श्रृंगार रस (Shringar Ras)
- नायक-नायिका के सौन्दर्य एवं प्रेम संबंधी वर्णन की सर्वोच्च (परिपक्व) अवस्था को श्रृंगार रस कहा जाता है।
- श्रृंगार रस को रसों का राजा/रसराज कहा जाता है।
श्रृंगार रस के अवयव (उपकरण)
- श्रृंगार रस का स्थाई भाव – रति।
- श्रृंगार रस का आलंबन (विभाव) – नायक और नायिका ।
- श्रृंगार रस का उद्दीपन (विभाव) – आलंबन का सौदर्य, प्रकृति, रमणीक उपवन, वसंत-ऋतु, चांदनी, भ्रमर-गुंजन, पक्षियों का कूजन आदि।
- श्रृंगार रस का अनुभाव – अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, अश्रु आदि।
- श्रृंगार रस का संचारी भाव – हर्ष, जड़ता, निर्वेद, अभिलाषा, चपलता, आशा, स्मृति, रुदन, आवेग, उन्माद आदि।
श्रृंगार रस के उदाहरण –
दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माही ।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।।
राम को रूप निहारित जानकि कंकन के नग की परछाही ।
यातें सबै भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं। (तुलसीदास)
श्रृंगार के भेद (Shringar ke bhed)
श्रृंगार के दो भेद होते हैं-
- संयोग श्रृंगार
- वियोग श्रृंगार
(i) संयोग श्रृंगार – नायक-नायिका की संयोगावस्था का वर्णन करने वाले श्रृंगार को संयोग श्रृंगार कहा जाता है, यहाँ पर संयोग का अर्थ ‘सुख की प्राप्ति’ से है।
उदाहरण –
(1) बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
सौंह करे, भौंहनि हँसे, दैन कहै, नटि जाए। (बिहारी)
(2) थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥ (रामचरितमानस)
(3) एक पल, मेरे प्रिया के दृग पलक
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय संबन्ध था।। (सुमित्रानंदन पंत)
(4) लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सुहाए।।
थके नयन रघुपति छबि देखे।
पलकन्हि हूँ परिहरी निमेषे।।
अधिक सनेह देह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।। (तुलसीदास)
(5) दुलह श्रीरघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माही।
गावति गीत सखै मिलि सुन्दरी, बेद गुवा जुरि विप्र पढ़ाही।
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाही।
यतै सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाहीं। (तुलसीदास)
(6) देखि रूप लोचन ललचाने
हरषे जनु निज निधि पहचाने
अधिक सनेह देह भई मोरी
सरद ससिहिं जनु वितवचकोरी। (तुलसीदास)
(7) मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। (मीराबाई)
(ii) वियोग श्रृंगार – इस प्रकार के श्रृंगार में नायक-नायिका की वियोगावस्था का वर्णन किया जाता है,
उदाहरण –
(1) निसिदिन बरसत नयन हमारे
सदारहित पावस ऋतु हम पै
जब ते स्याम सिधारे।। (सूरदास)
(2) चलत गोपालन के सब चले
यही प्रीतम सौ प्रीति निरंतर, रहे ने अरथ चले। (सूरदास)
(3) रे मन आज परीक्षा तेरी !
सब अपना सौभाग्य मनावें।
दरस परस निःश्रेयस पावें।
उद्धारक चाहें तो आवें।
यहीं रहे यह चेरी ! (मैथिलीशरण गुप्त)
(4) गोपालहीं पावौ धौ किहि देस।
सिंगी मुद्राकर खप्पर लै, करि हौ, जोगिनी भेस। – (सूरदास)
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