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वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली की जीवनी (Biography of Veer Chandra Singh Garhwali)

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वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली (Veer Chandra Singh Garhwali)

Veer Chandra Singh Garhwaliवीर चन्द्रसिंह गढ़वाली (Veer Chandra Singh Garhwali)
जन्म 25 दिसम्बर 1891
जन्म स्थान रोणैसेर ग्राम (गढ़वाल)
पिता का नाम  जथली सिंह
मृत्यु  1 अक्टूबर, 1979
  • 11 सितम्बर को लैंसडौन छावनी में 2/36 गढ़वाल राइफिल्स में भर्ती हो गये।
  • पेशावर कांड के समय चन्द्रसिंह 2/18 गढ़वाल राइफिल्स में हवलदार थे।
  • 23 अप्रैल, 1930 पेशावर कांड के नायक। 
  • 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया।

वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली (Veer Chandra Singh Garhwali) का जन्म 25 दिसम्बर, 1891 ई० में रोणैसेर ग्राम (गढ़वाल) के एक साधारण कृषक जथली सिंह के घर में हुआ था। वे अपने को चौहान वंशीय मानते हैं। बचपन से ही चन्द्रसिंह बहुत नटखट एवं चंचल थे। यद्यपि चन्द्रसिंह प्रखर बुद्धि के थे, तथापि वे पारिवारिक समस्याओं के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त न कर सके। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव के आस-पास के गाँवों में ही अजित की, तत्पश्चात् घर पर रहने लगे और चौदह वर्ष की अवस्था में उनका विवाह सम्पन्न हुआ। ब्रिटिश काल में सेना में भर्ती हुए गढ़वालियों के ठाट-बाट देखकर चन्द्रसिंह सेना की ओर आकर्षित हुए, फलस्वरूप 3 सितम्बर, 1914 में चन्द्रसिंह घर से भाग गये और 11 सितम्बर को लैंसडौन छावनी में 2/36 गढ़वाल राइफिल्स में भर्ती हो गये।

प्रथम विश्वयुद्ध में वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली 

अगस्त, 1915 ई० में चन्द्रसिंह प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से लड़ने के लिए अपने सैनिक साथियों के साथ फ्रांस पहुँचे। दो माह तक लड़ाई में भाग लेने के पश्चात् अक्टूबर 1915 ई० में चन्द्रसिंह गढ़वाली स्वदेश, भारत आये। सन् 1917 ई० में मेसोपोटानिया में अंग्रेजों की ओर से पुन: लड़ने गये तथा बाद में सकुशल भारत लौट आये।

वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली पर महात्मा गांधी और आर्य समाज का प्रभाव 

सन् 1920 ई० में गढ़वाल में अकाल पड़ा। इसी समय पल्टनें तोड़ी गयीं और गढ़वाली सैनिकों को पल्टन से निकाल दिया गया। ओहदेदारों को सिपाही बना दिया गया। चन्द्रसिंह जो बड़े परिश्रम से हवलदार बने थे उन्हें पुनः सिपाही बना दिया गया। इस समय देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था। इन सब घटनाओं का चन्द्रसिंह पर व्यापक प्रभाव पड़ा। सन् 1921-23 तक चन्द्रसिंह पश्चिमोत्तर सीमान्त में रहे जहाँ अंग्रेजों तथा पठानों के मध्य युद्ध हो गया था। 

अकाल के समय आर्य समाज ने गढ़वाल की अत्यधिक सहायता की। इस सेवा कार्य को देखकर चन्द्रसिंह काफी प्रभावित हुए और वे 1920 के बाद एक पक्के आर्य समाजी बन गये। अब चन्द्रसिंह देश में घटित राजनैतिक घटनाओं में रुचि रखने लगे। सन् 1926 ई० में महात्मा गांधी का कुमाऊँ में आगमन हुआ। चन्द्रसिंह उन दिनों छुट्टी पर थे। वह गांधी जी से मिलने बागेश्वर गये और गांधी जी के हाथ से टोपी लेकर पहनी और उसकी कीमत चुकाने का प्रण किया।

