Model Code of Conduct

एक राष्ट्र, एक चुनाव: भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा?

मनोज झा द्वारा लिखित इस लेख में “One Nation, One Election undermines the voter — and Indian democracy” की अवधारणा पर चर्चा की गई है। लेख के अनुसार, यह विचार भारतीय लोकतंत्र और मतदाताओं के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। लेख का मुख्य तर्क यह है कि एक साथ चुनाव कराना भारतीय चुनावी विविधता और संघीय संरचना को कमजोर करेगा। इससे राज्यों के मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर दब सकते हैं, और मतदाताओं के अधिकारों और उनकी स्थानीय समस्याओं को उचित ध्यान नहीं मिल पाएगा।

एक साथ चुनाव: भारतीय मतदाता और संघीय ढांचे पर प्रभाव
(Simultaneous Elections: Impact on Indian Voters and Federal Structure)

“एक राष्ट्र, एक चुनाव” (One Nation, One Election) का विचार भारत में लोकतंत्र और संविधानिक ढांचे के लिए एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा है। यह विचार केंद्र सरकार द्वारा लाया गया है, जिसमें चुनावों को एक साथ कराने की बात कही जा रही है। इस पहल का तात्पर्य यह है कि देश में एक ही समय पर लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव होंगे। हालाँकि, इस योजना के समर्थक इसके लाभों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं, लेकिन इसके गंभीर नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं, खासकर भारत के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए।

चुनाव और लोकतंत्र का संबंध

लोकतंत्र का आधार चुनाव होते हैं, क्योंकि यह जनता को अपने प्रतिनिधियों को चुनने का अवसर प्रदान करते हैं। लेकिन, लोकतंत्र केवल चुनावों तक ही सीमित नहीं है। इसमें चर्चाओं, बहसों और जनता की इच्छाओं का सम्मान भी जरूरी होता है। अगर चुनाव केवल पाँच साल में एक बार होते हैं, तो इससे सरकार के लिए जनता की आवश्यकताओं और उनकी समस्याओं के प्रति जवाबदेह बने रहने की प्रेरणा कम हो जाती है। इससे यह खतरा रहता है कि लोग एक अलोकप्रिय सरकार से पांच साल तक बंधे रह सकते हैं, जिसके खिलाफ उनकी कोई तत्काल कार्रवाई करने की क्षमता नहीं होगी।

“एक राष्ट्र, एक चुनाव” के तर्क और वास्तविकता

इस विचार के समर्थक कहते हैं कि बार-बार चुनाव कराने से शासन प्रक्रिया धीमी हो जाती है। खासकर चुनाव आचार संहिता (Model Code of Conduct) लागू होने के कारण विकास कार्य ठप हो जाते हैं। हालाँकि, चुनाव आयोग (Election Commission) अगर अपनी प्रक्रिया को और अधिक कुशल बना ले, तो इस समस्या का समाधान हो सकता है। चुनाव आचार संहिता को समयानुसार अद्यतन करने और चुनाव की अवधि को संक्षिप्त करने से इस समस्या का हल निकाला जा सकता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि लगातार चुनाव कराना एक महंगा काम है। लेकिन, यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि लोकतंत्र की मजबूती और पारदर्शिता के लिए यह खर्चा जरूरी है। “एक राष्ट्र, एक चुनाव” के समर्थक कहते हैं कि इससे सार्वजनिक धन की बचत होगी। हालांकि, सवाल यह है कि क्या भारत जैसे बड़े और विविधतापूर्ण देश में इस तरह की योजना को लागू करना व्यावहारिक और आवश्यक है? और क्या सिर्फ पैसे की बचत के लिए हम अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर सकते हैं?

