Vidhan Parishad

विधान परिषद (Legislative Assembly)

संविधान के अनुच्छेद 169 के तहत किसी भी राज्य के लिए विधान परिषद (Legislative Assembly) का गठन किया जा सकता है। वर्तमान में भारत के केवल छह राज्यों (बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और आन्ध्र प्रदेश) में विधान परिषद मौजूद है। संसद को यह अधिकार है कि वह किसी राज्य में विधान परिषद का सृजन करने के लिए कानून बना सकती है। ऐसा संसद तभी कर सकती है जब राज्य विधानसभा पूर्ण बहुमत से तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से विधान परिषद को सृजित करने का प्रस्ताव संसद को भेजे। यही प्रक्रिया विधानपरिषद के उतादन के लिए भी अपनायी जाती है। संसद द्वारा इसी शक्ति के प्रयोग से 1969 में पंजाब तथा पश्चिम बंगाल, 1985 में आंध्र प्रदेश तथा 1986 में तमिलनाडु की विधान परिषदों को समाप्त कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त सातवें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी थी कि मध्य प्रदेश में विधान परिषद का गठन किया जाएगा, लेकिन अभी तक मध्यप्रदेश में विधानसभा का गठन नहीं किया गया है।

गठन 

राज्य विधान परिषद की सदस्य संख्या विधानसभा के सदस्य संख्या के एक तिहाई से कम नहीं होने का प्रावधान किया गया है तथा जम्मू-कश्मीर को छोड़कर यह संख्या 40 से कम नहीं होना चाहिए। जम्मू-कश्मीर विधान परिषद में 36 सदस्य हैं। राज्य विधान परिषद के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। वह आदेश पारित करके राज्य विधान परिषद के निर्वाचन क्षेत्र के विस्तार को तथा प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र को आबंटन में मिले स्थानों की संख्या को अवधारित करता है। इसके अलावा वह आदेश द्वारा विभिन्न प्रांतों के विधान परिषदों के लिए भिन्न-भिन्न स्थान भी नियत करता है।

सदस्यों का चुनाव

विधान परिषद के सदस्यों के चुनाव के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 171 में प्रावधान किया गया है, जिसके अनुसार परिषद के सदस्यों का चुनाव निम्नलिखित संस्थाओं व्यक्तियों द्वारा किया जाएगा –

  • स्थानीय संस्थाओं के सदस्यों द्वारा निर्वाचित – विधान परिषद की सदस्यों की समस्त संख्या में लगभग एक तिहाई सदस्य नगरपालिकाओं, जिला बोर्डो तथा अन्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा निर्वाचित होते है।
  • स्नातकों द्वारा निर्वाचित – विधान परिषद की सदस्यों की कुल संख्या का 1/12 भाग ऐसे व्यक्तियों द्वारा निर्वाचित किया जाएगा, जिन्हें स्नातक हुए तीन वर्ष हो चुके हो अथवा जिन्हें संसद द्वारा निश्चित स्नातक के समकक्ष कोई योग्यता हो।
  • अध्यापकों द्वारा निर्वाचित – विधान परिषद की सदस्यों की कुल संख्या का 1/12 भाग ऐसे व्यक्तियों द्वारा निर्वाचित होता जो कम से कम तीन वर्ष तक हायर सेकेण्डरी तथा उच्च विद्यालयों में अध्यापन कर रहे हों।
  • विधानसभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित – विधान परिषद की सदस्यों की कुल संख्या का 1/3 भाग विधान सभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित होता है।
  • राज्यपाल द्वारा मनोनित – शेष अर्थात विधान परिषद के कुल सदस्यों में से 1/6 भाग राज्यपाल द्वारा मनोनित किया जाता है। राज्यपाल विधान परिषद में राज्य के उन व्यक्तियों को मनोनित करता है, जो साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाजसेवा में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखते हो।

समस्त सदस्यों का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर एकल संक्रमणीय मत द्वारा गुप्त रीति से किया जाता है।

सदस्यों की योग्यताएं

संविधान के अनुच्छेद 173 में विधान परिषद् की सदस्यता के लिए योग्यताएं उपबंधित की गयी है, जो निम्न है –

