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श्रृंगार रस (Shringar Ras)

श्रृंगार रस (Shringar Ras)

  • नायक-नायिका के सौन्दर्य एवं प्रेम संबंधी वर्णन की सर्वोच्च (परिपक्व) अवस्था को श्रृंगार रस कहा जाता है।
  • श्रृंगार रस को रसों का राजा/रसराज कहा जाता है।

श्रृंगार रस के अवयव (उपकरण)

  • श्रृंगार रस का स्थाई भाव – रति।
  • श्रृंगार रस का आलंबन (विभाव) – नायक और नायिका ।
  • श्रृंगार रस का उद्दीपन (विभाव) – आलंबन का सौदर्य, प्रकृति, रमणीक उपवन, वसंत-ऋतु, चांदनी, भ्रमर-गुंजन, पक्षियों का कूजन आदि।
  • श्रृंगार रस का अनुभाव – अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, अश्रु आदि।
  • श्रृंगार रस का संचारी भाव – हर्ष, जड़ता, निर्वेद, अभिलाषा, चपलता, आशा, स्मृति, रुदन, आवेग, उन्माद आदि।

श्रृंगार रस के उदाहरण –  

दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माही ।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।।
राम को रूप निहारित जानकि कंकन के नग की परछाही ।
यातें सबै भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं। (तुलसीदास)

श्रृंगार के भेद (Shringar ke bhed)

श्रृंगार के दो भेद होते हैं-

  • संयोग श्रृंगार
  • वियोग श्रृंगार

(i) संयोग श्रृंगार – नायक-नायिका की संयोगावस्था का वर्णन करने वाले श्रृंगार को संयोग श्रृंगार कहा जाता है, यहाँ पर संयोग का अर्थ ‘सुख की प्राप्ति’ से है।
उदाहरण –
(1) बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
सौंह करे, भौंहनि हँसे, दैन कहै, नटि जाए। (बिहारी)

(2) थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥ (रामचरितमानस)

(3) एक पल, मेरे प्रिया के दृग पलक
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय संबन्ध था।। (सुमित्रानंदन पंत)

(4) लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सुहाए।।
थके नयन रघुपति छबि देखे।
पलकन्हि हूँ परिहरी निमेषे।।
अधिक सनेह देह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।। (तुलसीदास)

(5) दुलह श्रीरघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माही।
गावति गीत सखै मिलि सुन्दरी, बेद गुवा जुरि विप्र पढ़ाही।
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाही।
यतै सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाहीं। (तुलसीदास)

(6) देखि रूप लोचन ललचाने
हरषे जनु निज निधि पहचाने
अधिक सनेह देह भई मोरी
सरद ससिहिं जनु वितवचकोरी। (तुलसीदास)

(7) मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। (मीराबाई)

(ii) वियोग श्रृंगार – इस प्रकार के श्रृंगार में नायक-नायिका की वियोगावस्था का वर्णन किया जाता है,
उदाहरण –
(1) निसिदिन बरसत नयन हमारे
सदारहित पावस ऋतु हम पै
जब ते स्याम सिधारे।। (सूरदास)

(2) चलत गोपालन के सब चले
यही प्रीतम सौ प्रीति निरंतर, रहे ने अरथ चले। (सूरदास) 

(3) रे मन आज परीक्षा तेरी !
सब अपना सौभाग्य मनावें।
दरस परस निःश्रेयस पावें।
उद्धारक चाहें तो आवें।
यहीं रहे यह चेरी ! (मैथिलीशरण गुप्त)

(4) गोपालहीं पावौ धौ किहि देस।
सिंगी मुद्राकर खप्पर लै, करि हौ, जोगिनी भेस। – (सूरदास)

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रस – हिन्दी व्याकरण

“विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। यह रस-दशा ही हृदय का स्थाई भाव है। रस का शाब्दिक अर्थ ‘आनन्द’ है। रस को काव्य की आत्मा कहा जाता है। 

उल्लेखनीय है कि रस का सर्वप्रथम उल्लेख ‘भरत मुनि’ ने किया है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में आठ प्रकार के रसों का वर्णन किया है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. श्रृंगार रस
  2. हास्य रस
  3. करुण रस 
  4. रौद्र रस
  5. वीर रस
  6. वीभत्स रस
  7. भयानक रस
  8. अद्भुत रस

रस के अंग (Parts of Ras)

रस की परिभाषा में प्रयुक्त शब्दों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है, जिन्हें रस का अंग भी कहा जाता है-

  1. विभाव
  2. अनुभाव
  3. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव
  4. स्थायी भाव

1. विभाव (Vibhav)

  • वह पदार्थ, व्यक्ति या बाह्य विकार जो अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक (भावावेश) करे उन कारणों को विभाव कहा जाता है।
  • भावों की उत्पत्ति के कारण विभाव माने जाते हैं।

विभाव के प्रकार (Types of Vibhav)

विभाव दो प्रकार के होते हैं- 1. आलंबन विभाव और 2. उद्दीपन विभाव

आलंबन विभाव (Aalamban Vibhav)

  • जिसका सहारा (आलंबन) पाकर स्थायी भाव जागते हैं उसे आलंबन विभाव कहते हैं; जैसे – नायक-नायिका।
  • आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं – आश्रयालंबन व विषयालंबन।
  • जिसके मन में भाव जगे उसे आश्रयालंबन एवं जिसके प्रति अथवा जिसके कारण मन में भाव जगे उसे विषयालंबन कहा जाता है;
    जैसे – यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे एवं सीता विषय

उद्दीपन विभाव (Uddipan Vibhav)

  • जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होता है, उसे उद्दीपन विभाव कहते हैं;
    जैसे – रमणीक उद्यान, एकांत स्थल, नायक नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ, चाँदनी आदि।

2. अनुभाव (Anubhav)

  • मनोगत भावों को व्यक्त करने वाले शारीरिक विकारों को अनुभाव कहा जाता है। अनुभावों की संख्या 8 बताई गई है-
    (i) स्तंभ (ii) स्वेद (ii) रोमांच (iv) स्वर-भंग (v) कम्प (vi) विवर्णता (रंगहीनता) (vii) अश्रु (viii) प्रलय (संज्ञा हीनता ) ।

3. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव (Sanchari adhva Vyabhichari Bhav)

  • मन में आने-जाने वाले (संचरण करने वाले) भावों को संचारी अथवा व्यभिचारी भाव कहा जाता है।
  • संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
    (1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय) (4) लज्जा (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका
    (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता)
    (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पन्न दुःख)
    (10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) शंका (15) दीनता
    (16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना)
    (19) धृति (चित्त की चंचलता का अभाव ) (20) मति (21) विबोध (चैतन्य लाभ)
    (22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति
    (28) मद (29) उन्माद (30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना)
    (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (33) मरण

4. स्थायी भाव (Sthayi Bhav)

  • स्थायी भाव का तात्पर्य होता है – प्रधान भाव
  • प्रधान भाव वह होता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है।
  • काव्य अथवा नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से अंत तक होता है।
  • स्थायी भावों की संख्या 9 बताई गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार होता है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतः रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें ‘नवरस’ कहा जाता है।
  • मूलतः नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों (वात्सल्यभगवद् विषयक रति) को स्थायी भाव की मान्यता दी। इस तरह स्थायी भावों की संख्या 11 हो गई और इसी अनुरूप रसों की संख्या भी 11 हो गई है।

रस के सभी अवयव

  • भावपक्ष
    • स्थायी भाव
    • संचारी भाव
  • विभावपक्ष
    • आलंबन
    • उद्दीपन
      • आन्तरिक चेष्टाएँ
      • बाह्य परिस्थितियाँ
    • आश्रय
      • कायिक
      • मानसिक
      • वाचिक
      • आहार्य
  • अनुभाव

रस के भेद (प्रकार) (Types of Ras)

  1. श्रृंगार रस (Shringar Ras)
  2. करुण रस (Karuna Ras)
  3. अद्भुत रस (Adbhut Ras)
  4. रौद्र रस (Raudra Ras)
  5. वीर रस (Veer Ras)
  6. हास्य रस (Hasya Ras)
  7. भयानक रस (Bhayanak Ras)
  8. वीभत्स रस (Vibhats Ras)
  9. शान्त रस (Shant Ras)
  10. वात्सल्य रस (Vatsalya Ras)
  11. भक्ति रस (Bhakti Ras)

 

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वाक्य

वाक्य 

सार्थक शब्द या शब्दों का वह समूह जिससे वक्ता का भाव स्पष्ट हो जाए, वाक्य कहलाता है। 

वाक्य के दो अंग होते है:

1. उद्देश्य :- वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाए, उसे उद्देश्य कहते हैं।

जैसे – बच्चे खेल रहे हैं, पक्षी डाल पर बैठा है।
इन वाक्यों में बच्चे और पक्षी के विषय में कुछ कहा गया हैं। अतः ये शब्द उद्देश्य हैं।

2. विधेय :- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाए, उसे विधेय कहते हैं। उपर के वाक्यों में “खेल रहे हैं” और “डाल पर बैठा है” विधेय है।

संरचना की दृष्टि से वाक्य तीन प्रकार के होते हैं:

1. सरल वाक्य :- जिस वाक्य में केवल एक उद्देश्य और एक विधेय हो, उसे सरल वाक्य कहते है। 

जैसे –

  • राम ने रावण को मारा। 
  • आशा अच्छा गाती है। 
  • परिश्रमी बालक सफल होते हैं। 

उपर के वाक्यों में राम, आशा और परिश्रमी बालक उद्देश्य है और वाक्यों के शेष भागों का विधेय कहते है।

2. मिश्रित वाक्य :- जिस वाक्य में एक उपवाक्य प्रधान होता है और दूसरा उपवाक्य उस पर आश्रित होता है, उसे मिश्रित वाक्य कहते हैं। 

जैसे – 

  • जब मै घर से निकला तब वर्षा हो रही थी। 
  • यदि तुम आओगे तो हम भी चलेगे। 
  • वह काम हो गया है जिसे करने के लिए आपने कहा था। 

मिश्रित वाक्यों की मुख्य पहचान यह है कि उनमें जब, तब, जो, जितना, जहाँ, जैसा, कैसा, यदि, क्योंकि आदि योजक अव्ययों में से किसी एक का प्रयोग किया जाता है।

3. संयुक्त वाक्य :- जिस बडे वाक्य में दो या दो से अधिक सरल वाक्य जुड़े हुए हो, उसे संयुक्त वाक्य कहते हैं। संयुक्त वाक्य और तथा, अथवा, नही तो, किन्तु, परन्तु आदि योजक अव्ययों को लगाने से बनते है। 

जैसे – 

  • रमेश ने काम किया और वह अपने घर चला गया। 
  • वह चला तो था, परन्तु रास्ते से लौट गया। 
  • राहुल विद्यालय जाता है और मन लगाकर पढ़ता है।

अर्थ के आधार पर वाक्यों के भेद :

1. विधानवाचक वाक्य (सकारात्मक वाक्य) :- समान्य कथन या किसी वस्तु या व्यक्ति की स्थिति का बोध करने वाले वाक्य कथनात्मक वाक्य कहे जाते हैं। 

जैसे – 

  • उसकी पत्नी बहुत बीमार हैं। 
  • लड़कियाँ नृत्य कर रहीं है।

2. नकारात्मक या निषेधवाची वाक्य :- इन वाक्यों में कथन का निषेध किया जाता है। सामान्यतः हिन्दी में सकारात्मक वाक्यों में ‘नहीं’, ‘न’, ‘मत’ लगाकर नकारात्मक वाक्य बनाए जाते हैं। 

जैसे – 

  • वे बाजार नहीं गए।
  • आप इधर न बैंठे । 

3. आज्ञार्थक या विधिवाचक वाक्य :- जिन वाक्यों में आज्ञा, निर्देश, प्रार्थना या विनय आदि का भाव प्रकट होता है, आज्ञार्थक वाक्य कहे जाते हैं। 

जैसे – 

  • निकल जाओ कमरे से बाहर ।
  • सारा सामान खरीद लाना। 

4. प्रश्नवाचक वाक्य :- प्रश्नवाचक वाक्यों में वक्ता कोई-न-कोई प्रश्न पूछता है।

जैसे –

  • क्या आप आगरा जा रहीं हैं ? 
  • क्या उसने झूठ बोला था ?