“एक राष्ट्र, एक चुनाव” के संभावित नकारात्मक प्रभाव

इस योजना के कई गंभीर नकारात्मक पहलू हैं। पहला, इससे राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी और प्रभावशाली पार्टियों को अधिक लाभ मिलेगा। राष्ट्रीय दलों की राज्य चुनावों पर भी पकड़ मजबूत हो जाएगी, जिससे राज्य स्तर की राजनीति कमजोर हो जाएगी। इससे अलोकप्रिय सरकारें सत्ता में बनी रह सकती हैं, क्योंकि राज्य सरकारों के लिए जनता का विश्वास खोने के बाद भी अगले चुनाव तक उन्हें सत्ता में बने रहना पड़ेगा।

दूसरा, इससे केंद्र सरकार को स्थिरता मिल सकती है, लेकिन इसका दुरुपयोग होने का खतरा भी बढ़ जाता है। जब एक ही बार में चुनाव होते हैं, तो सरकार को अगले पाँच साल तक किसी बड़े जन विरोध का सामना नहीं करना पड़ता, जिससे जनता की आवश्यकताओं को नजरअंदाज करने की संभावना बढ़ जाती है।

लोकतंत्र का असली उद्देश्य

लोकतंत्र का उद्देश्य केवल चुनाव कराना नहीं है, बल्कि जनता की आवाज़ सुनना और उसे सम्मान देना भी है। लगातार चुनाव होने से सरकारों पर जनता की समस्याओं का समाधान करने का दबाव बना रहता है। यदि “एक राष्ट्र, एक चुनाव” लागू हो जाता है, तो यह प्रक्रिया कमजोर हो जाएगी। इससे जनता की आवाज़ को दबाने की संभावना बढ़ जाएगी, और लोकतंत्र केवल नाम मात्र का रह जाएगा।

निष्कर्ष

“एक राष्ट्र, एक चुनाव” योजना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चुनौती है। इसका उद्देश्य चुनाव प्रक्रिया को सरल बनाना हो सकता है, लेकिन इसका असर संघीय ढांचे और राज्य सरकारों की स्वायत्तता पर गंभीर पड़ेगा। चुनावों का उद्देश्य सिर्फ शासन को चुनना नहीं है, बल्कि जनता की इच्छाओं और जरूरतों को समझना और उनका सम्मान करना है। इस योजना को लागू करने से पहले इसके नकारात्मक प्रभावों पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है।

 

आदर्श आचार संहिता और इसका विकास

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र के आधार हैं। इसमें मतदाताओं के बीच अपनी नीतियों तथा कार्यक्रमों को रखने के लिए सभी उम्मीदवारों तथा सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर और बराबरी का स्तर प्रदान किया जाता है। इस संदर्भ में आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) का उद्देश्य सभी राजनीतिक दलों के लिए बराबरी का समान स्तर उपलब्ध कराना प्रचारअभियान को निष्पक्ष तथा स्वस्थ्य रखना, दलों के बीच झगड़ों तथा विवादों को टालना है। इसका उद्देश्य केन्द्र या राज्यों की सत्ताधारी पार्टी आम चुनाव में अनुचित लाभ लेने से सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग रोकना है। आदर्श आचार संहिता लोकतंत्र के लिए भारतीय निर्वाचन प्रणाली का प्रमुख योगदान है।

आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)

किसी भी राज्य में चुनाव से पहले एक अधिसूचना जारी की जाती है। इसके बाद उस राज्य में ‘आदर्श आचार संहिता’ लागू हो जाती है और नतीजे आने तक जारी रहती है। 

क्या है आदर्श आचार संहिता?

मुक्त और निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में चुनावों को एक उत्सव जैसा माना जाता है और सभी सियासी दल तथा वोटर्स मिलकर इस उत्सव में हिस्सा लेते हैं। चुनावों की इस आपाधापी में मैदान में उतरे उम्मीदवार अपने पक्ष में हवा बनाने के लिये सभी तरह के हथकंडे आजमाते हैं। ऐसे माहौल में सभी उम्मीदवार और सभी राजनीतिक दल वोटर्स के बीच जाते हैं। ऐसे में अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को रखने के लिये सभी को बराबर का मौका देना एक बड़ी चुनौती बन जाता है, लेकिन आदर्श आचार संहिता इस चुनौती को कुछ हद तक कम करती है।

