Biography of Dr. Pitamber Dutt Barthwal

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल की जीवनी (Biography of Dr. Pitamber Dutt Barthwal)

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डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (Dr. Pitamber Dutt Barthwal)

Dr. Pitamber Dutt Barthwalडॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (Dr. Pitamber Dutt Barthwal)
जन्म 13 दिसम्बर, 1901
जन्म स्थान  लैंसडौन के कौड़िया पट्टी के पाली ग्राम में
मृत्यु  24 जुलाई, सन 1944
हिन्दी साहित्य के विषय को लेकर ‘डॉक्टरेट’ की डिग्री पाने वाले प्रथम भारतीय व्यक्ति 

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (Dr. Pitamber Dutt Barthwal) का जन्म लैंसडौन के कौड़िया पट्टी के पाली ग्राम में 13 दिसम्बर, 1901 को हुआ था। इनके पिता श्री गौरी दत्त बड़थ्वाल ज्योतिषी तथा कर्मकांडी ब्राह्मण थे। प्रारम्भ में इन्होंने घर पर ही अपने पिता से संस्कृत का अध्ययन किया। फिर समीपवर्ती एक विद्यालय में कुछ समय तक अध्ययन करने के बाद ये गवर्नमेंट हाईस्कूल श्रीनगर में प्रविष्ट हो गये। कुछ वर्षों बाद इन्हें लखनऊ जाना पड़ा और वहाँ कालीचरण हाई स्कूल से सन 1920 में इन्होंने हाईस्कूल की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। इण्टरमीडियेट के लिए ये कानपुर गये और वहां सन 1922 में इन्होंने डी० ए० वी० कॉलेज से एफ० ए० परीक्षा उत्तीर्ण की।  तदुपरान्त इन्होंने बनारस विश्वविद्यालय में नाम लिखाया ही था कि इनके पिता का देहान्त हो गया और स्वयं इनका स्वास्थ्य बिगड़ गया; इसलिये इन्होंने लगभग दो वर्ष तक अपने गांव में ही विश्राम किया।

फिर दो वर्ष बाद ये बनारस विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुये और सन 1926 में इन्होंने बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की । सौभाग्य से उन्हीं दिनों हिन्दी में एम० ए० कक्षा प्रारम्भ हुई और ये उसके सर्वप्रथम दल में सम्मिलित हुए। श्री श्यामसुन्दर दास उन दिनों हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष थे; वे इन्हें कालीचरण हाईस्कूल से ही जानते थे। इन्होंने सन 1928 में एम० ए० परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। उस परीक्षा के लिये इन्होंने “छायावाद” पर एक विस्तृत तथा विद्वतापूर्ण निबन्ध लिखा था, जिसके कारण श्री श्यामसुन्दर दास इन पर और भी प्रसन्न हुये। वे उसे विश्वविद्यालय की ओर से छपाना चाहते थे, लेकिन विधान में वैसा कोई नियम न होने के कारण वह छपाया न जा सका । अतः इन्हें पुरस्कार-स्वरूप हिन्दी-विभाग के अन्तर्गत शोध-कार्य (रिसर्च) पर नियुक्त कर दिया गया और ये जम कर कार्य करने लगे। दो वर्ष के बाद सन 1930 में इन्हें उसी विभाग में शिक्षक (लेक्चरर) का पद मिल गया। उससे पहले सन 1929 में ये एल० एल० बी० परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो चुके थे। यहाँ से इनकी हिंदी साहित्य सेवा का वास्तविक कार्य प्रारम्भ हुआ। 

अध्ययन-कार्य से इन्हें जितना भी समय मिलता था उसे ये शोध-कार्य पर लगाते रहे। इनकी उस अध्ययनशीलता को देखकर ही काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने इन्हें अपने खोज-विभाग के अवैतनिक संचालक (ऑनरेरी सुपरिन्टेन्डेन्ट, सर्च ऑफ़ हिन्दी मैनसक्रिप्ट्स) भी नियुक्त किया । ये उस पद पर कई वर्षों तक रहे तथा इनके संचालकत्व में उस विभाग ने सहस्त्रों महत्वपूर्ण ग्रन्थों का पता लगाया तथा उनकी परिचय तालिकाएँ तैयार की; वे सब सभा के संग्रहालय में वैज्ञानिक ढंग पर सुरक्षित हैं। 