5. इच्छावाचक वाक्य :- इन वाक्यों में वक्ता अपने लिए या दूसरों के लिए किसी-न-किसी इच्छा के भाव को प्रकट करता है ।

जैसे – 

  • आज तो कहीं से पैसे मिल जाएँ।
  • आपकी यात्रा शुभ हो। 

6. संदेहवाचक :- इन वाक्यों में वक्ता प्रायः संदेह की भावना को प्रकट करता है। 

जैसे –

  • शायद आज बारिश हो!
  • हो सकता है आज धूप न निकले। 

7. विस्मयादिबोधक वाक्य :- इन वाक्यों में विस्मय, आश्चर्य, घृणा, प्रेम, हर्ष, शोक आदि के भाव अचानक वक्ता के मुँह से निकल पड़ते हैं। 

जैसे – 

  • ओह ! कितना सुन्दर दृश्य है।
  • हाय ! मैं मर गया। 

8. संकेतवाचक वाक्य :- इन वाक्यों में किसी-न-किसी शर्त की पूर्ति का विधान किया जाता है इसीलिए इनको शर्तवाची वाक्य भी कहते हैं। 

जैसे – 

  • यदि तुम भी मेरे साथ रहोगी तो मुझे अच्छा लगेगा। 
  • वर्षा होती तो अनाज पैदा होता।
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अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

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वाक्य 

शब्द 

जो शब्दों द्वारा व्यक्त न किया जा सके  अवर्णनीय 
जिसका कोई शत्रु न हो  अजातशत्रु 
ऊपर लिख हुआ  उपरिलिखित
जो उपकार मानता है  कृतज्ञ
अच्छे चरित्र वाला  सच्चरित्र
जो हर स्थान पर विद्यमान हो  सर्वव्यापक 
जिसे प्रतिष्ठा प्राप्त हो  प्रतिष्ठित 
संकट से ग्रस्त  संकटग्रस्त 
जहाँ रेत ही रेत हो  मरुभूमि 
पश्चिम से सम्बन्ध रखने वाला  पाश्चात्य 
पक्ष में एक बार होने वाला  पाक्षिक 
आलोचना करने वाला  आलोचक 
जो अपना प्रभाव दिखाने से न चूके  अचूक 
बड़ा भाई  अग्रज
छोटा भाई  अनुज 
जिसमें दया न हो  निर्दयी 
देश में भ्रमण  देशाटन 
जिसे गुप्त रखा जाए  गोपनीय 
किसी वस्तु में छोटी-छोटी त्रुटियाँ खोजने वाला  छिद्रान्वेषी
बहुत तेज चलने वाला द्रुतगामी
जो दो भाषाएँ जानता हो  दुभाषिया 
माँस न खाने वाले  निरामिष 
हाथ से लिखा हुआ  हस्तलिखित 
सबसे अधिक शक्ति वाला  सर्वशक्तिमान 
जिसके समान दूसरा न हो  अद्वितीय 
जहाँ पहुँचा न जा सके  अगम्य 
कण्ठ तक डूबा हुआ  आकण्ठ 
बुरे व्यक्ति द्वारा अत्याचार सहने वाला  पुरुषत्वहीन 
कसैले स्वाद वाला  काषाय 
देखने योग्य  दर्शनीय 
जिसका कोई न हो  अनाथ 
चित्र बनाने वाली स्त्री  चित्रकर्त्री 
फल-फूल या शाक भाजी खाने वाला  शाकाहारी 
युग का निर्माण करने वाला  युगनिर्माता 
माँस खाने वाला  माँसाहारी 
परदेश में रहने वाला  प्रवासी 
मद से अलसाई हुई स्त्री मदालसा 
ज्ञान देने वाली  ज्ञानदा 
सगा भाई  सहोदर 
छुटकारा दिलाने वाला  त्राता 
जिसके हाथ में वीणा हो  वीणापाणि 
जो शरण में आया हो  शरणागत 
मार्ग दिखाने वाला  पथप्रदर्शक 
बाद में मिलाया हुआ अंश  प्रक्षिप्त 
सप्ताह में एक बार होने वाला  साप्ताहिक
बुरे मार्ग पर चलने वाला  कुमार्गी
जो टुकड़े-टुकड़े हो गया हो  खण्डित 
उद्योग से सम्बंधित  औद्योगिक 
इतिहास का ज्ञाता  इतिहास 
जो सम्भव न हो सके  असम्भव 
जो इन्द्रियों के द्वारा न जाना जा सके  अगोचर 
जिसके आने की तिथि निश्चित न हो  अतिथि 
इस संसार से सम्बद्ध  ऐहिक 
जो दूसरों से ईर्ष्या करता हो  ईर्ष्यालु 
जो दिखाई न दे  अदृश्य 
जो पहले न पढ़ा गया हो  अपठित 
जो किसी से न डरे निडर
दूर की सोचने वाला  दूरदर्शी 
तत्त्व जानने वाला  तत्त्वज्ञ 
घूमने वाला व्यक्ति  घुमक्कड़ 
जिसका कोई आधार न हो  निराधार 
परिवार के साथ  सपरिवार 
दुखान्त नाटक  त्रासदी 
राजनीति से सम्बन्ध रखने वाला  राजनीतिक 
फेन (झाग) से भरा हुआ  फेनिल 
जिस स्त्री का विवाह हो गया हो  विवाहिता 
जहाँ तक हो सके  यथासाध्य 
जिसकी बहुत अधिक चर्चा हो  बहुचर्चित 
पत्तों से बनी हुई कुटिया  पर्णकुटी 
जो स्वयं पैदा हुआ हो  स्वयंभू 
युग का प्रवर्तन करने वाला  युगप्रवर्तक 
गोद लिया गया पुत्र  दत्तक 
आकाश चूमने वाला  गगनचुम्बी 
जिसमें जानने की इच्छा हो  जिज्ञासु 
जो निरन्तर प्रयत्नशील रहे  कर्मठ
जो स्वयं सेवा करता हो  स्वयंसेवक 
आँखों के सामने  प्रत्यक्ष 
प्रिय बोलने वाली  प्रियम्वदा 
विष्णु को मानने वाला  वैष्णव 
जो बात कही न गई हो  अनकही 
जो कहा न जा सके  अकथनीय 
दूसरी जाति का  विजातीय 
मृग के समान आँखों वाली  मृगनयनी 
रचना करने वाला  रचयिता 
जिसका पति मर गया हो  विधवा 
जो किसी मुसीबत का अनुभव कर चुका हो  भुक्तभोगी 
जिसकी आशा न की गई हो  अप्रत्याशित 
जिसमें धैर्य न हो  अधीर 
जिसकी पत्नी मर गई हो  विधुर 
किसी उक्ति को पुनः कहना  पुनरुक्ति 
जो स्थिर रहे  स्थावर 
जो अधिक गहरा हो  गहन 
चिन्ता में डूबा हुआ  चिन्तित 
जिसे देखकर डर लगे डरावना
जिसकी उपमा न हो  अनुपम 
जो पृथ्वी से सम्बद्ध है  पार्थिव 
जिसका मन किसी और तरफ हो  अन्यमनस्क 
कुछ न करता हो  अकर्मण्य 
जो उपकार न मानता हो  कृतघ्न 
जिसे जाना न जा सके  अज्ञेय 
जो गिना न जा सके  अगणित 
अनुकरण करने योग्य  अनुकरणीय 
कुछ या सभी राष्ट्रों से सम्बन्ध रखने वाला  अन्तर्राष्ट्रीय 
जिसका दमन न हो सके  अदम्य 
जो कल्पना से परे हो  कल्पनातीत 
अचानक होने वाली बात  आकस्मिक 
जो अपने स्थान से न गिरे  अच्युत 
जो परिचित न हो  अपरिचत 
जिसे भेदा न जा सके  अभेद्य, दुर्भेद्य 
जो केवल दिखाने एवं कहने के लिए हो  औपचारिक 
मन में होने वाला ज्ञान  अन्तर्ज्ञान
जिसकी उपमा न हो  निरुपम 
जो किसी पक्ष में न रहे  निष्पक्ष 
जो केवल दूध पीता हो  दुधाधारी 
स्मरण करने वाला  स्मरणीय 
सहन करने की शक्ति वाला  सहनशील 
हिंसा करने वाला  हिंसक 
जिसे स्पर्श करना वर्जित हो  अस्पृश्य 
जिस धरती पर कुछ पैदा नहीं होता  ऊसर 
जो छोड़ा न जा सके  अनिवार्य 
जिसकी देह में केवल अस्थियाँ शेष रह गई हों अस्थिशेष 
जो तृप्त न हो  अतृप्त 
जिस पर उपकार किया गया हो उपकृत 
सिर से पैर तक  शिरोपाद 
जिसे क्षमा न किया जा सके  अक्षम्य 
जिसे जीता न जा सके  अजेय 
जो सभी के साथ समान व्यवहार करे  समदर्शी 
जिस स्त्री के कभी संतान न हुई हो  वन्ध्या, बाँझ 
जिस पर अभियोग लगाया गया हो  प्रतिवादी 
बहुत दूर तक न देखने वाला  अदूरदर्शी 
जिसका वाणी पर पूर्ण अधिकार हो वाचस्पति
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विराम-चिह्न 

विराम-चिह्न 

भाषा रचना में विराम चिह्न बड़े सहायक होते हैं। अभिव्यक्ति की पूर्णता के लिए बोलते समय शब्दों पर भी जोर देना पड़ता है, कभी ठहरना पड़ता है और कभी-कभी विशेष संकेतों का भी सहारा लेना पड़ता है। इन चिन्हों को ही विराम-चिह्न कहते हैं। 

नीचे दिए गए उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा कि विराम चिह्नों के प्रयोग से एक ही वाक्य में किस प्रकार भिन्न-भिन्न अर्थ हो जायेंगे –

  • रोको मत जाने दो।
  • रोको मत, जाने दो।
  • रोको, मत जाने दो। 

 

  • राम परीक्षा के दिनों में खेल रहा है।
  • राम परीक्षा के दिनों में खेल रहा है?
  • राम परीक्षा के दिनों में खेल रहा है!

