Daily Editorial - Supreme Court's Decision New Possibilities for Caste-Based Reservations

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: जातिगत आरक्षण पर नई संभावनाएं

जाति व्यवस्था और भारतीय समाज पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

जाति भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त एक ठोस प्रणाली है, जो सहस्राब्दियों से चली आ रही है। विडंबना यह है कि लोकतंत्र स्थापित होने के बाद भी भेदभाव और जातिवाद की विरासत जारी रही। भारतीय समाज और राजनीति में जातिगत भेदभाव ने एक मजबूत पकड़ बना रखी है, जिससे सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ावा मिलता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय इस व्यवस्था में बदलाव लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और उसकी प्रमुख बातें

सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ ने जातिगत आरक्षण के मुद्दे पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं। न्यायाधीश बी.आर. गवई के नेतृत्व में चार न्यायाधीशों ने इस बात पर जोर दिया कि जातिगत आरक्षण मेधा और जरूरत से संबंधित है, न कि नौकरशाही या धन तंत्र से। उन्होंने कहा कि सरकार को अनुसूचित जाति और जनजाति में क्रीमी लेयर की पहचान के लिए नीति बनानी चाहिए, जिससे उन्हें आरक्षण के दायरे से हटाया जा सके। न्यायाधीश गवई ने यह भी पूछा कि क्या एक बड़े अधिकारी की संतान को पंचायत या जिला परिषद के विद्यालय में पढ़ रहे बच्चे के समकक्ष रखा जा सकता है।

जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

अगर गीता भारत की आत्मा है, तो जाति इसका अभिशाप है। यह व्यवस्था सहस्राब्दियों पहले पेशेवर पहचान के रूप में शुरू हुई थी, जो कालांतर में भ्रष्ट होकर चुनाव जीतने का एक पैंतरा बन गई। जातिगत आरक्षण की शुरुआत लगभग 125 साल पहले हुई थी। अनुसूचित जातियों और जनजातियों की दुर्दशा को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने कार्यपालिका और विधायिका में प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की थी, जो एक अस्थायी प्रावधान था और उसकी अवधि दस वर्ष थी। लेकिन भारतीय राजनीति को यथास्थिति पसंद है और इसे बदलाव से परहेज है।

आरक्षण का उद्देश्य और वर्तमान स्थिति

आरक्षण का उद्देश्य स्वतंत्रता के बाद की पहली वंचित पीढ़ी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना था। लेकिन वह अब तीसरी पीढ़ी का एक विशेषाधिकार बन गया है। आरक्षण का आशय समानता लाने का एक माध्यम बनना था, लेकिन अब यह सामाजिक अभिजन के अल्पाधिकार और एकाधिकार का युग्म बन गया है। सत्ता पर अपने हिस्से के नियंत्रण से दलित और पिछड़े शाहों ने एक विशिष्ट सुरक्षा घेरा बना लिया है, जिसमें निचले पायदान पर खड़े लोगों का प्रवेश वर्जित है।

न्यायालय की टिप्पणी और क्रीमी लेयर की पहचान

न्यायाधीश गवई ने रेखांकित किया है कि विषमता और सामाजिक भेदभाव, जो ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत अधिक व्याप्त हैं, शहरी क्षेत्रों की ओर आते-आते कम होने लगते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि अच्छे संस्थानों के छात्र और पिछड़े और दूर-दराज के क्षेत्रों में पढ़ रहे छात्र को एक ही श्रेणी में रखना संविधान के समता के सिद्धांत को भुला देना है। न्यायाधीश पंकज मित्तल ने कहा है कि आरक्षण को पहली पीढ़ी या एक पीढ़ी तक सीमित रखा जाना चाहिए और अगर एक पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ उठाकर उच्च हैसियत पा ली है, तो तार्किक रूप से अगली पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

जातिगत आरक्षण में सुधार की दिशा

सर्वोच्च न्यायालय ने चुनिंदा जातियों के आरक्षण के लाभ में बदलाव कर इसे समावेशी बना दिया है और अब आरक्षण के दायरे में ऐसी उप-जातियां आ सकेंगी, जो पीछे रह गई हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए वे लोग योग्य नहीं हैं, जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय आठ लाख रुपये से अधिक है। इसमें विसंगति यह है कि कृषि आय को कुल आय में नहीं जोड़ा जाता है, जिससे जमीन वाले पिछड़े वर्ग के परिवार आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं।

राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव

राजनेता न्यायिक सलाह को नहीं सुनेंगे, क्योंकि आरक्षण का श्रेणीकरण विधायिका के तहत है। इसीलिए ऐसी संभावना बहुत ही कम है कि नेता और अफसर न्यायपूर्ण स्थिति के लिए प्रयासरत होंगे। ग्रामीण भारत अभी भी अंधेरे में है, जहां तमाम अपराध होते रहते हैं। बीते तीन दशकों में राजनीति, नौकरशाही और कारोबार वंशानुगत संस्थान बन गए हैं। जातिगत आरक्षण का दुरुपयोग जाति नेताओं ने भी खूब किया है। निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या पर सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि हर चौथे सदस्य ने अपनी सीट अपने माता-पिता से पाई है।

वर्तमान परिदृश्य और भविष्य की दिशा

हाल में गरीब पृष्ठभूमि से आए कुछ युवाओं ने जगह बनाई है, लेकिन अच्छी शिक्षा और कौशल विकास तक वंचित वर्गों के अधिकतर लोगों की पहुंच नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह वरिष्ठ सरकारी नौकरियों को एक परिवार के एक सदस्य तक सीमित करना चाहते थे, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो। उनका मानना था कि चयन व्यवस्था प्रभावशाली के पक्ष में है। उनके अनुसार, सेवाओं में वंशगत एकाधिकार जारी नहीं रहना चाहिए। वे मंडल कमीशन रिपोर्ट को परे रखने के लिए भी राजी थे, अगर सभी दल ‘एक परिवार, एक पद’ सिद्धांत पर सहमत होते।

निष्कर्ष

जाति भारतीय समाज का एक अभिशाप है, जो समाज में असमानता और भेदभाव को बढ़ावा देता है। सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, लेकिन इसे लागू करने और सामाजिक न्याय को साकार करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और समाज के विभिन्न वर्गों के सहयोग की आवश्यकता है। अगर जातिगत आरक्षण का दुरुपयोग रोका जा सके और सही मायने में जरूरतमंद लोगों तक इसका लाभ पहुंच सके, तो भारतीय समाज में समता और न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हो सकती है।

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