मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए सब कुछ न्यौछावर करने वाले देशभक्तों में महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) का नाम सदैव आदर के साथ लिया जायगा। वे मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए शत्रु की बड़ी से बड़ी शक्ति से निरंतर लोहा लेते रहे, किन्तु कठिन से कठिन परिस्थिति आने पर भी हार नहीं मानी। वे महाराणा संग्राम सिंह जैसे शूर-वीर, साहसी, देशभक्त के पौत्र थे, जिन्होंने बाबर के साथ युद्ध किया था।
राणा प्रताप के पिता मेवाड़ के राणा उदय सिंह थे। पत्राबाई धाय के त्याग के बारे में सब लोग जानते हैं। पत्राबाई ने उदय सिंह के प्राणों की रक्षा के लिए उसके स्थान पर अपने शिशु पुत्र को सुला दिया था। शत्रु ने उसे राणा संग्राम सिंह का पुत्र समझकर उसका वध कर दिया था। पत्राबाई उदय सिंह को टोकरी में छिपाकर बचा लायी थी।
उदय सिंह के शासन काल में मुगल बादशाह अकबर ने 1567 ई. में मेवाड़ पर चढ़ाई करके चित्तौड़ को जीत लिया था। पर राणा उदय सिंह ने चित्तौड़ को पुनः प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया। राजस्थान में उदयपुर नगर राणा उदय सिंह का ही बसाया हुआ है। उदय सिंह ने 1572 ई. तक उदयपुर पर राज्य किया।
उदय सिंह विलासी स्वभाव के व्यक्ति थे। राणा प्रताप उनके पुत्रों में सब से तेजस्वी थे। किन्तु उदय सिंह ने ज्येष्ठ पुत्र प्रताप को अपनी राज गद्दी का उत्तराधिकारी न बना कर विलासी पुत्र जगपाल को गद्दी सौंप दी। मेवाड़ की जनता उदयसिंह के कारनामें देख चुकी थी, जिसने शत्रु से अपने हारे हुए दुर्ग जीतने का प्रयत्न न करके उदयपुर में विलासी जीवन बिताया था। वह और अपमान सहन करने के लिए तैयार नहीं थी। उसने जगपाल को स्वीकार नहीं किया और 3 मार्च 1572 ई० को महाराणा प्रताप को गद्दी पर आसीन कर दिया। महाराणा प्रताप का जन्म 31 मई 1539 ई० को हुआ था। वे जीवन भर संघर्ष करते हुए 19 जनवरी 1597 तक गद्दी पर रहे।
बादशाह अकबर उस समय सबसे दौलतमंद बादशाह था। उसने चढ़ाई करके उदयसिंह से चित्तौड़ गढ़ पहले ही ले लिया था। राजपूतों की शक्ति को समाप्त करने के लिए अकबर ने बड़ी कूटनीति से काम लिया। उनमें से किसी के साथ शादी-विवाह के सम्बन्ध स्थापित किये और कुछ को अन्य तरीकों से अपनी ओर मिलाया। एक प्रसिद्ध इतिहासकार सेंट स्मिथ ने लिखा है- मुगल अकबर ने प्रताप के विरुद्ध उसी के सहधर्मियों को खड़ा कर दिया। यहाँ तक कि मारवाड़, आमेर, बीकानेर और बूंदी जो कल तक प्रताप के पक्के मित्र थे, उन्होंने भी अकबर के पक्ष का समर्थन किया। किन्तु इस पर भी राणा प्रताप ने अपने छोटे राज्य के साधनों से संसार के उस समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से लोहा लिया।
हल्दी घाटी का युद्ध
जब महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की तब अकबर ने आमेर के राजा मानसिंह तथा आसफ खाँ के नेतृत्व में सन् 1576 में अपनी बहुत बड़ी सेना राणा प्रताप को परास्त करने के लिए भेज दी। यह युद्ध जून 1576 की भयंकर गर्मी में गोलकुण्डा के निकट हल्दीघाटी के मैदान में हुआ। हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा के प्रिय और बहादुर घोड़े चेतक की वीरता की गाथा असर है। वीर रस के सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री श्यामनारायण पाण्डेय का खण्ड काव्य “हल्दी घाटी” पढ़कर हमें इस युद्ध की सजीव झाँकी मिल सकती है।
हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप ने अत्यन्त बहादुरी के साथ शत्रु सेना का सामना किया। किन्तु शत्रु के अच्छे हथियारों और अधिक सैनिकों के कारण उन्हें हारना पड़ा। राणा को पहाड़ों के छाँओद नामक दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। शाही सेना ने उनके कई किलों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद भी राणा प्रताप ने बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए मृत्युपर्यन्त लड़ते रहे। 19 जनवरी 1576 ई० को उनकी मृत्यु हुई। तब तक उन्होंने अपने कई गढ़ों पर वापस अधिकार प्राप्त कर लिया था। वे अकेले राजपूत थे जो सदा स्वतन्त्र रहे और अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए शक्तिशाली सेना से टक्कर लेते रहे। महाराणा के चरित्र से छत्रपति शिवाजी ने प्रेरणा ली। स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों के लिए भी महाराणा प्रेरणा के स्रोत थे।
वे कभी हार न मानने वाले योद्धा तो थे ही साथ ही बड़े उदार मानव भी थे। वे अपने राज्य के सभी लोगों के प्रति स्नेह और आदर का व्यवहार करते थे। सबके सुख-दुख में साथ देते थे। वे इतने लोकप्रिय थे कि कोल-भीलों ने राणा के संकट के क्षणों में अपने प्राणों की परवाह न करते हुए उनका साथ दिया। जब वे अपने परिवार और मित्रों के साथ जंगलों की खाक छान रहे थे तब वहाँ की जन-जातियों ने उनकी तन-मन-धन से सेवा करने का संकल्प लिया।
महिलाओं का सम्मान
शहंशाह अकबर के सेनापति थे अब्दुल रहीम खानखाना। उन्होंने महाराणा प्रताप के ऊपर चढ़ाई कर दी। पर महाराणा और उनके वीर साथियों की वीरता के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। अकबर के सेनापति का रनिवास और उनकी सेविकाएँ पीछे छूट गयीं। महाराणा के पुत्र अमरसिंह ने सेनापति की पत्नी और उनकी परिचारिकाओं को बन्दी बना लिया और महाराणा जी के सामने प्रस्तुत किया।
महाराणा को पुत्र के इस कार्य से बड़ा दुःख पहुंचा। उन्होंने पुत्र को इस कार्य के लिए धिक्कारा और डाँटा। उन्होंने कहा कि हमारी लड़ाई शत्रु से है, न कि इन नारियों से। पुत्र को आदेश दिया कि इन्हें ससम्मान वापस इनके पति के पास पहुँचा कर आइये। हम आज इस स्थिति में नहीं हैं कि इन्हें बहुमूल्य उपहार देकर भेज सकें, इसका दुख है। पर यथा सम्भव जो भी मूल्यवान वस्तुएँ उनके पास थीं उनका उपहार देकर महाराणा ने उन महिलाओं से क्षमा माँगी और उनको ससम्मान वापस भेजा। यही सेनापति अब्दुल रहीम खानखाना हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि थे। महाराणा की इस उदारता ने उनके हृदय को बहुत प्रभावित किया।
वीर धर्म का सम्मान
महाराजा के उदात्त चरित्र की झलक एक अन्य घटना से मिलती है। जहाँगीर के चाचा थे सेनापति सेरिमा सुल्तान। युद्ध के दौरान महाराजा के पुत्र अमरसिंह ने उन्हें बरछी से मारा। सेरिमा सुल्तान बहुत बहादुर सेनापति था। उसने कहा- मैं उस बहादुर को देखना चाहता हूँ, जिसने मुझे आहत किया। उसने अन्य किसी के हाथ का पानी पीना स्वीकार नहीं किया और कहा वह मुझे गंगा जल लाकर पिलाये ऐसा संदेश भेज दीजिए। महाराणा प्रताप ने सुना तो कुछ चिंतित हुए। उनके साथियों ने भी कहा कि इसमें दुश्मन की कोई चाल हो सकती है। किन्तु महाराणा ने कहा कि मरते हुए व्यक्ति की इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए। वे अमर सिंह के साथ गंगाजल लेकर गये। सेरिमा सुल्तान ने गंगाजल पीकर कहा कि मेरी बरछी अमर सिंह निकाल दें, मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है।