हिन्दी में निम्नलिखित विराम-चिह्नों का प्रयोग होता है – 

1. पूर्ण विराम (।)

इस चिह्न का प्रयोग निम्न दशाओं में होता है – 

  • वाक्य की समाप्ति पर
    जैसे – राम आदमी है। 
  • प्रायः शीर्षक के अन्त में भी इस चिन्ह का प्रयोग होता है।
    जैसे – विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्त्व। 
  • पदों की अर्द्धाली के अन्त में
    जैसे –  सियाराममय सब जग जानी।

इसे अंग्रेजी में Full Stop कहते हैं। 

2. अल्प विराम (,)

इस चिह्न को अंग्रेजी में कोमा (Comma) कहते हैं। निम्न अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता है:

  • जब एक ही शब्द भेद के दो शब्दों के बीच में समुच्चयबोधक न हो,
    जैसे – राम ने केले, अमरुद और अंगूर खाये। 
  • समानाधिकरण के शब्दों में,
    जैसे – जनक की पुत्री सीता, राम की पत्नी थी। 
  • जब कई शब्द जोड़े से आते हैं तब प्रत्येक जोड़े के बाद,
    जैसे – संसार में दुःख और सुख, मरना और जीना, रोना और हँसना लगा ही रहता है। 
  • क्रिया विशेषण वाक्यांशों के साथ
    जैसे – उसने, गम्भीर चिंतन के बाद, यह काम किया। 
  • जब किसी वाक्य में वाक्यांश अथवा खण्ड वाक्य एक ही रूप में प्रयुक्त हों तो अंतिम पद को छोड़कर शेष के आगे,
    जैसे – पुस्तक के अध्ययन से ज्ञान बढ़ता है, विचार पुष्ट होते हैं, बुरी संगत से बचाव होता है और दुःख का समय कट जाता है। 
  • जब छोटे समानाधिकरण प्रधान वाक्यों के बीच में कोई समुच्चयबोधक शब्द न हो तब उनके बीच में,
    जैसे – नभ मेघों से घिर गया, विद्युत चमकने लगी, मूसलाधार वर्षा होने लगी। 
  • हाँ, अस्तु के पश्चात्,
    जैसे – हाँ, आप जा सकते हैं। 
  • ‘कि’ के अभाव में,
    जैसे – वह जानता है, तुम कल यहाँ नहीं थे। 
  • संज्ञा वाक्य के अलावा मिश्र वाक्य के शेष बड़े उपवाक्यों के बीच में,
    जैसे – यही वह पुस्तक है, जिसकी मुझे आवश्यकता है। 

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जहाँ रुकने की आवश्यकता हो, वहाँ इस चित्र का प्रयोग होता है। 

3. अर्द्ध विराम (;) 

अंग्रेजी में इसे सेमी कोलन (Semi Colon) कहते हैं। जहाँ अल्प विराम से कुछ अधिक एवं पूर्ण विराम से कुछ कम रुकने की आवश्यकता होती है, वहाँ इस चिह्न का प्रयोग होता है। साधारणतः इस विराम चिह्न का प्रयोग निम्न अवसरों पर किया जाता है: 

  • जब संयुक्त वाक्यों के प्रधान वाक्यों में परस्पर विशेष संबंध नहीं रहता,
    जैसे – सोना बहुमूल्य धातु है; पर लोहे का भी कम महत्त्व नहीं है। 
  • उन पूरे वाक्यों के बीच में जो विकल्प के अन्तिम समुच्चय बोधक द्वारा जोड़े जाते हैं,
    जैसे – राम आया; उसने उसका स्वागत किया; उसके ठहरने की व्यवस्था की और उसे खिलाकर चला गया। 
  • एक मुख्य वाक्य पर आधारित रहने वाले वाक्यों के बीच में,
    जैसे – जब तक हम गरीब हैं; बलहीन हैं; दूसरे के आश्रित रहने वाले हैं; तब तक हमारा कल्याण नहीं हो सकता।

4. प्रश्नवाचक चिह्न (?)

इसे अंग्रेजी में Sign of Interrogative कहते हैं। इस चिह्न का प्रयोग प्रश्न सूचक वाक्यों के अन्त में पूर्ण विराम के स्थान पर होता है। 

जैसे – आप क्या कर रहे हैं? 

5. विस्मयादि बोधक या बोधन सूचन चिह्न (!)

इस चिह को अंग्रेजी में Sign of Exclamation कहते हैं। विस्मय, हर्ष, घृणा आदि मनोवेगों को प्रकट करने के लिए या जहाँ किसी को संबोधित किया जाता है वहाँ इस चिह्न का प्रयोग होता है,

जैसे –

  • अरे यह क्या हुआ!
  • हे भगवान हमारी रक्षा करो! 

6. अवतरण चिह (“ ”)

अंग्रेजी में इस चिह्न को Inverted Commas कहते हैं। जब किसी दूसरे के कथन को ज्यों का त्यों उद्धृत करना पड़ता है तब अवरतण चिह का प्रयोग किया जाता है। इसे उल्टा विराम, युगलपाश अथवा उदाहरण चिह्न भी कहते है। 

जैसे – उसने कहा, “मोह माया के भ्रम में मत पड़ो।” 

 

7. निर्देशिक समूह (-)

अंग्रेजी में इसे Dash कहते हैं। इसका प्रयोग निम्न अवसरों पर होता है – 

  • समानाधिकरण शब्दों, वाक्यांशों अथवा वाक्यों के बीच में,
    जैसे – आंगन में ज्योत्स्ना-चाँदनी-छिटकी हुई थी। 
  • किसी विषय के साथ तत्संबंधी अन्य बातों की सूचना देने में
    जैसे – काव्य के दो अंग हैं – एक पद्य, दूसरा गद्य । 
  • लेख के नीचे लेखन या पुस्तक के नाम से पहले,
    जैसे – रघुकुल रीति सदा चली आई-तुलसी। 
  • जहाँ विचारधारा में व्यतिक्रम पैदा हो,
    जैसे – कौन कौन उत्तीर्ण हो जायेंगे-समझ में नहीं आता। 

8. विवरण चिन्ह (:-)

इसे अंग्रेजी में Colon and dash कहते हैं। इस चिह्न का प्रयोग उस अवसर पर किया जाता है जब किसी वाक्य के आगे कई बातें क्रम में लिखी जाती हैं,
जैसे – क्रिया के दो भेद हैं :- सकर्मक, अकर्मक, या निम्न शब्दों की व्याख्या कीजिए:- संज्ञा, विशेषण, क्रिया। 

9. समास चिह्न (﹣)

इसे अंग्रेजी में Hyphen कहते हैं। सामासिक पदों के बीच में इसका प्रयोग होता है। इसे मध्यवर्ती या योजक चिह्न भी कहते हैं।
जैसे – माता﹣पिता, रण﹣भूमि, आना﹣जाना आदि। 

 

10. कोष्ठक चिह्न ((), [], {})

इसे अंग्रेजी में Bracket कहते हैं। यह चिह्न ऐसे वाक्यों या वाक्यांशों को घेरने के काम आता है, जिनका मुख्य वाक्य से संबंध नहीं होता, पर भाव के स्पष्टीकरण के लिए वह वाक्य या वाक्यांश आवश्यक है, 

जैसे – राम (हँसते हुए) अच्छा जाइए। 

11. संक्षेप सूचक चिह्न (。)

इसे लाघव चिह्न भी कहते हैं। शब्द को संक्षिप्त रूप देने के लिए इस चिह्न का प्रयोग होता है,

जैसे – दिनांक को दिo, पण्डित को पंo, रुपये को रुo आदि लिखा जा सकता है। 

 

12. लोप सूचक चिह्न (——-)(+++)

जहाँ किसी वाक्य या कथन का कुछ अंश छोड़ दिया जाता है, वहाँ इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है, 

जैसे –

  • मैं तो परिणाम भोग रहा हूँ, कहीं आप——-
  • रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाहि ++++ 

13. तुल्यता सूचक चिह्न (=)

समता या बराबरी बताने के लिए इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है, 

जैसे – पवन = हवा 

 

14. हंस पद (^)

इसे विस्मरण चिह्न भी कहते हैं। लिखते समय जब हम कुछ भूल जाते हैं तो उसे सुधारने के लिए इस चिह्न को लगाकर हम भूले हुए शब्द को लिख देते हैं।

.                     आगरा
जैसे – मुझे आज ^ जाना है।

 

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हिन्दी भाषा और उसकी बोलियाँ

हिन्दी भाषा और उसकी बोलियाँ

भारत की भाषाओं पर 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में व्यापक कार्य करने वाले सर जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी का क्षेत्र अम्बाला (हरियाणा) से लेकर पर्व में बनारस (उत्तर प्रदेश) तक और उत्तर में नैनीताल की तलहटी (उत्तराखंड) से लेकर दक्षिण में बालाघाट (मध्य प्रदेश) तक निश्चित किया था। सर जार्ज ग्रियर्सन ने बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी बोलियों को हिन्दी के अन्तर्गत नहीं लिया, जबकि ये सभी हिन्दी के अन्तर्गत आती हैं। 

हिन्दी भाषा के क्षेत्रों का वर्गीकरण 

हिन्दी भाषा के क्षेत्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है 

  1. पूर्वी हिन्दी का क्षेत्र – पूर्वी हिन्दी का क्षेत्र कानपुर से मिर्जापुर, लखीमपुर, नेपाल की सीमा से लेकर दुर्ग, बस्तर की सीमा तक फैला हुआ है। 
  2. पश्चिमी हिन्दी का क्षेत्र – पश्चिमी हिन्दी का क्षेत्र पश्चिम में पंजाब और राजस्थान की सीमा से लेकर पूर्व में अवधी तथा बघेली बोली की सीमा, उत्तर में पहाड़ी तथा दक्षिण में मराठी भाषा के क्षेत्र तक हुआ है।

उपभाषाएँ, विभाषाएँ, बोलियाँ या प्रान्तीय भाषाएँ 

किसी प्रान्त/प्रदेश या उप-प्रान्त की बोलचाल की तथा साहित्य रचना की भाषा, विभाषा या उपभाषा या बोली कहलाती है। 

हिन्दी प्रदेश में प्राकृत पाँच रूपों में थीं – महाराष्ट्री, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी और पैचाशी। इन्ही पाँच अपभ्रंशों और फिर उनसे हिन्दी की पाँच उपभाषाओं – राजस्थनी हिंदी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाड़ी हिन्दी का हुआ। 