  • वह भारत का नागरिक हो
  • जिसकी आयु 30 वर्ष से कम न हो
  • संसद द्वारा निश्चित की गयी योग्यता धारण करता हो।

संसद ने राज्य विधान परिषद की सदस्यता के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 द्वारा निम्नलिखित अर्हताएं निश्चित की है –

  • राज्य विधान परिषद् का सदस्य चुने जाने के लिए किसी व्यक्ति को उस राज्य के किसी विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्र का निर्वाचक होना चाहिए।
  • राज्यपाल द्वारा विधान परिषद में कोई व्यक्ति तभी मनोनित किया जाएगा, जब वह उस राज्य का मामूली तौर पर निवासी हो।

सदस्यता संबंधी निर्योग्यताएं 

संविधान के अनुच्छेद 191 में सदस्यों की निर्योग्यताओं का उल्लेख किया गया है जो निम्न है –

  • भारत सरकार या किसी राज्य के अधीन लाभ के पद पर कार्यरत व्यक्ति परिषद की सदस्यता के अयोग्य होगा। लेकिन जिन पदों को धारण करने की ससंद में छूट दी हो, उन पदों को धारण करने वाला व्यक्ति सदस्य हो सकता है।
  • न्यायालय द्वारा विकृत चित्र घोषित व्यक्ति परिषद का सदस्य नहीं हो सकता।
  • दिवालिया घोषित व्यक्ति सदस्य नहीं हो सकता।
  • संसद द्वारा बनायी गयी विधि के अधीन अयोग्य घोषित व्यक्ति सदस्य नहीं हो सकता।

कार्यकाल 

विधान परिषद एक स्थायी सदन है जिसे भंग नहीं किया जा सकता। इसके एक तिहाई सदस्य प्रति दूसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते हैं और उनका स्थान नए निर्वाचित सदस्य लेते हैं। प्रत्येक सदस्य की कार्यावधि 6 वर्ष की होती है।

गणपूर्ति तथा बैठक 

विधान परिषद की गणपूर्ति तथा बैठक संबंधी प्रावधान विधानसभा के ही जैसी है अर्थात् गणपूर्ति के लिए सदस्यों के कम से कम दसवां भाग (10 प्रतिशत) सदन में उपस्थित हो, किंतु यह संख्या 10 से कम नहीं होनी चाहिए। विधान परिषद की बैठक वर्ष में कम से कम दो बार होनी चाहिए तथा दोनों बैठकों के बीच 6 माह से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए।

पदाधिकारी 

विधान परिषद के सदस्य अपने सदस्यों में से सदन के कार्य संचालन के लिए एक सभापति तथा एक उपसभापति का चुनाव करते हैं। सभापति तथा उपसभापति तब तक अपने पद पर बने रहते हैं, जब तक वे सदन के सदस्य हैं। इसके पहले सभापति उपसभापति को तथा उपसभापति सभापति को अपना त्यागपत्र देकर कार्यमुक्त हो सकते है। इसके अतिरिक्त वे सदन के बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव से हटाए जा हैं, लेकिन हटाने का प्रस्ताव पेश करने के पहले 14 दिन की पूर्व सूचना आवश्यक है। जिसके विरूद्ध हटाने का प्रस्ताव पेश किया गया हो, वह उस समय सदन की कार्यवाही का संचालन नहीं करता, जब हटाने के प्रस्ताव पर विचार-विमर्श किया जा रहा हो।

विधान परिषद का सभापति

विधान परिषद के सदस्य अपने बीच से ही सभापति को चुनते हैं। सभापति निम्नलिखित तीन मामलों में पद छोड़ सकता हैं।

  • यदि उसकी सदस्यता समाप्त हो जाए।
  • यदि वह उप सभापति को लिखित त्यागपत्र दे, और
  • यदि विधानपरिषद में उपस्थित तत्कालीन सदस्य बहुमत से उसे हटाने का सकल्प पास कर दें। इस तरह का प्रस्ताव