  • चुनाव की तारीख का ऐलान होते ही यह लागू हो जाती है और नतीजे आने तक जारी रहती है।
  • दरअसल ये वो दिशा-निर्देश हैं, जिन्हें सभी राजनीतिक पार्टियों को मानना होता है। इनका मकसद चुनाव प्रचार अभियान को निष्पक्ष एवं साफ-सुथरा बनाना और सत्ताधारी राजनीतिक दलों को गलत फायदा उठाने से रोकना है। साथ ही सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग रोकना भी आदर्श आचार संहिता के मकसदों में शामिल है।
  • आदर्श आचार संहिता को राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिये आचरण एवं व्यवहार का पैरामीटर माना जाता है।
  • दिलचस्प बात यह है कि आदर्श आचार संहिता किसी कानून के तहत नहीं बनी है। यह सभी राजनीतिक दलों की सहमति से बनी और विकसित हुई है।
  • सबसे पहले 1960 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता के तहत बताया गया कि क्या करें और क्या न करें।
  • 1962 के लोकसभा आम चुनाव में पहली बार चुनाव आयोग ने इस संहिता को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में वितरित किया। इसके बाद 1967 के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में पहली बार राज्य सरकारों से आग्रह किया गया कि वे राजनीतिक दलों से इसका अनुपालन करने को कहें और कमोबेश ऐसा हुआ भी। इसके बाद से लगभग सभी चुनावों में आदर्श आचार संहिता का पालन कमोबेश होता रहा है।
  • गौरतलब यह भी है कि चुनाव आयोग समय-समय पर आदर्श आचार संहिता को लेकर राजनीतिक दलों से चर्चा करता रहता है, ताकि इसमें सुधार की प्रक्रिया बराबर चलती रहे।

आदर्श आचार संहिता की आवश्यकता क्यों पड़ी?

एक ज़माना था, जब चुनावों के दौरान दीवारें पोस्टरों से पट जाया करती थीं। लाउडस्पीकर्स का कानफोडू शोर थमने का नाम ही नहीं लेता था। दबंग उम्मीदवार धन-बल के ज़ोर पर चुनाव जीतने के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते थे। चुनावी वैतरणी पार करने के लिये साम, दाम, दंड, भेद का सहारा खुलकर लिया जाता था। बूथ कैप्चरिंग करने और बैलट बॉक्स लूट लेने जैसी घटनाएँ भी आम थीं। सैकड़ों की संख्या में लोग चुनावी हिंसा के दौरान हताहत होते थे। तब चुनावों में शराब और रुपए बाँटने का खुला खेल चलता था। ऐसे हालातों में आदर्श आचार संहिता रामबाण तो नहीं, लेकिन आशा की किरण बनकर ज़रूर सामने आई।

  • अब कहीं पर भी चुनाव होने पर आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है और इसका सबसे बड़ा मकसद चुनावों को पारदर्शी तरीके से संपन्न कराना होता है।
  • इसके अलावा समय से पहले विधानसभा का विघटन हो जाने पर भी आदर्श आचार संहिता में प्रावधान किये गए हैं। इनके तहत कामचलाऊ राज्य सरकार और केंद्र सरकार राज्य के संबंध में किसी नई योजना या परियोजना का ऐलान नहीं कर सकती है।
  • चुनाव आयोग को यह अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के एस.आर. बोम्मई मामले में दिये गए ऐतिहासिक फैसले से मिला है। 1994 में आए इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि कामचलाऊ सरकार को केवल रोज़ाना का काम करना चाहिये और कोई भी बड़ा नीतिगत निर्णय लेने से बचना चाहिये।

आदर्श आचार संहिता की विशेषता

भारत में होने वाले चुनावों में अपनी बात वोटर्स तक पहुँचाने के लिये चुनाव सभाओं, जुलूसों, भाषणों, नारेबाजी और पोस्टरों आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसी के मद्देनज़र आदर्श आचार संहिता के तहत क्या करें और क्या न करें की एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है, लेकिन हम बात उन्हीं मुद्दों पर करेंगे, जो आदर्श आचार संहिता को इतना अहम बना देते हैं।