राजस्थानी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी हिंदी और पहाड़ी हिंदी को उपभाषा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके अन्तर्गत अनेक बोलियाँ तथा उपबोलियाँ हैं। इनमें से पहाड़ी हिन्दी को छोड़कर अन्य सभी में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है। इन सभी उपभाषाओं का साहित्य हिंदी साहित्य के अंतर्गत पढ़ा तथा पढ़ाया भी जाता है। अतएव इन सबको हिन्दी की उपभाषाएँ माना जाता है। 

1. राजस्थानी हिन्दी 

यह उपभाषा पूरे राजस्थान में, सिन्ध और मालवा जनपद में बोली जाती है। राजस्थानी उपभाषा की प्रमुख बोलियाँ मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती और मालवी हैं। एक युग में राजस्थानी साहित्य अत्यन्त समृद्ध था। 

2. बिहारी हिन्दी 

बिहारी हिन्दी उपभाषा सम्पूर्ण बिहार एवं झारखण्ड में तथा उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है। बिहारी हिन्दी की चार प्रमुख बोलियाँ – भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका हैं। 

3. पहाडी हिन्दी 

इस उपभाषा के अन्तर्गत अनेक बोलियाँ बोली जाती हैं। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार इनको तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है 

  1. पश्चिमी पहाड़ी, 
  2. मध्य पहाड़ी
  3. पूर्वी पहाड़ी। 

पश्चिमी पहाड़ी – बोलियों का क्षेत्र शिमला का सीमावर्ती प्रदेश है। इनमें कोई साहित्यिक रचना नहीं मिलती है। 

मध्य पहाड़ी के दो भेद हैं 

  • कुमायूँनी – जो कुमायूँ प्रदेश के अल्मोड़ा-नैनीताल जिलों में बोली जाती है। 
  • गढ़वाली – जो गढ़वाल तथा मसूरी के निकटवर्ती क्षेत्रों में बोली जाती है।

इन दोनों में भी साहित्यिक रचना का अभाव है। 

पूर्वी पहाड़ी का क्षेत्र नेपाल देश है। इसमें बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। 

4. पूर्वी हिन्दी 

पूर्वी हिन्दी उपभाषा का क्षेत्र कानपुर से मिर्जापुर तक और लखीमपुर की उत्तरी सीमा से दुर्ग, बस्तर की सीमा तक है। पूर्वी हिन्दी उपभाषा के अन्तर्गत तीन बोलियाँ हैं – अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। अवधी में बहुत अधिक साहित्य मिलता है। 

5. पश्चिमी हिन्दी 

पश्चिमी हिन्दी हिन्दी उपभाषा का क्षेत्र पश्चिम में अंबाला से लेकर पूर्व में कानपुर की पूर्वी सीमा तक एवं उत्तर में देहरादून से दक्षिण में मराठी की सीमा तक है। साहित्यिक दृष्टि से यह उपभाषा बहुत ही सम्पन्न है। इस उपभाषा के अन्तर्गत पाँच बोलियाँ आती हैं 

  1. बांगरू या हरियाणवी, 
  2. खड़ी बोली या कौरवी, 
  3. ब्रजभाषा, 
  4. बुन्देली अथवा बुन्देलखण्डी 
  5. कन्नौजी।

हिन्दी भाषा की बोलियाँ 

उपभाषाएँ बोलियाँ 
1. पश्चिमी हिन्दी  1. कौरवी
2. हरियाणवी
3. दक्खिनी
4. ब्रजभाषा
5. बुन्देला
6. कन्नौजी 
2. पूर्वी हिन्दी  1. अवधी
2. बघेली
3. छत्तीसगढ़ी 
3. राजस्थानी  1. मारवाड़ी
2. जयपुरी या ढूंढाड़ी
3. मेवाती
4. मालवी 
4. बिहारी  1. भोजपुरी
2. मगही
3. मैथिली 
5. पहाड़ी  1. कुमायूँनी
2. गढ़वाली

राज्यवार बोलियों की विद्यमानता 

राज्य बोलियाँ 
1. उत्तर प्रदेश  कौरवी (खड़ी बोली), ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली, अवधी, भोजपुरी। 
2. उत्तराखण्ड  गढ़वाली, कुमायूँनी। 
3. हरियाणा  हरियाणवी। 
4. राजस्थान  मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी।
5. मध्य प्रदेश  बघेली, नीमाड़ी, मालवी। 
6. छत्तीसगढ़  छत्तीसगढ़ी। 
7. बिहार  भोजपुरी, मगही, मैथिली। 
8. झारखण्ड  भोजपुरी, अंगिका। 

 

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प्रत्यय (Suffix)

प्रत्यय (Suffix)

वे शब्दांश जो किसी शब्द के अन्त में लगकर उस शब्द के अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं, अर्थात् नये अर्थ का बोध कराते हैं, उन्हें प्रत्यय कहते हैं।
जैसे –

  • समाज + इक = सामाजिक 
  • सुगन्ध + इत = सुगन्धित 
  • भूलना + अक्कड़ = भुलक्कड़ 
  • मीठा + आस = मिठास 

अतः प्रत्यय लगने पर शब्द एवं शब्दांश में सन्धि नहीं होती बल्कि शब्द के अन्तिम वर्ण में मिलने वाले प्रत्यय के स्वर की मात्रा लग जायेगी, व्यंजन होने पर वह यथावत रहता है जैसे

  • लोहा + आर = लोहार
  • नाटक + कार = नाटककार 

प्रत्यय के प्रकार 

हिन्दी में प्रत्यय मुख्यत : दो प्रकार के होते हैं

  1. कृदन्त प्रत्यय 
  2. तद्धित प्रत्यय 

1. कृदन्त प्रत्यय 

वे प्रत्यय जो धातुओं अर्थात् क्रिया पद के मूल रूप के साथ लगकर नये शब्द का निर्माण करते हैं कृदन्त या कृत प्रत्यय कहलाते हैं। हिन्दी क्रियाओं में अन्तिम वर्ण ‘ना’ का लोपकर शेष शब्द के साथ प्रत्यय का योग किया जाता है। कृदन्त या कृत प्रत्यय 5 प्रकार के होते हैं।

1. कर्तृवाचक : वे प्रत्यय जो कर्त्तावाचक शब्द बनाते हैं
जैसे – 

  • अक – लेखक, नायक, गायक, पाठक 
  • अक्कड़ – भुलक्कड़, घुमक्कड़, पियक्कड़, कुदक्कड़ 
  • आक –  तैराक, लड़ाक 
  • आलू – झगड़ालू
  • आकू – लड़ाकू 
  • आड़ी – खिलाड़ी 
  • इयल – अड़ियल, मरियल
  • एरा – लुटेरा, बसेरा 
  • ऐया – गवैया
  • ओड़ा – भगोड़ा 
  • ता – दाता
  • वाला – पढ़नेवाला 
  • हार – राखनहार, चाखनहार 

2. कर्मवाचक : वे प्रत्यय जो कर्म के अर्थ को प्रकट करते हैं 

  • औना – खिलौना (खेलना)
  • नी – सूंघनी (सूंघना) 

3. करणवाचक : वे प्रत्यय जो क्रिया के कारण को बताते हैं

  • आ – झूला (झूलना) 
  • ऊ – झाडू (झाड़ना) 
  • न – बेलन (बेलना)
  • नी – कतरनी (कतरना) 

4. भाववाचक : वे प्रत्यय जो क्रिया से भाववाचक संज्ञा का निर्माण करते हैं।

  • अ – मार, लूट, तोल, लेख
  • आ – पूजा
  • आई – लड़ाई, कटाई, चढ़ाई, सिलाई 
  • आन – मिलान, चढान, उठान, उड़ान 
  • आप – मिलाप, विलाप 
  • आव – चढ़ाव, घुमाव, कटाव 
  • आवा –  बुलावा 
  • आवट – सजावट, लिखावट, मिलावट 
  • आहट – घबराहट, चिल्लाहट 
  • ई – बोली 
  • औता – समझौता 
  • औती – कटौती, मनौती 
  • ती – बढ़ती, उठती, चलती 
  • त – बचत, खपत, बढ़त 
  • न – फिसलन, ऐंठन
  • नी – मिलनी 

5. क्रिया बोधक : वे प्रत्यय जो क्रिया का ही बोध कराते हैं

  • हुआ – चलता हुआ, पढ़ता हुआ 

2. तद्धित प्रत्यय 

वे प्रत्यय जो क्रिया पदों के अतिरिक्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि शब्दों के साथ लगकर नये शब्द का निर्माण करते हैं उन्हें तद्धित प्रत्यय कहते हैं।
जैसे

  • छात्र + आ – छात्रा 
  • देव + ई – देवी 
  • मीठा + आस – मिठास
  • अपना + पन – अपनापन 

तद्धित प्रत्यय 6 प्रकार के होते हैं।

1. कर्तवाचक तद्धित प्रत्यय – वे प्रत्यय जो किसी संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण शब्द के साथ जुड़कर कर्त्तावाचक शब्द का निर्माण करते हैं।

  • आर – लुहार, सुनार 
  • इया – रसिया 
  • ई – तेली
  • एरा – घसेरा 

2. भाववाचक तद्धित प्रत्यय – वे प्रत्यय जो संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण के साथ जुड़कर भाववाचक संज्ञा बनाते हैं।

  • आई – बुराई
  • आपा – बुढ़ापा 
  • आस – खटास, मिठास 
  • आहट – कड़वाहट 
  • इमा – लालिमा 
  • ई – गर्मी 
  • ता – सुन्दरता, मूर्खता, मनुष्यता
  • त्व – मनुष्यत्व, पशुत्व 
  • पन – बचपन, लड़कपन, छुटपन 

3. सम्बन्धवाचक तद्धित प्रत्यय – इन प्रत्ययों के लगने से सम्बन्ध वाचक शब्दों की रचना होती है। 

  • एरा – चचेरा, ममेरा 
  • इक – शारीरिक 
  • आलु – दयालु, श्रद्धालु 
  • इत – फलित 
  • ईला – रसीला, रंगीला 
  • ईय – भारतीय 
  • ऐला – विषैला 
  • तर – कठिनतर 
  • मान – बुद्धिमान
  • वत् – पुत्रवत, मातृवत् 
  • हरा – इकहरा 
  • जा – भतीजा, भानजा 
  • ओई – ननदोई 

4. अप्रत्यवाचक तद्धित प्रत्यय – संस्कृत के प्रभाव के कारण संज्ञा के साथ अप्रत्यवाचक प्रत्यय लगाने से सन्तान का बोध होता है।

  • अ – वासुदेव, राघव, मानव 
  • ई – दाशरथि, वाल्मीकि, सौमित्रि 
  • एय – कौन्तेय, गांगेय, भागिनेय
  • य – दैत्य, आदित्य
  • ई – जानकी, मैथिली, द्रोपदी, गांधारी 

5. ऊनतावाचक तद्धित प्रत्यय – संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण के साथ प्रयुक्त होकर ये उनके लघुता सूचक शब्दों का निर्माण करते हैं। 