14 दिनों की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है। पीठासीन अधिकारी के रूप में परिषद के सभापति की शक्तियां एवं कार्य विधानसभा के अध्यक्ष की तरह हैं। हालांकि सभापति को एक विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है जो अध्यक्ष को है कि अध्यक्ष यह तय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं और उसका फैसला अंतिम होता है। अध्यक्ष की तरह सभापति का वेतन व भत्ते भी विधानमंडल तय करता है। इन्हें राज्य की संचित निधि पर भारित किया जाता है और इसलिए इन पर राज्य विधानमण्डल द्वारा वार्षिक मतदान नहीं किया जा सकता।

विधान परिषद का उपसभापति

सभापति की तरह ही उप सभापति को भी परिषद के सदस्य अपने बीच से चुनते हैं। सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभाध्यक्षों ही कार्यभार संभालता है। परिषद की बैठक के दौरान सभापति के न होने पर वह उसी की तरह काम करता है। दोनों ही मामलों में उसकी शक्तियां सभापति के समान होती हैं। सभापति, सदस्यों के बीच से ही उप-सभाध्यक्षों की सूची जारी करता है। सभापति और उप-सभापति की अनुपस्थिति में उनमें से कोई भी कार्यभार संभालता है। वह उप-सभाध्यक्षों की नई सूची तक कार्य करते हैं।

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राज्य की मंत्रिपरिषद (State Cabinet)

राज्य की मंत्रिपरिषद (State Cabinet) संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार “उन बातों को छोड़कर जिनमें राज्यपाल स्वविवेक से कार्य करता है, अन्य कार्यों के निर्वहन में उसे सहायता प्रदान करने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा। मंत्रिपरिषद जो भी परामर्श राज्यपाल को देती है, उसकी जांच करने का अधिकार किसी न्यायालय को नहीं है। यदि यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कोई विषय ऐसा विषय है या नहीं, जिसमें संविधान के अनुसार राज्यपाल को अपने विवेकानुसार कार्य करना है, वहां राज्यपाल का विनिश्चय अंतिम होगा।”

हमारे संविधान में निहित है कि विधानसभा चुनावों में जिस दल के विधायकों की संख्या निर्वाचित विधायकों की संख्या के आधे से अधिक होगी अर्थात् जिस दल का बहुमत होगा उसका नेता मुख्यमंत्री होगा। कभी-कभी दो या अधिक राजनीतिक दल (निर्दलीय भी) आपस में गठबंधन बनाकर अपना नेता चुन लेते हैं, लेकिन उन्हें विधानसभा में बहुमत साबित करना होता है। मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। मुख्यमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। मुख्यमंत्री के परामर्श से राज्यपाल मंत्रियों के विभागों का बँटवारा करते हैं।

मंत्रि-परिषद् की चार श्रेणियाँ होती हैं –

  1. कैबिनेट मंत्री
  2. राज्यमंत्री
  3. उपमंत्री
  4. संसदीय सचिव।

मंत्रि-परिषद् के सदस्य बनने के लिए राज्य विधानमण्डल का सदस्य होना आवश्यक है। यदि नियुक्ति के समय ऐसा नहीं है तो 6 माह के अंदर किसी भी सदन की सदस्यता प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है।

मंत्रि-परिषद् के कार्य व शक्तियाँ

विधानसभा द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करना मंत्री परिषद् का मुख्य कार्य है। मंत्रि-परिषद् ही राज्य शासन की नीतियों का निर्धारण करती है, तथा राज्यपाल को शासन संबंधी सलाह देती है। राज्य मंत्रि-परिषद् ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका है।

