Hindi Notes - Page 2

श्रृंगार रस (Shringar Ras)

श्रृंगार रस (Shringar Ras)

  • नायक-नायिका के सौन्दर्य एवं प्रेम संबंधी वर्णन की सर्वोच्च (परिपक्व) अवस्था को श्रृंगार रस कहा जाता है।
  • श्रृंगार रस को रसों का राजा/रसराज कहा जाता है।

श्रृंगार रस के अवयव (उपकरण)

  • श्रृंगार रस का स्थाई भाव – रति।
  • श्रृंगार रस का आलंबन (विभाव) – नायक और नायिका ।
  • श्रृंगार रस का उद्दीपन (विभाव) – आलंबन का सौदर्य, प्रकृति, रमणीक उपवन, वसंत-ऋतु, चांदनी, भ्रमर-गुंजन, पक्षियों का कूजन आदि।
  • श्रृंगार रस का अनुभाव – अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, अश्रु आदि।
  • श्रृंगार रस का संचारी भाव – हर्ष, जड़ता, निर्वेद, अभिलाषा, चपलता, आशा, स्मृति, रुदन, आवेग, उन्माद आदि।

श्रृंगार रस के उदाहरण –  

दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माही ।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।।
राम को रूप निहारित जानकि कंकन के नग की परछाही ।
यातें सबै भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं। (तुलसीदास)

श्रृंगार के भेद (Shringar ke bhed)

श्रृंगार के दो भेद होते हैं-

  • संयोग श्रृंगार
  • वियोग श्रृंगार

(i) संयोग श्रृंगार – नायक-नायिका की संयोगावस्था का वर्णन करने वाले श्रृंगार को संयोग श्रृंगार कहा जाता है, यहाँ पर संयोग का अर्थ ‘सुख की प्राप्ति’ से है।
उदाहरण –
(1) बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
सौंह करे, भौंहनि हँसे, दैन कहै, नटि जाए। (बिहारी)

(2) थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥ (रामचरितमानस)

(3) एक पल, मेरे प्रिया के दृग पलक
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय संबन्ध था।। (सुमित्रानंदन पंत)

(4) लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सुहाए।।
थके नयन रघुपति छबि देखे।
पलकन्हि हूँ परिहरी निमेषे।।
अधिक सनेह देह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।। (तुलसीदास)

(5) दुलह श्रीरघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माही।
गावति गीत सखै मिलि सुन्दरी, बेद गुवा जुरि विप्र पढ़ाही।
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाही।
यतै सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाहीं। (तुलसीदास)

(6) देखि रूप लोचन ललचाने
हरषे जनु निज निधि पहचाने
अधिक सनेह देह भई मोरी
सरद ससिहिं जनु वितवचकोरी। (तुलसीदास)

(7) मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। (मीराबाई)

(ii) वियोग श्रृंगार – इस प्रकार के श्रृंगार में नायक-नायिका की वियोगावस्था का वर्णन किया जाता है,
उदाहरण –
(1) निसिदिन बरसत नयन हमारे
सदारहित पावस ऋतु हम पै
जब ते स्याम सिधारे।। (सूरदास)

(2) चलत गोपालन के सब चले
यही प्रीतम सौ प्रीति निरंतर, रहे ने अरथ चले। (सूरदास) 

(3) रे मन आज परीक्षा तेरी !
सब अपना सौभाग्य मनावें।
दरस परस निःश्रेयस पावें।
उद्धारक चाहें तो आवें।
यहीं रहे यह चेरी ! (मैथिलीशरण गुप्त)

(4) गोपालहीं पावौ धौ किहि देस।
सिंगी मुद्राकर खप्पर लै, करि हौ, जोगिनी भेस। – (सूरदास)

Read Also :

 

Read Also :

रस – हिन्दी व्याकरण

“विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। यह रस-दशा ही हृदय का स्थाई भाव है। रस का शाब्दिक अर्थ ‘आनन्द’ है। रस को काव्य की आत्मा कहा जाता है। 