  • वर्तमान में प्रचलित आदर्श आचार संहिता में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के सामान्य आचरण के लिये दिशा-निर्देश दिये गए हैं।
  • सबसे पहले तो आदर्श आचार संहिता लागू होते ही राज्य सरकारों और प्रशासन पर कई तरह के अंकुश लग जाते हैं।
  • सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक निर्वाचन आयोग के तहत आ जाते हैं।
  • आदर्श आचार संहिता में रूलिंग पार्टी के लिये कुछ खास गाइडलाइंस दी गई हैं। इनमें सरकारी मशीनरी और सुविधाओं का उपयोग चुनाव के लिये न करने और मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों द्वारा अनुदानों, नई योजनाओं आदि का ऐलान करने की मनाही है।
  • मंत्रियों तथा सरकारी पदों पर तैनात लोगों को सरकारी दौरे में चुनाव प्रचार करने की इजाजत भी नहीं होती।
  • सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर विज्ञापन जारी नहीं किये जा सकते हैं। इनके अलावा चुनाव प्रचार के दौरान किसी की प्राइवेट लाइफ का ज़िक्र करने और सांप्रदायिक भावनाएँ भड़काने वाली कोई अपील करने पर भी पाबंदी लगाई गई है।
  • यदि कोई सरकारी अधिकारी या पुलिस अधिकारी किसी राजनीतिक दल का पक्ष लेता है तो चुनाव आयोग को उसके खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है। इसके अलावा चुनाव सभाओं में अनुशासन और शिष्टाचार कायम रखने तथा जुलूस निकालने के लिये भी गाइडलाइंस बनाई गई हैं।
  • किसी उम्मीदवार या पार्टी को जुलूस निकालने या रैली और बैठक करने के लिये चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ती है और इसकी जानकारी निकटतम थाने में देनी होती है।
  • हैलीपैड, मीटिंग ग्राउंड, सरकारी बंगले, सरकारी गेस्ट हाउस जैसी सार्वजनिक जगहों पर कुछ उम्मीदवारों का कब्ज़ा नहीं होना चाहिये। इन्हें सभी उम्मीदवारों को समान रूप से मुहैया कराना चाहिये।

इन सारी कवायदों का मकसद सत्ता के गलत इस्तेमाल पर रोक लगाकर सभी उम्मीदवारों को बराबरी का मौका देना है।

आदर्श आचार संहिता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का नज़रिया

इस मुद्दे पर देश की आला अदालत भी अपनी मुहर लगा चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय इस बाबत 2001 में दिये गए अपने एक फैसले में कह चुका है कि चुनाव आयोग का नोटिफिकेशन जारी होने की तारीख से आदर्श आचार संहिता को लागू माना जाएगा।

  • इस फैसले के बाद आदर्श आचार संहिता के लागू होने की तारीख से जुड़ा विवाद हमेशा के लिये समाप्त हो गया।
  • अब चुनाव अधिसूचना जारी होने के तुरंत बाद जहाँ चुनाव होने हैं, वहाँ आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है।
  • यह सभी उम्मीदवारों, राजनीतिक दलों तथा संबंधित राज्य सरकारों पर तो लागू होती ही है, साथ ही संबंधित राज्य के लिये केंद्र सरकार पर भी लागू होती है।

आदर्श आचार संहिता के लिये अपनाई जा रही एडवांस तकनीकें

जब डिजिटलीकरण और हाई-टेक होने का दौर चल रहा हो तो भला चुनाव आयोग क्यों पीछे रहता। आदर्श आचार संहिता को और यूज़र-फ्रेंडली बनाने के लिये कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने ‘cVIGIL’ एप लॉन्च किया। तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिज़ोरम और राजस्थान के हालिया विधानसभा चुनावों में इसका इस्तेमाल हो रहा है।

  • cVIGIL के ज़रिये चुनाव वाले राज्यों में कोई भी व्यक्ति आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की रिपोर्ट कर सकता है। इसके लिये उल्लंघन के दृश्य वाली केवल एक फोटो या अधिकतम दो मिनट की अवधि का वीडियो रिकॉर्ड करके अपलोड करना होता है।
  • उल्लंघन कहाँ हुआ है, इसकी जानकारी GPS के ज़रिये ऑटोमेटिकली संबंधित अधिकारियों को मिल जाती है।
  • शिकायतकर्त्ता की पहचान गोपनीय रखते हुए रिपोर्ट के लिये यूनीक आईडी दी जाती है। यदि शिकायत सही पाई जाती है तो एक निश्चित समय के भीतर कार्रवाई की जाती है।