पेशावर में वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली

सन् 1930 ई० में देश में नमक-सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ। उस समय चन्द्रसिंह 2/18 गढ़वाल राइफिल्स में हवलदार थे। इस रेजीमेंट की बदली पेशावर में कर दी गयी। पेशावर पहुँचने पर चन्द्रसिंह ने अपना सम्बन्ध राजनैतिक घटनाओं से स्थापित किया। वे पेशावर की छावनी से शहर में आते-जाते थे और वहाँ अखबार पढ़ते एवं जनता की भावनाओं को मालूम कर छावनी पहुँचाते थे। इन सब कार्यों से चन्द्रसिंह का हृदय परिवर्तन हुआ। उनके हृदय में देशभक्ति का बीज अंकुरित होने लगा, परिणामस्वरूप चन्द्रसिंह ने अपने साथियों को जंगल एवं एकान्त स्थानों में ले जाकर बैठकें कर उनमें देशभक्ति के भाव उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया और निश्चित किया गया कि जिस वक्त काँग्रेस हुक्म दे उसी समय नौकरी छोड़कर अपने घर चले जायेंगे।

अप्रैल 1930 में एक अफसर ने गढ़वाली सैनिकों को पेशावर लाने का उद्देश्य समझाया। स्वयं चन्द्रसिंह गढ़वाली के शब्दों में “22 अप्रैल, 1930को अंग्रेज कमांडर ने कहा कि पेशावर में 98 प्रतिशत मुसलमान हैं और 2 प्रतिशत हिन्दू हैं। मुसलमान दो प्रतिशत हिन्दुओं को बहुत सताते हैं। रामकृष्ण को गालियां देते हैं; गौ की हत्या करते हैं; हिन्दुओं की बहू-बेटियों को उठा ले जाते हैं और हिन्दुओं की दुकानों को घेरे रहते हैं, अतः गढ़वाली पल्टन को हिन्दुओं की रक्षा एवं शहर में शान्ति स्थापित करने को जाना होगा। अगर जरूरत पड़ी तो गोली भी चलानी होगी।”

अंग्रेज अधिकारी (कमाण्डर) के चले जाने के पश्चात् चन्द्रसिंह ने अपने सैनिक साथियों को सही स्थिति के बारे में अवगत कराया कि अंग्रेज अफसर की सभी बातें गलत हैं। वास्तव में यह झगड़ा हिन्दू-मुसलमानों का न होकर, अंग्रेज काँग्रेस का है। चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की शोषण नीति पर प्रकाश डाल कर काँग्रेस को समझाते हुए कहा, “जब काँग्रेस भाई हमारे देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिए ? हमारे लिए गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें। देश के साथ गद्दारी करना अपने खानदान का सर्वनाश करना है।”

22 अप्रैल को गढ़वाली सैनिकों को आदेश मिला कि उन्हें कल (23 अप्रैल) पेशावर जाना होगा। चन्द्रसिंह ने तत्काल पाँचों कम्पनियों के पाँच प्रमुख व्यक्तियों को बुलाया और उनके साथ विचार-विमर्श से गोली न चलाने की योजना पास हो गयी। 23 अप्रैल, 1930 की सुबह कप्तान रिकेट 72 गढ़वाली सैनिकों को लेकर पेशावर में किस्साखानी बाजार पहुँच गये। किसी व्यक्ति द्वारा शिकायत किये जाने पर चन्द्रसिंह पर सन्देह हो जाने के कारण कप्तान रिकेट उन्हें शहर में नहीं ले गये। इससे पेशावर पहुँचने वाले गढ़वाली सैनिकों के चेहरों पर उदासी छा गयी। चन्द्रसिंह ने दूसरे अधिकारी से पेशावर में पहुँची सेना के लिए पानी ले जाने की आज्ञा माँगी। उन्हें चन्द्र की योजना के विषय में कुछ पता नहीं था अतः उन्होंने चन्द्रसिंह को पानी ले जाने की आज्ञा दे दी। वे पानी लेकर पेशावर के शहर में अपने गढ़वाली साथियों के पास पहुँच गये। वहाँ राष्ट्रीय ध्वज फहर रहा था और काँग्रेस का जलसा हो रहा था। केप्टेन रिकेट ने क्रोधित होकर चेतावनी दी, “तुम लोग भाग जाओ नहीं तो गोलियों से भून दिये जाओगे।” एक भी पठान अपनी जगह से नहीं हटा। तब रिकेट ने हुक्म दिया, “गढ़वाली श्री राउण्ड फायर”, अर्थात् गढ़वाली तीन राउण्ड गोली चलाओ । हवलदार चन्द्रसिंह रिकेट की बायीं ओर खड़े थे। उन्होंने रिकेट के हुक्म के तुरन्त बाद हुक्म दिया, “गढ़वाली सीज फायर” अर्थात् गढ़वाली गोली मत चलाओ। सैनिकों ने चन्द्रसिंह का ही हुक्म माना और जुलूस की ओर बन्दूकें नीचे जमीन पर खड़ी कर दी। चन्द्रसिंह ने रिकेट से कहा “हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते ।” इसके पश्चात् गोरी सेना पेशावर बुलाकर गोली चलवायी गयी।