उल्लेखनीय है कि रस का सर्वप्रथम उल्लेख ‘भरत मुनि’ ने किया है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में आठ प्रकार के रसों का वर्णन किया है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. श्रृंगार रस
  2. हास्य रस
  3. करुण रस 
  4. रौद्र रस
  5. वीर रस
  6. वीभत्स रस
  7. भयानक रस
  8. अद्भुत रस

रस के अंग (Parts of Ras)

रस की परिभाषा में प्रयुक्त शब्दों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है, जिन्हें रस का अंग भी कहा जाता है-

  1. विभाव
  2. अनुभाव
  3. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव
  4. स्थायी भाव

1. विभाव (Vibhav)

  • वह पदार्थ, व्यक्ति या बाह्य विकार जो अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक (भावावेश) करे उन कारणों को विभाव कहा जाता है।
  • भावों की उत्पत्ति के कारण विभाव माने जाते हैं।

विभाव के प्रकार (Types of Vibhav)

विभाव दो प्रकार के होते हैं- 1. आलंबन विभाव और 2. उद्दीपन विभाव

आलंबन विभाव (Aalamban Vibhav)

  • जिसका सहारा (आलंबन) पाकर स्थायी भाव जागते हैं उसे आलंबन विभाव कहते हैं; जैसे – नायक-नायिका।
  • आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं – आश्रयालंबन व विषयालंबन।
  • जिसके मन में भाव जगे उसे आश्रयालंबन एवं जिसके प्रति अथवा जिसके कारण मन में भाव जगे उसे विषयालंबन कहा जाता है;
    जैसे – यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे एवं सीता विषय

उद्दीपन विभाव (Uddipan Vibhav)

  • जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होता है, उसे उद्दीपन विभाव कहते हैं;
    जैसे – रमणीक उद्यान, एकांत स्थल, नायक नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ, चाँदनी आदि।

2. अनुभाव (Anubhav)

  • मनोगत भावों को व्यक्त करने वाले शारीरिक विकारों को अनुभाव कहा जाता है। अनुभावों की संख्या 8 बताई गई है-
    (i) स्तंभ (ii) स्वेद (ii) रोमांच (iv) स्वर-भंग (v) कम्प (vi) विवर्णता (रंगहीनता) (vii) अश्रु (viii) प्रलय (संज्ञा हीनता ) ।

3. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव (Sanchari adhva Vyabhichari Bhav)

  • मन में आने-जाने वाले (संचरण करने वाले) भावों को संचारी अथवा व्यभिचारी भाव कहा जाता है।
  • संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
    (1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय) (4) लज्जा (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका
    (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता)
    (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पन्न दुःख)
    (10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) शंका (15) दीनता
    (16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना)
    (19) धृति (चित्त की चंचलता का अभाव ) (20) मति (21) विबोध (चैतन्य लाभ)
    (22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति
    (28) मद (29) उन्माद (30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना)
    (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (33) मरण

4. स्थायी भाव (Sthayi Bhav)

  • स्थायी भाव का तात्पर्य होता है – प्रधान भाव
  • प्रधान भाव वह होता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है।
  • काव्य अथवा नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से अंत तक होता है।
  • स्थायी भावों की संख्या 9 बताई गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार होता है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतः रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें ‘नवरस’ कहा जाता है।
  • मूलतः नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों (वात्सल्यभगवद् विषयक रति) को स्थायी भाव की मान्यता दी। इस तरह स्थायी भावों की संख्या 11 हो गई और इसी अनुरूप रसों की संख्या भी 11 हो गई है।

रस के सभी अवयव

  • भावपक्ष
    • स्थायी भाव
    • संचारी भाव
  • विभावपक्ष
    • आलंबन
    • उद्दीपन
      • आन्तरिक चेष्टाएँ
      • बाह्य परिस्थितियाँ
    • आश्रय
      • कायिक
      • मानसिक
      • वाचिक
      • आहार्य
  • अनुभाव

