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Bihar PCS

बिहार के प्रमुख जलप्रपात

जलप्रपात का नाम नदी स्थान
ककोलत कोडरमा पठार से उतरने वाली धारा ककोलत (नवादा)
सुखलदरी कनहर रोहतास
धुआँकुंड (30 मीटर) काव, धोबा ताराचंडी (रोहतास)
दुर्गावती (खादर कोह) (80 मीटर) दुर्गावती छानपापर (रोहतास)
जिआरखंड फुलवरिया जिआरखंड (भोजपुर)
तमासीन महाने
खुआरी दाह (180 मीटर) असाने रोहतास
राकिमकुंड गायघाट रोहतास
ओखारीनकुंड (90 मीटर) गोपथ रोहतास
सुआरा (120 मीटर) पूर्वी सुआरा रोहतास
देवदारी (58 मीटर) कर्मनाशा रोहतास पठार (रोहतास)
तेलहरकुंड (80 मीटर) पश्चिम सुआरा रोहतास पठार (रोहतास)

 

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बिहार के प्रमुख मेले

बिहार के प्रमुख मेले (Major Fair of Bihar)

सोनपुर का मेला – सोनपुर में प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में यह मेला 1850 से निरन्तर लगता आ रहा है। यह मेला ग्रामीण एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विश्व का और पशुधन की दृष्टि से एशिया का सबसे बड़ा मेला है। धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित ‘हरिहर क्षेत्र’ तथा ‘गज-ग्राह’ की लीला इसी क्षेत्र से संबंधित है।

पितृपक्ष मेला – गया में प्रत्येक वर्ष भाद्रपद पूर्णिया से आश्विन माह की अमावस्या तक आयोजित इस धार्मिक मेले में हिन्दू धर्म के लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध कार्य करके उनकी मुक्ति की प्रार्थना करते हैं।

काकोलत मेला – नवादा जिले में काकोलत नामक स्थान पर प्रत्येक वर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर इस धार्मिक मेले का आयोजन छह दिनों तक किया जाता है।

वैशाली का मेला – जैन धर्मावलंबियों का यह मेला महावीर की जन्मस्थली वैशाली में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को आयोजित होता है।

जानकी नवमी का मेला – सीता जी को जन्मस्थली सीतामढ़ी में उनके जन्म दिवस पर एक विशाल मेले का आयोजन चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को होता है।

हरदी मेला – मुजफ्फरपुर में प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के पर्व पर यह मेला 15 दिन तक आयोजित होता है।

कल्याणी मेला – कटिहार जिले के कदवा प्रखंड में कल्याणी नामक स्थल पर मीलों तक फैली झील के किनारे प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा पर यह मेला लगता है।

सौराठ मेला –  सभागाछी (मधुबनी जिला) में प्रत्येक वर्ष जेठ-आषाढ़ माह में आयोजित इस मेले में अविवाहित वयस्क युवकों को विवाह हेतु प्रदर्शित किया जाता है। विवाह योग्य कन्याओं के अभिभावक वहीं विवाह संबंधी निर्णय लेते हैं। यह मेला विश्व में अपने अद्भुत रूप के लिए प्रसिद्ध है।

बेतिया मेला – बेतिया में प्रत्येक वर्ष दशहरा पर लगभग 15-20 दिन तक आयोजित इस पशु मेले में पशुओं का क्रय-विक्रय किया जाता है।

कालीदेवी का मेला – फारबिसगंज में प्रत्येक वर्ष अक्टूबर/नवम्बर माह में आयोजित इस 15 दिवसीय धार्मिक मेले में काली देवी की पूजा की जाती है।

कोसी मेला – कटिहार के समीप कोसी नदी पर प्रत्येक वर्ष पौष पूर्णिमा पर आयोजित इस धार्मिक मेले में लकड़ी के समान का क्रय-विक्रय भी किया जाता है।

सहोदरा मेला/थारु मेला – नरकटियागंज-भीखनाठोरी मुख्य मार्ग पर स्थित सुभद्रा (सहोदरा) मंदिर पर स्थित ‘शक्तिपीठ’ में प्रत्येक वर्ष चैत्र माह में रामनवमी के अवसर

पर यह धार्मिक मेला आयोजित किया जाता है।

सिमरिया मेला – बरौनी जंक्शन से लगभग 8 किमी. दूर दक्षिण-पूर्व में राजेन्द्र पुल के समीप प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में सूर्य के उत्तरायण होने पर धार्मिक मेला आयोजित किया जाता है।