अमर सिंह बरछी निकालने में जोर लगाने के लिए पैर से सेरिमा की देह दबाने के लिए प्रस्तुत हुए, किन्तु तत्काल राणा ने उन्हें रोक दिया। वे पुत्र से बोले कि इस समय यह तुम्हारा शत्रु नहीं एक वीरगति को प्राप्त होने जा रहा योद्धा है, उसे पैर से स्पर्श करना वीर धर्म का अपमान है। अमर सिंह ने पिता के आदेश का पालन किया।
भामाशाह का योगदान
महाराणा प्रताप की लोकप्रियता का दूसरा उदाहरण है- उनके एक मन्त्री भामाशाह का राणा को अपना सर्वस्व समर्पण। पहाड़ों-जंगलों में भटकते हए जब राणा धनाभाव के कारण सैन्यबल और हथियार जुटा पाने में अपने को असमर्थ और असहाय पा रहे थे, उसी समय भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण जमापूँजी देकर उन्हें हिम्मत बँधाई और कहा कि इस धन से अब आगे की योजना बनायें और शत्रु पर विजय प्राप्त करें। महाराणा ने उन्हें बहुत समझाया कि यह सम्पत्ति आप के परिवार के लिए है। पर भामाशाह ने अपना दृढ़ निश्चय सुना दिया। तब महाराणा ने उसे संकट की घड़ी में दैवी वरदान समझ कर उस धन का उपयोग सैन्यबल जुटाने और उसे संगठित करने में किया। यह घटना उनकी लोकप्रियता और उनकी देशभक्ति के प्रति जननिष्ठा का प्रमाण है।
घास की रोटी भी छिन गयी
उनके जीवन की एक और घटना सबकी आँखें भिगो जाती है। राणा के परिवार को पहाड़ों और वनों में निर्वाह करते हुए कई दिन हो गये थे। जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के साधनों के अभाव में भी कठिन संघर्ष करते हुए स्वाभिमान के साथ वे दिन काट रहे थे। छोटी बच्ची को कई दिनों से केवल पानी पीकर रहना पड़ा था। कहाँ सुख सुविधाओं में पली वह राजकुमारी और कहाँ यह अभाव भरा जीवन। वह भूख से बेहाल हुई जा रही थी। स्वयं राणा और महारानी ने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था, पर बच्ची की भूख से व्याकुलता उनसे देखी नहीं जा रही थी। पर वे क्या करते? स्वाभिमान छोड़ देते तो सारा सुख वैभव चरणों पर न्योछावर होता लेकिन वीर पुरुष कठिन से कठिन परिस्थिति में भी झुकना नहीं जानते। स्वाभिमान उनके लिए प्राणों से भी अधिक मूल्यवान था। महारानी से बच्ची का रोना नहीं देखा जा रहा था। वे क्या करें कुछ समझ नहीं पा रही थीं।
इतने में उन्होंने देखा एक मृग-शावक हरी-हरी घास चर रहा है। घास खाकर वह कुलाँचें भरते हुए भाग गया। अचानक रानी के मन में एक विचार उठा और उन्होंने मुलायम-मुलायम घास तोड़कर उसे पत्थर पर पीस लिया और उसी की रोटी बनाकर बच्ची के हाथ में थमा दी। रोती बच्ची चुप हो गयी। वह घास की रोटी का कौर मुख में डालने जा ही रही थी कि एक जंगली बिलाव अचानक झपट्टा मारकर बच्ची के हाथ से रोटी छीनकर भाग गया। बच्ची जोर-जोर से चीख उठी। एक क्षण को महाराणा का हृदय काँप गया। पुत्री और पत्नी की आँखों के आँसू उनका संकल्प डगमगा टें इसके पहले ही महारानी ने उन्हें ढाँढ़स बंधाया। बच्ची भी पिता की मुखमुद्रा देखकर स्तब्ध होकर चुप हो गयी। महाराणा का दृढ़प्रतिज्ञ मन फिर से स्थिर हो गया और स्वाभिमान की रक्षा का अपना संकल्प उन्होंने पुनः पूरे विश्वास के साथ दुहराया। अंत में सत्य और साहस की विजय हुई। महाराणा के शौर्य की गाथाएँ अमर हुई।
महाराणा प्रताप का जीवन उनके उज्ज्वल चरित्र, उनके अविचल धैर्य और महान स्वतन्त्रता प्रेम की कहानी कहता है।
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