Oldest inhabitants of Uttarakhand

उत्तराखण्ड के प्राचीनतम निवासी (Oldest inhabitants of Uttarakhand)

उत्तराखण्ड के आदि निवासी

प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ग्रियर्सन का मत है कि गढ़वाल तथा कुमाऊँ के आदि निवासी किरात थे। प्राचीन ग्रन्थों में पतित पावनी गंगा नदी एवं जगत माता दुर्गा, पार्वती को भी ‘किराती’ नाम से सम्बोधित किया है। संस्कृत ‘कृ’ तथा ‘अत्’ से किरात शब्द बना है। अतः स्पष्ट है कि यह किरात शब्द भौगोलिक नाम का द्योतक है। पर्वतीय क्षेत्र में गंगा की घाटियों के निवासी किरात कहलाते थे। चौथी सदी ईसा पूर्व के जग-विख्यात यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी रचना में इस क्षेत्र में किरात जाति का होना वर्णित किया है।

महाभारत-सभा–पर्व अध्याय 4, वन–पर्व अध्याय 51 तथा भीष्म-पर्व अध्याय 9 में किरात जाति के सम्बन्ध में सम्मानित वर्णन मिलता है। महाकवि कालिदास कृत ‘रघुवंश’ महाकाव्य के अध्याय 4/76 में इस पर्वतीय क्षेत्र में किरात निवासियों का वर्णन है। ‘मत्स्य पुराण’ एवं ‘मार्कण्डेय पुराण’ में भी यहाँ के किरात राज्य एवं किरात भूमि का वर्णन आता है। महाकवि बाणभट्ट कृत ‘कादम्बरी’ में किरात लोगों का इस भूखण्ड में निवास होना लिखा है। प्राचीन भूगोल शास्त्रज्ञ ‘बाराहमिहिर’ ने भी अपने ग्रन्थ ‘बाराही संहिता’ के अध्याय 14 में इन किरात लोगों का आवास बताया है।

महाभारत के ‘वन-पर्व अध्याय 140’ में वर्णित है कि पाण्डवगण गन्धमादन पर्वत (बद्रीनाथ) जाते समय मार्ग में सुबाहु नरेश की राजधानी में ठहरे थे जो आज श्रीनगर (गढ़वाल स्थित) नाम से प्रसिद्ध है एवं इस राज्य के निवासी किरात, तंगण तथा पुलिन्द थे –

“किरात तंगण कीर्ण पुलिन्द रात संकुलम् ।
हिमवत्य वरं जुष्टं पिकाश्चर्य समाकुलम।।”

रामचन्द्र जी के बनवास जाने पर उनके कुलगुरु वशिष्ठ जी इसी किरात भूमि ‘हिमदाव’ (हिंदाव, टिहरी गढ़वाल) में आकर यहाँ पर स्थित एक कन्दरा में अपनी पत्नी अरुन्धति के साथ कुछ काल तक रहे थे। बनवास के पश्चात् जब लक्ष्मण जी उन्हें लेने आए तो कुलगुरु ने इस क्षेत्र की महिमा का विशद् वर्णन करते हुए इसे शिवधाम बताया था।

अतः यह प्रमाणित हो जाता है कि यह क्षेत्र रामायण तथा महाभारत काल में किरात भूमि के रूप में प्रसिद्ध था। इन किरातों के अधिपति या जननायक की उपाधि शिवसिद्ध होती है जिसका विश्वस्त प्रमाण महाभारत के वन–पर्व में मिलता है। वन–पर्व अध्याय 36 में लिखा है कि इस क्षेत्र के मध्य स्थित श्रीनगर के निकट ही किरातात्मा महादेव शिवजी से पाण्डुपुत्र अर्जुन का तुमुल संग्राम हुआ था। इस घटना का विस्तृत वर्णन केदारखण्ड के (स्कन्दपुराण के अन्तर्गत) अध्याय 181 में भी किया गया है –

“किरातात्मा महादेव स्वबाणं प्रजाहारः
एव एव बभूवास्य फाल्गुनस्य शरस्तथा।
ततस्त्यक्त्वा तुतं भिल्लं किरातान्समपीडयत्
किराता समनुप्राप्ता असंख्यातास्तपोगीरेः।।
नाना शस्त्र प्रहरणः के चिल्लं गुडहस्तकाः।
सेना कैरातिकी दृष्ट्वा प्रजहासार्जुनस्तदा।।

