उत्तराखण्ड के स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं ने भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। इन्हीं में एक बिसनी शाह का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। उत्तराखण्ड में प्रथम महिला सेनानी जो जेल गई थी।
बिशनी देवी शाह (Bishni Devi Shah) | |
पति का नाम | श्री राम लाल शाह |
जन्म | 12 अक्टूबर, 1902, बागेश्वर में |
मृत्यु | 1974 |
बिशनी देवी शाह का जन्म बागेश्वर में 12 अक्टूबर 1902 को हुआ था। उन्होनें कक्षा 4 तक की शिक्षा विद्यालय से प्राप्त की। 13 वर्ष की आयु में उनकी शादी रामलाल शाह से हो गई जिसके बाद वह अल्मोड़ा आयी। जब वे 16 वर्ष की थी तब दुर्भाग्यवश पति के असामयिक निधन के बाद वे निडरता और निर्भीकता के साथ सार्वजनिक जीवन में कूद गई थी। अल्मोड़ा में नन्दा देवी के मन्दिर में होने वाली सभाओं में भाग लेने और स्वदेशी प्रचार कार्यों में बिश्नी देवी काम करने लगीं। आन्दोलनकारियों को महिलायें प्रोत्साहित करती थीं।
1921 से 1930 के बीच महिलाओं में जागृति व्यापक होती गयी, 1930 तक ये स्त्रियां सीधे आन्दोलन में भाग लेने लगीं। तब अल्मोड़ा ही नहीं, रामनगर और नैनीताल की महिलाओं में भी जागृति आने लगी थी। 25 मई, 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निश्चय हुआ। स्वयं सेवकों का एक जुलूस, जिसमें महिलायें भी शामिल थीं, को गोरखा सैनिकों द्वारा रोका गया। इसमें मोहनलाल जोशी तथा शांतिलाल त्रिवेदी पर हमला हुआ और वे लोग घायल हुये। तब बिश्नी देवी शाह, दुर्गा देवी पन्त, तुलसी देवी रावत, भक्तिदेवी त्रिवेदी आदि के नेतृत्व में महिलाओं ने संगठन बनाया। कुन्ती देवी वर्मा, मंगला देवी पाण्डे, भागीरथी देवी, जीवन्ती देवी तथा रेवती देवी की मदद के लिये बद्रीदत्त पाण्डे और देवीदत्त पन्त अल्मोड़ा के कुछ साथियो सहित वहां आये। अंततः वह झंडारोहण करने में सफल हुईं, दिसम्बर, 1930 में बिश्नी देवी शाह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। इस तरह एक माह के कारावास के बाद उन्हें जेल से रिहा किया गया।
जेल से रिहाई के बाद बिश्नी देवी जी खादी के प्रचार में जुट गईं। उस समय अल्मोड़ा में खादी की दुकान नहीं थी, चरखा 10 रुपये में मिलता था। उन्होंने चरखे का मूल्य घटवाकर 5 रुपये करवाया और घर-घर जाकर महिलाओं को दिलवाया, उन्हें संगठित कर चरखा कातना सिखाया। उनका कार्यक्षेत्र अल्मोड़ा से बाहर भी बढ़ने लगा, 2 फरवरी, 1931 को बागेश्वर में महिलाओं का एक जुलूस निकला तो बिश्नी देवी ने उन्हें बधाई दी और सेरा दुर्ग (बागेश्वर) में आधी नाली जमीन और 50 रुपये दान में दिये। वे आन्दोलनकारियों के लिये छुपकर धन जुटाने, सामग्री पहुंचाने तथा पत्रवाहक का कार्य भी करतीं थीं। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रियता के कारण 7 जुलाई, 1933 में उन्हें गिरफ्तार कर फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया, उन्हें 9 माह की सजा और 200 रुपये जुर्माना हुआ। जुर्माना न देने पर सजा और बढ़ाई गई, वहां से रिहा होने के बाद 1934 में बागेश्वर मेले में धारा 144 लगी होने के बावजूद उन्होंने स्वदेशी प्रदर्शनी करवाई। डिप्टी कमिश्नर ट्रेल के आतंक में भी बिश्नी देवी शाह का कार्य विधिवत चलता रहा। इसी मध्य रानीखेत में हरगोबिन्द पन्त के सभापतित्व में कांग्रेस सदस्यों की एक सभा हुई, जिसमें कार्यकारिणी में महिला सदस्य के रुप में इन्हें निर्वाचित किया गया। 10 से 15 जनवरी, 1935 में बागेश्वर में लगाई गई प्रदर्शनी हेतु उन्हें प्रथम श्रेणी का प्रमाण पत्र मिला। अल्मोड़ा नन्दा देवी के मैदान में और फिर 23 जुलाई, 1935 को अल्मोड़ा के मोतिया धारे के समीप नये कांग्रेस भवन में बिश्नी देवी शाह तथा विजय लक्ष्मी पंडित ने झंडा फहराया। विजय लक्ष्मी पंडित बिश्नी देवी के कार्यों से अत्यन्त प्रभावित हुईं। इसके पश्चात 17 अप्रैल, 1940 को नन्दादेवी मन्दिर परिसर में उसने महिलाओं के लिए कताई बुनाई का केन्द्र खोला। राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम में 1945 में जब पं. जवाहर लाल नेहरू और आचार्य नरेन्द्र देव जेल से रिहा हुए तो बिसनी ने कारागाह के मुख्य द्वार पर फूल मालाओं के साथ उनका स्वागत किया। स्वयं जवाहर लाल नेहरू ने बिसनी के शौर्य की प्रशंसा की थी।
नन्दा देवी प्रांगण में 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता दिवस के दिन बिश्नी देवी शाह राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को पकड़कर नारे लगातीं हुई एक मील लम्बे जुलूस की शोभायात्रा बढ़ा रहीं थीं। आजादी के जश्न को भी बिसनी ने महिलाओं के साथ उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हुए मिठाइयां बांटी थी। 1974 ई. में बिसनी साह का निधन हो गया और रह गई बस उनकी स्मृतियां।
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