मंदार मेला – बांका जिले के मुख्यालय से 18 किमी. दूर बौंसी नामक स्थान पर स्थित मंदार पहाड़ी पर प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर 15 दिन का मेला लगता है। इसे बौसी मेला भी कहते हैं। माना जाता है कि दैवासुर संग्राम के समय देवासुरों के द्वारा होने वाले सागर मंथन के समय इसी मंदार पर्वत को मंथन दंड बनाया गया था। मंदार पर्वत से ही देव दानवों ने रल प्राप्त किए थे।

सीतामढी मेला –  नवादा जिले के सीतामढ़ी में अग्रहायण पूर्णिमा के अवसर पर बहुत बड़ा ग्रामीण मेला लगता है। मान्यता है कि सीता वनवास के समय लव-कुश का वहां जन्म हुआ था, जिसके कारण महिलाएं वहां के गुफानुमा मंदिर में संतान प्राप्ति के लिए विदेहनदिनी से मन्नत मांगती हैं और संतान प्राप्ति के बाद मंदिर के पास एक चट्टान पर बने कठौतनुमा गड्ढे में वे ‘गड़तर’ (कपड़े का एक टुकड़ा) चढ़ाती है। दंत कथा है कि सीतामढ़ी के पास वारत नामक गांव के टाल में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। यह गांव और टाल तिलैया यानी तमसा नदी के तट पर है।

झांझरकड महोत्सव – सहसराम से 6 कि.मी. दक्षिण में कैमूर पर्वत श्रृंखला पर झांझरकुंड और धुआं कुंड के बीच में लगभग एक दर्जन छोटे-बड़े झरने हैं। इसी स्थान पर सहसराम सिख (अंगरेहरी) समुदाय के लोग इस महोत्सव का आयोजन करते हैं। इसका आयोजन बरसात के मौसम में विशेषकर शनिवार और रविवार (दो दिन) को किया जाता है। इसमें भाग लेने के लिए औरंगाबाद, आरा, पटना और कोलकाता तक से लोग आते हैं।

पुस्तक मेला – पटना में प्रत्येक वर्ष नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में आयोजित इस पुस्तक मेले में देश भर के प्रमुख प्रकाशक अपनी पुस्तकों का प्रदर्शन करते हैं।

कुछ अन्य प्रमुख मेले – गया का बौद्ध मेला, मनेर शरीफ का उर्स, बक्सर का लिट्टी-भंटा मेला, भागलपुर का पापहरणि मेला, मुजफ्फरपुर का तुर्की मैला, खगड़िया का गोपाष्टमी मेला, ब्रह्मपुर का कृषि मेला, दरभंगा का हरारी पोखर मेला, सीतामढ़ी का विवाह पंचमी मेला, सीतामढ़ी का बगही मठ मेला, झंझारपुर का विन्देश्वर मेला, सहरसा का सिंहेश्वर मेला आदि।

 

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बिहार के लोक नाट्य

बिहार के लोक नाट्य (Folk Drama of Bihar)

जट-जाटिन – प्रत्येक वर्ष सावन से लगभग कार्तिक माह की पूर्णिमा तक केवल अविवाहितों द्वारा अभिनीत इस लोकनाट्य में जट-जाटिन के वैवाहिक जीवन को प्रदर्शित किया जाता है।

सामा-चकेवा – प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की सप्तमी से पूर्णमासी तक अभिनीत इस लोक नाट्य में पात्रों को मिट्टी द्वारा बनाया जाता है, लेकिन उनका अभिनय बालिकाओं द्वारा किया जाता है। इस अभिनय में सामा अर्थात श्यामा तथा चकेवा की भूमिका निभायी जाती है। इस लोक नाट्य में गाए जाने वाले गीतों में प्रश्नोत्तर के माध्यम से विषयवस्तु प्रस्तुत की जाती है।

बिदेसिया – इस लोक नाट्य में भोजपुर क्षेत्र के अत्यन्त लोकप्रिय ‘लौंडा नाच’ के साथ ही आल्हा, पचड़ा, बारहमासा, पूरबी, गोंड, नेटुआ, पंवड़िया आदि का प्रभाव होता है। नाटक का प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है। नाटक में महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष कलाकारों द्वारा की जाती है।

भकुली बंका – प्रत्येक वर्ष सावन से कार्तिक माह तक आयोजित किए जाने वाले इस लोक नाट्य में जट-जाटिन द्वारा नृत्य किया जाता है।

डोकमच –  यह पारिवारिक उत्सवों से जुड़ा एक लोक नाट्य है। इस घरेलू लोकनाट्य को मुख्यतः घर-आंगन परिसर में देर रात्रि में महिलाओं द्वारा आयोजित किया जाता हैं। इसमें हास-परिहास के साथ ही अश्लील हाव-भाव का प्रदर्शन भी किया जाता है।