रस के भेद (प्रकार) (Types of Ras)

  1. श्रृंगार रस (Shringar Ras)
  2. करुण रस (Karuna Ras)
  3. अद्भुत रस (Adbhut Ras)
  4. रौद्र रस (Raudra Ras)
  5. वीर रस (Veer Ras)
  6. हास्य रस (Hasya Ras)
  7. भयानक रस (Bhayanak Ras)
  8. वीभत्स रस (Vibhats Ras)
  9. शान्त रस (Shant Ras)
  10. वात्सल्य रस (Vatsalya Ras)
  11. भक्ति रस (Bhakti Ras)

 

Read Also :

अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

वाक्य 

शब्द 

जो शब्दों द्वारा व्यक्त न किया जा सके  अवर्णनीय 
जिसका कोई शत्रु न हो  अजातशत्रु 
ऊपर लिख हुआ  उपरिलिखित
जो उपकार मानता है  कृतज्ञ
अच्छे चरित्र वाला  सच्चरित्र
जो हर स्थान पर विद्यमान हो  सर्वव्यापक 
जिसे प्रतिष्ठा प्राप्त हो  प्रतिष्ठित 
संकट से ग्रस्त  संकटग्रस्त 
जहाँ रेत ही रेत हो  मरुभूमि 
पश्चिम से सम्बन्ध रखने वाला  पाश्चात्य 
पक्ष में एक बार होने वाला  पाक्षिक 
आलोचना करने वाला  आलोचक 
जो अपना प्रभाव दिखाने से न चूके  अचूक 
बड़ा भाई  अग्रज
छोटा भाई  अनुज 
जिसमें दया न हो  निर्दयी 
देश में भ्रमण  देशाटन 
जिसे गुप्त रखा जाए  गोपनीय 
किसी वस्तु में छोटी-छोटी त्रुटियाँ खोजने वाला  छिद्रान्वेषी
बहुत तेज चलने वाला द्रुतगामी
जो दो भाषाएँ जानता हो  दुभाषिया 
माँस न खाने वाले  निरामिष 
हाथ से लिखा हुआ  हस्तलिखित 
सबसे अधिक शक्ति वाला  सर्वशक्तिमान 
जिसके समान दूसरा न हो  अद्वितीय 
जहाँ पहुँचा न जा सके  अगम्य 
कण्ठ तक डूबा हुआ  आकण्ठ 
बुरे व्यक्ति द्वारा अत्याचार सहने वाला  पुरुषत्वहीन 
कसैले स्वाद वाला  काषाय 
देखने योग्य  दर्शनीय 
जिसका कोई न हो  अनाथ 
चित्र बनाने वाली स्त्री  चित्रकर्त्री 
फल-फूल या शाक भाजी खाने वाला  शाकाहारी 
युग का निर्माण करने वाला  युगनिर्माता 
माँस खाने वाला  माँसाहारी 
परदेश में रहने वाला  प्रवासी 
मद से अलसाई हुई स्त्री मदालसा 
ज्ञान देने वाली  ज्ञानदा 
सगा भाई  सहोदर 
छुटकारा दिलाने वाला  त्राता 
जिसके हाथ में वीणा हो  वीणापाणि 
जो शरण में आया हो  शरणागत 
मार्ग दिखाने वाला  पथप्रदर्शक 
बाद में मिलाया हुआ अंश  प्रक्षिप्त 
सप्ताह में एक बार होने वाला  साप्ताहिक
बुरे मार्ग पर चलने वाला  कुमार्गी
जो टुकड़े-टुकड़े हो गया हो  खण्डित 
उद्योग से सम्बंधित  औद्योगिक 
इतिहास का ज्ञाता  इतिहास 
जो सम्भव न हो सके  असम्भव 
जो इन्द्रियों के द्वारा न जाना जा सके  अगोचर 
जिसके आने की तिथि निश्चित न हो  अतिथि 
इस संसार से सम्बद्ध  ऐहिक 
जो दूसरों से ईर्ष्या करता हो  ईर्ष्यालु 
जो दिखाई न दे  अदृश्य 
जो पहले न पढ़ा गया हो  अपठित 
जो किसी से न डरे निडर
दूर की सोचने वाला  दूरदर्शी 
तत्त्व जानने वाला  तत्त्वज्ञ 