तत्पश्चात् गढ़वाली सैनिकों को छावनी में लाया गया और चन्द्रसिंह से अंग्रेज अधिकारियों ने बगावत का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया “हम हिन्दुस्तानी सिपाही हिन्दुस्तान की हिफाजत के लिए भर्ती हुए हैं, न कि अपने भाइयों पर गोली चलाने के लिए। यह तो सच्चे सिपाहियों का कर्तव्य नहीं कि जनता पर गोली चलाये। आप लोग अपने गोरे सिपाहियों के मुकाबले, हम लोगों को कुत्ते से भी बदतर समझते हैं। हमारे सूबेदार, जमादार आपके एक मामूली गोरे को सलाम करते हैं। आपके एक गोरे को 90 रु० वेतन मिलता है, हमारे सिपाहियों को सिर्फ 16 रु० महीने का वेतन ।”

दूसरे दिन 24 अप्रैल, 1930ई० को सुबह सभी गढ़वाली ओहदेदारों को बुलाकर अंग्रेज अधिकारी ने कहा “आज तुम्हें फिर शहर जाना होगा और गोली चलानी होगी। जनरल साहब का हुक्म है कि जो सिपाही गोली चलाने से इनकार करेगा उसे वहीं पर गोली मार दी जायेगी।” इस आदेश की चन्द्रसिंह पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने गढ़वाली सैनिकों को समझाया, “आपको याद है कि गोरखा बटालियन ने जलियाँवाला बाग में निहत्थी जनता पर गोली चलायी थी। आज तक लोग उसके नाम पर थूकते हैं। मालावार में 1/18 रॉयल गढ़वाल राइफिल्स ने मोपलों पर जुल्म किया था। आपने देखा होगा कि मोपला डॉक्टर गढ़वालियों को कैसी बुरी निगाह से देखते हैं। हम अपनी यह दशा नहीं होने देंगे और हम 800 गढ़वाली काँग्रेस के नाम पर पेशावर में अपना जीवन न्यौछावर कर अमर हो जायेंगे।” सब वीर गढ़वाली सैनिकों ने गायत्री मंत्र पढ़कर और अपनी चुटिया हाथ में लेकर शहर न जाने की कसम खाई। ब्रिटिश सरकार की आज्ञा का उल्लंघन किया गया और कोई भी गढ़वाली सैनिक उस दिन पेशावर नहीं गया। अब अंग्रेज समझ गये कि गढ़वाली सैनिक हमारे लिए नहीं लड़ेंगे अतः उन्हें हथियार जमा कर देने का आदेश दिया गया, लेकिन उन्होंने हथियार जमा करने से भी इनकार कर दिया। कुछ सैनिकों ने ब्रिगेडियर की ओर संगीने तान दीं। बाद में उनके नेता चन्द्रसिंह ने सैनिकों को अंग्रेजों की असीमित शक्ति से अवगत कराते हुए कहा कि हमें हथियार क्वार्टर गार्ड में जमा कर देने चाहिए। यद्यपि पहली बार तो गढ़वाली सैनिकों ने चन्द्रसिंह की आज्ञा की अवहेलना कर दी परन्तु बाद में अन्य गढ़वाली सैनिक नेताओं के समझाने पर उन्होंने हथियार जमा कर दिये। इसके बाद साठ गढ़वालियों पर बगावत का आरोप लगाया गया। सारी बटालियन एवटाबाद में नजरबन्द कर दी। इसके बाद उन पर अभियोग चलाया गया। मुकन्दीलाल बैरिस्टर को गढ़वालियों की ओर से पैरवी के लिए बुलाया गया जिसके फलस्वरूप 9 ओहदेदारों को सजा देकर बाकी सिपाही छोड़ दिये गये।

बैरिस्टर मुकन्दीलाल का विचार है कि कमांडर-इन-चीफ स्वयं चाहते थे कि संसार को यह पता न लगे कि भारतीय सेना अंग्रेजों के विरुद्ध हो गयी है, इस लिए उन्होंने मेरी ओर ध्यान न देकर चन्द्रसिंह को मौत की सजा की जगह पर आजन्म कारावास की सजा दी। बाकी लोगों को आठ वर्ष से दो वर्ष तक के कारावास का दण्ड दिया गया परन्तु सभी सजा प्राप्त सिपाही पूरी सजा की अवधि से पूर्व ही छूट गये।