किरतनिया – यह एक भक्तिपूर्ण लोक नाट्य है, जिसमें भगवान श्रीकष्ण की लीलाओं का वर्णन भक्ति-गीतों (कीर्तन) के साथ भाव का प्रदर्शन करके किया जाता है।

बिहार की नाट्य संस्था एवं नाट्य संगठन

स्थान नाट्य संस्था एवं संगठन
पटना रुपाक्षर, कला-निकुंज, कला-त्रिवेणी, भंगिमा, प्रयास, अर्पण, अनामिका, प्रांगण, सृर्जना, माध्यम, बिहार आर्ट थियेटर, कला-संगम, भारतीय जन-नाट्य संघ आदि।
बेगूसराय जिला नाट्य परिषद्, सरस्वती कला मंदिर, आदि।
भागलपुर सर्जना, सागर नाट्य परिषद्, दिशा, प्रेम आर्ट, आदर्श नाट्य कला केंद्र, अभिनय कला मंदिर आदि।
खंगोल भूमिका, दर्पण कला केंद्र, सूत्रधार, थियेटरेशिया, मंथन कला परिषद् आदि।
आरा कामायनी, यवनिका, भोजपुर मंच, युवानीति, नटी, नवोदय संघ आदि।
छपरा मयूर कला केंद्र, शिवम सांस्कृतिक मंच, हिन्द कला केंद्र, इंद्रजाल, मनोरमा सांस्कृतिक दल आदि।
औरंगाबाद नाट्य भारती, ऐक्टर्स ग्रुप आदि।
गया कला-निधि, शबनम आस, ललित कला मंच, नाट्य स्तुति आदि।
दानापुर बहुरुपिया, बहुरंग आदि।
सासाराम जनचेतना
बक्सर नवरंग कला मंचा
बिहिया भारत नाट्य परिषद्
नवादा शोभादी रंग संस्था
महनार अनंत अभिनय कला परिषद्
जमालपुर रॉबर्ट रिक्रिएशन क्लब, उत्सव
सुल्तानगंज जनचेतना
मुजफ्फरपुर रंग

 

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बिहार का लोक नृत्य

बिहार का लोक नृत्य (Folk Dance of Bihar)

छऊ नृत्य – यह लोकनृत्य युद्ध भूमि से संबंधित है, जिसमें नृत्य शारीरिक भाव भंगिमाओं, ओजस्वी स्वरों तथा पगों का धीमी-तीव्र गति द्वारा संचालन होता है। इस नृत्य की दो श्रेणियां हैं – प्रथम ‘हतियार श्रेणी’ जिसमें वीर रस की प्रधानता है और दूसरी ‘कालाभंग श्रेणी’ जिसमें श्रृंगार रस को प्रमुखता दी जाती है। इस लोकनृत्य में मुख्यतः पुरुष नृत्यक ही भाग लेते हैं।

कठ घोड़वा नृत्य –  लकड़ी तथा बांस की खपच्चियों द्वारा निर्मित तथा रंग-बिरंगे वस्त्रों के द्वारा सुसज्जित घोड़े के साथ नर्तक लोक वाद्यों के साथ नृत्य करता है।

लौंडा नृत्य – भोजपुर क्षेत्र में अधिक प्रचलित इस नृत्य में लड़का रंग-बिरंगे वस्त्रों एवं श्रृंगार के माध्यम से लड़की का रूप धारण कर नृत्य करता है।

धोबिया नृत्य –  भोजपुर क्षेत्र के धोबी समाज में विवाह तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर किया जाने वाला सामूहिक नृत्य।

झिझिया नृत्य –  यह ग्रामीण महिलाओं द्वारा एक घेरा बनाकर सामूहिक रूप से किया जाने वाला लोकनृत्य है। इसमें सभी महिलाएं राजा चित्रसेन तथा उनकी रानी की कथा, प्रसंगों के आधार पर रचे गए गीतों को गाते हुए नृत्य करती हैं।

करिया झूमर नृत्य –   यह एक महिला प्रधान नृत्य है जिसमें महिलाएं हाथों में हाथ डालकर घूम-घूमकर नाचती गाती हैं।

खोलडिन नृत्य –  यह विवाह अथवा अन्य मांगलिक कार्यों पर आमंत्रित अतिथियों के समक्ष मात्र उनके मनोरंजन हेतु व्यावसायिक महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।

पंवड़ियां नृत्य –  वह जन्मोत्सव आदि के अवसर पर पुरुषों द्वारा लोकगीत गाते हुए किया जाने वाला नृत्य है।