इस वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह स्थान किरातों का मुख्य गढ़ था और यहीं पर असंख्य किरातों ने अपने नेता शिव के झन्डे के नीचे अर्जुन से युद्ध किया था। जिस स्थान पर यह युद्ध हुआ वहाँ आज ‘विल्लव केदार’ नामक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान बन गया है जो कि श्रीनगर से 6 मील के अन्तर पर अलकनन्दा के बाँए तट पर विद्यमान है। यह ‘शिव प्रयाग’ के नाम से भी विख्यात है तथा यहाँ पर प्राचीन शिवलिंग स्थापित है।

आचार्य कवि राजशेखर ने भी अपने ग्रन्थ ‘काव्य मीमांसा’ के भौगोलिक वर्णन में शिव के निवास स्थान का सुन्दर वर्णन किया है। किरात जाति के शौर्य एवं कान्तिमय व्यक्तित्व की भी इन्होंने भूरि-भूरि प्रशंसा की है –

“मार्गा पन्थानं प्रियांत्यक्ता दुराकृष्ठशिलीमुखम्।
स्थितं पन्थानं मा नृत्य कि किरात न पश्याति।।”

अतः सभी प्रामाणिक तथ्य यही सिद्ध करते हैं कि उत्तराखण्ड के आदि निवासी ‘किरात’ नाम से प्रसिद्ध थे। अब प्रश्न यह उठता है कि ये ‘किरात’ थे कौन? यदि सप्तसिन्धु को उत्तराखण्ड माना जाए तो किरात भी आर्य जाति के ही थे। वैदिक काल में ही आर्य लोग अपनी जन्मभूमि अर्थात उत्तराखण्ड से बाहर आकर चारों दिशाओं में फैलने लगे थे। आर्य सभ्यता के प्रसार हेतु इनमें से अधिकांश विद्वज्जन एवं धनुर्धारी वीर “कृणवन्तों विश्वमार्यम्” का जयघोष करते हुए भारत एवं विश्व के विभिन्न स्थानों में गए। यहाँ के सभी लोगों को बाहर जाना सम्भव न था। जो लोग अपनी जन्मभूमि में ही रुक गए वही कालान्तर में ‘किरात’ कहलाये। इनमें वे प्रवासी भी शामिल हैं। जो वैदिक काल में अपने आदि स्थान को त्यागकर गए थे किन्तु मैदानी भागों में रोगग्रस्त हो गये। इस कारण उन्हें पुनः अपनी जन्मभूमि उत्तराखण्ड को लौटना पड़ा।

जब किरात जाति का पर्वतीय क्षेत्रों में प्रसार हुआ तो कोल जाति को या उसका ग्रामसेवक बनना पड़ा अथवा अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा हेतु दुर्गम व बीहड़ पठारों, उच्च पर्वतीय ढालों या भोटांतिक प्रदेश की उन संकीर्ण निर्जन घाटियों में शरण लेनी पड़ी जिनसे आगे बढ़ने का मार्ग भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित हिमाच्छादित श्रेणियाँ रोके हुए हैं। कुछ समय पश्चात् पश्चिम की ओर से खश जाति ने हिमालय के उत्तम चराई क्षेत्रों से किरात जाति को उत्तर की दुर्गम घाटियों की ओर धकेल दिया। वहाँ पहले से ही बसी हुई कोल जाति को उनसे अधिक शक्तिवान किरात जाति ने आमूल नष्ट कर दिया।

किरात जाति पशुचारक व आखेटक जाति थी। वह भेड़ें पालती एवं काले कम्बल की गाती से शरीर ढकती थीं। हाथ में धनुष-बाण लिए हुए तथा कमर में कटार खोंस कर वह वनों में आखेट करती थीं। जब लघु हिमालय के पठारों में किरात लोगों का पूर्ण प्रसार हो गया तो कई शताब्दियों पश्चात् पश्चिम में ईरान व अफगानिस्तान से ‘दरद’ तथा ‘खश’ नामक पशुचारक जातियों की टोलियों ने ‘दरदिस्तान’ व कश्मीर के रास्ते पूर्व की ओर से लघु हिमालय के पठारों पर आगमन प्रारम्भ कर दिया। ‘खश’ जाति भी पशुचारक, आखेटक एवं वीर जाति थी। अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु इस जाति को बेबीलोनिया, एशिया माइनर, ईरान व अफगानिस्तान में अपने शत्रुओं से निरन्तर संघर्ष करना पड़ा। ‘खश’ जाति की प्रतिद्वन्द्विता में ‘किरात’ टिक न सके। शनैःशनैः ‘खश’ लोगों ने किरातों के अच्छे चारागाहों को छीनकर कश्मीर, कांगड़ा, हिमांचल, गढ़वाल, कुमाऊँ तथा पश्चिमी नेपाल में स्थित लघु हिमालय की ढालों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

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