घूमने वाला व्यक्ति  घुमक्कड़ 
जिसका कोई आधार न हो  निराधार 
परिवार के साथ  सपरिवार 
दुखान्त नाटक  त्रासदी 
राजनीति से सम्बन्ध रखने वाला  राजनीतिक 
फेन (झाग) से भरा हुआ  फेनिल 
जिस स्त्री का विवाह हो गया हो  विवाहिता 
जहाँ तक हो सके  यथासाध्य 
जिसकी बहुत अधिक चर्चा हो  बहुचर्चित 
पत्तों से बनी हुई कुटिया  पर्णकुटी 
जो स्वयं पैदा हुआ हो  स्वयंभू 
युग का प्रवर्तन करने वाला  युगप्रवर्तक 
गोद लिया गया पुत्र  दत्तक 
आकाश चूमने वाला  गगनचुम्बी 
जिसमें जानने की इच्छा हो  जिज्ञासु 
जो निरन्तर प्रयत्नशील रहे  कर्मठ
जो स्वयं सेवा करता हो  स्वयंसेवक 
आँखों के सामने  प्रत्यक्ष 
प्रिय बोलने वाली  प्रियम्वदा 
विष्णु को मानने वाला  वैष्णव 
जो बात कही न गई हो  अनकही 
जो कहा न जा सके  अकथनीय 
दूसरी जाति का  विजातीय 
मृग के समान आँखों वाली  मृगनयनी 
रचना करने वाला  रचयिता 
जिसका पति मर गया हो  विधवा 
जो किसी मुसीबत का अनुभव कर चुका हो  भुक्तभोगी 
जिसकी आशा न की गई हो  अप्रत्याशित 
जिसमें धैर्य न हो  अधीर 
जिसकी पत्नी मर गई हो  विधुर 
किसी उक्ति को पुनः कहना  पुनरुक्ति 
जो स्थिर रहे  स्थावर 
जो अधिक गहरा हो  गहन 
चिन्ता में डूबा हुआ  चिन्तित 
जिसे देखकर डर लगे डरावना
जिसकी उपमा न हो  अनुपम 
जो पृथ्वी से सम्बद्ध है  पार्थिव 
जिसका मन किसी और तरफ हो  अन्यमनस्क 
कुछ न करता हो  अकर्मण्य 
जो उपकार न मानता हो  कृतघ्न 
जिसे जाना न जा सके  अज्ञेय 
जो गिना न जा सके  अगणित 
अनुकरण करने योग्य  अनुकरणीय 
कुछ या सभी राष्ट्रों से सम्बन्ध रखने वाला  अन्तर्राष्ट्रीय 
जिसका दमन न हो सके  अदम्य 
जो कल्पना से परे हो  कल्पनातीत 
अचानक होने वाली बात  आकस्मिक 
जो अपने स्थान से न गिरे  अच्युत 
जो परिचित न हो  अपरिचत 
जिसे भेदा न जा सके  अभेद्य, दुर्भेद्य 
जो केवल दिखाने एवं कहने के लिए हो  औपचारिक 
मन में होने वाला ज्ञान  अन्तर्ज्ञान
जिसकी उपमा न हो  निरुपम 
जो किसी पक्ष में न रहे  निष्पक्ष 
जो केवल दूध पीता हो  दुधाधारी 
स्मरण करने वाला  स्मरणीय 
सहन करने की शक्ति वाला  सहनशील 
हिंसा करने वाला  हिंसक 
जिसे स्पर्श करना वर्जित हो  अस्पृश्य 
जिस धरती पर कुछ पैदा नहीं होता  ऊसर 
जो छोड़ा न जा सके  अनिवार्य 
जिसकी देह में केवल अस्थियाँ शेष रह गई हों अस्थिशेष 
जो तृप्त न हो  अतृप्त 
जिस पर उपकार किया गया हो उपकृत 
सिर से पैर तक  शिरोपाद 
जिसे क्षमा न किया जा सके  अक्षम्य 
जिसे जीता न जा सके  अजेय 
जो सभी के साथ समान व्यवहार करे  समदर्शी 
जिस स्त्री के कभी संतान न हुई हो  वन्ध्या, बाँझ 
जिस पर अभियोग लगाया गया हो  प्रतिवादी 
बहुत दूर तक न देखने वाला  अदूरदर्शी 
जिसका वाणी पर पूर्ण अधिकार हो वाचस्पति
Read Also :