जोगीड़ा नृत्य –  मौज-मस्ती की प्रमुखता वाले इस नृत्य में होली के पर्व पर ग्रामीण जन एक-दूसरे को रंग-गुलाल लगाते हुए होली के गीत गाते हैं तथा नृत्य करते हैं।

विदापत नृत्य – पूर्णिया क्षेत्र के इस प्रमुख लोकनृत्य में मिथिला के महान कवि विद्यापति के पदों को गाते हुए तथा पदों में वर्णित भावों को प्रस्तुत करते हुए सामूहिक रूप से नृत्य किया जाता है।

झरनी नृत्य – यह लोकनृत्य मोहर्रम के अवसर पर मुस्लिम नर्तकों द्वारा शोक गीत गाते हुए प्रस्तुत किया जाता है।

करमा नृत्य – यह राज्य के जनजातियों द्वारा उसलों की कटाई-बुवाई के समय ‘कर्म देवता’ के समक्ष किया जाने वाला सामूहिक नृत्य है। इसमें पुरुष एवं महिला एक-दुसरे की कमर में हाथ डालकर श्रापूर्वक नृत्य करते हैं।

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बिहार का लोक संगीत

बिहार का लोक संगीत (Folk Music of Bihar)

बिहार में संगीत का प्रारंभ वैदिक युग में हुआ। भृगु, गौतम, याज्ञवलक्य आदि जैसे श्रेष्ठ ऋषि-मुनियों का संगीत साधना में प्रमुख स्थान था, जिनके आश्रम बिहार की भूमि पर अवस्थित थे। उत्तर बिहार के मिथिलांचल में 13वीं शताब्दी के आरंभ में ही नयदेव द्वारा संगीत सम्बंधी रचना लिखी गई।

  • तुर्क शासन काल में बिहार में सूफी संतों के माध्यम से संगीत की प्रगति हुई, जबकि वैष्णव धर्म सुधार आंदोलन के माध्यम से नृत्य और संगीत दोनों का विकास हुआ।
  • यूरोप के एक पर्यटक ‘क्राउफर्ड’ ने 18वीं शताब्दी में बिहार का भ्रमण किया तथा भारत के इस राज्य को संगीत प्रधान राज्य बताया।
  • पटना में 1913 में प्रसिद्ध गायक रजाशाह ने भारतीय राग-रागिनियों का पुनः विभाजन एवं पुनर्गठन किया। रजाशाह ने ‘नगमत असफी’ नामक संगीत पुस्तक लिखी थी और एक नए वाद्ययंत्र ‘ठाट’ के प्रयोग का शुभारंभ किया।
  • पटना में ख्याल और ठुमरी को विशेष लोकप्रियता मिली। इनके अतिरिक्त गज़ल, दादरा, कजरी और चैती गायन को लोकप्रिय शैलियां थीं। इनको लोकप्रिय बनाने में रोशनआरा, बेगम, एमाम बांदी, रामदासी आदि लोक गायिकाओं का विशेष योगदान रहा।
  • बिहार में विवाह के समय सुमंगली, जन्म-उत्सव पर सोहर, कृषि कार्यों में बारहमासा आदि गायन की लोकप्रिय शैलियां हैं।
  • भारतीय संगीत के क्षेत्र में विहार में ‘नचारी’, ‘लगनी’, ‘चैता’, ‘पूरबी’ और ‘फाग’ रागों का प्रमुख स्थान है। ‘नचारी’ राग के गीतों का सृजन मिथिला के प्रख्यात कवि विद्यापति ने किया था।

उत्तर बिहार में मुख्यत: मिथिला अथवा दरभंगा जिले में विवाह के अवसर पर ‘लगनी’  राग में गीत गाये जाते हैं। इन गीतों की रचना का श्रेय भी महाकवि विद्यापति को दिया जाता है। चैत्र के महीने में ‘चैता’ राग में गाये जाने वाले गीत बिहार में मुख्यत: पटना, भोजपुर, बक्सर, रोहतास जिले में अधिक लोकप्रिय हैं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में होली के विशेष अवसर पर ‘फाग’ राग में गीत गाने का विशेष प्रचलन है। इन गीतों को ‘फगुआ’ या ‘होली गीत’ भी कहा जाता है।

  • ‘फाग’ राग के गीतों की रचना का श्रेय बेतियाराज के जमींदार नवलकिशोर सिंह को है।
  • ‘पूरबी’ राग के गीतों के माध्यम से पति वियोग में रहने वाली नारियां अपनी दयनीय दशा एवं पति वियोग का वर्णन करती थीं। इन गीतों का उदय बिहार के सारण जिले में हुआ था।
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