इसके कार्य व शक्तियाँ इस प्रकार हैं –

  • राज्य हेतु नीति निर्धारण एवं क्रियान्वयन करना : राज्य मंत्रि-परिषद् राज्य के विकास एवं संचालन हेतु नीति निर्धारण करता है। वह इन नीतियों के लागू करने हेतु आवश्यक आदेश | एवं निर्देश प्रसारित करता है। वह प्रशासकीय स्तर पर इन नियमों के क्रियान्वयन पर भी निगरानी रखता है।
  • राज्यपाल को परामर्श देना : राज्य मंत्रि-परिषद् राज्य के उच्च पदों पर नियुक्ति हेतु राज्यपाल को परामर्श देता है। उसके बाद राज्यपाल नियुक्तियाँ करते हैं।
  • विधायी कार्य : शासकीय विधेयक मंत्रि-परिषद् के सदस्य तैयार करते हैं एवं व्यवस्थापिका के किसी भी सदन में प्रस्तुत करते हैं। मंत्रि-परिषद् के सदस्य ही विधानमंडल में विधेयक संबंधी जानकारी, प्रश्नों और समालोचनाओं के उत्तर देते हैं। यदि कोई विधेयक विधानसभा में पारित नहीं होता है तो संपूर्ण मंत्रि-परिषद् द्वारा त्यागपत्र देना आवश्यक है।
  • वित्तीय कार्य : राज्य विधान परिषद् राज्य की नीतियों के क्रियान्वयन के लिए आय-व्यय संबंधी प्रस्ताव तैयार करती है, जिसे वित्त विधेयक कहते हैं। जिसे वित्तमंत्री द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत कर मंत्रि-परिषद् स्वीकृत करवाती है।

मुख्यमंत्री

मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत की जाती है। जब चुनाव के बाद किसी एक ही दल को बहुमत प्राप्त हो जाये और उस दल का कोई नियोजित नेता हो, तब उस दल के नेता को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त करना राज्यपाल की संवैधानिक बाध्यता है। मुख्यमंत्री पद के लिए साँवधान में कोई योग्यता नहीं निहित की गयी है, लेकिन मुख्यमंत्री के लिए यह आवश्यक है। कि वह राज्य विधानसभा का सदस्य हो। राज्य विधानसभा का सदस्य न होने वाला व्यक्ति भी मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन उसके लिए आवश्यक है कि वह 6 माह के अन्दर राज्य विधानसभा का सदस्य निर्वाचित हो जाये।

21 सितंबर, 2001 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गये निर्णय के अनुसार किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद के अयोग्य माना जायेगा, जिसे किसी न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया गया हो।

सामान्यतया मुख्यमंत्री अपने पद पर तब तक बना रहता है, जब तक उसे विधानसभा का विश्वास प्राप्त रहता है। अत: विधानसभा में विश्वास समाप्त होते ही उसे त्यागपत्र दे देना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है।

मुख्यमंत्री के कर्तव्य तथा अधिकार

मुख्यमंत्री राज्य के शासन का वास्तविक अध्यक्ष होता है। राज्य के शासन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण कार्य के द्वारा किये जाते हैं। उसके प्रमुख कर्त्तव्य तथा अधिकार निम्न हैं – 

  • मुख्यमंत्री का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सरकार को निर्माण करना है, जिसके सदस्यों की नियुक्ति उसकी सलाह पर राज्यपाल द्वारा की जाती है। मंत्रियों के पदों एवं विभागों का वितरण पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है।
  • मुख्यमंत्री, मंत्रिपरिषद् का अध्यक्ष होने के नाते मंत्रिपरिषद की बैठक की अध्यक्षता करता है। अधिवेशनों की तिथि तय करना तथा कार्यसूची बनाना भी मुख्यमंत्री के ही कार्य हैं।
  • अनुच्छेद 167 के अनुसार मूत्रपरिषद के निर्णयों की सूचना राज्यपाल को देना मुख्यमंत्री को संवैधानिक कर्तव्य है। यदि राज्यपाल को किसी प्रशासकीय विभाग से कोई सूचना प्राप्त करनी है, तो वह केवल मुख्यमंत्री के द्वारा ही प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार मुख्यमंत्री राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के बीच कड़ी का काम करता है।
  • मुख्यमंत्री राज्य विधानमंडल का नेता भी होता है। विधानमंडल में महत्वपूर्ण निर्णयों की घोषणा मुख्यमंत्री द्वारा ही की जाती है। विधानसभा को स्थगित और भंग किये जाने के निर्णय भी मुख्यमंत्री द्वारा ही लिये जाते हैं।
  • राज्य में सभी महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां मुख्यमंत्री के परामर्श से ही राज्यपाल द्वारा की जाती हैं।
  • मुख्यमंत्री राष्ट्रीय विकास परिषद में राज्य का प्रतिनिधित्व करता है।
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