वर्णव्यवस्था

वर्णव्यवस्था 

हमारी भाषा में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग भाषा की ध्वनियों और उन ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त लिपि-चिह्नों दोनों के लिए होता है। इस प्रकार वर्ण भाषा के उच्चरित और लिखित दोनों रूपों के प्रतीक हैं और ये ही भाषा की लघुतम इकाई हैं। हिंदी के वर्ण देवनागरी लिपि में लिखे जाते हैं।

वर्णमाला

हिंदी भाषा के लेखन के लिए जो चिह्न (वर्ण) प्रयुक्त होते हैं, उनके समूह को वर्णमाला कहते हैं। हिंदी वर्णमाला का मानक रूप नीचे दिया जा रहा है – 

वर्णों के भेद – उच्चारण की दृष्टि से हिंदी वर्णमाला के वर्णों को दो वर्गों में बाँटा जाता है – स्वर और व्यंजन। 

स्वर

जिन ध्वनियों के उच्चारण के समय हवा मुँह से बिना किसी रूकावट के निकलती है वे स्वर कहलाते हैं। 

जैसे – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, ऑ।

स्वर अ  आ  इ  ई  उ  ऊ  ऋ  ए  ऐ  ओ  औ 
स्वरों की मात्राएँ  ि

(‘अ’ की अपनी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि यह व्यंजन में अंतर्निहित रहता है।) 

अनुस्वार – अं (ं) 

विसर्ग – अः (ः)

यद्यपि पारंपरिक वर्णमाला में ऋ, अं, अ: को स्वरों में गिना जाता है क्योंकि ये स्वरों के योग से ही बोले जाते हैं परंतु लिखने में आ, ई की तरह ऋ की भी मात्रा ‘ृ’ होती है; जैसे – कृ।

ऋ स्वर का प्रयोग केवल संस्कृत के शब्दों में ही होता है; जैसे – ऋण, ऋषि, ऋतु, घृत आदि। इसका उच्चारण प्रायः उत्तर भारत में ‘रि’ की तरह होता है। कहीं-कहीं (महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में) इसका उच्चारण ‘रु’ जैसे होता है।

अं और अः यद्यपि स्वरों में गिने जाते हैं परंतु उच्चारण की दृष्टि से ये व्यंजन के ही रूप हैं। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है। ये हमेशा स्वर के बाद ही आते हैं। अं और अः व्यंजन के साथ क्रमशः अनुस्वार (ं) और विसर्ग (ः) के रूप में जुड़ते हैं।

स्वर वर्णों के भेद : हिंदी में स्वरों के मूलतः दो भेद हैं – 

  1. निरनुनासिक स्वर – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ 
  2. अनुनासिक स्वर – अँ, आँ, इँ, ई, उँ, ऊँ, एँ, ऐं ओं, औं 

यद्यपि अनुनासिक स्वर के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग होता है परंतु यदि शिरोरेखा के ऊपर कोई मात्रा लगी होती है तो चंद्रबिंदु के स्थान पर केवल बिंदु का प्रयोग होता है। याद रहे हिंदी के सभी निरनुनासिक स्वरों के नासिक्य रूप होते हैं। 