उपरोक्त शोध-संचालन के साथ-साथ ये स्वयं भी ‘डॉक्टरेट’ की तैयारी करते रहे। 2-3 वर्ष के परिश्रम के बाद इन्होंने सन 1931 में अपना निबन्ध (थीसिस) “हिन्दी काव्य में निगुणवाद” विश्वविद्यालय को समर्पित किया। परीक्षक (ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के उर्दू-हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ० टी० ग्राहम बेली; प्रयाग विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के अध्यक्ष प्रो० रामचन्द्र दत्तात्रेय रानाडे और श्री श्यामसुन्दर दास) अकेले डा० बेली ने राय दी कि वह निबंध पी०एच०डी० डिग्री के लिये ही उपयुक्त है; इस पर इन्होंने उसे वापिस ले लिया और फिर दुबारा कुछ दिनों तक अध्ययन करने के बाद संशोधित व परिवर्तित रूप में उसे प्रस्तुत किया। अब की बार परीक्षकों ने उसे डी० लिट्० (डॉक्टर ऑफ लेटर्स (साहित्याचार्य)) की पदवी के लिए सर्वथा उपयुक्त बताया। अतः दिसंबर, 1933 ई० के दीक्षान्त समारोह में इन्हें वह पदवी प्रदान की गई।

शुद्ध हिन्दी साहित्य के विषय को लेकर ‘डॉक्टरेट’ पाने वाले ये सर्वप्रथम व्यक्ति थे; अतः सर्वत्र इनकी प्रसिद्धि फैल गई। ये हिन्दी के अधिकारपूर्ण विद्वानों की श्रेणी में गिने जाने लगे और जगह-जगह सभा-सम्मेलनों में इन्हें आदरपूर्वक आमंत्रित किया जाने लगा। 

रचनाओं का परिचय 

इन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। अपने दो वर्ष के अध्याय-काल में इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली से अपने आप को रोग मुक्त किया था; उन दिनों के अपने व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर तथा अनेक अंग्रेजी पुस्तकों का सहारा लेकर इन्होंने “प्राणायाम विज्ञान और कला” तथा “ध्यान से आत्म-चिकित्सा” पुस्तकें लिख कर प्रकाशित कराई।

उपरोक्त पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होंने “कबीर-ग्रंथांवली” तथा “रामचन्द्रिका” का सम्पादन किया । “गद्य-सौरभ” पुस्तक इन्होंने श्री रामचन्द्र शुक्ल के सहयोग से लिखी। अपने गुरु श्री श्यामसुन्दर दास के सहयोग से इन्होंने दो पुस्तकें प्रकाशित की “गोस्वामी तुलसीदास” और “रूपक-रहस्य”“गोरखबानी” का इन्होंने स्वतः सम्पादन किया तथा उसकी गवेषणा पूर्ण प्रस्तावना लिखी; उस पुस्तक में इन्होंने प्रसिद्ध समाज-सुधारक तथा पंथ-प्रणेता गुरु गोरखनाथ की जीवनी और “बाणियों” पर प्रकाश डाला है; अपने ढंग की यह एक बेजोड़ पुस्तक है। 

लेकिन जिस पुस्तक के कारण ये हिन्दी-साहित्य में अपना अक्षय स्थान सुरक्षित कर गए हैं और जिसके द्वारा इन्हें हिन्दी का सर्वप्रथम ‘डॉक्टर’’ होने का गौरव प्राप्त हुआ था, वह मूलतः अंग्रेजी में है- “दि निर्गुण स्कूल ऑफ हिंदी पोएट्री” उसके कुछ अंशों का हिंदी अनुवाद “हिन्दी काव्य में निर्गुण धारा” शीर्षक से इन्होंने स्वयं कर लिया था, लेकिन ये उसे प्रकाशित नहीं कर पाये। 