12 जून, 1930 ई० की रात को चन्द्रसिंह एवटाबाद जेल में भेज दिये गये। चन्द्रसिंह अनेकों जेलों में यातनाएँ सहते रहे। नैनी जेल में उनकी भेंट क्रान्तिकारी राजबन्दियों के साथ हुई। लखनऊ जेल में उनकी भेंट सुभाषचन्द्र बोस से हुई। चन्द्रसिंह एक निर्भीक देशभक्त था जो बेड़ियों को ‘मर्दो का जेवर’ कहता था। उनका कहना था कि जब मौत अवश्यम्भावी है तो उससे डरना मूर्खता मात्र है।

भारत छोड़ो में वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली

ग्यारह वर्ष से अधिक की अवधि तक अनेक जेलों में यातनाओं का दृढ़ता से मुकाबला करते हुए 26 सितम्बर, 1941 ई० में जेल से रिहा हुए। कुछ समय आनन्द भवन में रहने के पश्चात् 1942 ई० में चन्द्रसिंह अपने बच्चों सहित वर्धा आश्रम में कुछ समय रहे। जुलाई 1942 ई० में चन्द्रसिंह इलाहाबाद चले गये। अगस्त में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन चला, जिसमें नवयुवकों ने सक्रिय भाग लिया। इलाहाबाद में उत्साही नवयुवकों ने उन्हें अपना कमाण्डर-इन-चीफ नियुक्त किया और डॉ० गैरोला को डिक्टेटर बनाया गया। चन्द्रसिंह का मुख्य कार्य 1942 ई० में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई के लिए युवकों का प्रशिक्षण एवं नेतृत्व करना था। आन्दोलन के दौरान चन्द्रसिंह फिर पकड़े गये और 6 अक्टूबर, 1942 ई० को उन्हें सात साल की सजा एवं दो सौ रुपये जुर्माने की सजा हुई और अनेकों जेलों में यातनाएँ सहते सात वर्ष की जगह 1945 में ही जेल से छोड़ दिये गये, लेकिन उनके गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 

कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रभाव 

चन्द्रसिंह का क्रान्तिकारी यशपाल से जेल में परिचय हो गया था, अतः जेल से छूटने के पश्चात् कुछ दिन वे यशपाल के साथ लखनऊ रहे और तत्पश्चात् अपने बच्चों से मिलने हल्द्वानी आये। चन्द्रसिंह गढ़वाली पर कम्युनिस्ट विचारधारा का व्यापक प्रभाव था और वे 1944 के बाद एक पक्के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में सामने आये। कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार करने के लिए उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों की यात्रा की। 

रानीखेत में वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली

सन् 1946 ई० की गर्मियों में प्रादेशिक पार्टी के आदेश पर चन्द्रसिंह रानीखेत आये और ताड़ीखेत में रहने लगे। उस समय रानीखेत में अनाज का अभाव व्याप्त था। चन्द्रसिंह ने वहाँ की स्थानीय जनता को संगठित कर अन्न प्राप्ति के लिए आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। एक दिन (1946) चन्द्रसिंह ने जनता के संगठित एवं सुव्यवस्थित जुलूस का नेतृत्व करते हुए अनाज के गोदाम का ताला तोड़ दिया और अन्न के अभाव से पीड़ित लोगों से पैसे जमाकर उन्हें अन्न का वितरण प्रारम्भ कर दिया। इस पर एस० डी० ओ० पुलिस सहित घटना स्थल पर पहुंचे और उन्होंने चन्द्रसिंह से अन्न की समस्या के बारे में बातचीत की जिसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने अन्न की समस्याओं को हल करने के लिए ‘अन्न परामर्श समिति’ गठित की और चन्द्रसिंह उसके अध्यक्ष बनाये गये। अतः जनसाधारण की अन्न समस्या का समाधान हो गया। 

रानीखेत की अन्न समस्या का समाधान तो हो गया परन्तु रानीखेत की दूसरी भीषण समस्या पानी की रही अतः चन्द्रसिंह ने अब पानी की समस्या से निपटना चाहा। उन्होंने रानीखेत के बाजार से बासठ कनस्टरों को जमाकर भवाली से पानी भराकर स्वयं जनता में वितरित करवाया। इस प्रकार रानीखेत की पानी की समस्या पर भी चन्द्रसिंह ने विजय प्राप्त कर ली।

