खेड़ा सत्याग्रह (Kheda Satyagraha)
किसानों के पक्ष में गांधी जी ने दूसरी बार हस्तक्षेप गुजरात के खेड़ा जिले में किया। यहाँ पर उनकी सत्याग्रह की तकनीक को वास्तव में एक इम्तहान से गुजरना पड़ा। खेड़ा अधिक उपजाऊ क्षेत्र था और यहाँ पर उगने वाली खाद्य फसलों, तंबाकू, और रुई को अहमदाबाद में एक सुलभ बाजार प्राप्त था। यहाँ पर कई धनी किसान थे जो कि पट्टीदार कहलाते थे। इसके अतिरिक्त कई छोटे किसान और भूमिहीन कृषक भी यहाँ पर रहते थे।
1917 में अधिक बारिश के कारण खरीफ की फसल को नुकसान हआ। इसी समय मिट्टी का तेल, लोहा, कपड़ों और नमक की कीमतों में भी वद्धि हुई जिसने कि किसानों के जीवन स्तर को प्रभावित किया। किसानों ने इस समय यह मांग की कि पूरी फसल न होने के कारण लगान माफ किया जाए। लगान कानून के अंतर्गत ऐसा प्रावधान मौजूद था कि यदि कुल उपज सामान्य उपज के मुकाबले केवल 25 प्रतिशत हो तो पूरा लगान माफ किया जा सकता था। बंबई के दो वकीलों, श्री वी.जे. पटेल और जी.के. पारख ने इस संबंध में छान-बीन की और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि उपज का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो चूका था, परंतु सरकार इससे सहमत नहीं थी। खेड़ा के कलेक्टर ने यह निर्णय लिया कि लगान माफ करने की मांग का कोई औचित्य नहीं है। सरकारी धारणा यह थी कि किसानों ने यह मांग नहीं कि थी वरन् इसके लिए उन्हें बाहर के लोगों ने भड़काया था जो कि होम रूल लीग और गुजरात सभा से संबंध रखते थे। गांधी जी स्वय इस समय गुजरात सभा के अध्यक्ष थे। सच्चाई यह थी कि यहाँ आदोलन प्रारंभ करने की पहल न तो गांधी जी ने ही की थी और न ही अहमदाबाद के राजनीतिज्ञों ने। यह मांग तो वास्तव में मोहन लाल पाण्डे जैसे स्थानीय गाँव के नेताओं ने उठायी थी।
छान-बीन करने के बाद गांधी जी ने यह धारणा व्यक्त की कि सरकारी अफसरों ने उपज का बढ़ा-चढ़ा कर मूल्य लगाया था और किसानों का यह वैध अधिकार था कि वे लगान न दें। इसमें उन्हें कोई सविधा नहीं प्रदान की जा रही थी लेकिन सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ हिचकिचाहट के बाद गांधी जी ने यह निर्णय लिया कि 22 मार्च, 1918 से सत्याग्रह का प्रारंभ नदियाद में एक सभा करके किया गया। इस सभा में गांधी जी ने किसानों को यह राय दी कि वे अपना लगान न दें। किसानों के उत्साह को बढ़ाने के लिए और उनके हृदय से सरकार का भय निकालने के लिए गांधी जी ने अनेक गाँवों का दौरा किया।
इम सत्याग्रह में इन्दुलाल याज्ञिक, बिट्ठल भाई पटेल और अनसुइया साराभाई ने भी गांधी जी की मदद की। 21 अप्रैल के दिन सत्याग्रह अपनी चरम सीमा पर पहुँचा। 2,337 किसानों ने यह शपथ ली कि वे लगान नहीं देंगे। अधिकांश पट्टाधारियों ने सत्याग्रह में हिस्सा लिया परन्तु सरकार ने अपनी दमनकारी नीति के द्वारा कुछ गरीब किसानों को लगान देने के लिए बाध्य किया। इस समय रबी की फसल अच्छी हुई जिससे कि लगान न देने का मुद्दा कुछ कमजोर पडा। गांधी जी यह समझने लगे थे कि किसान सत्याग्रह से थकने लगे हैं। जब सरकार ने यह आदेश जारी किया कि लगान की वसूली केवल उन्हीं किसानों से की जानी चाहिए जो कि उसको दे सकते हैं और गरीब किसानों पर इसके लिए दबाव नहीं डाला जाना चाहिए, तो गांधी जी ने सत्याग्रह को समाप्त करने की घोषणा की। वास्तव में इस सत्याग्रह का सब गाँवों पर समान असर नहीं पड़ा था। खेड़ा के 559 गांवों में से केवल 70 गाँवों में ही यह सफल रहा था और यही कारण था कि गांधी जी ने केवल थोडी सी रियायत मिलने पर ही सत्याग्रह वापस ले लिया था लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इस सत्याग्रह के द्वारा गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र में गांधी जी के सामाजिक आधार का विकास हुआ था।
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