उपरोक्त प्रकाशित रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने और भी कई पुस्तकें तैयार कर ली थीं; लेकिन वे प्रकाशित नहीं हो पाई। उनमें इनके ‘थीसिस’ का हिंदी अनुवाद – “हिंदी काव्य में निर्गुण धारा” सबसे महत्वपूर्ण है। इसके सिवाय इन्होंने “कबीर की साखी और सर्वांगी”, “हरिदास जी की साखी”, “रैदास जी की साखी”, “हरिभक्त-प्रकाश”, और “सेवादास” के संपादित संस्करण तैयार कर लिए थे। “नेपाली साहित्य” का इन्होंने इतिहास तैयार किया था। गढ़वाल में गोरखा-शासन तथा यहाँ की वीरगाथाओं पर भी इन्होंने एक पुस्तक तैयार की थी । इनके अतिरिक्त कुछ अंग्रेजी निबंध भी इनके अप्रकाशित रह गये।

अपने प्रदेश की सेवा 

डा० बड़थ्वाल ने उपरोक्त प्रकार विस्तृत हिन्दी-संसार की सेवा की, लेकिन ये अपनी मातृ प्रदेश गढ़वाल को नहीं भूले। श्रीनगर के स्कूली जीवन में इन्होंने ‘मनोरंजनी’ नामक एक हस्तलिखित पत्रिका का सम्पादन किया था। कानपुर के विद्यार्थी-जीवन में इन्होंने पर्वतीय छात्रों की ओर से निकलने वाली “हिलमैन” शीर्षक से अंग्रेजी पत्रिका का सम्पादन किया। 

ये स्थानीय समाचार-पत्रों में गढ़वाल की विभिन्न समस्याओं पर विचार पूर्ण लेख भी लिखा करते थे। विशेषकर श्री गिरिजा दत्त नैथाणी द्वारा संपादित मासिक ‘पुरुषार्थ’ के साथ इनका घनिष्ट सम्बन्ध था; उसमें ये अक्सर लिखा करते थे। जिन दिनों ये सन 1922 से सन 1924 तक अस्वास्थ्य के कारण विश्राम कर रहे थे, उन दिनों इन्होंने कुछ महीनों तक उसका सारा सम्पादन-भार स्वयं निभाया। उन दिनों इन्होंने उस समाचार-पत्र को गढ़वाल का ही नहीं, बल्कि सारे हिंदी-संसार का एक प्रमुख पत्र बनाने का प्रयत्न किया। उसमें इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र तथा साहित्य आदि पर इनके कई विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित हुये। 

गढ़वाल के पंवाड़ों (वीर-गाथाओं ), तंत्र-मंत्र, प्राम-गीत व इतिहास का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था और उन पर एक पुस्तक भी तैयार कर ली थी। इनका विचार उन वीर-गाथाओं के आधार पर “वेभरली नौवल्स”की तरह के उपन्यास लिखने का था; इन्होंने “विशुद्धानन्द” उपनाम से इस तरह के कुछ कथानक तैयार भी किये थे । इस ओर इन्होंने श्रीनगर के अपने विद्यार्थीजीवन में ही कार्य प्रारम्भ कर दिया था। वे पंवाड़ों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से सम्पादन करना चाहते थे। इन्होंने स्थानीय कथानकों के आधार पर गढ़वाली भाषा में कुछ नाटक भी लिखे थे । इन कार्यों के लिये ये कई केन्द्रों में गये थे और यहाँ के अनेक वृद्ध साहित्यिकों से इन्होंने विचार-विनियम किया था । “उत्तराखंड में संत-मत और संत-साहित्य” शीर्षक निबन्ध इन की उसी खोज का परिणाम था। 

जीवन के अंतिम क्षण 

लखनऊ विश्वविद्यालय में लेक्चररी का पद से फरवरी, सन 1944 ई० में ये छुट्टी लेकर घर आये, तब फिर वापिस नहीं जा सके; कई बीमारियों ने इन्हें एक साथ घेर लिया; औषधोपचार चलता रहा, लेकिन तथ्य यह है कि आर्थिक संकट और मानसिक चिंताओं के कारण जमकर इलाज नहीं हो पाया और हालत बिगड़ती ही चली गई। आखिर 24 जुलाई, सन 1944 ई० को अपने पितृस्थान पाली में इनकी अमर आत्मा ने इस नश्वर मानवीय चोले से विदाई ले ली ।

 

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