गढ़वाल में प्रवेश 

इसके पश्चात् उनके गढ़वाल-प्रवेश निषेध की अवधि समाप्त हो गयी, अतः दिसम्बर 1946 ई० को चन्द्रसिंह ने गढ़वाल में प्रवेश किया, जहाँ स्थान-स्थान पर जनता ने स्वागत किया। कुछ दिन गढ़वाल में भ्रमण करने के पश्चात् लुधियाना किसान कॉफ्रेंस में भाग लिया और उसके बाद लाहौर आये। दोनों जगह चन्द्रसिंह का भारी स्वागत हुआ। 

सन् 1946 से ही टिहरी रियासत के विरुद्ध जब आन्दोलन निरन्तर विकास कर रहा था, चन्द्रसिंह ने भी टिहरी आन्दोलन की ओर अपनी निगाहें डालीं और जनवरी 1948 ई० में नागेन्द्र सकलानी के शहीद हो जाने के पश्चात् उन्होंने टिहरी आन्दोलन का नेतृत्व किया। 

भारत सरकार का भेदभाव पूर्ण रवैया

कम्युनिस्ट विचारधारा के होने के कारण स्वतंत्रता के बाद भी भारत सरकार उनसे शंकित रहती थी। सरकार को संदेह हो गया कि चन्द्रसिंह गढ़वाली, जिला बोर्ड के चेयरमैन के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं, अतः उन्हें पेशावर काण्ड का सजायाफ्ता होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ महीनों तक सजा प्राप्त करने के बाद उन्हें जेल से मुक्त कर दिया। इसी समय शराब और टिंचरी के प्रयोग से गढ़वाल के समाज में भारी बुराइयाँ व्याप्त थीं। चन्द्रसिंह ने लोगों को संगठित कर शराब व टिंचरी के विरुद्ध आंदोलन किया और उन्हें काफी सफलता मिली। 

उत्तराखण्ड के लिए आवाज 

सन् 1951-52 ई० में चन्द्रसिंह पौड़ी-चमोली निर्वाचन क्षेत्र से कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े। लेकिन गढ़वाली जनता काँग्रेस समर्थक होने के कारण उन्हें चुनाव में सफलता नहीं मिल पाई। चन्द्रसिंह ने पेशावर और उसमें सफलता प्राप्त की। स्वतन्त्रता के बाद चन्द्रसिंह गढ़वाली ने उत्तराखण्ड के विकास की योजनाओं के लिए आवाज उठाई। चन्द्रसिंह गढ़वाली को दूधातोली नामक रमणीक स्थान अत्यधिक प्रिय है। उन्होंने वहाँ पर उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय के निर्माण हेतु सरकार को कई बार सुझाव दिये, परन्तु कुमाऊँ-गढ़वाल की जनता में व्याप्त आपसी संघर्ष के कारण उनकी योजना सफल न हो सकी; फिर भी सरकार ने उनके अनुरोध पर वहाँ हेलीकॉप्टर के उतरने के लिए एक हेलीपैड का निर्माण करवा दिया है। उनकी इच्छानुसार मरणोपरान्त उनकी समाधि हेतु स्थान के लिए छह फीट भूमि वन विभाग द्वारा स्वीकृत हो चुकी है। उन्होंने रामनगर से गढ़वाल तक रेलवे लाइन के निर्माण का सुझाव भी सरकार को दिया है। 

जीवन की अंतिम यात्रा  

1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।

 

महान व्यक्तियों के वक्तव्य 

“मुझे एक चन्द्रसिंह और मिलता तो भारत कभी का स्वतन्त्र हो गया होता।” – महात्मा गाँधी 

चन्द्रसिंह गढ़वाली के पेशावर सैनिक विद्रोह ने हमें आजाद हिन्द फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी है।” जनरल मोहनसिंह

चन्द्रसिंह एक महान् पुरुष है। आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है। पेशावर कांड का नतीजा यह हुआ कि अंग्रेज समझ गये कि भारतीय सेना में यह विचार गढ़वाली सिपाहियों ने ही पहले पहल पैदा किया कि विदेशियों के लिए अपने खिलाफ नहीं लड़ना चाहिए ।” बैरिस्टर मुकन्दीलाल

पेशावर का विद्रोह, विद्रोहों की एक शृंखला पैदा करता है जिसका भारत को आजाद करने में भारी हाथ है। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली इसी पेशावर-विद्रोह के नेता और जनक थे।” राहुल सांस्कृत्यायन

 

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