  • इया – खटिया, लुटिया, डिबिया
  • ई – मण्डली, टोकरी, पहाड़ी, घण्टी 
  • ओला – खटोला, संपोला 

6. स्त्रीबोधक तद्धित प्रत्यय – वे प्रत्यय जो संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण के साथ लगकर उनके स्त्रीलिंग का बोध कराते है। 

  • आ – सुता, छात्रा, अनुजा 
  • आइन – ठकुराइन, मुंशियाइन 
  • आनी – देवरानी, सेठानी, नौकरानी 
  • इन – बाघिन, मालिन
  • नी – शेरनी, मोरनी 

उर्दू के प्रत्यय 

हिन्दी की उदारता के कारण उर्दू के कतिपय प्रत्यय हिन्दी में भी प्रयुक्त होने लगे हैं। जैसे

  • गर – जादूगर, बाजीगर, कारीगर, सौदागर
  • ची – अफीमची, तबलची, बाबरची, तोपची 
  • नाक – शर्मनाक, दर्दनाक 
  • दार – दुकानदार, मालदार, हिस्सेदार, थानेदार 
  • आबाद – अहमदाबाद, इलाहाबाद, हैदराबाद 
  • इन्दा –  परिन्दा, बाशिन्दा, शर्मिन्दा, चुनिन्दा 
  • इश – फरमाइश, पैदाइश, रंजिश 
  • इस्तान – कब्रिस्तान, तुर्किस्तान, अफगानिस्तान 
  • खोर – हरामखोर, घूसखोर, जमाखोर, रिश्वतखोर 
  • गाह – ईदगाह, बंदरगाह, दरगाह, आरामगाह 
  • गार – मददगार, यादगार, रोजगार, गुनाहगार 
  • गीर – राहगीर, जहाँगीर दीवानगी, ताजगी, सादगी
  • गीरी – कुलीगीरी, मुंशीगीरी 
  • नवीस – नक्शानवीस, अर्जीनवीस 
  • नामा – अकबरनामा, सुलहनामा, इकरारनामा 
  • बन्द – हथियारबन्द, नजरबन्द, मोहरबन्द 
  • बाज – नशेबाज, चालबाज, दगाबाज 
  • मन्द – अकलमन्द, जरूरतमंद, ऐहसानमंद 
  • साज – जिल्दसाज, घड़ीसाज, जालसाज 

 

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उपसर्ग (Prefix)

उपसर्ग (Prefix)

वे शब्दांश जो किसी मूल शब्द के पूर्व में लगकर नये शब्द का निर्माण करते हैं अर्थात् नये अर्थ का बोध कराते हैं, उन्हें उपसर्ग कहते हैं। ये शब्दांश होने के कारण वैसे इनका स्वतंत्र रूप से अपना कोई महत्त्व नहीं होता किन्तु शब्द के पूर्व संश्लिष्ट अवस्था में लगकर उस शब्द विशेष के अर्थ में परिवर्तन ला देते हैं। 

उपसर्ग के प्रकार 

हिन्दी में उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं – 

  1. संस्कृत के उपसर्ग 
  2. हिन्दी के उपसर्ग
  3. विदेशी उपसर्ग 

1. संस्कृत के उपसर्ग

संस्कृत में उपसर्ग की संख्या 22 होती है। ये उपसर्ग हिन्दी में भी प्रयुक्त होते हैं इसलिए इन्हें संस्कृत के उपसर्ग कहते हैं। 

उपसर्ग  अर्थ उपसर्गयुक्त शब्द 
1. अति  अधिक/परे  अतिशय, अतिक्रमण, अतिवृष्टि, अतिशीघ्र, अत्यन्त, अत्यधिक, अत्याचार, अतीन्द्रिय, अत्युक्ति, अत्युत्तम, अत्यावश्यक, अतीव 
2. अधि  प्रधान/श्रेष्ठ अधिकरण, अधिनियम, अधिनायक अधिकार, अधिमास, अधिपति, अधिकृत अध्यक्ष, अधीक्षण, अध्यादेश, अधीन, अध्ययन, अधीक्षक, अध्यात्म, अध्यापक 
3. अनु  पीछे / समान  अनुकरण, अनुकूल, अनुचर, अनुज, अनुशासन, अनुरूप, अनुराग, अनुक्रम, अनुनाद, अनुभव, अनुशंसा, अन्वय, अन्वीक्षण, अन्वेषण, अनुच्छेद, अनूदित 
4. अप  बुरा/विपरीत  अपकार, अपमान, अपयश, अपशब्द, अपकीर्ति, अपराध, अपव्यय, अपहरण, अपकर्ष, अपशकुन, अपेक्षा 
5. अभि  पास/सामने  अभिनव, अभिनय, अभिवादन, अभिमान, अभिभाषण, अभियोग, अभिभूत, अभिभावक अभ्युदय, अभिषेक, अभ्यर्थी, अभीष्ट, अभ्यन्तर, अभीप्सा, अभ्यास 
6. अव  बुरा/हीन अवगुण, अवनति, अवधारण, अवज्ञा, अवगति, अवतार, अवसर, अवकाश, अवलोकन, अवशेष, अवतरण 
7. आ  तक/से आजन्म, आहार, आयात, आतप, आजीवन, आगार, आगम, आमोद आशंका, आरक्षण, आमरण, आगमन, आकर्षण, आबालवृद्ध, आघात 
8. उत्  ऊपर/ श्रेष्ठ उत्पन्न, उत्पत्ति, उत्पीड़न, उत्कंठा उत्कर्ष, उत्तम, उत्कृष्ट, उदय, उन्नत, उल्लेख, उद्धार, उच्छ्वास, उज्ज्वल, उच्चारण, उच्छृखल, उद्गम 
9. उप  पास/सहायक  उपकार, उपवन, उपनाम, उपचार, उपहार, उपसर्ग, उपमन्त्री, उपयोग, उपभोग, उपभेद, उपयुक्त, उपभोग, उपेक्षा, उपाधि, उपाध्यक्ष 
10. दुर्  कठिन/बुरा/ विपरीत  दुराशा, दुराग्रह, दुराचार, दुरवस्था, दुरुपयोग, दुरभिसंधि, दुर्गुण, दुर्दशा, दुर्घटना, दुर्भावना, दुरुह 
11. दुस्  बुरा/विपरीत/कठिन  दुश्चिन्त, दुश्शासन, दुष्कर, दुष्कर्म, दुस्साहस, दुस्साध्य
12. नि  बिना/विशेष  निडर, निगम, निवास, निदान, निहत्थ, निबन्ध, निदेशक, निकर, निवारण, न्यून, न्याय, न्यास, निषेध, निषिद्ध 
13. निर्  बिना/बाहर  निरपराध, निराकार, निराहार, निरक्षर, निरादर, निरहंकार, निरामिष, निर्जर, निर्धन, निर्यात, निर्दोष, निरवलम्ब, नीरोग, नीरस, निरीह, निरीक्षण 
14. निस्  बिना/बाहर  निश्चय, निश्छल, निष्काम, निष्कर्म, निष्पाप, निष्फल, निस्तेज, निस्सन्देह 
15. प्र  आगे/अधिक  प्रदान, प्रबल, प्रयोग, प्रचार, प्रसार, प्रहार, प्रयत्न, प्रभंजन, प्रपौत्र, प्रारम्भ, प्रोज्ज्वल, प्रेत, प्राचार्य, प्रायोजक, प्रार्थी 
16. परा  विपरीत/पीछे/अधिक  पराजय, पराभव, पराकम, परामर्श, परावर्तन, पराविद्या, पराकाष्ठा 
17. परि  चारों ओर/पास  परिक्रमा, परिवार, परिपूर्ण, परिमार्जन, परिहार, परिक्रमण, परिभ्रमण, परिधान, परिहास, परिश्रम, परिवर्तन, परीक्षा, पर्याप्त, पर्यटन, परिणाम, परिमाण, पर्यावरण, परिच्छेद, पर्यन्त 
18. प्रति  प्रत्येक/विपरीत  प्रतिदिन, प्रत्येक, प्रतिकूल, प्रतिहिंसा, प्रतिरूप, प्रतिध्वनि, प्रतिनिधि, प्रतीक्षा, प्रत्युत्तर, प्रत्याशा, प्रतीति 
19. वि  विशेष/भिन्न  विजय, विज्ञान, विदेश, वियोग, विनाश, विपक्ष, विलय, विहार, विख्यात, विधान, व्यवहार, व्यर्थ, व्यायाम, व्यंजन, व्याधि, व्यसन, व्यूह 
20. सु  अच्छा/ सरल  सुगन्ध, सुगति, सुबोध, सुयश, सुमन, सुलभ, सुशील, सुअवसर, स्वागत, स्वल्प, सूक्ति 
21. सम् अच्छी तरह/पूर्ण शुद्ध  संकल्प, संचय, सन्तोष, संगठन, संचार, संलग्न, संयोग, संहार, संशय, संरक्षा 
22. अन्  नहीं/ बुरा अनन्त, अनादि, अनेक, अनाहूत, अनुपयोगी, अनागत, अनिष्ट, अनीह अनुपयुक्त, अनुपम, अनुचित, अनन्य

उपर्युक्त उपसर्गों के अतिरिक्त संस्कृत के निम्न उपसर्ग भी हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं – 

  1. अन्तर् – अन्तर्गत, अन्तरात्मा, अन्तर्धान, अन्तर्दशा, अन्तर्राष्ट्रीय, अन्तरिक्ष, अन्तर्देशीय
  2. पुनर् – पुनर्जन्म, पुनरागमन, पुनरुदय, पुनर्विवाह पुनर्मूल्यांकन, पुनर्जागरण 
  3. प्रादुर – प्रादुर्भाव, प्रादुर्भूत 
  4. पूर्व – पूर्वज, पूर्वाग्रह, पूर्वार्द्ध, पूर्वाह, पूर्वानुमान
  5. प्राक – प्राक्कथन, प्राक्कलन, प्रागैतिहासिक, प्राग्देवता, प्राङ्मुख, प्राक्कर्म 
  6. पुरस् – पुरस्कार, पुरश्चरण, पुरस्कृत 
  7. बहिर् – बहिरागत, बहिर्जात, बहिर्भाव, बहिरंग, बहिर्गमन 
  8. बहिस् – बहिष्कार, बहिष्कृत 
  9. आत्म – आत्मकथा, आत्मघात, आत्मबल, आत्मचरित, आत्मज्ञान 
  10. सह – सहपाठी, सहकर्मी, सहोदर, सहयोगी सहानुभूति, सहचर 
  11. स्व – स्वतन्त्र, स्वदेश, स्वराज्य, स्वाधीन, स्वरचित, स्वनिर्मित, स्वार्थ 
  12. पुरा – पुरातन, पुरातत्त्व, पुरापथ, पुराण, पुरावशेष 
  13. स्वयं – स्वयंभू, स्वयंवर, स्वयंसेवक, स्वयंपाणि, स्वयंसिद्ध
  14. आविस् – आविष्कार, आविष्कृत 
  15. आविर् – आविर्भाव, आविर्भूत 
  16. प्रातर् – प्रातः काल, प्रातः वन्दना, प्रातः स्मरणीय 
  17. इति – इतिश्री, इतिहास, इत्यादि, इतिवृत्त 
  18. अलम् – अलंकरण, अलंकृत, अलंकार 
  19. तिरस् – तिरस्कार, तिरस्कृत 
  20. तत् – तल्लीन, तन्मय, तद्धित, तदनन्तर, तत्काल, तत्सम, तद्भव, तद्रूप 
  21. अमा – अमावस्या, अमात्य 
  22. सत् – सत्कर्म, सत्कार, सद्गति, सज्जन, सच्चरित्र, सद्धर्म, सदाचार