ह्रस्व स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय (एक मात्रा का समय) लगता है, उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। 

जैसे – अ, इ, उ, ऋ ह्रस्व स्वर हैं। 

दीर्घ स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में हस्व की तुलना में अधिक समय (दो मात्रा का समय)  लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। 

जैसे- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

व्यंजन

क वर्ग  क  ख  ग  घ  ङ 
च वर्ग च  छ  ज  झ 
ट वर्ग ट  ठ  ड  ढ  ण  ड़  ढ़
त वर्ग  त  थ  द  ध  न 
प वर्ग प  फ  ब  भ  म 
अंतस्थ  य  र  ल 
ऊष्म  श  ष  स  ह 
संयुक्त व्यंजन  क्ष  त्र  ज्ञ  श्र 
आगत वर्ण  ऑ  ज़  फ़ 

स्वर रहित व्यंजन को लिखने के लिए उसके नीचे हलंत के चिह्न (्) का प्रयोग होता है;
जैसे – छ्, ट्, द्, ह्।

व्यंजन – जिन वर्णों के उच्चारण में वायु रुकावट के साथ या घर्षण के साथ मुंह से बाहर निकलती है, उन्हें व्यंजन कहते हैं। 

व्यंजनों का वर्गीकरण – व्यंजनों को उनके उच्चारण स्थान और प्रयत्न के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। 

उच्चारण स्थान के आधार पर – व्यंजनों के उच्चारण के समय हमारी जिह्वा मुख के विभिन्न स्थानों; जैसे – कंठ, तालु, दाँत आदि को छूती है, जिसके परिणामस्वरूप तरह-तरह की व्यंजन ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। उच्चारण स्थान के आधार पर हिंदी के व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है – 

कंठ्य – (गले से) क, ख, ग, घ, ङ, ह। 

तालव्य – (तालु से) च, छ, ज, झ, ञ, य और श। 

मूर्धन्य – (तालु के मूर्धा भाग से) ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़

दंत्य – (दाँतों से) त, थ, द, ध, न। 

वर्त्स्य – (दंत मूल से) स, ज़, र, ल।

ओष्ठ्य – (दोनों होंठों से) प, फ, ब, भ, म। 

दंतोष्ठ्य – (निचले होंठों और ऊपर के दाँतों से) व, फ। 

उच्चारण प्रयत्न के आधार पर – व्यंजनों के उच्चारण के समय श्वास की मात्रा, स्वरतंत्री का अवरोध तथा जीभ और अन्य अवयवों द्वारा अवरोध को प्रयत्न कहते हैं। प्रयत्न तीन प्रकार के होते हैं – 

  1. श्वास की मात्रा 
  2. स्वरतंत्री में श्वास का कंपन 
  3. जीभ तथा अन्य अवयवों द्वारा श्वास का अवरोध 

श्वास (प्राण) की मात्रा के आधार पर – उच्चारण के समय श्वास की मात्रा के आधार पर व्यंजनों के दो भेद किए जाते हैं – अल्पप्राण और महाप्राण। 

अल्पप्राण – जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुख से कम वायु निकलती है, उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहते हैं; जैसे – क, ग, ङ, च, ज, ञ, ट, ड, ण, त, द, न, प, ब, म (वर्गों के प्रथम, तृतीय और पंचम व्यंजन), ड़ और य, र, ल, व भी अल्पप्राण हैं।

महाप्राण – जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुख से निकलने वाली श्वास की मात्रा अधिक होती है, उन्हें महाप्राण व्यंजन कहते हैं। जैसे – ख, घ, छ, य, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ (वर्गों के द्वितीय तथा चतुर्थ व्यंजन), ढ़ और श, ष, स, ह। 

स्वरतंत्री में श्वास के कंपन के आधार पर – बोलते समय वायु प्रवाह से कंठ में स्थित स्वरतंत्री में कंपन होता है। स्वरतंत्री में जब कंपन होता है 

