता है। इस तरह उच्चतम न्यायालय का मूल अधिकारों का रक्षक एवं गारंटी देने वाला बनाया गया है।
सशस्त्र बल एवं मूल अधिकार
अनुच्छेद 33 : संसद को यह अधिकार है कि वह सैन्य बलो, अर्द्धसैनिक बलो, पुलिस आदि के मूल अधिकारों की सीमा को निर्धारित कर सकता है।
अनुच्छेद 34: जब भारत में कही मार्शल लॉ (सेना विधि) लागू हो, तो संसद को यह शक्ति है कि वह मूल अधिकारों को प्रतिबंधित शक्ति प्राप्त है, जो राज्य विधानमण्डल को प्राप्त नहीं है।
Read Also : |
---|