 

2. हिन्दी के उपसर्ग 

उपसर्ग अर्थ उपसर्गयुक्त शब्द 
1. अन  नहीं अनपढ़, अनजान, अनबन, अनमोल, अनहोनी, अनदेखी, अनचाहा, अनसुना 
2. अध  आधा अधमरा, अधपका, अधजला, अधगला, अधकचरा, अधखिला, अधनंगा
3. उ उचक्का, उजड़ना, उछलना, उखाड़ना, उतावला 
4. उन एक कम उन्नीस, उनतीस, उनचालीस, उनचास उनसठ, उन्नासी
5. औ अब औगुन, औगढ़, औसर, औघट, औतार 
6. कु बुरा कुरूप, कुपुत्र, कुकर्म, कुख्यात, कुमार्ग, कुचाल, कुचक्र, कुरीति 
7. चौ चार चौराहा, चौमासा, चौपाया, चौरंगा, चौकन्ना, चौमुखा, चौपाल 
8. पच पाँच पचरंगा, पचमेल, पचकूटा, पचमढ़ी 
9. पर दूसरा परहित, परदेसी, परजीवी, परकोटा, परदादा, परलोक, परकाज, परोपकार 
10. भर  पूरा भरपेट, भरपूर, भरकम, भरसक, भरमार, भरपाई 
11. बिन बिना बिनखाया, बिनब्याहा बिनबोया, बिन माँगा, बिन बुलाया, बिनजाया 
12. ति तीन तिरंगा, तिराहा, तिपाई, तिकोन, तिमाही 
13. दु दो/ बुरा दुरंगा, दुलत्ती, दुनाली, दुराहा दुपहरी, दुगुना, दुकाल, दुबला 
14. का बुरा कायर, कापुरुष, काजल
15. स सहित सपूत, सफल, सबल, सगुण, सजीव, सावधान, सकर्मक 
16. चिर सदैव चिरकाल, चिरायु, चिरयौवन, चिरपरिचित, चिरस्थायी, चिरस्मरणीय, चिरप्रतीक्षित 
17. न  नहीं नकुल, नास्तिक, नग, नपुंसक, नगण्य, नेति
18. बहु  ज्यादा बहुमूल्य, बहुवचन, बहुमत, बहुभुज, बहुविवाह, बहुसंख्यक, बहूपयोगी 
19. आप  स्वयं आपकाज, आपबीती, आपकही, आपसुनी 
20. नाना  विविध नानाप्रकार, नानारूप, नानाजाति, नानाविकार 
21. क  बुरा कपूत, कलंक, कठोर
22. सम  समान समतल, समदर्शी, समकोण, समकक्ष, समकालीन, समचतुर्भुज, समग्र 

3. विदेशी उपसर्ग

हिन्दी भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द भी प्रयुक्त होते हैं फलतः उनके उपसर्गों को हिन्दी में विदेशी उपसर्ग की संज्ञा दी जाती है। 

उपसर्ग  अर्थ उपसर्गयुक्त शब्द 
1. बे  रहित  बेघर, बेवफा, बेदर्द, बेसमझ, बेवजह, बेहया, बेहिसाब 
2. दर में दरअसल, दरबार, दरखास्त, दरहकीकत, दरम्यान 
3. बा सहित  बाइज्जत, बामुलायजा, बाअदब, बाकायदा 
4. कम अल्प  कमअक्ल, कमउम्र, कमजोर, कम समझ, कमबख्त 
5. ला परे/बिना  लाइलाज, लावारिस, लापरवाह, लापता, लाजवाब 
6. ना नहीं  नापसन्द, नाकाम, नाबालिग, नाजायज, नालायक, नाराज, नादान 
7. हर प्रत्येक  हरदम, हरवक्त, हररोज, हरहाल हर मुकाम, हर घड़ी
8. खुश श्रेष्ठ  खुशनुमा, खुशहाल, खुशबू, खुशखबरी खुशमिजाज 
9. बद  बुरा  बदबू, बदचलन, बदमाश, बदमिजाज, बदनाम, बदकिस्मत 
10. सर  मुख्य/प्रधान  सरपंच, सरदार, सरताज, सरकार
11. ब सहित  बखूबी, बतौर, बशर्त, बदौलत
12. बिला बिना  बिलाकसूर, बिलावजह, बिलाकानून 
13. बेश अत्यधिक  बेश कीमती, बेश कीमत 
14. नेक भला  नेकराह, नेकनाम, नेकदिल, नेकनीयत 
15. ऐन ठीक  ऐनवक्त, ऐनजगह, ऐन मौके 
16. हम  साथ  हमराज, हमदम, हमवतन, हमसफर, हमदर्द
17. अल निश्चित  अलगरज, अलविदा, अलबत्ता, अलबेता 
18. गैर रहित भिन्न  गैर हाजिर, गैरमर्द, गैर वाजिब 
19. हैड  प्रमुख  हैडमास्टर, हैड ऑफिस, हैडबॉय
20. हाफ आधा  हाफकमीज, हाफटिकट, हाफपेन्ट, हाफशर्ट 
21. सब  उप सब रजिस्ट्रार, सबकमेटी, सब इन्स्पेक्टर 
22. को  सहित  को-आपरेटिव, को-आपरेशन, को-एजूकेशन

 

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समास

समास

‘समास’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘छोटा一रूप’ अतः जब दो या दो से अधिक शब्द (पद) अपने बीच की विभक्तियों का लोप कर जो छोटा रूप बनाते हैं, उसे समास, सामासिक शब्द या समस्त पद कहते हैं।
जैसे 一 ‘रसोई के लिए घर’ शब्दों में से ‘के लिए’ विभक्ति का लोप करने पर नया शब्द बना ‘रसोई घर’, जो एक सामासिक शब्द है।

समास छ: प्रकार के होते हैं

  1. अव्ययीभाव समास,
  2. तत्पुरुष समास,
  3. द्वन्द्व समास,
  4. बहुब्रीहि समास,
  5. द्विगु समास,
  6. कर्म धारय समास 

1. अव्ययीभाव समास 

अव्ययीभाव समास में प्रायः 

  • पहला पद प्रधान होता है।
  • पहला पद या पूरा पद अव्यय होता है। (वे शब्द जो लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार नहीं बदलते, उन्हें अव्यय कहते हैं)
  • यदि एक शब्द की पुनरावृत्ति हो और दोनों शब्द मिलकर अव्यय की तरह प्रयुक्त हो, वहाँ भी अव्ययीभाव समास होता है।
  • संस्कृत के उपसर्ग युक्त पद भी अव्ययीभव समास होते हैं

उदाहारण : —

  • यथाशक्ति 一 शक्ति के अनुसार
  • यथाशीघ्र 一 जितना शीघ्र हो
  • यथाक्रम 一 क्रम के अनुसार
  • यथाविधि 一 विधि के अनुसार
  • यथावसर 一 अवसर के अनुसार
  • यथेच्छा 一 इच्छा के अनुसार
  • प्रतिदिन 一 प्रत्येक दिन, दिन-दिन, हर दिन
  • प्रत्येक 一 हर एक, एक-एक, प्रति एक
  • प्रत्यक्ष 一 अक्षि के आगे
  • घर-घर 一 प्रत्येक घर, हर घर, किसी भी घर को न छोड़कर
  • हाथों-हाथ 一 एक हाथ से दूसरे हाथ तक, हाथ ही हाथ में
  • रातों-रात 一 रात ही रात में
  • बीचों-बीच 一 ठीक बीच में
  • साफ-साफ 一 साफ के बाद साफ, बिल्कुल साफ
  • आमरण 一 मरने तक, मरणपर्यन्त
  • आसमुद्र 一 समुद्रपर्यन्त
  • भरपेट 一 पेट भरकर
  • अनुकूल 一 जैसा कूल है वैसा
  • यावज्जीवन 一 जीवनपर्यन्त
  • निर्विवाद 一 बिना विवाद के
  • दर असल 一 असल में
  • बाकायदा 一 कायदे के अनुसार 

2. तत्पुरुष समास 

  • तत्पुरुष समास में दूसरा पद (पर पद) प्रधान होता है अर्थात् विभक्ति का लिंग, वचन दूसरे पद के अनुसार होता है।
  • इसका विग्रह करने पर कर्त्ता व सम्बोधन की विभक्तियों (ने, हे, ओ, अरे) के अतिरिक्त किसी भी कारक की विभक्ति प्रयुक्त होती है तथा विभक्तियों के अनुसार ही इसके उपभेद होते हैं। 

जैसे 一

1. कर्म तत्पुरुष (को)

  • कृष्णार्पण 一 कृष्ण को अर्पण
  • नेत्र सुखद 一 नेत्रों को सुखद
  • वन-गमन 一 वन को गमन
  • जेब कतरा 一 जेब को कतरने वाला
  • प्राप्तोदक 一 उदक को प्राप्त 

2. करण तत्पुरुष (से/के द्वारा) 

  • ईश्वर-प्रदत्त 一 ईश्वर से प्रदत्त
  • हस्त लिखित 一 हस्त (हाथ) से लिखित
  • तुलसीकृत 一 तुलसी द्वारा रचित
  • दयार्द्र 一 दया से आर्द्र
  • रत्न जड़ित 一 रत्नों से जड़ित 

3. सम्प्रदान तत्पुरुष (के लिए)

  • हवन सामग्री 一 हवन के लिए सामग्री
  • विद्यालय 一 विद्या के लिए आलय
  • गुरु-दक्षिणा 一 गुरु के लिए दक्षिणा
  • बलि–पशु 一 बलि के लिए पशु 

4. अपादान तत्पुरुष (से पृथक)

  • ऋण-मुक्त 一 ऋण से मुक्त
  • पदच्युत 一 पद से च्युत
  • मार्ग भ्रष्ट 一 मार्ग से भ्रष्ट
  • धर्म-विमुख 一 धर्म से विमुख
  • देश-निकाला 一 देश से निकाला 

5. सम्बन्ध तत्पुरुष (का, के, की) 

  • मन्त्रिपरिषद् 一 मन्त्रियों की परिषद्
  • प्रेम सागर 一 प्रेम का सागर
  • राजमाता 一 राजा की माता
  • अमचूर 一 आम का चूर्ण
  • रामचरित 一 राम का चरित 