तो सघोष ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं और जब कंपन नहीं होता है तब अघोष चनियाँ उत्पन्न होती हैं। हिंदी की सघोष और अघोष ध्वनियाँ इस प्रकार हैं – 

सघोष –
सभी स्वर
ग, घ, ङ, ज, झ, ञ,
ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म
(वर्गों के तृतीय, चतुर्थ और पंचम व्यंजन)
तथा ड़, ढ़, ज़, य, र ल, व, ह

अघोष –
क, ख, च, छ,
ट, ठ, त, थ, प, फ
(वर्गों के प्रथम और द्वितीय व्यंजन)
तथा फ़, श, ष, स। 

उच्चारण अवयवों द्वारा श्वास के अवरोध के आधार पर – जब हम व्यंजनों का उच्चारण करते हैं तो उच्चारण अवयव मुख विवर में किसी स्थान-विशेष का स्पर्श करते हैं ऐसे व्यंजनों को स्पर्श व्यंजन कहते हैं। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते हुए वायु स्थान-विशेष पर घर्षण करते हुए निकलती है तो इन व्यंजनों को संघर्षी व्यंजन कहते हैं। 

स्पर्श व्यंजन संघर्षी व्यंजन 
क ख ग घ ङ ज़ फ़ 
च छ ज झ ञ अंतः स्थ व्यंजन- य र ल व 
ट ठ ड ढ ण  उत्क्षिप्त व्यंजन – ड़ ढ़ 
त थ द ध न
प फ ब भ म 

जिन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास का अवरोध कम होता है उन्हें अंतःस्थ व्यंजन कहते हैं और जिनके उच्चारण के समय जीभ पहले ऊपर उठकर मूर्धा का स्पर्श करती है और फिर एकदम नीचे गिरती है वे उत्क्षिप्त व्यंजन कहलाते हैं।

अक्षर 

जब किसी एक ध्वनि या ध्वनि-समूह का उच्चारण एक झटके के साथ किया जाता है तो उसे ‘अक्षर’ कहते हैं। हिंदी में सभी स्वर अक्षर होते हैं और सभी व्यंजनों में ‘अ’ स्वर होने के कारण वे भी अक्षर होते हैं। इसलिए कई बार वर्णमाला को अक्षरमाला और वर्णों को अक्षर भी कहा जाता है। 

हिंदी के सभी वर्ण या तो स्वर हैं या व्यंजन + स्वर हैं। आशय यह है कि अक्षर की संरचना का आधार स्वर होता है और उसके आगे और पीछे एक, दो या तीन व्यंजन हो सकते हैं। इस आधार पर हिंदी में अक्षरों की संरचना निम्नलिखित प्रकार से हो सकती है – 

एक अक्षर वाले शब्द 

1. केवल स्वर आ 
2. स्वर + व्यंजन + स्वर अब, आज 
3. व्यंजन + स्वर न, खा, हाँ 
4. व्यंजन + स्वर + व्यंजन घर, देर, साँप 
5. व्यंजन + व्यंजन + स्वर क्या, क्यों 
6. व्यंजन + व्यंजन + व्यंजन + स्वर  स्त्री, स्क्रू 
7. व्यंजन + व्यंजन + स्वर + व्यंजन  प्यास, प्रेम

दो अक्षर वाले शब्द

1. स्वर + व्यंजन + व्यंजन + स्वर  अंत 
2. स्वर + व्यंजन + व्यंजन + व्यंजन + स्वर  अस्त्र 
3. व्यंजन + स्वर + व्यंजन + व्यंजन + स्वर  संत, शांत 
4. व्यंजन + स्वर + व्यंजन + व्यंजन + व्यंजन + स्वर  शस्त्र
5. व्यंजन + व्यंजन + स्वर + व्यंजन + व्यंजन + स्वर  प्राप्त 

 

Read Also :
error: Content is protected !!