वीर रस (Veer Ras)
- उत्साह नामक स्थाई भाव जब विभवादि के संयोग से परिपक्व होकर रस रूप में परिणत होता है, तब उसे वीर रस कहा जाता है।
- वीर रस से ही अद्भुत रस की उत्पत्ति बतलाई गई है। वीर रस का ‘वर्ण’ ‘स्वर्ण’ अथवा ‘गौर’ तथा देवता इन्द्र कहे गये हैं।
वीर रस के अवयव (उपकरण)
- वीर रस का स्थाई भाव − उत्साह।
- वीर रस का आलंबन (विभाव) −अत्याचारी शत्रु।
- वीर रस का उद्दीपन (विभाव) − शत्रु का पराक्रम, शत्रु का अहंकार, रणवाद्य, यश की इच्छा आदि।
- वीर रस का अनुभाव − कम्प, धर्मानुकूल आचरण, पूर्ण उक्ति, प्रहार करना, रोमांच आदि।
- वीर रस का संचारी भाव − आवेग, उग्रता, गर्व, औत्सुक्य, चपलता, धृति, मति, स्मृति, उत्सुकता आदि।
वीर रस के प्रकार
वीर रस चार प्रकार के होते हैं-
- युद्धवीर
- धर्मवीर
- दानवीर
- दयावीर
जैसे – मानव समाज में अरूण पड़ा, जल जन्तु बीच हो वरुण पड़ा। इस तरह भभकता राणा था मानों सर्पों में गरुड़ पड़ा।
युद्धवीर रस
- युद्धवीर का आलम्बन शत्रु, उद्दीपन शत्रु के पराक्रम इत्यादि, अनुभाव गर्वसूचक उक्तियाँ, रोमांच इत्यादि तथा संचारी धृति, स्मृति, गर्व, तर्क इत्यादि होते हैं।
उदाहरण –
‘निकसत म्यान तै मयूखै प्रलै भानु कैसी, फारे तमतोम से गयन्दन के जाल को।
लागति लपटि कण्ठ बैरिन के नागिन सी, रुद्रहिं रिझावै दै दै मुण्डनि के माल को।
लाल छितिपाल छत्रसाल महाबाहु बली, कहाँ लौं बखान करौ तेरी करबालको।
प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि, कालिका-सी किलक कलेऊ देति कालको।’
दानवीर रस
- दानवीर के आलम्बन तीर्थ, याचक, पर्व, दानपात्र इत्यादि तथा उद्दीपन अन्य दाताओं के दान, दानपात्र द्वारा की गई प्रशंसा इत्यादि होते हैं। याचक का आदर-सत्कार, अपनी दातव्य-शक्ति की प्रशंसा इत्यादि अनुभाव और हर्ष, गर्व, मति इत्यादि संचारी हैं।
उदाहरण –
‘जो सम्पत्ति सिव रावनहिं दीन दिये दस माथ।
सो सम्पदा विभीषनहिं सकुचि दीन्ह रघुनाथ।’
दयावीर रस
- दयावीर के आलम्बन दया के पात्र, उद्दीपन उनकी दीन, दयनीय दशा, अनुभाव दयापात्र से सान्त्वना के वाक्य कहना और व्यभिचारी धृति, हर्ष, मति इत्यादि होते हैं।
उदाहरण –
‘पापी अजामिल पार कियो जेहि नाम लियो सुत ही को नरायन।
त्यों पद्माकर लात लगे पर विप्रहु के पग चौगुने चायन।
को अस दीनदयाल भयो। दसरत्थ के लाल से सूधे सुभायन।
दौरे गयन्द उबारिबे को प्रभु बाहन छाड़ि उपाहने पायन।’
धर्मवीर रस
- धर्मवीर में वेद शास्त्र के वचनों एवं सिद्धान्तों पर श्रद्धा तथा विश्वास आलम्बन, उनके उपदेशों और शिक्षाओं का श्रवण-मनन इत्यादि उद्दीपन, तदनुकूल आचरण अनुभाव तथा धृति, क्षमा आदि धर्म के दस लक्षण संचारी भाव होते हैं। धर्मधारण एवं धर्माचरण के उत्साह की पुष्टि इस रस में होती है।
उदाहरण –
‘रहते हुए तुम-सा सहायक प्रण हुआ पूरा नहीं।
इससे मुझे है जान पड़ता भाग्यबल ही सब कहीं।
जलकर अनल में दूसरा प्रण पालता हूँ मैं अभी।
अच्युत युधिष्ठिर आदि का अब भार है तुम पर सभी।’
वीर रस के उदाहरण –
बुन्देलों हरबोलो के मुह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ (सुभद्राकुमारी चौहान)
सौमित्रि से घननाद का रव अल्प भी न सहा गया।
निज शत्रु को देखे विना, उनसे तनिक न रहा गया।
रघुवीर से आदेश ले युद्धार्थ वे सजने लगे।
रणवाद्य भी निर्घाष करके धूम से बजने लगे। (श्यामनारायण पांडेय)
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