6. अधिकरण तत्पुरुष (में, पे, पर) 

  • वनवास 一 वन में वास
  • जीवदया 一 जीवों पर दया
  • ध्यान मग्न 一 ध्यान में मग्न
  • घुड़सवार 一 घोड़े पर सवार
  • घृतान्न 一 घी में पक्का अन्न
  • कवि पुंगव 一 कवियों में श्रेष्ठ 

3. द्वन्द्व समास 

  • द्वन्द्व समास में दोनों पद प्रधान होते हैं। 
  • दोनों पद प्रायः एक दूसरे के विलोम होते हैं, सदैव नहीं। 
  • इसका विग्रह करने पर ‘और’, अथवा ‘या’ का प्रयोग होता है।

उदाहारण : —

  • माता-पिता 一 माता और पिता
  • दाल-रोटी 一 दाल और रोटी
  • पाप-पुण्य 一 पाप या पुण्य/ पाप और पुण्य
  • अन्न-जल 一 अन्न और जल
  • जलवायु 一 जल और वायु
  • फल-फूल 一 फल और फूल
  • भला-बुरा 一 भला या बुरा
  • रुपया-पैसा 一 रुपया और पैसा
  • अपना-पराया 一 अपना या पराया
  • नील-लोहित 一 नीला और लोहित (लाल)
  • धर्माधर्म 一 धर्म या अधर्म
  • सुरासुर 一 सुर या असुर/सुर और असुर
  • शीतोष्ण 一 शीत या उष्ण
  • यशापयश 一 यश या अपयश
  • शीतातप 一 शीत या आतप
  • शस्त्रास्त्र 一 शस्त्र और अस्त्र
  • कृष्णार्जुन 一 कृष्ण और अर्जुन 

4. बहुब्रीहि समास

  • बहुव्रीहि समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता। 
  • इसमें प्रयुक्त पदों के सामान्य अर्थ की अपेक्षा अन्य अर्थ की प्रधानता रहती है।
  • इसका विग्रह करने पर ‘वाला, है, जो, जिसका, जिसकी, जिसके, वह आदि आते हैं।

उदाहारण : —

  • गजानन 一 गज का आनन है जिसका वह (गणेश)
  • त्रिनेत्र 一 तीन नेत्र हैं जिसके वह (शिव)
  • चतुर्भुज 一 चार भुजाएँ हैं जिसकी वह (विष्णु)
  • षडानन 一 षट् (छ:) आनन हैं जिसके वह (कार्तिकेय)
  • दशानन 一 दश आनन हैं जिसके वह (रावण)
  • घनश्याम 一 घन जैसा श्याम है जो वह (कृष्ण)
  • पीताम्बर 一 पीत अम्बर हैं जिसके वह (विष्णु)
  • चन्द्रचूड़ 一 चन्द्र चूड़ पर है जिसके वह
  • गिरिधर 一 गिरि को धारण करने वाला है जो वह
  • मुरारि 一 मुर का अरि है जो वह
  • आशुतोष 一 आशु (शीघ्र) प्रसन्न होता है जो वह
  • नीललोहित 一 नीला है लहू जिसका वह
  • वज्रपाणि 一 वज्र है पाणि में जिसके वह
  • सुग्रीव 一 सुन्दर है ग्रीवा जिसकी वह
  • मधुसूदन 一 मधु को मारने वाला है जो वह
  • आजानुबाहु 一 जानुओं (घुटनों) तक बाहुएँ हैं जिसकी वह
  • नीलकण्ठ 一 नीला कण्ठ है जिसका वह
  • महादेव 一 देवताओं में महान् है जो वह
  • मयूरवाहन 一 मयूर है वाहन जिसका वह
  • कमलनयन 一 कमल के समान नयन हैं जिसके वह
  • कनकटा 一 कटे हुए कान है जिसके वह
  • जलज 一 जल में जन्मने वाला है जो वह (कमल)
  • वाल्मीकि 一 वल्मीक से उत्पन्न है जो वह
  • दिगम्बर 一 दिशाएँ ही हैं जिसका अम्बर ऐसा वह
  • कुशाग्रबुद्धि 一 कुश के अग्रभाग के समान बुद्धि है जिसकी वह
  • मन्द बुद्धि 一 मन्द है बुद्धि जिसकी वह
  • जितेन्द्रिय 一 जीत ली हैं इन्द्रियाँ जिसने वह
  • चन्द्रमुखी 一 चन्द्रमा के समान मुखवाली है जो वह
  • अष्टाध्यायी 一 अष्ट अध्यायों की पुस्तक है जो वह

5. द्विगु समास

  • द्विगु समास में प्रायः पूर्वपद संख्यावाचक होता है तो कभी-कभी परपद भी संख्यावाचक देखा जा सकता है।
  • द्विगु समास में प्रयुक्त संख्या किसी समूह का बोध कराती है अन्य अर्थ का नहीं, जैसा कि बहुब्रीहि समास में देखा है।
  • इसका विग्रह करने पर ‘समूह’ या ‘समाहार’ शब्द प्रयुक्त होता है। 

उदाहारण : —

  • दोराहा 一दो राहों का समाहार
  • पक्षद्वय 一 दो पक्षों का समूह
  • सम्पादक द्वय 一 दो सम्पादकों का समूह
  • त्रिभुज 一 तीन भुजाओं का समाहार
  • त्रिलोक या त्रिलोकी 一 तीन लोकों का समाहार
  • त्रिरत्न 一 तीन रत्नों का समूह
  • संकलन-त्रय 一 तीन का समाहार
  • भुवन-त्रय 一 तीन भुवनों का समाहार
  • चौमासा/चतुर्मास  一 चार मासों का समाहार
  • चतुर्भुज 一 चार भुजाओं का समाहार (रेखीय आकृति)
  • चतुर्वर्ण 一 चार वर्णों का समाहार
  • पंचामृत 一 पाँच अमृतों का समाहार
  • पंचपात्र 一 पाँच पात्रों का समाहार
  • पंचवटी 一 पाँच वटों का समाहार
  • षड्भुज 一 षट् (छः) भुजाओं का समाहार
  • सप्ताह 一 सप्त अहों (सात दिनों) का समाहार
  • सतसई 一 सात सौ का समाहार
  • सप्तशती 一 सप्त शतकों का समाहार
  • सप्तर्षि 一 सात ऋषियों का समूह
  • अष्ट-सिद्धि 一 आठ सिद्धियों का समाहार
  • नवरत्न 一 नौ रत्नों का समूह
  • नवरात्र 一 नौ रात्रियों का समाहार
  • दशक 一 दश का समाहार
  • शतक 一सौ का समाहार
  • शताब्दी 一 शत (सौ) अब्दों (वर्षों) का समाहार 

6. कर्मधारय समास 

  • कर्मधारय समास में एक पद विशेषण होता है तो दूसरा पद विशेष्य ।
  • इसमें कहीं कहीं उपमेय उपमान का सम्बन्ध होता है तथा विग्रह करने पर ‘रूपी’ शब्द प्रयुक्त होता है 一

उदाहारण : —

  • पुरुषोत्तम 一 पुरुष जो उत्तम
  • नीलकमल 一 नीला जो कमल
  • महापुरुष 一 महान् है जो पुरुष
  • घन-श्याम 一 घन जैसा श्याम
  • पीताम्बर 一 पीत है जो अम्बर
  • महर्षि 一 महान् है जो ऋषि
  • नराधम 一 अधम है जो नर
  • अधमरा 一 आधा है जो मरा
  • रक्ताम्बर 一 रक्त के रंग का (लाल) जो अम्बर
  • कुमति 一 कुत्सित जो मति
  • कुपुत्र 一 कुत्सित जो पुत्र
  • दुष्कर्म 一 दूषित है जो कर्म
  • चरम-सीमा 一 चरम है जो सीमा
  • लाल-मिर्च 一 लाल है जो मिर्च
  • कृष्ण पक्ष 一 कृष्ण (काला) है जो पक्ष
  • मन्द-बुद्धि 一 मन्द जो बुद्धि
  • शुभागमन 一 शुभ है जो आगमन
  • नीलोत्पल 一 नीला है जो उत्पल
  • मृग नयन 一 मृग के समान नयन
  • चन्द्र मुख 一 चन्द्र जैसा मुख
  • राजर्षि 一 जो राजा भी है और ऋषि भी
  • नरसिंह 一 जो नर भी है और सिंह भी
  • मुख-चन्द्र 一 मुख रूपी चन्द्रमा
  • वचनामृत 一 वचनरूपी अमृत
  • भव-सागर 一 भव रूपी सागर
  • चरण-कमल 一 चरण रूपी कमल
  • क्रोधाग्नि 一 क्रोध रूपी अग्नि
  • चरणारविन्द 一 चरण रूपी अरविन्द
  • विद्या-धन 一 विद्यारूपी धन

 

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कारक

कारक 

वाक्य में जिस शब्द का सम्बन्ध क्रिया से होता है, उसे कारक कहते हैं। इन्हें विभक्ति या परसर्ग (बाद में जुड़ने वाले) भी कहा जाता है। ये सामान्यतः स्वतन्त्र होते हैं और संज्ञा या सर्वनाम के साथ प्रयुक्त होते हैं। हिन्दी में परसर्ग प्रत्ययों के विकसित रूप हैं। हिन्दी में आठ कारक माने गए हैं, जो निम्न हैं 

  1. कर्ता कारक
  2. कर्म कारक
  3. करण कारक
  4. सम्प्रदान कारक
  5. अपादान कारक
  6. सम्बन्ध कारक
  7. अधिकरण कारक एवं
  8. सम्बोधन कारक

 

1. कर्ता कारक 

वाक्य में जिस शब्द द्वारा काम करने का बोध होता है, उसे कर्ता कारक कहते हैं; 

जैसे – राम ने श्याम को मारा।
इस वाक्य में राम कर्ता है, क्योंकि मारा क्रिया करने वाला ‘राम’ ही है। इसका परसर्ग ने है। ने के प्रयोग के कुछ नियम निम्नलिखित हैं – 

  • ‘ने’ का प्रयोग केवल तिर्यक संज्ञाओं और सर्वनाम के बाद होता है;
    जैसे – राम ने, लड़कों ने, मैंने, तुमने, आपने, उसने इत्यादि। 

2. कर्म कारक 

वाक्य में क्रिया का प्रभाव या फल जिस शब्द पर पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते हैं; 

जैसे – राम ने श्याम को मारा
यहाँ कर्ता राम है और उसके मारने का फल ‘श्याम’ पर पड़ता है।  अत: श्याम कर्म है। यहाँ श्याम के साथ कारक चिह्न ‘को’ का प्रयोग हुआ है।
कर्म कारक का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में होता है – 