यह तो बात हुई इस एप के फायदों की, लेकिन हम सब यह भी जानते हैं कि नफे के साथ नुकसान भी जुड़ा होता है। इसी के मद्देनज़र इस एप के गलत इस्तेमाल को रोकने के भी इंतज़ाम किये गए हैं।

  • यह एप केवल आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के बारे में काम करता है। तस्वीर लेने या वीडियो बनाने के बाद यूज़र्स को रिपोर्ट करने के लिये केवल पाँच मिनट का समय मिलता है और इसमें पहले से ली गई फोटोज़ या वीडियो अपलोड नहीं किये जा सकते।
  • हाई-टेक होने की दौड़ में cVIGIL एप के अलावा चुनाव आयोग ने और कई एडवांस तकनीकों को भी अपनाया है। इनमें नेशनल कंप्लेंट सर्विस, इंटीग्रेटेड कॉन्टैक्ट सेंटर, सुविधा, सुगम, इलेक्शन मॉनिटरिंग डैशबोर्ड और वन वे इलेक्ट्रॉनिकली ट्रांसमिटेड पोस्टल बैलट आदि शामिल हैं।
  • चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता तथा अन्य उपायों के ज़रिये चुनावों को निष्पक्ष और साफ-सुथरा बनाने के प्रयास लगातार करता रहता है और इसके लिये उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा भी गया है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भारत जैसे बड़े देश में चुनावों को केवल आदर्श आचार संहिता के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जा सकता है।

आगे की राह

वैसे देखा जाए तो आदर्श आचार संहिता में सब कुछ चमकीला ही दिखाई देता है, लेकिन यह देखने में आया है कि इसके लागू हो जाने के बाद डेढ़-दो महीने तक सरकारी कामकाज लगभग ठप पड़ जाते हैं।

  • बार-बार होने वाले चुनावों के कारण प्रशासन तो प्रभावित होता ही है, भारी मात्रा में पैसे की भी बर्बादी होती है।
  • हमारे देश में सालभर कहीं-न-कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। इसलिये 1999 में विधि आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में देशभर में एक साथ चुनाव करने की सिफारिश की थी। अभी कुछ समय पहले भी विधि आयोग देशभर में एक साथ चुनाव कराए जाने को लेकर ड्राफ्ट पेश कर चुका है।
  • इसके अलावा, भारत के उपराष्ट्रपति भी कह चुके हैं कि सभी राजनीतिक दल आपसी सहमति बनाकर अपने मेंबर्स के लिये एक आदर्श आचार संहिता तैयार करें, जिस पर विधानमंडल और संसद के भीतर एवं बाहर अमल होना चाहिये।
  • लेकिन यह भी सच है कि चुनावों के दौरान लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने की कोशिश सरकार किसी-न-किसी तरीके से ज़रूर करती है। यदि चुनाव आयोग कड़ी निगाह न रखे तो वह इस कोशिश में कामयाब भी हो जाती है।
  • ऐसे में आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होने पर चुनाव आयोग के पास कार्रवाई करने के अधिकार भी होते हैं। इसके लिये चुनाव आयोग FIR दर्ज करा सकता है या उम्मीदवारी पर रोक तक लगा सकता है।
  • दरअसल, आदर्श आचार संहिता चुनाव सुधारों से जुड़ा एक अहम् मुद्दा है, जिससे और बहुत से चुनाव सुधारों का रास्ता खुलता है। देखा जाए तो हर चुनाव के साथ हमारी डेमोक्रेसी में और निखार आता जा रहा है, लेकिन लोकतंत्र के इस उत्सव को सफल बनाने में चुनाव आयोग की कोशिशों के साथ देश के नागरिकों की भी यह जवाबदेही है कि इसे सफल बनाएँ।

 

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