  • कर्म कारक ‘को’ का प्रयोग चेतन या सजीव कर्म के साथ होता है;
    जैसे – 
    • श्याम ने गीता को पत्र लिखा। 
    • राम ने श्याम को पुस्तक दी। 
    • पिता ने पुत्र को बुलाया। 
  • दिन, समय और तिथि प्रकट करने के लिए ‘को’ का प्रयोग होता है;
    जैसे- 
  • श्याम सोमवार को लखनऊ जाएगा। 
  • 15 अगस्त को दिल्ली चलेंगे।
  • रविवार को विद्यालय बन्द रहेगा।
  • जब विशेषण का प्रयोग संज्ञा के रूप में कर्म कारक की भाँति होता है, तब उसके साथ ‘को’ का प्रयोग होता है
    जैसे – 
    • बुरों को कोई नहीं चाहता।
    • भूखों को भोजन कराओ। 

अचेतन या निर्जीव कर्म के साथ ‘को’ का प्रयोग नहीं होता;
जैसे – 

  • उसने खाना खाया।
  • गोपाल ने फिल्म देखी। 
  • सीता घर गई।

3. करण कारक 

करण का अर्थ है – साधन। संज्ञा का वह रूप जिससे किसी क्रिया के साधन का बोध हो, उसे करण कारक कहते हैं; 

जैसे – 

  • शिकारी ने शेर को बन्दूक से मारा।
    इस वाक्य में बन्दूक द्वारा शेर मारने का उल्लेख है। अतएव बन्दूक करण कारक हुआ। करण कारक के चिह्न हैं – ‘से’, ‘के’, ‘द्वारा’, ‘के कारण’, ‘के साथ’, ‘के बिना’ आदि।

करण कारक का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में होता है 

  • साधन के अर्थ में करण कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • मैंने गुरु जी से प्रश्न पूछा। 
    • उसने तलवार से शत्रु को मार डाला।
    • गीता तूलिका से चित्र बनाती है। 
  • साधक के अर्थ में भी करण कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • उससे कोई अपराध नहीं हुआ।
    • मुझसे यह सहन नहीं होता।
  • भाववाचक संज्ञा से क्रिया विशेषण बनाते समय करण कारक का प्रयोग होता है
    जैसे – 

    • नम्रता से बात करो। 
    • खुद से कहता हूँ। 
  • मूल्य या भाव बताने के लिए करण कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • आजकल आलू किस भाव से बिक रहा है। 
  • उत्पत्ति सूचक अर्थ में भी करण कारक का प्रयोग होता है।
    जैसे – 

    • कोयला खान से निकलता है। 
    • गन्ने के रस से चीनी बनाई जाती है।
  • प्यार, मैत्री, बैर होने पर करण कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • राम की रावण से शत्रुता थी। 
    • राम का विवाह सीता के साथ हुआ।

4. सम्प्रदान कारक 

जिसके लिए कुछ किया जाए या जिसको कुछ दिया जाए इसका बोध कराने वाले शब्द को सम्प्रदान कारक कहते हैं;
जैसे – 

  • उसने विद्यार्थी को पुस्तक दी।
    वाक्य में विद्यार्थी सम्प्रदान है और इसका चिह्न को है। कर्म और सम्प्रदान कारक का विभक्ति चिह्न को है, परन्तु दोनों के अर्थों में अन्तर है। सम्प्रदान का को, के लिए अव्यय के स्थान पर या उसके अर्थ में प्रयुक्त होता है, जबकि कर्म के को का के लिए अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है;
    जैसे – 

    • कर्मकारक 
      • सुनील अनिल को मारता है। 
      • माँ ने बच्चों को खेलते देखा। 
      • उस लड़के को बुलाया।
    • सम्प्रदान कारक 
      • सुनील अनिल को रुपए देता है। 
      • माँ ने बच्चे के लिए खिलौने खरीदे। 
      • उसने लड़के को मिठाइयाँ दीं।

सम्प्रदान कारक का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में होता है 

  • किसी वस्तु को दिए जाने के अर्थ में को, के लिए अथवा के वास्ते का प्रयोग होता है।
    जैसे – 

    • उमेश को पुस्तकें दो।
    • अतिथि के लिए चाय लाओ। 
    • बाढ़ पीड़ितों के वास्ते चन्दा दीजिए। 
  • निमित्त प्रकट करने के लिए सम्प्रदान कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • मैं गीता के लिए घड़ी लाया हूँ। 
    • वह आपके लिए फल लाया है।
    • रोगी के वास्ते दवा लाओ। 
  • अवधि का निर्देश करने के लिए भी सम्प्रदान कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • वह चार माह के लिए देहरादून जाएगा। 
    • वे पन्द्रह दिन के लिए लखनऊ आएंगे।
    • मुझे दो दिन के लिए मोटर साइकिल चाहिए। 
  • ‘चाहिए’ शब्द के साथ भी सम्प्रदान कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • मजदूरों को मजदूरी चाहिए। 
    • छात्रों के लिए पुस्तकें चाहिए। 
    • बच्चों के वास्ते मिठाई चाहिए।

5. अपादान कारक 

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से दूर होने, निकलने, डरने, रक्षा करने, सीखने, तुलना करने का भाव प्रकट होता है, उसे अपादान कारक कहते है, इसका चिह्न से है;
जैसे – 

  • मैं अल्मोड़ा से आया हूँ। 
  • मैं जोशी जी से आशुलिपि सीखता हूँ। 
  • आपने मुझे हानि से बचाया। 
  • अंकित ममता से छोटा है। 
  • हिरन शेर से डरता है।

करण कारक और अपादान कारक में अन्तर 

  • करण और अपादान दोनों कारकों में ‘से’ चिह्न का प्रयोग होता है, किन्तु इन दोनों में मूलभूत अन्तर है।
    • करण क्रिया का साधन या उपकरण है। कर्ता कार्य सम्पन्न करने के लिए जिस उपकरण या साधन का प्रयोग करता है, उसे करण कहते हैं; 
      • जैसे – ‘मैं कलम से लिखता हूँ।’
        यहाँ कमल लिखने का उपकरण है। अतः कलम शब्द का प्रयोग करण कारक में हुआ है। 
      • अपादान में अलगाव का भाव निहित है;
        जैसे – ‘पेड़ से पत्ता गिरा।’
        यहाँ अपादान कारक पेड़ में है, पत्ते में नहीं, जो अलग हुआ है उसमें अपादान कारक नहीं माना जा अपितु जहाँ से अलग हुआ है, उसमें अपादान कारक होता है। पेड़ तो अपनी जगह स्थित है, पत्ता अलग हो गया। अतः स्थिर वस्तु अपादान कारक होगी।

6. सम्बन्ध कारक 

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से किसी अन्य शब्द के साथ सम्बन्ध या लगाव प्रतीत हो उसे सम्बन्ध कारक कहते हैं। सम्बन्ध कारक में विभक्ति सदैव लगाई जाती है। सम्बन्ध कारक का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में होता है। 

  • एक संज्ञा या सर्वनाम का, दूसरी संज्ञा या सर्वनाम से सम्बन्ध प्रदर्शित करने के लिए सम्बन्ध कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • अनीता सुरेश की बहन है। 
    • अनिल अजय का भाई है।
    • सुरेन्द्र वीरेन्द्र का मित्र है। 
  • स्वामित्व या अधिकार प्रकट करने के लिए सम्बन्ध कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • आप किस की आज्ञा से आए हैं। 
    • नेताजी का लड़का बदमाश है।
    • यह उमेश की कलम है। 
  • कर्तृत्व प्रकट करने के लिए सम्बन्ध कारक का प्रयोग होता है।
    जैसे – 

    • प्रेमचन्द के उपन्यास, 
    • शिवानी की कहानियाँ, 
    • मैथिलीशरण गुप्त का साकेत, 
    • कबीरदास के दोहे इत्यादि। 
  • परिमाण प्रकट करने के लिए भी सम्बन्ध कारक का प्रयोग होता है।
    जैसे – 

    • पाँच मीटर की साड़ी, 
    • चार पदों की कविता आदि। 
  • मोलभाव प्रकट करने के लिए भी सम्बन्ध कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • दस रुपए की प्याज, 
    • बीस रुपए के आलू, 
    • पचास हजार की मोटर साइकिल आदि।
  • निर्माण का साधन प्रदर्शित करने के लिए भी सम्बन्ध कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे – 

    • ईंटों का मकान, 
    • चमड़े का जूता, 
    • सोने का आदि।
  • सर्वनाम की स्थिति में सम्बन्ध कारक का रूप रा, रे, री हो जाता है;
    जैसे – 

    • मेरी पुस्तक, 
    • तुम्हारा पत्र, 
    • मेरे दोस्त आदि।

7. अधिकरण कारक

सर्वनाम के जिस रूप से क्रिया का आधार सचित होता है. उसे अधिकरण संज्ञा कहते हैं,  इसके परसर्ग (कारक चिह्न) में, पर हैं। अधिकरण कारक का प्रयोग कारक निम्नलिखित स्थितियों में होता है 

  • स्थान, समय, भीतर या सीमा का बोध कराने के लिए अधिकरण कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे –  

    • उमेश लखनऊ में पढ़ता है।
    • पुस्तक मेज पर है। 
    • उसके हाथ में कलम है।
    • ठीक समय पर आ जाना। 
    • वह तीन दिन में आएगा। 
  • तुलना, मूल्य और अन्तर का बोध कराने के लिए अधिकरण कारक का प्रयोग होता है; जैसे – 
    • कमल सभी फूलों में सुन्दरतम् है। 
    • यह कलम पाँच रुपए में मिलती है। 
    • कुछ सांसद चार करोड़ में बिक गए। 
    • गरीब और अमीर में बहुत अन्तर है। 
  • निर्धारण और निमित्त प्रकट करने के लिए अधिकरण कारक का प्रयोग होता है;
    जैसे –  

    • छोटी-सी बात पर मत लड़ो।
    • सारा दिन ताश खेलने में बीत गया। 

8. सम्बोधन कारक 

संज्ञा के जिस रूप से किसी को पुकारने, चेतावनी देने या सम्बोधित करने का बोध होता है, उसे सम्बोधन कारक कहते हैं। सम्बोधन कारक की कोई विभक्ति नहीं होती है। इसे प्रकट करने के लिए है, अरे, अजी, रे आदि शब्दों का प्रयोग होता है;
जैसे – 

  • हे राम! रक्षा करो। 
  • अरे मूर्ख! सँभल जा। 
  • ओ लड़को! खेलना बन्द करो।

विभक्तियाँ और विभक्तिबोधक चिह्न

विभक्ति  कारक का नाम विमक्तिबोधक चिह्न 
प्रथमा  कर्ता (Nominative)  ने 
द्वितीया  कर्म (Objective) को 
तृतीया  करण (Instrumental)  से, के द्वारा 
चतुर्थी  सम्प्रदान (Dative) को, के लिए 
पंचमी  अपादान (Ablative)  से (अलगाव) 
षष्ठी  सम्बन्ध (Genitive)  का, के, की, रा, रे, री, ना, ने, नी 
सप्तमी  अधिकरण (Locative)  में, पे, पर 
सम्बोधन  सम्बोधन (Abdressive)  हे!, हो!, अरे!  इत्यादि।

 

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